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अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड जे ट्रंप सभ्य बातचीत (सिविलाइज़्ड डिस्कोर्स), जिसे नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के रूप में जाना जाता है, के ताबूत में तीसरी कील ठोक रहे हैं. अपनी ‘अमेरिका फर्स्ट’ की बड़ी रणनीति के एक हिस्से के रूप में ट्रंप की गतिविधियां सिर्फ़ अमेरिका तक ही सीमित नहीं है.
उदाहरण के लिए, पनामा नहर या डेनमार्क के ग्रीनलैंड की संप्रभुता को धमकी देकर ट्रंप प्रभावी रूप से अंतरराष्ट्रीय अराजकता की दूसरी कील यानी 24 फरवरी को रूसी फेडरेशन के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के द्वारा अपनी बड़ी रणनीति के हिस्से के रूप में यूक्रेन पर हमले को वैधता दे रहे हैं.
इसी तरह टैरिफ पर विश्व व्यापार संगठन (WTO) के मानदंडों का उल्लंघन करके वो व्यापार के साथ-साथ कूटनीति, तकनीक और यहां तक कि नागरिकों को हथियार की तरह इस्तेमाल करने के माध्यम से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के द्वारा दुनिया में प्रभुत्व कायम करने की बड़ी रणनीति को भी सही ठहरा रहे हैं.
प्रभावी रूप से ट्रंप वो जता रहे हैं जिसके बारे में बाकी दुनिया लंबे समय से जानती है यानी अंतरराष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था को लागू करने की अमेरिका की ताकत कमज़ोर हो गई है. इस व्यवस्था से उनकी आक्रामक वापसी नाकामी की स्वीकार्यता है. इसके परिणामस्वरूप अल्पकालिक राष्ट्रीय हित दीर्घकालिक वैश्विक भागीदारी पर हावी हो जाएंगे. इसके आगे हर देश अकेला खड़ा है.
प्रभावी रूप से ट्रंप वो जता रहे हैं जिसके बारे में बाकी दुनिया लंबे समय से जानती है यानी अंतरराष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था को लागू करने की अमेरिका की ताकत कमज़ोर हो गई है.
2025 में तीनों महाशक्तियां साथ मिलकर सुरक्षा-शांति-समृद्धि की तिकड़ी का विनाश करने के अपने साझा उद्देश्य में जुटी हुई है जिसे 1945 की 80 वर्षीय नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था ने बनाया था और जिस पर 193 देशों ने हस्ताक्षर किए थे. अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की इस दशकोणीय संरचना के 10 अंग हैं:
1. इसका नेतृत्व संयुक्त राष्ट्र का चार्टर करता है.
2. इस पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के माध्यम से शांति के स्वयंभू संरक्षकों का नियंत्रण है जिसके पांच में से तीन सदस्य इस तरह व्यवस्था को भंग करने में शामिल हैं.
3. ये संयुक्त राष्ट्र महासभा के व्यापक लेकिन कमज़ोर संस्थानों को मंच प्रदान करती है- ये एक ऐसा तमाशा है जो UNSC को विश्वसनीयता का मुखौटा मुहैया कराता है.
3. ये काव्यात्मक रूप से व्यक्त करती है लेकिन जेनेवा सम्मेलन के माध्यम से युद्ध में बर्बरता को कम करने के मामले में व्यावहारिक तौर पर असहाय है. निर्दोष लोगों की मौत को सामान्य बना दिया गया है. वहीं दूसरी तरफ आम लोगों को हथियारबंद बना दिया गया है.
4. ये बेहद आवश्यक लेकिन उतने ही महत्वहीन मानवाधिकार रक्षा के संस्थानों की निगरानी करती है लेकिन मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा, एक ऐसा विचार जिसे सुधार से परे बना दिया गया है, को मानवाधिकार के मुद्दे के रूप में खड़ा किया गया है और ये साफ हो गया है कि संस्थान कमज़ोर हो गए हैं.
5. ये परमाणु हथियारों के अप्रसार जैसी विशेष संधियों को मंच देती है जिनका उल्लंघन चीन और रूस ने क्रमश: पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे दुष्ट देशों को तैयार करने के लिए किया है. ये दूसरे देशों को परमाणु क्षमता का निर्माण करने से भी रोकती है.
6. ये अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का प्रबंधन करती है लेकिन अमेरिका, चीन और रूस इसमें न तो शामिल हैं, न ही वो कोर्ट के फैसले को स्वीकार करते हैं. नियम बनाने वालों पर ये नियम नहीं लागू होते.
