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शताब्दी की शुरुआत में सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म के विकास की सुविधा का लाभ उठाकर महिलाओं ने अपनी ख़ुद की आवाज़ में ISIS के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा बोलना शुरू किया.
Image Source: Getty
ये लेख रायसीना फाइल्स 2025 सीरीज़ का हिस्सा है.
आतंकी समूहों को अक्सर काफी हद तक मर्दाना नैरेटिव से चित्रित किया जाता है. ‘आतंकवादी’ के बारे में सोचिए और जो चेहरा हमारे मन में अक्सर आता है और लोकप्रिय चित्रण में भी दिखता है वो है सैनिकों की तरह पोशाक में एक एंग्री यंग मैन. लेकिन इस शताब्दी की शुरुआत में ISIS (इस्लामिक स्टेट इन इराक़ एंड सीरिया) के उदय और देश बनाने पर इसके ज़ोर ने महिलाओं और लड़कियों पर अधिक ध्यान दिया ताकि उसके नैरेटिव को वैध बनाया जा सके और मज़हबी देश बनाने की संगठन की कथित राजनीतिक परियोजना को आसान बनाया जा सके. ISIS में शामिल होने के लिए दुनिया भर से इसके समर्थकों के बाहर निकलने का नतीजा लगभग 20,000 “विदेशी आतंकवादी लड़ाकों” और उनके परिवारों के आने के रूप में निकला. ये 2013-2017[1] की अवधि के आसपास का एक रुढ़िवादी अनुमान[2] है. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान बताता है कि इस अवधि के दौरान आने वाले लगभग 13 प्रतिशत लोग महिलाएं थीं. अलग-अलग क्षेत्रों में इसमें कुछ अंतर था.[i]
उस इलाके पर अब ISIS का कोई नियंत्रण नहीं है जिसे वो “ख़िलाफ़त”[3] मानता था. ये इलाका अब ऐसा बन गया है जहां अलग-अलग संगठन या उसके सहयोगी आतंकवादी हमला करते हैं. इस लेख में जिन रुझानों का विश्लेषण किया गया है वो वैधता हासिल करने के लिए आतंकवादियों और हिंसक चरमपंथी संगठनों के द्वारा लैंगिक नैरेटिव और आवाज़ों के इस्तेमाल को उजागर करता है.
अल-क़ायदा के वैश्विक नैरेटिव में महिलाओं की अपेक्षाकृत अनुपस्थिति के विपरीत और अरब प्रायद्वीप में अल-क़ायदा की पहल, जिसके तहत कुछ समय के लिए महिलाओं की ऑनलाइन मैगज़ीन अल-शमीकाह का प्रकाशन किया गया, को आगे बढ़ाते हुए ISIS ने वफादार लोगों के लिए एक सच्चा समुदाय बनाने में महिलाओं के महत्व पर ज़ोर दिया.
अल-क़ायदा के वैश्विक नैरेटिव में महिलाओं की अपेक्षाकृत अनुपस्थिति के विपरीत और अरब प्रायद्वीप में अल-क़ायदा की पहल, जिसके तहत कुछ समय के लिए महिलाओं की ऑनलाइन मैगज़ीन अल-शमीकाह का प्रकाशन किया गया, को आगे बढ़ाते हुए ISIS ने वफादार लोगों के लिए एक सच्चा समुदाय बनाने में महिलाओं के महत्व पर ज़ोर दिया. उन्होंने न केवल अपने क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी को बढ़ावा दिया बल्कि महिलाओं की आवाज़ को उजागर करने के लिए एक मज़बूत दुष्प्रचार अभियान भी विकसित किया. इस तरह ISIS ने न केवल एक आतंकवादी संगठन बल्कि एक समुदाय बनाने के अपने नैरेटिव को वैध बनाने का प्रयास किया.[ii]
शताब्दी की शुरुआत में सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म के विकास की सुविधा का लाभ उठाकर महिलाओं ने अपनी ख़ुद की आवाज़ में ISIS के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा बोलना शुरू किया या कम-से-कम ऐसा करने का दावा किया ताकि किसी देश के सभी औपचारिक ताम-झाम के साथ एक नये समुदाय में दुनिया भर के वफादारों का स्वागत करने में संगठन के आधिकारिक संदेश में सहायता की जा सके और उसे बढ़ाया जा सके. साल 2014 से 2017 के आसपास ऐसे सोशल मीडिया पोस्ट, बयान, लेख और वीडियो सामने आए जिसमें यात्रा की रोचक कहानियां, “ख़िलाफ़त” में रहते हुए रोमांटिक जीवन की पुष्टि और ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों के शामिल होने की अपील थी.
