Author : Lavanya Mani

Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 07, 2025 Updated 0 Hours ago

दुनिया में शांति स्थापित करने के लिए बनाई गईं बहुपक्षीय प्रणालियां वर्तमान में अप्रासंगिक हो रही है. इसकी वजह ये है कि विभिन्न राष्ट्रों का शक्ति संतुलन बदल रहा है. खंडित गठबंधन, नए नॉन स्टेट एक्टर्स के उभरने और पुराने नियमों ने वैश्विक शासन को एक ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है, जिसका कल्पना नहीं की जा सकती.

विश्व राजनीति में बहुपक्षीयता की मुश्किल राह

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सितंबर 2025 में 80वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में बहुपक्षीय सुधारों की अपील की रस्म अदायगी के साथ ही सम्मेलन का समापन हो गया. महासभा में आए नेताओं ने संवाद और चर्चाओं के एक और दौर को पूरा किया, लेकिन किसी भी मुद्दे पर कोई ठोस नतीजा नहीं निकला. ऐसे में इस मुद्दे पर एक बार फिर से विचार करना उचित ही है. सुधार संबंधी ज़्यादातर बहस और चर्चाएं निष्पक्षता या प्रभावशीलता के इर्द-गिर्द घूमती हैं, लेकिन खास बात ये है कि अब तक सभी ये बात जान चुके हैं कि मौजूदा बहुपक्षीय संस्थाएं निष्पक्ष नहीं हैं. ऐसे में क्या हो, अगर सुधार का मुद्दा ज़्यादा बुनियादी हो, यानी हम एक ऐसा पुराना खेल खेलने की कोशिश कर रहे हैं, जो बीते वक्त की बात हो चुका है और जहां अब नियम लागू नहीं होते, जिससे खेल गतिरोध में बदल जाता है? अगर बहुपक्षवाद एक ऐसा खेल है जिसे बहुत सारे देश खेलते हैं, तो इसमें हर खेल के वही बुनियादी तत्व शामिल होते हैं जो उस खेल को परिभाषित करते हैं. अगर ये बुनियादी तत्व अमूर्त रूप से बदल जाते हैं यानी वो बेकार हो जाते हैं, तो खेल को उसके वर्तमान स्वरूप में खेलना ही असंभव हो जाता है.

  • अगर बहुपक्षवाद एक ऐसा खेल है जिसे बहुत सारे देश खेलते हैं, तो इसमें हर खेल के वही बुनियादी तत्व शामिल होते हैं जो उस खेल को परिभाषित करते हैं. 

  • वर्तमान विश्व व्यवस्था में जहां नई टीमें गति पकड़ रही हैं, वहीं पुरानी टीमें कमज़ोर पड़ रही हैं.

