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जनरेटिव एआई ने कल्पनाओं को हक़ीक़त में बदलना शुरू कर दिया है — लिखना, बोलना, बनाना, सब कुछ अब इसकी पहुंच में है लेकिन जहां प्रयोगशालाओं में यह चमक बिखेरता है, वहीं असली कामकाज में इसका जादू फीका पड़ जाता है.
तकनीक आगे है मगर संगठन पीछे — बीच में है समझ का फासला. यही “लर्निंग गैप” आज तय कर रहा है कि एआई बदलाव लाएगा या बस एक प्रयोग बनकर रह जाएगा.
जनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (जेन एआई) एक ऐसी तकनीक है जो इंसानों की सोच और रचनात्मकता को नई उड़ान दे रही है. यह अपने आप लिख सकती है, चित्र बना सकती है, संगीत रच सकती है और यहाँ तक कि बातचीत भी कर सकती है. जेन एआई हमारे रोज़मर्रा के काम आसान बना रही है और एक समझदार डिजिटल साथी की तरह साथ दे रही है. इसकी लोकप्रियता इतनी तेजी से बढ़ रही है कि 2025 तक इसका बाजार करीब 59 अरब डॉलर का हो जाएगा और 2031 तक यह बढ़कर लगभग 400 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है.
एक हालिया अध्ययन बताता है कि जनरेटिव AI में निवेश करने वाली लगभग 95 प्रतिशत कंपनियां को अपनी पायलट परियोजनाओं से कोई खास फायदा नहीं मिला. यह सुनकर हैरानी होती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कंपनियां पीछे हट रही हैं — वे तो और ज़्यादा जोश के साथ नए प्रयोग, जांच और निवेश कर रही हैं.
असल दिक्कत तकनीक में नहीं बल्कि संगठनों के तरीके और सोच में है. कई बार AI के प्रयोग टिकाऊ या काम के साबित नहीं हो पाते इसलिए उत्साह तो बहुत है पर ज़्यादातर कंपनियां अभी तक जनरेटिव AI से वैसा फायदा नहीं उठा पाई हैं, जैसा वे चाहती थीं.
शोधकर्ताओं का कहना है कि इसकी असली वजह है लर्निंग गैप यानी समझ और सीखने के स्तर का फर्क. अक्सर लोग मानते हैं कि समस्या कुशल लोगों की कमी या कमजोर बुनियादी ढांचे की होती है, लेकिन असल में मामला इससे कहीं गहरा है. यह कमी न तो टैलेंट की है, न ही टेक्नोलॉजी की — बल्कि यह इस बात की है कि संगठन अपने ज्ञान और प्रयोगों को सही नतीजों में कैसे बदलें. टीमें भले ही AI और उसकी तकनीक को अच्छी तरह समझती हों लेकिन जब बात आती है उसे अपने असली काम में लागू करने की, तो वे वहीं अटक जाती हैं.
सैद्धांतिक रूप से, जनरेटिव AI इंसानों की रचनात्मकता को बढ़ाने में मदद करता है, दोहराव वाले कामों को खुद करता है और कर्मचारियों को रचनात्मक कामों पर ध्यान लगाने के लिए प्रेरित करता है.
कार्यस्थल पर इस लर्निंग गैप का असर साफ़-साफ़ देखा जा जाता है. सैद्धांतिक रूप से, जनरेटिव AI इंसानों की रचनात्मकता को बढ़ाने में मदद करता है, दोहराव वाले कामों को खुद करता है और कर्मचारियों को रचनात्मक कामों पर ध्यान लगाने के लिए प्रेरित करता है. मगर व्यवहारिक तौर पर AI से मिलने वाले कमज़ोर नतीजों को ठीक करने, गैर-ज़रूरी प्रक्रियाओं में AI के फिर से शामिल होने या शुरुआती उत्साह के फीके पड़ने के बाद इसका पायलट प्रोजेक्ट आमतौर पर बंद ही जाता है. ‘सुपरएजेंट’ (एआई का इस्तेमाल करने वाले कर्मचारियों के लिए प्रबंधन के कुछ विद्वान इसी शब्द का इस्तेमाल करते हैं) को मज़बूत बनाने के बजाय कई संगठन ‘वर्कस्लोप’ (सामान्य व गैर-ज़रूरी सामग्रियों का प्रवाह, जो संगठनों पर दबाव कम करने के बजाय उनमें इंसानी दख़ल की ज़रूरत बढ़ाता है) बनते देखने को मजबूर होते हैं. संभावना और हक़ीक़त के बीच का यह अंतर बताता है कि परिवर्तनकारी तकनीक अकेले बदलाव नहीं ला सकती.