एक कहानी जिसे विश्लेषकों ने अच्छी तरह से याद रखा वो अक़्सा महमूद की थी. अक़्सा स्कॉटलैंड के एक अमीर इलाके की युवा महिला थी जिसने ISIS में शामिल होने के लिए 2015 में अपने परिवार को छोड़ा और उसके बाद दूसरे युवाओं और यहां तक कि बेहद कम उम्र की लड़कियों को अपने नक्शे-कदम पर चलने के लिए प्रेरित किया. अक़्सा ने न केवल ख़ुद ये सफर तय किया बल्कि ISIS के कब्ज़े वाले इलाके में जीवन का महिमामंडन करने के लिए सोशल मीडिया का भी सहारा लिया.[iii] ऐसा लगता था कि उसकी प्रेरणा एक तरफ धार्मिक बयानबाज़ी और दूसरी तरफ भौतिकवाद पर आधारित थी क्योंकि वो स्थानीय नागरिकों से ज़ब्त घरों और सामानों को इनाम के तौर पर वहां तक जाने वालों को देने को दिखा रही थी. अपने टम्बलर ब्लॉग पर एक एंट्री में, जिसके कुछ हिस्से उसकी कम उम्र को झुठला रहे थे, उसने बताया कि कैसे ISIS के वफादार “ख़िलाफ़त की वजह से मुफ्त बिजली और पानी के साथ एक घर हासिल करेंगे और इसका कोई किराया भी नहीं देना पड़ेगा. अच्छा लगता है ना?”[iv]
महमूद ने साफ तौर पर इस प्रचलित रूढ़िवादी धारणा को चुनौती दी कि ISIS में शामिल होने वाली सभी महिलाएं ग़रीब और अशिक्षित पृष्ठभूमि की हैं और इस तरह नैरेटिव को वैधता और तात्कालिकता का आवरण प्रदान किया. उस समय सुरक्षा अध्ययन की प्रोफेसर मिया ब्लूम ने बताया, “पहले से ISIS के लड़ाकों के साथ रहने वाली महिलाओं ने कुशलता से सोशल मीडिया का इस्तेमाल सीरिया को एक आदर्श देश के रूप में दर्शाने और विदेशी महिलाओं को ख़िलाफ़त में अपनी बहनों के बीच आने में आकर्षित करने के लिए किया. ख़िलाफ़त में रहने का विचार काफी सकारात्मक और शक्तिशाली है जिसे ये महिलाएं अपने दिल के करीब रखती हैं.”[v]
पश्चिमी देशों में रहने वाली महिलाओं के द्वारा पश्चिमी देशों की निंदा ने पनाहगाह के तौर पर और “काफ़िरों” के बीच रहने की बुराई से राहत देने वाले के रूप में कथित ख़िलाफ़त के नैरेटिव को वैधता प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. धर्म बदलने वाली फिनलैंड की महिला उम ख़ालिद अल-फिनलैंडिया ने एक बार कहा, “मुसलमान के रूप में हमें काफ़िरों का त्याग करने और ख़िलाफ़त के तहत रहने की ज़रूरत है. काफ़िरों की ज़मीन पर रहना जायज़ नहीं है और वहां रहना अच्छा भी नहीं है.”[vi] 2014 में ब्रिटेन की जुड़वां बहनों ज़हरा और सलमा हलाने ने सार्वजनिक रूप से सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिए अमेरिका में 11 सितंबर के हमलों की सालगिरह मनाई. उन्होंने 2015[4] में पेरिस में शार्ली हेब्दो के दफ़्तर पर हुए हमले समेत पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ हिंसा का जश्न मनाया.[vii]
यहां तक कि ISIS के द्वारा बनाई गई ग़ुलामी की व्यवस्था और इस संगठन के द्वारा की जाने वाली यौन एवं लैंगिक हिंसा को भी महिलाओं की तरफ से सार्वजनिक समर्थन के द्वारा वैधता प्रदान की गई ताकि ISIS के द्वारा पेश की गई कानूनी और ऐतिहासिक दलीलों को मज़बूत किया जा सके. ISIS की अंग्रेज़ी भाषा की पत्रिका दबिक़ में लिखते हुए उम सुमैया अल-मुहाजिराह ने गैर-मुस्लिम महिलाओं को ग़ुलाम बनाने की प्रथा को वैधता प्रदान करने की कोशिश की और अपनी साथियों को चेतावनी दी कि वो इस परंपरा का मज़ाक न उड़ाएं या नकारे नहीं.[viii]
ISIS ने लैंगिक रूप से रूढ़िवादी धारणा का फायदा उठाया और महिलाओं के कथित बयानों को अपने देश बनाने के काम को वैधता मुहैया कराने में इस्तेमाल किया. इस संगठन और उसे सार्वजनिक रूप से सही बताने वाली महिलाओं ने स्पष्ट कर दिया कि महिलाओं की भूमिका घर और परिवार के इर्द-गिर्द केंद्रित रहेगी. साथ ही महिलाओं की ज़िंदगी के मापदंडों को आकार देने वाले धर्म और रीति-रिवाज़ों की सख्त व्याख्या को लेकर भी ISIS स्पष्ट था. इसने समर्थकों को पारंपरिक लैंगिक मानदंडों का पालन करने की पुष्टि करके उन्हें अपना घर, परिवार और नौकरी छोड़कर “ख़िलाफ़त” जाने की उसकी अपील को वैध बनाने में मदद की. उभरती तकनीकों और सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म की वजह से तेज़ी से संचार करने के उपकरणों के प्रसार का अर्थ है कि महिलाएं अब अपने निजी जीवन में सार्वजनिक रूप से अपनी बात कह सकती हैं.