खिलाड़ियों और टीमों में बदलाव, और रेफरी गायब

हम एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जहां द्विध्रुवीय (बाइपोलर) विश्व कमज़ोर हो चुका है और इस बात पर बहस चल रही है कि, क्या हम बहुध्रुवीय (मल्टीपोलर) विश्व में हैं. बहुध्रुवीयता के दावे नए नहीं हैं. 1997 में, रूस और चीन ने बहुध्रुवीय विश्व और एक नई विश्व व्यवस्था की स्थापना पर एक संयुक्त घोषणापत्र जारी किया था, और 28 साल बाद भी, हम बहुध्रुवीयता के उदय पर चर्चा कर रहे हैं. एकध्रुवीयता या द्विध्रुवीयता के दौरान, हमें इसके बारे में भव्य घोषणाओं की आवश्यकता नहीं थी. वो स्पष्ट और अकाट्य रूप से दिखता था. बहुध्रुवीयता भी इसी तरह स्पष्ट होगी. हम वास्तव में बहुध्रुवीय दुनिया में हैं या नहीं, ये तो साफ नहीं, लेकिन एक बात स्पष्ट है: आर्थिक और सुरक्षा, दोनों ही क्षेत्रों में शक्ति और संतुलन बदल गए हैं. 2025 तक, ब्रिक्स के 11 पूर्ण सदस्य और 10 भागीदार देश होंगे, जो प्रमुख महाद्वीपों और भू-राजनीतिक क्षेत्रों में फैले हुए हैं. ये देश एशिया, अफ्रीका, मध्य पूर्व और लैटिन अमेरिका, जो ग्लोबल साउथ और उभरती अर्थव्यवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. यह समूह वैश्विक जनसंख्या का लगभग 49.5 प्रतिशत, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (पीपीपी के संदर्भ में) का लगभग 40 प्रतिशत और वैश्विक व्यापार का लगभग 26 प्रतिशत हिस्सा रखता है. ब्रिक्स समूह वैश्विक विकास को गति प्रदान करता है और आर्थिक प्रगति को आकार देता है. इतना ही नहीं, ये समूह वैश्विक ऊर्जा के भविष्य का भी आधार है, दुनिया के पास जो बाकी बची कोयला की पाइपलाइन है, (निर्माणाधीन या पूर्व-निर्माणाधीन परियोजनाएं) उसका 94 प्रतिशत इसके पास है. विकासाधीन तेल और गैस क्षमता का 40 प्रतिशत इसके पास है, और यह पहले से ही वैश्विक सौर ऊर्जा का 51 प्रतिशत उत्पादन करता है. ऊर्जा आपूर्ति की अगली लहर पर भी ब्रिक्स का प्रभुत्व है, जो वैश्विक ऊर्जा बाज़ारों को तेज़ी से आकार देगा. ये बदलाव की गति निर्धारित करेगा, साथ ही ऊर्जा अस्थिरता और कीमतों दोनों को प्रभावित करेगा. इसके अलावा, ब्रिक्स देश वैश्विक खाद्य उत्पादन में लगभग 42 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते है. दुनिया के सबसे बड़े चावल और गेहूं उत्पादक देश, भारत और रूस, ब्रिक्स का हिस्सा हैं. अतीत में उनकी घरेलू नीतियों ही वैश्विक मूल्य श्रृंखला में झटकों का कारण बनी है. इसके अलावा, रूस के नेतृत्व में ब्रिक्स अनाज विनिमय की उभरती योजनाएं, वैश्विक अनाज बाज़ारों और कीमतों को प्रभावित करने की इस समूह की क्षमता को मज़बूत करेंगी. ब्रिक्स की यही क्षमता वर्तमान में पश्चिमी नेतृत्व वाले विनिमयों को टक्कर देगी और स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देगी. ये सब ब्रिक्स को ना सिर्फ महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाता है, बल्कि प्रत्यक्ष अंतरराष्ट्रीय और घरेलू प्रभावों के साथ वैश्विक वस्तुओं में संभावित मूल्य-निर्धारक भी बनाता है. ये दिखाता है कि कैसे शक्ति और आर्थिक स्थिति में आए बदलाव का फायदा उठाना अब वैश्विक रणनीतियों के लिए केंद्रीय है.

