Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jun 30, 2025 Updated 0 Hours ago

ईरान में सत्ता परिवर्तन के आह्वान से पश्चिम फिर से आर्थिक और अन्य महत्वपूर्ण नुकसान झेल सकता है, जबकि ऐसा करते हुए मध्य-पूर्व की जटिल राजनीतिक, धार्मिक और रणनीतिक सच्चाइयों को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. 

ईरान में सत्ता परिवर्तन की योजना बनाना एक ख़तरनाक रुमानी सोच

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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के तीन प्रमुख परमाणु केंद्रों- फोर्डो, नतांज़ और इस्फ़हान पर सामरिक हमले करने का फ़ैसला लेकर वाशिंगटन को उस युद्ध में धकेल दिया, जो इज़रायल और ईरान के बीच चल रहा है. अमेरिकी खुफ़िया विभाग द्वारा यह संकेत दिए जाने के बावजूद कि तेहरान द्वारा परमाणु हथियार बनाने के तेज़ प्रयास करने के पर्याप्त सुबूत नहीं हैं, इज़रायल ने ट्रंप को बताया कि तेहरान परमाणु हथियार बनाने के क़रीब पहुंच गया है और इस मामले में वह खुफ़िया जानकारी जुटाने में सफल रहा है.

ईरान ने मध्य-पूर्व (भारत के लिहाज़ से पश्चिम एशिया) में अमेरिका के सबसे बड़े सैन्य केंद्र कतर के अल उदीद बेस पर मिसाइल दागकर जवाब दिया, जिससे संघर्ष में एक नया मोड़ आ गया. कतर के इतिहास में यह पहला मौका है, जब उसे अपने किसी मित्रवत पड़ोसी देश की सैन्य आक्रामकता का जवाब देना पड़ा है. पूर्व में दोहा ने ही ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर बातचीत की मेजबानी की है और हमास, इज़रायल व अमेरिका के बीच मध्यस्थता करवाई है.

ईरान आने वाले दिनों में किस तरह की जवाबी प्रतिक्रिया देता है, इस पर नज़र रखी जा रही है, मगर ईरान में सत्ता परिवर्तन की सोच इज़रायल और अमेरिका, दोनों में समान रूप में देखी जा रही है.

ज़ाहिर है, रणनीतिक गेंद अब ईरान के पाले में है, और शायद देश के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनेई अब और विशेष फ़ैसला ले सकते हैं. ईरान आने वाले दिनों में किस तरह की जवाबी प्रतिक्रिया देता है, इस पर नज़र रखी जा रही है, मगर ईरान में सत्ता परिवर्तन की सोच इज़रायल और अमेरिका, दोनों में समान रूप में देखी जा रही है. अपनी टीम द्वारा यह दावा किए जाने के बावजूद कि अमेरिकी हमले केवल ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लक्ष्य बनाकर किए गए और राजनीतिक बदलाव की कोई मंशा नहीं थी, ट्रंप ने सोशल मीडिया पर सबसे पहले ईरान से ‘बिना शर्त आत्मसमर्पण’ करने की मांग की, और अब यह पूछा है कि अगर वहां के नेता ‘ईरान को फिर से महान’ नहीं बना सकते, तो देश में सत्ता परिवर्तन क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

सत्ता परिवर्तन को रूमानी बनाने की भू-राजनीति

शासन में बदलाव की भूमिका बनाना अमेरिका के लिए कोई नई बात नहीं है. अफ़ग़ानिस्तान और इराक जैसे हाल के वर्षों के उदाहरण यही बताते हैं कि अमेरिका अपनी इस मंशा में ज़्यादातर विफल रहा है और इस कारण उसे खरबों डॉलर का नुकसान भी उठाना पड़ा है. 1953 में, ब्रिटिश और अमेरिकी खुफ़िया एजेंसियों द्वारा समर्थित एक तख़्तापलट ने मोहम्मद मोसादेग की निर्वाचित ईरानी सरकार को गिरा दिया था और उनकी जगह ईरान के शाह मोहम्मद रजा पहलवी को बिठा दिया, जो पश्चिम समर्थक थे. यहां पश्चिम के दख़ल देने का मुख्य कारण अबादान संकट था, क्योंकि मोसादेग ने अपने देश की तेल परिसंपत्तियों को एंग्लो-ईरानी तेल कंपनी (इसे आज BP के रूप में जाना जाता है) के नियंत्रण से हटाने का फ़ैसला लिया और अबादान से पश्चिमी रिफाइनरों को बाहर निकाल दिया था.