30 और 40 के दशक में जर्मनी में नाज़ियों ने परिवारों और बच्चों की छवि का इस्तेमाल कथित ‘स्वर्ण युग’ की ओर वापसी के लिए किया जो स्पष्ट लैंगिक भूमिकाओं और उद्देश्यों से परिभाषित थी. ये ISIS की विचारधारा से बहुत अलग नहीं थी.
हालांकि, लैंगिक नैरेटिव के निशाने पर सिर्फ महिलाएं नहीं थीं. युद्ध लड़ने और अपने समुदाय की देखभाल करने के पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान भूमिका पर केंद्रित नैरेटिव के प्रतीक पुरुष और लड़के भी थे. ISIS जैसे संगठनों ने शर्म की धारणा और नपुंसकता के नैरेटिव का उपयोग अपने मक़सद में शामिल होने में पुरुषों और लड़कों को प्रोत्साहित करने के लिए किया. उन्हें इस नैरेटिव के ज़रिए ताना मारा गया जो विशेष संदर्भों में पुरुषों की सांस्कृतिक उम्मीदों को पूरा करने के लिए उनकी आत्मभावना या क्षमताओं को चुनौती देती थीं.[ix] युद्ध के महिमामंडन की छवियों और हिंसा को अंजाम देने में महिलाओं के हित का लाभ उठाने वाले नैरेटिव का मक़सद युवाओं को इसमें शामिल करना था. ‘सेक्स स्लेव’ की उपलब्धता को भी एक प्रोत्साहन के रूप में उजागर किया गया. पुरुषों के नारों और कल्पनाओं का इस्तेमाल करके मर्दानगी की ज़हरीली धारणा और हिंसा का खेल[x], जहां भर्ती का दुष्प्रचार अक्सर लोकप्रिय वीडियो गेम्स की शैली के मुताबिक होता था, आम तौर पर युवाओं को पसंद आता था.[xi]
ISIS अकेला आतंकवादी संगठन नहीं है जिसने लैंगिक छवि का सहारा लिया है और अपने नैरेटिव को वैधता प्रदान करने में सहायता के लिए जान-बूझकर महिलाओं को शामिल किया है. श्रीलंका में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) ने 2009 में सरकार के हाथों अपनी सैन्य पराजय तक महिला आत्मघाती हमलावरों[5] को ट्रेनिंग देने का काम किया था. पुनर्वास और फिर से एकीकरण कार्यक्रमों का नेतृत्व करने वाले लोगों के साथ इस लेखक की चर्चा के दौरान इन विशेषज्ञों ने कहा कि महिलाओं को लक्ष्य बनाकर भर्ती के प्रयासों में विशेष रूप से श्रेणीबद्ध सांस्कृतिक मानदंडों और परंपराओं से बचने और लड़ाकों समेत अलग-अलग भूमिकाओं को निभाने के अवसरों पर ज़ोर दिया गया.
वैधता प्रदान करने का नैरेटिव पेश करने के आगे महिलाओं ने आतंकी संगठनों को सुरक्षा मानदंडों या कानून लागू करने से जुड़ी जांच को चकमा देने के अवसर प्रदान किए क्योंकि लैंगिक रूप से रूढ़िवादी धारणा का अक्सर ये मतलब होता था कि महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा जांच कम होती थी. कानून लागू करने वालों और सीमा सुरक्षा अधिकारियों के साथ लेखक की चर्चा के दौरान ये बताया गया कि हवाई अड्डों और चेक प्वाइंट जैसी संवेदनशील जगहों में भी महिलाओं और लड़कियों पर अक्सर कम ध्यान दिया जाता है. लैंगिक रूढ़िवादी धारणा की वजह से विश्लेषक आम तौर पर आतंकवादी संगठनों में शामिल होने की महिलाओं की क्षमता या इरादे को कम आंकते हैं, कई मामलों में उन्हें परिवार के पुरुष सदस्यों की इच्छा के अनुसार काम करने वाली एक निष्क्रिय या अधीनस्थ व्यक्ति के रूप में चित्रित करते हैं.[6] इसी तरह ISIS के साथ जुड़ी महिलाओं को वापस बुलाने या उनके पुनर्वास पर ध्यान देने वाले देश इन महिलाओं के द्वारा युद्धग्रस्त क्षेत्रों में किए गए अपराधों के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराने में धीमे रहे हैं. कुछ मामलों में लोगों की राय ISIS के साथ जुड़ी महिला बंदियों की वापसी के ख़िलाफ़ भी रही है जैसा कि शमीमा बेगम के मामले में उजागर हुआ था.[7][xii]
बहुत कम लोगों को ये अवसर मिला कि वो आतंकवाद का मुकाबला करने में महिलाओं के द्वारा निभाई जाने वाली अलग-अलग भूमिका, चाहे वो दुश्मन या ख़तरे के रूप में हो या सहयोगी और साझेदार के रूप में हो, की चर्चा कर सकें. इसके अलावा सुरक्षा सेवाओं और एजेंसियों में महिलाओं की सीमित मौजूदगी कुछ समुदायों में पहुंच और अवसरों को जटिल बनाती है.