वर्तमान विश्व व्यवस्था में जहां नई टीमें गति पकड़ रही हैं, वहीं पुरानी टीमें कमज़ोर पड़ रही हैं. ट्रांसअटलांटिक गठबंधन में स्पष्ट दरारें दिखाई दे रही हैं, ट्रंप लगातार यूरोपीय देशों की धमकी देते आ रहे हैं. कभी वो कहते हैं कि अगर सदस्य देश नए रक्षा खर्च के लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रहते हैं तो अमेरिका नाटो से अलग हो जाएगा. हाल ही में ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के दौरान अमेरिका और यूरोप के बीच फिर से टैरिफ युद्ध शुरू हुआ है. यूरोपियन यूनियन ने भी ट्रंप को उसी तरह जवाब दिया गया है. उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ ने अमेरिकी वस्तुओं के निर्यात पर 26 अरब यूरो तक के टैरिफ लगाए, जो यूरोपीय संघ के 18 अरब यूरो से अधिक के निर्यात को प्रभावित करने वाले अमेरिकी टैरिफ के बराबर हैं. इन मुद्दों को सुलझाना आसान नहीं है, खासकर कथित रूसी ख़तरे की तात्कालिकता को देखते हुए. नाटो के यूरोपीय सहयोगियों को ऋण और राजकोषीय स्थिरता के दबावों के कारण इस संगठन के नए रक्षा व्यय लक्ष्यों को पूरा करने में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है. अमेरिका की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. अपने ऋण और राजकोषीय स्थिरता के मुद्दों को देखते हुए, अमेरिका भी नाटो को अकेले नहीं चला सकता. मई 2025 में मूडीज़ ने अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग कम की है. एक सदी से भी ज़्यादा समय में पहली बार अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग कम हुई है, इससे ही अमेरिका पर पड़ रहे आर्थिक दबाव की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. ऐसे में, इस चुनौती को सिर्फ 'ट्रम्प का मुद्दा' नहीं समझा जाना चाहिए. इसके अलावा, चूंकि टैरिफ युद्धों के उदाहरण पहले ही स्थापित हो चुकी हैं, इसलिए अब वो एक ऐसे हथियार या उपकरण का काम करते हैं जिसका इस्तेमाल करना शायद अमेरिका जारी रखेगा, फिर भले ही वहां किसी की भी सरकार हो. ऐसे में सवाल है कि आखिर परिस्थिति का फायदा उठाने की वैकल्पिक व्यवस्था क्या है? वर्तमान में 'सहयोगी' और 'साझेदार' के बीच का पारंपरिक अंतर धुंधला हो गया है. सुरक्षा गठबंधनों और आर्थिक साझेदारियों में भी पहले जैसी मज़बूती नहीं रह गई है.

ब्रिक्स की यही क्षमता वर्तमान में पश्चिमी नेतृत्व वाले विनिमयों को टक्कर देगी और स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देगी. ये सब ब्रिक्स को ना सिर्फ महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाता है, बल्कि प्रत्यक्ष अंतरराष्ट्रीय और घरेलू प्रभावों के साथ वैश्विक वस्तुओं में संभावित मूल्य-निर्धारक भी बनाता है.

सबसे बड़ी बात ये है कि वैश्विक व्यवस्था में कुछ ऐसे अप्रत्याशित नए खिलाड़ियों का प्रवेश हुआ है, जिनकी वजह से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी बहुपक्षीय संस्थाओं का मौलिक रूप से बदल गया है. ये नए खिलाड़ी हैं, वो नॉन स्टेट एक्टर, जो सत्ता का प्रयोग ऐसे तरीकों से करते हैं जिन्हें ना तो पूरी तरह से समझा जा सकता है और न ही उनका पूरी तरह से हिसाब लगाया जा सकता है. ये किसी एक सरकार या राष्ट्र के अधीन नहीं होते. इनमें तकनीकी कंपनियां, सैन्य ठेकेदार, ग्लोबल एक्टिविस्ट नेटवर्क, गैर सरकारी संगठन या मीडिया जैसे नॉन स्टेट एक्टर शामिल हैं. 2024 के एक अध्ययन में बताया गया है कि, चाहे वो ग्रेटा थनबर्ग द्वारा जलवायु मुद्दों पर दुनिया का ध्यान आकर्षित करना हो, विभिन्न देशों में स्वास्थ्य और कृषि नीतियों को आकार देने वाले परोपकारी संस्थाएं हों, या घरेलू नौकरशाही और बहुपक्षीय संस्थानों को प्रभावित करने वाले एनजीओ नेटवर्क और सार्वजनिक-निजी भागीदारी हों, ऐसे गैर-राज्य बहुराष्ट्रीय अभिनेता अब उन मामलों पर वैश्विक नीति निर्धारण के शक्तिशाली 'वाहक' के रूप में कार्य करते हैं, जो शक्तियां पहले सिर्फ राष्ट्रों लिए आरक्षित थी. प्रसिद्ध विद्वान थॉमस वीस ऐसे लोगों, संगठनों और संस्थाओं को बहुपक्षीय एजेंडों में उनके महत्वपूर्ण प्रभाव के कारण 'तीसरा संयुक्त राष्ट्र' कहते हैं (जिसमें 'प्रथम संयुक्त राष्ट्र' स्वयं संस्था है और 'द्वितीय संयुक्त राष्ट्र' इसके नौकरशाह हैं).