मोसादेग को सत्ता से हटाने की इस कार्रवाई ने 1979 की इस्लामी क्रांति की बुनियाद तैयार की, जिसके माध्यम से शाह को हटा दिया गया और फ्रांस में निर्वासन में रह रहे अयातुल्ला खामेनेई सत्ता संभालने तेहरान लौट आए, जो ईरान के सर्वोच्च आध्यात्मिक व राजनीतिक नेता बने. तब से ईरानी सत्ता की नींव विचारधारा, धर्मशास्त्र और भू-राजनीति में सिमटकर रह गई है, जिसमें इज़रायल और अमेरिका को ईरान के अस्तित्व के लिए ख़तरा और मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश किया जाता है.

इज़रायल ने ईरान को गंभीर झटके दिए हैं. यहां तक कि उसकी सैन्य क्षमताओं का जितना निराशावादी विश्लेषण किया जा सकता है, उससे कहीं अधिक ईरान को नुकसान पहुंचाया गया है.

हालांकि, 2025 में ईरान में सत्ता परिवर्तन एक सपना ही बना रह सकता है. जरूरी नहीं कि इसकी वजह क्षेत्र में और क्षेत्र के बाहर ईरान की हैसियत है, बल्कि इसलिए कि इस तरह के प्रयास अमेरिकी सुरक्षा हितों के लिए हानिकारक रहे हैं. इसकी पुष्टि 2003 में इराक से लेकर 2011 में लीबिया तक होती है. सद्दाम हुसैन और मुअम्मर गद्दाफी को सत्ता से हटाए जाने के बाद से बगदाद और त्रिपोली, दोनों ही अपनी राजनीतिक अक्षमताओं से जूझ रहे हैं. इज़रायल ने ईरान को गंभीर झटके दिए हैं. यहां तक कि उसकी सैन्य क्षमताओं का जितना निराशावादी विश्लेषण किया जा सकता है, उससे कहीं अधिक ईरान को नुकसान पहुंचाया गया है. इज़रायल ने तो तेहरान के हवाई क्षेत्र पर क़रीब-क़रीब क़ब्ज़ा ही कर लिया.

घरेलू और क्षेत्रीय उलझनें

मगर ईरान के सर्वोच्च नेता सिर्फ देश के राजनीतिक मुखिया नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिक और धार्मिक नेता भी हैं. अयातुल्ला खामनेई 85 साल से अधिक के हो गए हैं और 1989 से सत्ता में हैं. उन्होंने पिछले दशकों में ईरान में इस्लामी क्रांति की जड़ों को गहरा ही किया है. तात्कालिक राजनीतिक विकल्प की गैर-मौजूदगी का मतलब है कि शीर्ष नेतृत्व को निशाना बनाने से अयातुल्ला अपने उत्तराधिकार को लेकर योजनाएं तेज़ी से लागू करने का प्रयास कर सकते हैं, जैसा हमने इज़रायल द्वारा लक्ष्य बनाकर किए गए हमलों में मारे जाने के बाद इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) सहित शीर्ष सैन्य नेतृत्व को बदलने के तौर-तरीकों में देखा है.

हालांकि, ईरानी क्रांति की धार्मिक हैसियत और उसे सीधी चुनौती देने के संभावित प्रभाव पर भी विशेष ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. जिस तरह इजरायल खुद को यहूदी पहचान और यहूदी सुरक्षा की भूमि के रूप में देखता है, उसी तरह ईरान को भी दुनिया भर में रहने वाले लाखों शिया मुसलमान अपनी सुरक्षा और पहचान के रूप में देखते हैं. अयातुल्ला को खुलेआम निशाना बनाए जाने का असर सभी देशों और क्षेत्रों में हो सकता है. भारत में भी मुस्लिम आबादी का 15 से 17 प्रतिशत हिस्सा शियाओं का है. यानी, यह कदम सांप्रदायिक विभाजन के नाजुक संतुलन को बिगाड़ सकता है, जो आज भले ही दबा हुआ है, लेकिन मध्य-पूर्व में बना हुआ है. यह एक बार फिर अधिक उग्र रूप में सामने आ सकता है और पड़ोस के अरब देशों में फैल सकता है.