ऐतिहासिक रूप से महिलाओं और परिवारों की तस्वीरों का उपयोग निरंकुश नेताओं या कट्टर संगठनों की छवि को “नरम” बनाने के लिए किया गया है. 30 और 40 के दशक में जर्मनी में नाज़ियों ने परिवारों और बच्चों की छवि का इस्तेमाल कथित ‘स्वर्ण युग’ की ओर वापसी के लिए किया जो स्पष्ट लैंगिक भूमिकाओं और उद्देश्यों से परिभाषित थी. ये ISIS की विचारधारा से बहुत अलग नहीं थी. आधिकारिक दुष्प्रचार की तस्वीरों और सरकार के द्वारा स्वीकृत कला में परिवारों को खेतों और घरों में दिखाया जाता था जिससे “पारिवारिक मूल्यों” और आर्य नस्ल की श्रेष्ठता का दावा मज़बूत होता था. विशुद्ध जाति केंद्रित देश के नाज़ी लक्ष्य में महिलाओं की प्रमुख भूमिका थी जो एक बार फिर ISIS की सोच से बहुत अलग नहीं है. इस वजह से महिलाओं का स्वास्थ्य और कल्याण ज़रूरी था जिससे इस उद्देश्य के लिए युवाओं और महिलाओं के समूह की स्थापना की गई. अमेरिका में होलोकॉस्ट म्यूज़ियम के अनुमान के मुताबिक नाज़ी पार्टी में 1.30 करोड़ महिलाएं सक्रिय थीं जो नर्स, शिक्षक, गार्ड और सेना एवं पुलिस में सहायक के तौर पर काम करती थीं.[xiii] नाज़ी पार्टी की महिला लीग की नेता गरट्रूड शोल्ज़-क्लिंक ने 1936 में अपने एक भाषण में कहा था: “नेशनलिस्ट सोशलिस्ट मूवमेंट पुरुषों और महिलाओं को जर्मनी के भविष्य के लिए एक समान मानता है. हालांकि ये कहता है कि अतीत की तुलना में हर व्यक्ति को पहले उन कामों को पूरी तरह करना चाहिए जो उसके स्वभाव के अनुसार उचित है.”[xiv]
मौजूदा समय के धुर-दक्षिणपंथी संगठनों ने अपने लक्ष्यों और आदर्शों को वैधता प्रदान करने के लिए महिलाओं, परिवारों और बच्चों के चित्रण का सहारा लेकर इस परंपरा को जारी रखा है.[xv] हाल के वर्षों में 'गृहस्थ महिला' का आंदोलन, जो लिंग के अनुसार पुरुषों और महिलाओं के लिए पारंपरिक भूमिका को बनाए रखना चाहता है, धुर-दक्षिणपंथी समूहों से जुड़ा रहा है जो एक श्वेत जातीय देश की स्थापना करना चाहते हैं. इनमें से कई तस्वीरों में देहाती आदर्श परिवेश, एक समान मूल्यों वाले परिवार एवं समुदाय (श्वेत पढ़िए), साधारण या यहां तक कि पुराने ज़माने के कपड़े और खेती एवं खाना पकाने जैसी गतिविधियां शामिल हैं. महिलाएं कई संगठनों की बयानबाज़ी के केंद्र में भी रही हैं जो महिलाओं को “दूसरों” से “बचाने” की आवश्यकता पर केंद्रित नस्लीय या वैचारिक नैरेटिव को सही ठहराते हैं. जैसा कि आतंकवाद विरोधी विशेषज्ञ एलिज़ाबेथ पीयरसन ने पिछले दिनों बताया, “ये लैंगिक द्विआधारी (बाइनरी)- मज़बूत पुरुषों को कमज़ोर महिलाओं को बचाने के उद्देश्य से ताकत का उपयोग करने के लिए तैयार होना चाहिए, विशेष रूप से लड़ाकू विदेशी पुरुषों से- पितृसत्तात्मक, राष्ट्रवादी, अति राष्ट्रवादी और नाज़ी संगठनों का भी मुख्य नैरेटिव है.”[xvi]
अति-दक्षिणपंथी समूहों या षडयंत्र के सिद्धांतों पर आधारित विचारधारा को बढ़ावा देने वालों के द्वारा स्वास्थ्य और कल्याण कार्यक्रमों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने को लेकर चिंताएं भी हैं.[xvii] एक बार फिर महिलाओं की मुख्य छवि इन कार्यक्रमों को विश्वसनीयता प्रदान करती प्रतीत होती है जो महिलाओं को देखभाल करने वाली और मां की भूमिका से जोड़ती है.
