ये तथ्य कि भारत सिंधु घाटी सभ्यता के युग से सभ्यता के उद्गम स्थल के रूप में फला-फूला है और इसने कई महान साम्राज्यों के उदय को देखा है, इसकी एक बड़ी वजह यहां का समृद्ध और विविध जल निकाय (वॉटर बॉडी) हो सकता है. कई मौजूदा शहर नदियों के किनारे बसे हैं (जैसे कि कोलकाता, इलाहाबाद, पुणे, अहमदाबाद, पटना) जबकि कई शहर समुद्री तट के किनारे विकसित हुए हैं (जैसे कि मुंबई, चेन्नई, कोच्चि). नदी, तालाब और दूसरे जल निकाय भारतीय उपमहाद्वीप में लोगों की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का भी एक अभिन्न हिस्सा हैं. लेकिन इसके बावजूद भारत में वॉटर बॉडीज़ की स्थिति और लोगों के साथ उनका कामकाजी संबंध (स्वच्छ पानी की उपलब्धता, सतत जल उपयोग) बेहत असंतोषजनक बना हुआ है जो कि प्रासंगिक नीतिगत रिपोर्ट और मीडिया कवरेज से पता चलता है.
जून 2018 में प्रकाशित नीति आयोग के ‘एक सम्मिलित जल प्रबंधन इंडेक्स’ में कहा गया है कि भारत में 60 करोड़ से ज़्यादा लोग जल संकट का सामना कर रहे हैं. 2019 में चेन्नई के जल संकट ने उजागर किया कि भारतीय शहर इस्तेमाल के योग्य पानी की कमी और खराब जल संसाधन प्रबंधन के लिए किस तरह से असुरक्षित हैं.
पानी की खराब क्वालिटी जल निकायों के करीब रह रहे बेहद कम आमदनी वाले समुदायों के लिए स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता घटाती है. जून 2018 में प्रकाशित नीति आयोग के ‘एक सम्मिलित जल प्रबंधन इंडेक्स’ में कहा गया है कि भारत में 60 करोड़ से ज़्यादा लोग जल संकट का सामना कर रहे हैं. 2019 में चेन्नई के जल संकट ने उजागर किया कि भारतीय शहर इस्तेमाल के योग्य पानी की कमी और खराब जल संसाधन प्रबंधन के लिए किस तरह से असुरक्षित हैं. इसी तरह जुलाई 2005 में मुंबई की भारी बारिश का विनाशकारी प्रभाव, जिसमें लगभग 1,000 लोगों की जान चली गई थी, वास्तव में शहर के बीच से होकर गुज़रने वाली मीठी नदी के खराब रख-रखाव का नतीजा था. इस परिस्थिति को देखते हुए भारत को शहरों में वॉटर बॉडीज़ और वेटलैंड (दलदली भूमि) के मैनेजमेंट पर ध्यान बढ़ाना चाहिए ताकि जलवायु से जुड़े जोखिमों को कम किया जा सके और सतत विकास लक्ष्यों (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल) के तहत शहरों को ‘समावेशी, सुरक्षित, लचीला और सतत’ बनाने के दायित्वों को पूरा किया जा सके.
भारत के शहरों में दलदली भूमि- अहम लेकिन संकट में
भारत का वेटलैंड नियम 2017 झीलों/तालाबों, कृत्रिम झीलों, नदी के क्षेत्र की दलदली भूमि, पोखरा, खाड़ी और मैंग्रोव समेत दलदली जमीन या पानी के वेटलैंड क्षेत्रों को परिभाषित करता है. साथ ही वन्य जीवों के आवास, ग्राउंड वॉटर रिचार्ज, कार्बन स्टोरेज और वॉटर रेगुलेशन के लिए महत्वपूर्ण पारिस्थितिक (इकोलॉजिकल) काम-काज करता है. बाढ़ नियंत्रण, मछली उत्पादन और खराब पानी के ट्रीटमेंट (जैसे कि सीवेज) के माध्यम से इनके पर्यावरण से जुड़े और आर्थिक रूप से ठोस लाभ हैं. कई भारतीय शहर दलदली ज़मीन से संपन्न हैं जैसे कि कोलकाता (ईस्ट कोलकाता वेटलैंड), मुंबई (मैंग्रोव), चेन्नई (अडयार नदी का क्षेत्र) और गुवाहाटी (दीपोर बील लेक).