7. इसने वैश्विक वित्त की देखरेख के लिए ब्रेटन वुड्स संस्थान बनाए जिन पर यूरोप (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) और अमेरिका (विश्व बैंक समूह) ने संस्थागत रूप से कब्ज़ा कर लिया है.
8. इसने टैरिफ के ज़रिए वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह का प्रबंधन करने के उद्देश्य से 1995 में विश्व व्यापार संगठन (WTO) के माध्यम से वैश्विक व्यापार की फिर से कल्पना की जिसका चीन ने खुलेआम उल्लंघन किया और अमेरिका इससे बाहर हो गया.
10. इसने विश्व व्यापार संगठन (WHO) जैसे संगठन बनाए जिसका चीन ने दुरुपयोग किया और अपने कब्ज़े में ले लिया. अमेरिका भी इससे बाहर निकल गया है. दूसरे संगठनों में विश्व खाद्य कार्यक्रम, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, अंतर्राष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन शामिल हैं.
नियम आधारित व्यवस्था की भूमिका
इनके बीच रेंगते हुए बहुत अधिक भुगतान वाले वैश्विक अभिजात वर्ग का निर्माण होता है जो भरण-पोषण करता है और इसलिए दुनिया के खज़ाने का दुरुपयोग जारी रखता है. विडंबना है कि दुनिया के नेता इन ज़्यादतियों और अक्षमताओं की फंडिंग करने वाले बने हुए हैं. इस प्रणाली पर विचार करने की आवश्यकता है और संभवत: ट्रंप वो ताकत हैं जो इसे डगमगा देंगे.
इस जटिल प्रणाली, जिसे अंतरराष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था के रूप में देखा जाता है, में गिरावट आई है. आज नियम बनाने के अधिकार और उनका पालन करने की मजबूरी के बीच दरार बढ़ गई है. इसके परिणामस्वरूप दुनिया दो भागों- नियम बनाने वालों और नियम का पालन करने वालों- में बंट गई है.
ऐसा लगता है कि दुनिया ने जिस पर हस्ताक्षर किया है वो पीछे मुड़कर देखने पर भी एक तमाशा है, इस मज़ाक की शब्दावली को नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था कहा जाता है.
थोड़ा पीछे हटिए, भोलेपन और संदेह के मेल-जोल से गुज़रिए और ये स्पष्ट हो जाता है: ऐसा लगता है कि दुनिया ने जिस पर हस्ताक्षर किया है वो पीछे मुड़कर देखने पर भी एक तमाशा है. इस मज़ाक की शब्दावली को नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था कहा जाता है. इसकी भाषा तथाकथित नियम आधारित व्यवस्था है; इसकी संरचना कुछ के द्वारा ताकत के उपयोग से प्रेरित बहुतों का दमन है. 80 के दशक से चीन के उदय और 2010 या उसके बाद रूस के आक्रमण (2014 में क्राइमिया और 2022 में यूक्रेन) तक पश्चिमी देश बनाम बाकी दुनिया का रुझान था. आज के समय में जब चीन 120 से ज़्यादा देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और रूस यूरोपियन यूनियन को LNG का सबसे बड़ा निर्यातक है (रूस के ठीक बाद चीन, जापान और दक्षिण कोरिया हैं, जनवरी 2025 तक), इस सर्कस को कुछ हद तक लोकतांत्रिक बना दिया गया है.
पश्चिमी देशों के द्वारा रूस की गैस ख़रीदकर पुतिन के युद्ध के लिए पैसा मुहैया कराने के साथ-साथ भारत को नैतिक प्रवचन देने की विडंबना ख़त्म नहीं हुई है. जापान एवं जर्मनी के सुरक्षा पर ध्यान देने के बदले वाणिज्य और कल्याण में बहुत अधिक व्यस्त होने और फ्रांस एवं यूनाइटेड किंगडम, दोनों UNSC के सदस्य हैं, के भीतर से कमज़ोर होने के साथ 21वीं शताब्दी की उभरती सत्ता की संरचना बदल रही है.
रूस और यूक्रेन के बीच ज़मीनी सीमा के भूरे और हरे भूगोल पर युद्ध तेज़ होने के साथ इस संघर्ष का विस्तार हो सकता है जैसे रूस बनाम यूरोप; हमास और हिज़्बुल्लाह के माध्यम से इज़रायल बनाम फिलिस्तीन; ईरान बनाम इज़रायल एवं अमेरिका; उत्तर कोरिया बनाम दक्षिण कोरिया. भविष्य के युद्ध नदियों, समुद्रों और महासागरों के नीले भूगोल पर भी समान रूप से होंगे. अनौपचारिक रूप से दक्षिण चीन सागर में चीन बनाम फिलिपींस और चीन बनाम ताइवान के साथ इसकी भूमिका तैयार हो गई है.