आतंकवादियों और हिंसक चरमपंथी समूहों ने लैंगिक चित्रण और नैरेटिव का उपयोग किया है और एक वैकल्पिक सामाजिक समुदाय के रूप में उनकी वैधता का संकेत देने के साधन के रूप में महिलाओं और परिवारों को लेकर अपनी अपील को उजागर किया है. इसके अलावा महिलाओं की भागीदारी ने स्थायी, कई पीढ़ियों के समुदाय की धारणा को मज़बूत करने का काम किया है. उदाहरण के लिए, 2002 में यहूदी विरोधी दंपति लाना लोटकेफ और हेनरिक पामग्रेन के द्वारा स्थापित डिजिटल प्लैटफॉर्म रेड आइस ने ऑनलाइन रूप से सक्रिय रहने के समय के दौरान[8] श्वेत राष्ट्रवादी और “अल्ट राइट” (दक्षिणपंथी विचारधारा) कंटेंट का प्रसार करने में मदद की. इसमें महिलाओं की आवाज़ को बढ़ाकर कंटेंट का प्रसार शामिल है.[xviii]
आतंकवाद विरोध, महिलाएं और शांति
हाल के वर्षों में आतंकवादी और हिंसक चरमपंथी संगठनों ने अपनी विचारधारा का प्रचार करने और नैरेटिव को वैधता प्रदान करने के लिए जिस लैंगिक रूढ़िवादिता का इस्तेमाल किया है, उसके कारण आतंकवाद विरोधी विशेषज्ञों और नीति निर्माताओं के बीच इस मुद्दे पर ध्यान देने में देरी हुई है.[xix] वैसे तो संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय किरदारों ने दुनिया भर में आतंकवाद को रोकने और उसका मुकाबला करने के लिए कई प्रस्तावों और पहलों को अपनाया है लेकिन आतंकवाद विरोधी एजेंडे और महिला, शांति एवं सुरक्षा के बीच नज़दीकी संबंधों को 2015 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2242 और उसके बाद महासभा में अलग-अलग देशों के द्वारा अपनाने तक मान्यता नहीं दी गई थी.[xx] इसके बावजूद दोनों एजेंडा को मिलाने और नीति निर्माताओं एवं विशेषज्ञों के बीच आतंकवाद और आतंकवाद विरोध के लैंगिक पहलुओं पर पर्याप्त ढंग से विचार करने को सुनिश्चित करने का विरोध एक बड़ी चुनौती बनी हुई है. वास्तव में इन मुद्दों का निपटारा करने वाली परियोजनाओं के लिए फंडिंग और संसाधनों का आवंटन कम बना हुआ है.
परिचालन स्तर पर लगता है कि इन पूर्वाग्रहों ने कई देशों और एजेंसियों के बीच ख़तरे के आकलन और प्रथाओं को प्रभावित किया है; महिलाएं बिना किसी बाधा के सीमा के ज़रिए गुज़री हैं, सीरिया एवं इराक़ के संघर्ष क्षेत्रों में किए गए अपराधों के लिए जवाबदेही से बची हैं और कई क्षेत्रों में पुनर्वास और फिर से एकीकरण के लिए आवश्यक समर्थन और सहायता से वंचित रही हैं. सीमा और कानून लागू करने वाले अधिकारी बताते हैं कि कैसे लैंगिक रूप से जुड़ी चर्चाएं उनकी ट्रेनिंग और दिशा-निर्देश से काफी हद तक गायब हैं.[9] बहुत कम लोगों को ये अवसर मिला कि वो आतंकवाद का मुकाबला करने में महिलाओं के द्वारा निभाई जाने वाली अलग-अलग भूमिका, चाहे वो दुश्मन या ख़तरे के रूप में हो या सहयोगी और साझेदार के रूप में हो, की चर्चा कर सकें. इसके अलावा सुरक्षा सेवाओं और एजेंसियों में महिलाओं की सीमित मौजूदगी कुछ समुदायों में पहुंच और अवसरों को जटिल बनाती है.