गुवाहाटी की दीपोर बील झील बाढ़ की आशंका वाले शहर में प्राकृतिक रूप से अत्यधिक पानी को बाहर निकालने (स्टॉर्मवॉटर ड्रेन) का काम करती है. दीपोर बील झील गुवाहाटी शहर और उसके आस-पास के जंगलों, नदियों एवं पहाड़ी इकोसिस्टम के बीच महत्वपूर्ण संबंध मुहैया कराने के अलावा मछली पकड़ने और पारंपरिक खेती की पद्धतियों पर निर्भर स्थानीय समुदायों के लिए आजीविका का एक अहम स्रोत है. इस झील में प्रवासी पक्षी भी आते हैं और जलीय वनस्पति की उम्मीद में आस-पास के जंगलों से एशियाई जंगली हाथी और जंगल की दूसरी प्रजातियां भी आती हैं. इस तरह दीपोर बील झील एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन गई है, विशेष रूप से सर्दियों के दौरान. ईस्ट कोलकाता वेटलैंड (EKW) दुनिया का सबसे बड़ा प्राकृतिक संसाधन वाला रिसाइक्लिंग इकोसिस्टम है जो हर रोज़ 600 मिलियन लीटर सीवेज और खराब पानी को ट्रीट करता है. EKW की ताज़ा फसल कोलकाता और उसके उपनगरों के बाज़ारों के लिए एक महत्वपूर्ण फूड चेन सप्लाई होने के साथ-साथ बड़ी संख्या में किसानों और मछुआरों को आजीविका भी मुहैया कराती है. समाज के ज़्यादातर वर्गों के लिए EKW की फसल के दाम किफायती हैं क्योंकि खराब पानी से प्राकृतिक रूप से पोषक तत्व मिलते हैं और ये वेटलैंड बाज़ार के नज़दीक है. कोलकाता और गुवाहाटी को महत्वपूर्ण पारिस्थितिक सेवा (इकोलॉजिकल सर्विसेज़) मुहैया कराने के बावजूद तेज़ और अनियोजित शहरीकरण ने EKW और दीपोर बील के पर्यावरण संतुलन के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है. इन दोनों इकोसिस्टम के आस-पास कंस्ट्रक्शन की वजह से मॉनसून के दौरान दोनों ही शहरों में बाढ़ के ख़तरे में बढ़ोतरी हुई है.
गणना में उन शहरी दलदली भूमि का भी हिसाब नहीं रखा गया है जो पिछले कुछ दशकों के दौरान इंसानी गतिविधियों की वजह से गायब हो गई हैं. जहां मीडिया ने नियमित रूप से इस तरह की गलतियों को उजागर किया है, वहीं मुकदमों के ज़रिए भी इन्हें चुनौती दी गई है.
भारत के अलग-अलग शहरों में वेटलैंड की उपेक्षा ऐसा ही परिदृश्य पेश करती है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान हैदराबाद, चेन्नई और बेंगलुरु में बाढ़ की घटनाओं में बढ़ोतरी पर सरसरी नज़र डालें तो बेतरतीब रियल एस्टेट डेवलपमेंट के रूप में वेटलैंड पर अतिक्रमण का असर दिखाई देता है. बिना ट्रीट किए हुए सीवेज का निस्तारण (डिस्पोज़ल) वेटलैंड के प्राकृतिक काम-काज के लिए ख़तरा पैदा करने वाला एक और कारण है. अधिकतर शहरों में शहरी नियोजन और विस्तार में ज़मीन और जल निकायों के ऐतिहासिक उपयोग की उपेक्षा मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं (एक्सट्रीम क्लाइमेट इवेंट) जैसे कि बहुत ज़्यादा बारिश और गर्मियों में बहुत अधिक तापमान में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार है. ध्यान देने की बात है कि शहरों में जलवायु से जुड़ा जोखिम असमान रूप से फैला हुआ है जिसकी वजह से कमज़ोर वर्ग के लोगों की असुरक्षा बढ़ जाती है. लेकिन हाल के वर्षों में तो चेन्नई के रिहायशी परिसर, जहां मिडिल और अपर मिडिल क्लास के लोग रहते हैं, भी बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्रों में अंधाधुंध कंस्ट्रक्शन का खामियाजा भुगत रहे हैं.
शहरी प्लानिंग में वेटलैंड को शामिल करना
दलदली ज़मीन के फायदों को दुनिया भर में स्वीकार किया गया है लेकिन इसके बावजूद भारत के शहरों में इन्हें लेकर कोई दिलचस्पी नहीं है. वैसे तो वेटलैंड कई केंद्रीय और राज्य स्तर की एजेंसियों की ज़िम्मेदारी के दायरे में हैं लेकिन अधिकार क्षेत्र स्पष्ट नहीं होने और एक-दूसरे में दखल की वजह से शहरी वेटलैंड को काफ़ी नुकसान पहुंचा है (उदाहरण के लिए- दिल्ली में वेटलैंड दिल्ली जल बोर्ड, दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड, लोक निर्माण विभाग, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आते हैं). दस्तावेज़ों में भी वन विभाग और दिल्ली जल बोर्ड को छोड़कर किसी भी अन्य विभाग के पास दलदली भूमि के प्रबंधन की विशेषज्ञता को नहीं माना गया है.