पिछले दशक में तकनीकी कंपनियां विशेष रूप से महत्वपूर्ण रही हैं. 2024 का एक अन्य अध्ययन घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, दोनों ही क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी कंपनियों के असाधारण प्रभाव को उजागर करता है. फिर चाहे वो अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देशों में पैलंटियर जैसी सरकारी निगरानी को सक्षम करना हो, या विदेशी नियमों के साथ टकराव हो, जैसा कि मेटा (फेसबुक-इंस्टाग्राम-व्हाट्सऐप की मालिक) ने अमेरिकी निगरानी कानूनों के तहत यूरोपीय संघ के उपयोगकर्ताओं के व्यक्तिगत डेटा को अमेरिकी सर्वरों में स्थानांतरित करने में किया है, या उसे सरकारी रणनीतिक उद्देश्यों के हिसाब से ढाला है. ऐसा ही उदाहरण बायडू और अलीबाबा के एआई और सेमीकंडक्टर में निवेश और ओपनएआई द्वारा जेनएआई के सैन्य उपयोग के लिए समर्थन में देखा गया है. तकनीकी फर्म सक्रिय रूप से "सुपर पॉलिसी उद्यमियों" के रूप में नीतियों को आकार देती हैं. इन सभी नॉन स्टेट एक्टर्स को जो शक्ति हासिल हैं, वो वर्तमान बहुपक्षीय संस्थाओं में पारंपरिक जवाबदेही तंत्र की पहुंच से बाहर है. ऐसे में ये प्रौद्योगिकी कंपनियां वैश्विक व्यवस्था के लिए अनिवार्य और विघटनकारी दोनों बन गए हैं.

इन सभी बदलावों में सबसे खास बात ये है कि इस खेल में किसी रेफरी का अभाव है. तकनीकी के क्षेत्र में अमेरिका का आधिपत्य और स्थिरता युद्धोत्तर शासन संस्थाओं का आधार रही. हालांकि, यह धारणा ना तो समय की कसौटी पर खरी उतरी, ना ही अमेरिका ने इन प्रणालियों को प्रभावी ढंग से संचालित करने की भूमिका निभाई है. अमेरिका ने अब उन्हें काफी हद तक त्याग दिया है, जिससे खेल बिना रेफरी के रह गया है. रेफरी निष्पक्ष था या नहीं, यह एक अलग सवाल है, लेकिन हकीकत यह है कि बहुपक्षीय व्यवस्था फिलहाल अस्थिर है.

नाकाम संस्थाओं और अस्थिर वैश्विक व्यवस्था के बीच नई रणनीतियां

वैश्विक शासन व्यवस्था में नई रणनीतियां विकसित हुई हैं, और साथ ही खेल का क्षेत्र भी बदल रहा है. वैश्विक बाज़ारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालना, टैरिफ़ युद्धों में शामिल होना, सीमा पार निगरानी का लाभ उठाना, और गैर-सरकारी तत्वों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय एजेंडा तय करना, शक्ति और प्रभाव बढ़े के प्रमुख साधन बन गए हैं. नए खिलाड़ियों के प्रवेश और पुराने खिलाड़ियों की संस्थाओं को नवीकृत करके, वैश्विक एजेंडे को नए तरीके से आकार दिया जा रहा है. इन परिवर्तनों के बारे में बहुपक्षीय संस्थाओं का मूल डिजाइन ना तो पूर्वानुमान लगा सकता है और ना ही उसे नियंत्रित कर सकता है.