सुरक्षा सेक्टर में महिलाओं की संख्या बढ़ाना और आतंकवादियों एवं हिंसक चरमपंथियों के लैंगिक नैरेटिव एवं संदेशों से निपटने के लिए “जवाबी भाषण” या “जवाबी नैरेटिव” वाले अभियानों को कम करना महत्वपूर्ण बना रहेगा.
ये गतिशीलता ऑनलाइन और ऑफलाइन- दोनों प्रयासों में दिखती है. जैसे-जैसे एक-दूसरे के विरोधी किरदार आतंकवादी और हिंसक चरमपंथी कंटेंट का प्रचार करने के लिए उभरती तकनीकों और सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म की व्यापक श्रेणी का लाभ उठाना चाहते हैं, वैसे-वैसे ख़तरे और अवसर भी बदलते ऑनलाइन माहौल को दिखाते हैं. आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए ग्लोबल इंटरनेट फोरम की रिसर्च शाखा ग्लोबल नेटवर्क ऑन एक्स्ट्रीमिज़्म एंड टेक्नोलॉजी ने प्राइवेट सेक्टर, विशेषज्ञों और नीति निर्माताओं के विचार के लिए कई नीतिगत विवरण तैयार किए हैं. ये उन असंख्य परतों को उजागर करते हैं जिनमें लिंग, तकनीक और आतंकवाद विरोध एक-दूसरे से मिलते हैं और टिकाऊ एवं प्रभावी रोकथाम एवं जवाबी रणनीतियों को तैयार करते समय इन पहलुओं पर विचार करने के महत्व को रेखांकित करते हैं.[xxi]
अलग-अलग देशों और आतंकवाद विरोधी विशेषज्ञों को महिलाओं की अनेक और बारीक भूमिकाओं को पहचानना होगा और उन मामलों पर विचार करना होगा जहां महिलाओं को मजबूर किया जाता है या उनके साथ धोखाधड़ी की जाती है. साथ ही उन मामलों को भी स्वीकार करना होगा जहां महिलाएं अपनी आवाज़ का इस्तेमाल करने का विकल्प चुनती हैं और उनका शोषण करने की कोशिश करने वाले आतंकवादियों और हिंसक चरमपंथियों को विश्वसनीयता प्रदान करती हैं.
युद्ध और संघर्ष की तरह आतंकवाद और हिंसक चरमपंथ में महिलाओं की भागीदारी और योगदान कोई नई बात नहीं है. आयरलैंड से चेचेन्या तक और श्रीलंका से जर्मनी तक चरमपंथी एजेंडा रखने वाले संगठनों की पहुंच बढ़ाने में महिलाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
ISIS और हिंसक चरमपंथी विचारों का समर्थन करने वाले या उन्हें मज़बूत बनाने वाले मौजूदा अति दक्षिणपंथी संगठनों के द्वारा अपनाई गई सोच के मामले में नई बात है महिलाओं की आवाज़ और लैंगिक नैरेटिव को दी गई प्रमुखता. तकनीकी इनोवेशन और सोशल मीडिया के प्रसार और उनके द्वारा लोगों के लिए कंटेंट तैयार करने और उसका विस्तार के उद्देश्य से मुहैया कराई गई पहुंच संभवत: इस रुझान को बढ़ावा देती रहेगी. रोकथाम के कार्यक्रमों और हस्तक्षेपों, जिसमें सकारात्मक हस्तक्षेप के उपाय और व्यक्तिगत सहायता कार्यक्रम शामिल हैं, को महिलाओं के द्वारा निभाई जाने वाली बारीक और अलग-अलग भूमिकाओं को बेहतर ढंग से दर्शाने और भर्ती एवं इकट्ठा करने पर लैंगिक नैरेटिव के असर की समझ को गहरा करने की आवश्यकता है.
अच्छी प्रथाओं और समाधानों को विकसित करने और उन्हें साझा करने के उद्देश्य से क्षेत्रीय और नगरपालिका प्रशासन समेत सरकारों, निजी क्षेत्रों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को विशेषज्ञों, नीति निर्माताओं और उद्योगों के लिए अवसरों का समर्थन करना चाहिए और इस क्षेत्र में विशेषज्ञों के लिए लगातार और पहले से अनुमानित फंडिंग सुनिश्चित करना चाहिए. हिंसक चरमपंथ की रोक-थाम करने और उनका मुकाबला करने के लिए पहल में शामिल संगठनों ने अक्सर अनिश्चित और अस्थायी समर्थन, जिसका ख़तरा बढने पर गहरा एवं नकारात्मक प्रभाव है और जिसका आकलन करने एवं प्रतिक्रियाशील समर्थन प्रदान करने की आवश्यकता है, को लेकर अपनी चिंता जताई है. इसके अलावा कार्यक्रमों को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि वो लैंगिक भूमिकाओं की पुरानी मान्यताओं पर काम नहीं करें. ख़तरों से निपटने के लिए वो जिन साधनों का इस्तेमाल करते हैं वो संदर्भ के अनुसार तैयार किया जाना चाहिए और वैश्विक प्रवृत्ति के साथ-साथ स्थानीय एवं क्षेत्रीय गतिशीलता की गहन समझ के आधार पर बने हों.