ये तथ्य कि अंतर्राष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था के ख़ुद से बहाल संरक्षक विशेष रूप से अमेरिका, चीन और रूस अब इसके उल्लंघन में शामिल हैं, इस बात का पहले से आभास देता है कि आगे आने वाली शताब्दी कैसी होगी. इसमें सूडान, हैती, म्यांमार और बांग्लादेश में चल रहे अलग-अलग युद्धों को शामिल नहीं किया गया है.
ताकत के संतुलन की बुनियादी वास्तविकता भारत जैसे देशों और G20 जैसे निष्पक्ष, व्यापक और अधिक लोकतांत्रिक समूहों की तरफ चली गई है. ताकत के संतुलन में ये बदलाव उतना ही संप्रभु मुद्दा है जितना कि समुद्रों और महासागरों पर आधारित 33 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की बेहद विशाल नीली अर्थव्यवस्था की बहुपक्षीय संरक्षकता की दिशा में है. बड़ी से बड़ी ताकत भी अकेले इस स्थिति को नहीं संभाल सकती है.
ट्रंप के दुनिया के मामलों का नया प्रेरक बनने और जिन मामलों की वो ख़ुद निंदा करते थे, उनमें बदलने के साथ नई व्यवस्था नियम आधारित होने के बदले ताकत आधारित हो रही है.
सुरक्षा पर सहयोग विकास के लिए महत्वपूर्ण है. समुद्री डकैती से लेकर विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खुलेआम उल्लंघन तक समृद्धि के जहाज़ को टीम वर्क की आवश्यकता है. जहाज़ के इस ढांचे में नई वास्तविकताएं समाहित हैं. दुनिया में शांति के लिए एक सच्चे संयुक्त राष्ट्र की आवश्यकता का महत्व इससे पहले इतना कभी भी नहीं था. फिर भी इस अनिवार्यता को बुनियादी वास्तविकताओं को शामिल करने की ज़रूरत है.
सबसे बड़ी वास्तविकता आर्थिक है. 1960 में दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में P5 (पांच देश जो UNSC के स्थायी सदस्य हैं- अमेरिका, चीन, UK, फ्रांस और रूस) का हिस्सा 73.1 प्रतिशत था लेकिन 2023 में ये गिरकर 50.4 प्रतिशत हो गया जो कि 22.7 प्रतिशत अंक की गिरावट है. 1960 में दुनिया की GDP में दो सबसे बड़े आर्थिक समूहों (अमेरिका और पूर्ववर्ती सोवियत संघ) का संयुक्त हिस्सा 58.9 प्रतिशत था लेकिन 2023 में दो सबसे बड़े आर्थिक समूहों (अमेरिका और यूरोपियन यूनियन) का कुल हिस्सा 43.2 प्रतिशत था जो 15.7 प्रतिशत प्वाइंट की गिरावट है.
1960 में दुनिया की GDP में अकेले अमेरिका का हिस्सा 39.6 प्रतिशत था जो 2023 में गिरकर 25.7 प्रतिशत हो गया. इस तरह ये 13.9 प्रतिशत प्वाइंट की कमी है. इसी अवधि के दौरान GDP में चीन का हिस्सा 4.4 प्रतिशत से बढ़कर 16.8 प्रतिशत; भारत का हिस्सा 2.7 प्रतिशत से बढ़कर 4.0 प्रतिशत; EU का हिस्सा 20.7 प्रतिशत से गिरकर 17.5 प्रतिशत हो गया. इसके अलावा ट्रिलियन डॉलर के पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं में विकास के वैश्विक प्रेरक पूर्व की तरफ भारत, चीन और इंडोनेशिया चले गए हैं. किसी भी नई नियम आधारित व्यवस्था के आने के लिए उसे इस बदलाव के लिए जगह तैयार करनी होगी.
वैसे कम समय में ऐसा कुछ भी नहीं होगा. इसके विपरीत अमेरिका, चीन और रूस मनमर्ज़ी के शासन को जारी रखेंगे. 20 जनवरी 2025, जब ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभाला, तक नैतिकता की कुछ झलक थी- चीन और रूस को ऐसे देश के रूप में देखा जाता था जो अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ताकत का इस्तेमाल करते थे जबकि अमेरिका और EU ने लोकतंत्र की रक्षा करने वाले मूल्यों की बागडोर संभाल रखी थी.