लर्निंग गैप का मतलब है — जब कोई संगठन नई चीज़ें आज़माता तो है लेकिन उन्हें अपने असली काम में ठीक से उतार नहीं पाता. यह सिर्फ़ तकनीक की नहीं बल्कि संगठन की सोच, काम करने के तरीके और नेतृत्व की बात भी है.
अक्सर कंपनियां जब पायलट प्रोजेक्ट या प्रोटोटाइप पर काम करती हैं तो वे मुख्य काम से अलग दिशा में बढ़ने लगती हैं. मुश्किल यह होती है कि उनके असर को मापने के लिए कोई साफ़ पैमाना नहीं होता. ऊपर से, अगर कर्मचारियों को सही प्रशिक्षण न मिले तो उन प्रयोगों से मिली सीख आगे के काम में काम नहीं आती.
नतीजा यह होता है कि कंपनियां बार-बार नए प्रयोग तो करती हैं लेकिन उनसे असली फायदा नहीं मिल पाता और धीरे-धीरे उन प्रयोगों की अहमियत घटने लगती है.
लर्निंग गैप तब और बढ़ जाता है जब संगठन उचित तरीके से अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित नहीं करते. दरअसल, AI प्रशिक्षण कार्यक्रमों में मुख्य रूप से कर्मचारियों को तकनीकी रूप से मजबूत बनाने पर ज़ोर दिया जाता है, यानी एल्गोरिदम को समझना, उपकरणों में महारत हासिल करना या उसकी इंजीनियरिंग समझना मगर इन कौशलों को विशिष्ट व्यावसायिक समस्याओं या संगठनात्मक प्रक्रियाओं से शायद ही जोड़ा जाता है. कर्मचारी यह समझ सकते हैं कि LLM कैसे सामग्री तैयार करता है लेकिन व्यवहार में AI का प्रभावी ढंग से कैसे उपयोग किया जाए, इसको लेकर उनमें ज़रूरी कौशल का अभाव रहता है. समस्या यह भी है कि प्रशिक्षण यदि अच्छी तरह से तैयार किया भी जाए तो असल कामकाज में प्रशिक्षण से प्राप्त सबक के इस्तेमाल के अवसर सीमित होते हैं. प्रयोग के लिए सुरक्षित स्थानों को मिलना भी मुश्किल होता है और चूंकि कामकाज में विफल होने से काफ़ी कुछ दांव पर लगा होता है इसलिए आमतौर पर सार्थक प्रयोगों को प्रोत्साहन नहीं मिल पाता. इस कारण, एक ऐसा कार्यबल बनता है जो सैद्धांतिक रूप से AI की क्षमताओं को जानता तो है लेकिन उसका इस्तेमाल करके उससे बेहतर लाभ उठा पाने में सक्षम नहीं होता.
प्रशिक्षण के अलावा, ढांचागत और संगठनात्मक बाधाएं भी लर्निंग गैप को बढ़ाती हैं. इसकी सबसे महत्वपूर्ण वज़ह है, प्रभावी प्रतिक्रिया तंत्रों का अभाव. जनरेटिव AI उपकरण तब सबसे अधिक मूल्यवान साबित होते हैं, जब वे इंसान द्वारा दिए गए इनपुट, उसकी गलतियों और बदलते संदर्भों के अनुसार तैयार किए जाते हैं. निगरानी प्रणालियों व ढांचागत प्रतिक्रिया तंत्रों के बिना, AI का इस्तेमाल स्थिर, कमज़ोर और संदर्भ-रहित होता है. जो संगठन इसके प्रदर्शन, गलती या उपयोगकर्ता के सुधारों पर नज़र नहीं रखते, वे सबक सीखने का चक्र बना पाने में विफल रहते हैं जिससे मशीनें और मनुष्य, दोनों बेकाम हो जाते हैं.
संगठन के नेतृत्व का AI के प्रति प्रतिकूल नज़रिया भी इस समस्या को बढ़ाता है. कार्यस्थल पर AI अपनाने को लेकर मैकिन्से का एक शोध विरोधाभासी तस्वीर दिखाता है. इस शोध के मुताबिक, ऐसे मामलों में, जहां कर्मचारी अपने नेतृत्व की अपेक्षा ज़्यादा बेहतर तरीके से AI का उपयोग करने में सक्षम होते हैं, वहां कभी-कभी नेतृत्व सीखने की प्रक्रिया प्रभावित कर सकता है.