सुरक्षा सेक्टर में महिलाओं की संख्या बढ़ाना और आतंकवादियों एवं हिंसक चरमपंथियों के लैंगिक नैरेटिव एवं संदेशों से निपटने के लिए “जवाबी भाषण” या “जवाबी नैरेटिव” वाले अभियानों को कम करना महत्वपूर्ण बना रहेगा. विशेषज्ञों ने बताया है कि जवाबी भाषण का प्रभाव काफी हद तक एक विश्वसनीय संदेशवाहक और संदेश के साथ सही लोगों तक पहुंचने की क्षमता पर निर्भर करता है. कई मामलों में ये न तो सरकार होती है और न ही कोई औपचारिक संस्थान बल्कि सिविल सोसायटी और समुदाय के वो सदस्य होते हैं जो आतंकवाद और चरमपंथी हिंसा से प्रभावित लोगों के ख़तरों और अनुभवों के बारे में प्रमाणित रूप से बात कर सकते हैं.
(इस लेख में लेखक के विचार हैं और आवश्यक नहीं है कि ये ग्लोबल इंटरनेट फोरम टू काउंटर टेररिज़्म या उसके बोर्ड के हैं. सभी गलतियां और चूक लेखक की हैं.)
Bibliography
Cann, Victoria. “Elon Musk and the Phoney Far-Right Narrative of Protecting Women.” The Conversation, January 30, 2024. https://theconversation.com/elon-musk-and-the-phoney-far-right-narrative-of-protectingwomen- 247267.
Cook, Joana, and Gina Vale. From Daesh to ‘Diaspora’: Tracing the Women and Minors of Islamic State. International Centre for the Study of Radicalisation, 2018. https://icsr.info/wp-content/uploads/2018/07/ ICSR-Report-From-Daesh-to-%E2%80%98Diaspora%E2%80%99-Tracing-the-Women-and-Minors-of-Islamic- State.pdf.
Organization for Security and Co-operation in Europe (OSCE). Guidelines for Addressing the Threats and Challenges of ‘Foreign Terrorist Fighters’ within a Human Rights Framework. 2018. https://www.osce.org/ files/f/documents/4/7/393503_2.pdf.
ENDNOTES
[1] Another, similarly conservative estimate is closer to 41,000, with approximately 12% of those being women, and 13% were minors. See: https://icsr.info/wp-content/uploads/2018/07/ICSR-Report-From-Daesh-to-%E2%80%98Diaspora%E2%80%99- Tracing-the-Women-and-Minors-of-Islamic-State.pdf.
[2] These are approximations as many also traveled before the declaration of the Caliphate, to oppose Assad, but then later associated with ISIS. “Joining” ISIS was not a clearly defined term since many “joined” in non-combat roles to support the cause.
[3] An Iraqi-led coalition liberated Mosul in 2017.
[4] On 7 January 2015, terrorist shooting targeted the Paris offices of the satirical weekly, Charlie Hebdo; 12 people died in the attack that al-Qaeda claimed.
[5] The LTTE was a Tamil organisation founded in 1976 that fought for a separate state of Tamil Eelam in Sri Lanka.
[6] The OSCE guidelines highlight the importance of recognising the roles of both women and men as agents and perpetrators, as well as victims and survivors with corresponding rights. For more on addressing the challenges posed by “foreign terrorist fighters” within a human rights framework, see: https://www.osce.org/files/f/documents/4/7/393503_2.pdf.
[7] Shamima Begum is one of three east London schoolgirls who travelled to Syria in 2015 to support the ISIS. She is now 24 and is barred from returning to the UK. Media reports say she remains in a camp controlled by armed guards in northern Syria.
[8] Red Ice has since been banned on YouTube and Facebook, but maintains social media presence in other social media platforms like Telegram. At its peak around 2019, its YouTube videos were getting millions of views.
[9] These insights are drawn from this author’s discussions with border and law enforcement officials.
[i] United Nations Security Council Counter-Terrorism Committee Executive Directorate (CTED), Trends Alert: February 2019, New York, United Nations, 2019, https://www.un.org/securitycouncil/ctc/sites/www.un.org.securitycouncil.ctc/files/files/ documents/2021/Jan/feb_2019_cted_trends_report.pdf.