सबसे बड़ी बात ये है कि वैश्विक व्यवस्था में कुछ ऐसे अप्रत्याशित नए खिलाड़ियों का प्रवेश हुआ है, जिनकी वजह से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी बहुपक्षीय संस्थाओं का मौलिक रूप से बदल गया है.  

फिर भी "स्कोरिंग सिस्टम" पुराना ही बना हुआ है. सतत विकास के लक्ष्य या पेरिस समझौते के जलवायु लक्ष्य जैसे मानक अभी भी बीते ज़माने की मान्यताओं और ढांचों पर टिके हुए हैं. दुनिया इनमें से किसी भी लक्ष्य को हासिल करने से बहुत दूर हैं, और किसी की जवाबदेही भी तय नहीं है. इनकी संभावित नाकामी की एक वजह ये भी है कि लागू करने योग्य परिणामों के बिना, ये लक्ष्य कुछ ज़्यादा ही ऊंचे हैं और शायद यही इनकी घटती हुई स्वीकार्यता की वजह हैं. बदलती वैश्विक वास्तविकताओं को ध्यान में रखे बिना, इन मानकों को बार-बार नया स्वरूप देने से ना तो इन्हें ज़्यादा वैधता मिलेगी और न ही गति. इस स्तर पर, इन पुरानी स्कोरिंग प्रणालियों से चिपके रहना शायद एक डूबती हुई लागत का भ्रम है.

 
इस पूरी व्यवस्था में एक प्रमुख घटक की कमी है, और वह है इसकी अवधि. किसी भी सामान्य खेल की तुलना में बहुपक्षवाद के 'खेल' का कोई निश्चित अंत नहीं होता, जो इसे और जटिल बनाता है. जब इसे हासिल करने के लिए अल्पकालिक पैंतरेबाज़ी को बढ़ावा दिया जाता है तो ये व्यवस्थागत खामियों के परिणामों को और बढ़ा देता है.

निष्कर्ष

अपने वर्तमान स्वरूप में बहुपक्षवाद में साझा उद्देश्यों का अभाव है, यहां तक कि पारंपरिक सहयोगियों और साझेदारों के बीच भी आमराय नहीं दिख रही है. इस संस्थाओं का निर्माण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शांति और स्थिरता के लिए किया गया गया था, लेकिन ये मूल्य सिर्फ बड़े संकट के समय ही समझ आते हैं. आज की परिस्थिति में दांव ऊंचे हैं, शक्ति बिखरी हुई है, ऐसे में खिलाड़ियों के रणनीतिक साझा उद्देश्यों को कम करके आंका जाता है. जिसे चरम "खेल का समय" माना जाता है, वो वास्तव में व्यवस्थागत अराजकता है, क्योंकि खेल के नए नियम पुरानी व्यवस्था से आगे निकल गए हैं. वैश्विक शासन उससे कदम मिलाने की कोशिश कर रहा, लेकिन अब तक नाकाम है.

इस व्यवस्था में सुधारों को लेकर होने वाली बहसें हर पक्ष की प्राथमिकताओं और एजेंडे को प्रतिबिंबित करती हैं. सभी एक ही बात पर सहमत हो सकते हैं कि व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है. व्यापक असहमति और गतिरोध इस बात के संकेत हैं कि, चाहे हम इसे किसी भी नज़रिए से देखें, अब कोई भी इस खेल को नहीं खेलना चाहता या मौजूदा व्यवस्था पर पूरी तरह भरोसा नहीं करता. जब खेल पूरी तरह बदल जाता है और कोई भी उसे खेलना नहीं चाहता. इसका दुष्परिणाम ये होता है कि व्यवस्था ना सिर्फ रुक जाती है, बल्कि ढह जाती है, जिससे वैश्विक परिदृश्य थोड़ा और ज़्यादा असुरक्षित हो जाता है.


लावण्या मणि ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं.

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Lavanya Mani is a Fellow at ORF, where she plays a key role on the curatorial team, shaping the thematic direction and programming of ORF’s ...

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