तकनीकी और व्यावसायिक टीमों के बीच की खाई भी लर्निंग गैप बढ़ाने का काम करती है. डेटा विज्ञान विभाग, जो आमतौर पर AI को लागू करवाने के लिए ज़िम्मेदार होता है, व्यावसायिक इकाइयों, अनुपालन टीमों और परिचालन कर्मचारियों से अलग होकर काम करता है. यह अंतर ज्ञान को साझा करने से रोकता है. इतना ही नहीं, यह कर्मचारियों में संदर्भ के अनुसार, समझ बनाने भी नहीं देता और मिल-जुलकर समस्या-समाधान की व्यवस्था को कमज़ोर करता है. इसलिए, विभागों के बीच तालमेल ज़रूरी है. मौजूदा व्यवस्था में AI को लागू नहीं किया जा सकता है. इसे प्रासंगिक, उपयोगी और प्रभावशाली बनाने के लिए संगठन के सभी हितधारकों के साथ मिलकर इसे तैयार करना होगा.
लर्निंग गैप को ख़त्म करने के लिए तकनीक के बजाय संगठन पर अधिक ध्यान लगाना होगा. पायलट परियोजनाओं में वास्तविक समस्याओं को शामिल करना चाहिए और कर्मचारियों की ज़रूरतों के हिसाब से उसका लक्ष्य बनाना चाहिए. संदर्भ के अनुरूप इसका इस्तेमाल करने से संगठनों को इसमें ज़रूरी सुधार का मौका मिलता है जिससे कर्मचारियों व AI मशीनें, दोनों समय के साथ बेहतर होते जाते हैं. छोटे पैमाने पर मिलने वाली सफलता आत्मविश्वास बढ़ाती है, दोहराव के लिए डेटा पैदा करती है और इसे बड़े पैमाने पर अपनाने का आधार बनाती है.
AI के संचालन के अनुसार ढांचागत प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. कर्मचारियों को ऐसी परियोजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए, जहां वे प्रयोग कर सकें, गलतियां कर सकें और AI के मिलने वाले नतीजों को अपने हिसाब से परख सकें.
इसी तरह AI के संचालन के अनुसार ढांचागत प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. कर्मचारियों को ऐसी परियोजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए, जहां वे प्रयोग कर सकें, गलतियां कर सकें और AI के मिलने वाले नतीजों को अपने हिसाब से परख सकें. अनुभव पाते हुए किया गया यह प्रशिक्षण किसी सैद्धांतिक प्रशिक्षण से कहीं अधिक प्रभावी होता है, जिससे टीमों को जनरेटिव AI की क्षमताओं और सीमाओं, दोनों के बारे में पता चलता है. इसमें समय के साथ संगठन सामूहिक बुद्धिमत्ता विकसित करते हैं, यानी कर्मचारी AI से सीखते हैं, AI कर्मचारियों से सीखता है और दोनों साथ-साथ विकसित होते हैं.
इस प्रक्रिया में नेतृत्व और शासन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. अधिकारियों को स्पष्ट रणनीतिक नज़रिया बनाना होगा, सफलता के मानदंड तय करने होंगे और AI अपनाने के प्रति कर्मचारियों को प्रोत्साहित करना होगा. व्यावसायिक विशेषज्ञता, तकनीकी कौशल और संचालन संबंधी सोच को अपनाते हुए यदि ऐसा कार्यबल बनाया जाता है, जिसमें सभी विभागों में तालमेल हो, तो AI का सोच-समझकर और व्यापक इस्तेमाल हो पाता है. निगरानी में पारदर्शिता और बेहतर रिपोर्टिंग तंत्र से संगठन अपने कमज़ोर प्रदर्शन की वज़ह जान पाते हैं और उसको सुधारने में सफल होते हैं, जिससे उनकी गति बनी रहती है और AI तंत्रों में उनका विश्वास बना रहता है.
इन सबके साथ, सीखने की संस्कृति को विकसित करना भी ज़रूरी है. मनोवैज्ञानिक रूप से सुरक्षा मिलने और बिना किसी दंडात्मक कार्रवाई के डर के AI के इस्तेमाल की आज़ादी मिलने से कर्मचारियों को अपनी क्षमताओं को बढ़ाने, अपनी समझ साझा करने और सामूहिक सुधार करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है. भले ही, इसके तात्कालिक परिणाम न मिलें, लेकिन चिंतन और बार-बार के प्रयासों से सीखने से असफलता भी सफलता की सीढ़ी बन जाती है. इस प्रकार, AI का इस्तेमाल केवल एक तकनीकी सुधार नहीं रह जाता, बल्कि संगठनात्मक बदलाव का माध्यम बन जाता है, जहां संस्कृति, शासन और प्रौद्योगिकी लर्निंग गैप, यानी समझ की खाई को पाटने के लिए मिलकर काम करते हैं.