ट्रंप के दुनिया के मामलों का नया प्रेरक बनने और जिन मामलों की वो ख़ुद निंदा करते थे, उनमें बदलने के साथ नई व्यवस्था नियम आधारित होने के बदले ताकत आधारित हो रही है. ट्रंप, शी और पुतिन के लिए नए सिरे से संतुलन तलाशने के उद्देश्य से तीनों को बाकी दो के लिए जगह छोड़नी होगी. ट्रंप अधिनायकवाद को गले लगा लेंगे, पुतिन को विस्तारवाद पर रोक लगानी होगी और शी को संशोधनवाद छोड़ना होगा. हो सकता है कि तीन बड़ी रणनीतियां सक्रिय नहीं हों लेकिन जल्द ही वो एक-दूसरे से टकराएंगी. इसके बाद छोटी रणनीतियां औपचारिक रूप से कार्यभार संभालेंगी.
नेतृत्वहीन नेताओं के उस खालीपन में जहां लोग बिना पतवार के भटक रहे हैं और नैतिक पतन एकजुट करने वाली शक्ति है, वहां एक नई अंतर्राष्ट्रीय नियम आधारित विश्व व्यवस्था के निर्माण को लेकर फिर से विचार होगा जहां नए किरदार, नए सत्ता के केंद्र और नए स्रोत होंगे.
जैसे-जैसे दुनिया ख़ुद के लिए हर देश की तरफ बढ़ रही है, वैसे-वैसे बाकी दुनिया ख़ामोशी से छटपटाएगी. यूरोप और दक्षिण अमेरिका जैसे महादेश सुरक्षा पर फिर से विचार करेंगे और ऐसे संबंध बनाएंगे जहां भरोसा मिलता है. भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश अपनी सुरक्षा मज़बूत करेंगे. भौतिक के साथ-साथ डिजिटल रक्षा उपकरण बेचने वाली कंपनियां शेयर बाज़ार की नई पसंद होंगी.
आगे की राह
आपसी संदेह की धुंध संप्रभु देशों पर छाई रहेगी. सत्ता पर कब्ज़ा करना और उसका विस्तार करना तानाशाहों का इकलौता लक्ष्य होगा. लोकतांत्रिक चर्चा सत्तावादी पकड़ को रास्ता देगी. बड़ी रणनीति की ताकत आर्थिक खनन के लिए सैन्य ताकत के अनुबंध का उपयोग करेगी. ‘मूल्य’ या ‘विश्वास’ जैसी धारणाएं किनारे हो जाएंगी.
इसके नतीजतन दुनिया और अधिक अपनी तरफ देखने वाली हो जाएगी, व्यापार प्रतिबंधित हो जाएगा और बाज़ार स्थानीय बन जाएंगे. ये हर देश को नुकसान पहुंचाएगा चाहे वो ताकतवर हो या कमज़ोर. दुनिया 1939 के हालात पर लौट जाएगी, उम्मीद करनी चाहिए कि 6 करोड़ लोगों की जान नहीं जाएगी. नेतृत्वहीन नेताओं के उस खालीपन में जहां लोग बिना पतवार के भटक रहे हैं और नैतिक पतन एकजुट करने वाली शक्ति है, वहां एक नई अंतर्राष्ट्रीय नियम आधारित विश्व व्यवस्था के निर्माण को लेकर फिर से विचार होगा जहां नए किरदार, नए सत्ता के केंद्र और नए स्रोत होंगे.
वर्तमान व्यवस्था की विफलता न तो नई है और न ही अंतिम. व्यवस्था की पहली नाकामी 1815 और 1914 के बीच कॉन्सर्ट ऑफ़ यूरोप की थी; दूसरी 1919 और 1946 के बीच राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशंस) की; और तीसरी संयुक्त राष्ट्र की जिसकी असफलता आज हमारे सामने मुंह बाए खड़ी है.
शायद मौजूदा नियम आधारित व्यवस्था का टूटना इसकी असमान बनावट में लिखा हुआ था. शायद दुनिया का विकास उस ढंग से नहीं हुआ जैसा होना चाहिए था. शायद ताकत ख़ुद नियमों की बाध्यताओं से नाराज़ होती है. मामला जो भी हो लेकिन इतिहास के व्यापक दायरे में चर्चा के लिए छूटी एकमात्र चीज़ ये है कि क्या 1945 की अंतर्राष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था समय की सुविधा थी, आशाओं की मृगमरीचिका थी, कमज़ोरों को फंसाना थी या सामान्य रूप से ताकत को दोहराना थी.
गौतम चिकरमाने ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में वाइस प्रेसिडेंट हैं.
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