[ii] Naureen Chowdhury Fink and Benjamin Sugg, “A Tale of Two Jihads: Comparing the al-Qaeda and ISIS Narratives,” Global Observatory, February 19, 2015, https://theglobalobservatory.org/2015/02/jihad-al-qaeda-isis-counternarrative/.
[iii] James Cook, “IS Recruiter ‘Did Not Target UK Girls,’” BBC News, March 16, 2015, https://www.bbc.com/news/uk-scotland-glasgow-west-31908202.
[iv] Laura Smith-Spark, “Scottish Teenager Who Joined ISIS May Be Recruiting Others,” CNN, February 23, 2015, https://www.cnn.com/2015/02/23/world/scottish-teen-isis-recruiter/index.html.
[v] Kate Connolly, Fazel Hawramy, and Kim Willsher, “Schoolgirl Jihadis: The Female Islamists Leaving Home to Join ISIS,” The Guardian, September 29, 2014, https://www.theguardian.com/world/2014/sep/29/schoolgirl-jihadis-female-islamists-leaving-homejoin- isis-iraq-syria.
[vi] Europol, Women in Islamic State Propaganda, Europol Report, 2019, https://www.europol.europa.eu/cms/sites/default/files/documents/women_in_islamic_state_ propaganda_3.pdf.
[vii] Charlie Winter, Till Martyrdom Do Us Part: Gender and the ISIS Phenomenon, Institute for Strategic Dialogue, 2015, https://www.isdglobal.org/wp-content/uploads/2016/02/Till_Martyrdom_Do_Us_Part_Gender_and_ the_ISIS_Phenomenon.pdf.
[viii] Umm Sumayyah al-Muhajirah, “Slave Girls or Prostitutes,” Dabiq, no. 9 (May 21, 2015). Also see discussion in: Europol, Women in Islamic State Propaganda, Europol Report, 2019, https://www.europol.europa.eu/cms/sites/default/files/documents/women_in_islamic_state_ propaganda_3.pdf.
[ix] National Consortium for the Study of Terrorism and Responses to Terrorism (START), “WWI to ISIS: Using Shame and Masculinity in Recruitment Narratives,” START, August 16, 2017, https://www.start.umd.edu/news/wwi-isis-using-shame-and-masculinity-recruitment-narratives.
[x] Lahoucine Ouzgane, Masculinities and Violent Extremism, International Peace Institute, June 2022, https://www.ipinst.org/wp-content/uploads/2022/06/Masculinities-and-VE-Web.pdf.
[xi] Simon Parkin, “ISIS’s Virtual Caliphate,” The New Yorker, December 9, 2016, https://www.newyorker.com/tech/annals-of-technology/isis-video-game.
[xii] Catherine Davidson, “Shamima Begum: The Court of Public Opinion,” Counsel Magazine, April 5, 2023, https://www.counselmagazine.co.uk/articles/shamima-begum-the-court-of-public-opinion.
[xiii]United States Holocaust Memorial Museum, “Women in the Third Reich,” Holocaust Encyclopedia, https://encyclopedia.ushmm.org/content/en/article/women-in-the-third-reich.
[xiv] Seyward Darby, “The Rise of the Valkyries,” Harper’s Magazine, September 2017, https://harpers.org/archive/2017/09/the-rise-of-the-valkyries/.
[xv] Darby, “The Rise of the Valkyries”
[xvi] Elizabeth Pearson, “Elon Musk and the Phoney Far-Right Narrative of Protecting Women,” The Conversation, January 14, 2025, https://theconversation.com/elon-musk-and-the-phoney-far-right-narrative-of-protectingwomen- 247267.
[xvii] James Ball, “‘Everything You’ve Been Told Is a Lie’: Inside the Wellness-to-Fascism Pipeline,” The Guardian, August 2, 2023, https://www.theguardian.com/lifeandstyle/2023/aug/02/everything-youvebeen- told-is-a-lie-inside-the-wellness-to-facism-pipeline.
[xviii] Darby, “The Rise of the Valkyries”
[xix] Women in International Security (WIIS), A Man’s World? Exploring the Roles of Women in Countering Terrorism and Violent Extremism, July 2016, https://wiisglobal.org/wp-content/uploads/2016/07/AMansWorld_FULL.pdf.
[xx] United Nations Security Council, Resolution 2242 (2015), S/RES/2242, October 13, 2015, https://www.securitycouncilreport.org/atf/cf/%7B65BFCF9B-6D27-4E9C-8CD3-CF6E4FF96FF9%7D/s_ res_2242.pdf.
[xxi] GNET, “Gender and Online Violent Extremism,” https://gnet-research.org/gender-and-online-violent-extremism/.
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Naureen Chowdhury Fink is Executive Director, Global Internet Forum to Counter Terrorism (GIFCT). ...
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