इन सबको AI पर काम कर रहे दो काल्पनिक संगठनों के उदाहरण से समझें. पहली कहानी एक वित्तीय सेवा देने वाली कंपनी की है. यह कंपनी अपनी लंबी-लंबी रिपोर्टों का सारांश तैयार करने के लिए एक जनरेटिव AI टूल का परीक्षण शुरू करती है. शुरुआत में यह सिर्फ एक प्रयोग था, लेकिन कंपनी ने इसे बहुत सोच-समझकर आगे बढ़ाया. AI टीम कानूनी विशेषज्ञों के साथ मिलकर काम करती थी ताकि टूल किसी भी संवेदनशील जानकारी में गलती न करे. जब भी AI कोई त्रुटि करता, टीम तुरंत संकेतों में सुधार करती और तय मानकों के अनुसार प्रदर्शन को मापती. धीरे-धीरे टूल सीखता गया, बेहतर होता गया और कर्मचारियों का काम आसान बनाने लगा. समय के साथ यह प्रोजेक्ट सिर्फ एक प्रयोग नहीं रहा, बल्कि कंपनी के कामकाज का अहम हिस्सा बन गया. प्रतिक्रिया, सुधार और एकीकरण के लगातार चक्रों ने इस पहल को एक टिकाऊ और मूल्यवान प्रणाली में बदल दिया.
दूसरी कहानी एक मार्केटिंग कंपनी की है जिसने भी AI के साथ प्रयोग किया. उसने अपने विज्ञापन अभियानों के लिए जनरेटिव AI से सामग्री तैयार करने की कोशिश की लेकिन इस कंपनी ने हर अभियान को अलग-अलग रखा—कहीं कोई साझा सीख नहीं, न नतीजों का समग्र विश्लेषण. जो टीमें प्रयोग कर रही थीं, वे अपने अनुभव दूसरों से साझा नहीं करती थीं. नतीजा यह हुआ कि महीनों की मेहनत के बाद भी कोई ठोस सुधार नहीं दिखा. परिणाम कमजोर निकले, AI पर भरोसा कम हुआ और यह पूरी पहल धीरे-धीरे ठंडे बस्ते में चली गई.
इन दोनों कहानियों से एक साफ सबक मिलता है — सफलता सिर्फ तकनीक पर निर्भर नहीं करती, बल्कि इस पर निर्भर करती है कि कोई संगठन सीखने, सुधारने और मिलकर आगे बढ़ने की संस्कृति अपनाता है या नहीं.
जनरेटिव AI से जुड़ा “लर्निंग गैप” यह दिखाता है कि केवल तकनीक अपनाने से संगठन नहीं बदलते. अगर AI को कामकाज में शामिल करने के साथ सही ढांचा, सहयोगी संस्कृति और अनुकूल नेतृत्व न हो, तो पायलट प्रोजेक्ट सिर्फ़ एक प्रयोग बनकर रह जाते हैं, न कि उत्पादकता का साधन. इस अंतर को मिटाने के लिए ज़रूरी है कि AI को एक सामाजिक-तकनीकी प्रणाली के रूप में देखा जाए, जहाँ मनुष्य, मशीन और संगठनात्मक ढांचे साथ-साथ विकसित हों. कंपनियों को केवल AI मशीनों में निवेश करने के बजाय ऐसी संस्कृति और प्रक्रियाएँ बनानी चाहिए जो कर्मचारियों को लगातार सीखने और आगे बढ़ने में मदद करें.
जनरेटिव AI से जुड़ा “लर्निंग गैप” यह दिखाता है कि केवल तकनीक अपनाने से संगठन नहीं बदलते. अगर AI को कामकाज में शामिल करने के साथ सही ढांचा, सहयोगी संस्कृति और अनुकूल नेतृत्व न हो, तो पायलट प्रोजेक्ट सिर्फ़ एक प्रयोग बनकर रह जाते हैं, न कि उत्पादकता का साधन.
कर्मचारियों को सिर्फ़ तकनीकी कौशल नहीं, बल्कि समस्या समाधान और टीमवर्क जैसी योग्यताएँ भी विकसित करनी चाहिए. वहीं, नेतृत्व को दूरदर्शी, धैर्यवान और ऐसा वातावरण बनाने वाला होना चाहिए, जिसमें AI के प्रयोग से लेकर उसके असरदार उपयोग तक की यात्रा सफल हो सके. जनरेटिव AI में उद्योगों को नया रूप देने की पूरी क्षमता है, लेकिन यह तभी संभव है जब संगठन लर्निंग गैप को दूर कर पायलट परियोजनाओं को स्थायी और मूल्यवान तंत्र में बदल दें. AI का असली भविष्य नए टूल्स में नहीं, बल्कि सीखने और बदलाव की संस्कृति में छिपा है.
(तनुषा त्यागी ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के सेंटर फ़ॉर डिजिटल सोसाइटीज़ में शोध सहायक हैं)
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Tanusha Tyagi is a research assistant with the Centre for Digital Societies at ORF. Her research focuses on issues of emerging technologies, data protection and ...
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