हाल के वर्षों में भारत सरकार ने वेटलैंड से जुड़े मुद्दों का हल करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाए हैं. 2016 में वेटलैंड (संरक्षण एवं प्रबंधन) नियम 2010 को पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम 1986 के तहत लाया गया है. जनवरी 2021 में राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने शहरों में दलदली ज़मीन के प्रबंधन के लिए स्थानीय हितधारकों (स्टेकहोल्डर) पर केंद्रित एक टूल किट का निर्माण किया. जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग ने 2018-19 में जल निकायों की गणना (सेंसस) की शुरुआत की जिसे पूरे भारत के जल निकायों की गणना रिपोर्ट के तौर पर प्रकाशित किया गया. जिन 24,24,540 वॉटर बॉडी की गिनती की गई उनमें से 97.1 प्रतिशत (23,55,055) ग्रामीण क्षेत्रों में हैं जबकि 2.9 प्रतिशत (69,485) शहरी क्षेत्रों में हैं. वैसे ये सेंसस बेहद ज़रूरी कदम था लेकिन विशेषज्ञों ने इसके कार्य क्षेत्र और तौर-तरीके की वजह से इसकी आलोचना की. नियम के तहत जल निकायों की सूची विशाल और खुली है. इससे जहां वेटलैंड की श्रेणी के तहत जल निकायों के अधिक स्वरूपों को शामिल करने की गुंजाइश बची हुई है वहीं हैरान करने वाली बात ये है कि सेंसस में संरक्षण की आवश्यकता वाले जल निकायों, विशेष रूप से शहरों और उसके आसपास, में अतिक्रमण के बारे में नहीं बताया गया है.
मिसाल के तौर पर, गणना में महत्वपूर्ण और पारिस्थितिकी के प्रति संवेदनशील (इको-सेंसिटिव) शहरी वेटलैंड जैसे कि ईस्ट कोलकाता वेटलैंड और दीपोर बील में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण के बारे में नहीं बताया गया है. ध्यान देने की बात है कि अंतर सरकारी संधि रामसर समझौता में इन दोनों वेटलैंड को संरक्षण और सुरक्षा की आवश्यकता वाले महत्वपूर्ण वेटलैंड के तौर पर स्वीकार किया गया है. गणना में उन शहरी दलदली भूमि का भी हिसाब नहीं रखा गया है जो पिछले कुछ दशकों के दौरान इंसानी गतिविधियों की वजह से गायब हो गई हैं. जहां मीडिया ने नियमित रूप से इस तरह की गलतियों को उजागर किया है, वहीं मुकदमों के ज़रिए भी इन्हें चुनौती दी गई है. भारत सरकार को इस तरह की खामियों को तुरंत ठीक करना चाहिए ताकि भारत के वेटलैंड के समग्र प्रबंधन को आसान बनाया जा सके.
शहरी स्तर पर वेटलैंड मैनेजमेंट का ज़िम्मा स्थानीय नगरपालिकाओं को सौंप दिया जाना चाहिए ताकि आम लोगों का दायित्व बढ़ाया जा सके. जागरूकता और भागीदारी के कार्यक्रमों के माध्यम से स्थानीय नागरिकों और छात्रों को वेटलैंड मैनेजमेंट में शामिल करने से लोगों के बीच वेटलैंड को संरक्षित रखने और उनकी सुरक्षा के प्रति एक ज़िम्मेदारी की भावना और उद्देश्य पैदा किया जा सकेगा. शहरी दलदली भूमि को मछली पालन के लिए व्यावहारिक बनाने से कोली (मुंबई में) और नामशूद्र (कोलकाता और गुवाहाटी में) जैसे मछली पकड़ने वाले समुदायों के लिए रोज़गार के नये अवसरों का निर्माण होगा.
भारत के शहरों में दलदली ज़मीन (वेटलैंड) के उचित प्रबंधन और व्यवस्था को शुरू करने की ज़रूरत है ताकि शहरी पारिस्थितिक संतुलन को सुरक्षित किया जा सके और अलग-अलग तरीकों के रोज़गार के निर्माण के माध्यम से शहरों की आर्थिक उपयोगिता में बढ़ोतरी की जा सके. भारत में शहरी दलदली भूमि के प्रबंधन के कामयाब सतत मॉडल से दुनिया भर में इसी तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे घनी आबादी वाले शहर सीख सकेंगे.
स्नेहाशीष मित्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के अर्बन स्टडीज़ (शहरी अध्ययन) में फेलो हैं.
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