सांप्रदायिक समूहों के अलावा, ईरानी समाज के उदारवादी भी, जिन्होंने कई मुश्किलों के बाद ईरान के 2024 के चुनावों में एकमात्र उदारवादी उम्मीदवार मसूद पेजेशकियन को सत्ता दिलाई, शासन का विरोध करने के बजाय प्रभावी रूप से ईरानी राष्ट्रवाद का हाथ मज़बूत कर सकते हैं. गाज़ा में इज़रायल के सैन्य अभियान और उसके कारण वहां आम लोगों को पहुंचे नुकसान ने राजनीतिक विभाजन के बावजूद देश में इज़रायल के ख़िलाफ़ नकारात्मक माहौल बनाने का काम किया है. ईरान के ख़िलाफ़ लंबे समय तक चलने वाले सैन्य अभियान इस तरह की सोच को और मज़बूत बना सकते हैं, फिर चाहे, पश्चिम में रहने वाले ईरानी प्रवासी मौजूदा सत्ता व्यवस्था को हटाने का समर्थन ही क्यों न करें. 

इस सब में, IRGC की केंद्रीय भूमिका भी एक अहम मुद्दा है. ईरानी समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति पर इसका बड़ा प्रभाव है और अयातुल्ला का संरक्षण इसका मूल सिद्धांत है. IRGC की हैसियत इस एक बात से समझी जा सकती है कि वह सीधे सर्वोच्च नेता के संरक्षण में काम करता है और एक संस्था के रूप में अपने अस्तित्व के लिए वहां के शासन-ढांचे में मज़बूत साझेदार बना हुआ है. यहां तक कि 2022 से तेज हो गई अयातुल्ला की उत्तराधिकार योजनाओं में भी IRGC की प्रभावशाली भूमिका होने की उम्मीद अधिक की जा रही है.

एकमात्र ऐसा क्षेत्र, जहां ईरान के इन दोनों शक्तिशाली केंद्रों को अब भी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वह है- हवाई क्षेत्र में इज़रायल का दबदबा.

एकमात्र ऐसा क्षेत्र, जहां ईरान के इन दोनों शक्तिशाली केंद्रों को अब भी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वह है- हवाई क्षेत्र में इज़रायल का दबदबा. IRGC के पास रक्षा उत्पाद कम होंगे और कर्मियों की संख्या में लगातार कमी आएगी, तो वह संघर्ष करने और जवाबी उपाय करने के लिए मजबूर हो सकती है. कोई हवाई सुरक्षा न रहने के कारण, वह यमन में हुतियों और लेबनान में हिज़बुल्लाह जैसे गुटों की बची क्षमताओं को लंबे समय तक टिकाऊ बनाए रखने पर विचार कर सकती है. बेशक, जो आमतौर पर नष्ट हो जाता है, जरूरी नहीं कि उसे ख़त्म कर दिया गया है. मगर अभी, ईरान के इन छद्म संगठनों का शायद ही बड़ा प्रभाव पड़ सकता है. हिज़बुल्लाह ने तो कहा भी है कि ईरान के प्रति समर्थन और वफ़ादारी दिखाने के लिए इज़रायल पर हमला करने की उसकी कोई योजना नहीं है.

इज़रायल का पलड़ा भारी

ईरान में राजनीतिक परिवर्तन की रणनीतिक योजना बनाने या उस दिशा में आगे बढ़ने का मुद्दा इज़रायल से उठेगा, अमेरिका से नहीं. वाशिंगटन डी. सी. इज़रायल को इससे अलग सलाह नहीं दे सकता, लेकिन वह तब तक इसके लिए इज़रायल की मदद नहीं करेगा, जब तक क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य संपत्तियों को ईरान और अधिक निशाना नहीं बनाएगा या जान-माल का नुकसान नहीं करेगा. ईरान पर हमला करके ट्रंप ने पहले ही अपने उस वायदे को तोड़ दिया है, जो उन्होंने चुनाव के समय दिए थे कि वह किसी अन्य देश के युद्ध में शामिल नहीं होंगे. ईरानी शासन यह कार्ड खेल सकता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अगर उसके अस्तित्व को चुनौती दी जाती है, तो व्हाइट हाउस के लिए यह एक दलदल बन जाए.

कुल मिलाकर कहें, तो ट्रंप द्वारा वक्त-बेवक्त दखल देने के बावजूद, जिसका एलान वह अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर करते रहते हैं, ईरान और इज़रायल को फंसाने वाली बुनियादी चुनौतियां बनी रहेंगी.

इन सभी घटनाक्रमों से क्षेत्र के ज़्यादातर देशों की नज़र है. पड़ोसी के खाड़ी देशों के लिए, जिनको हाल के वर्षों में विश्व स्तर पर कुछ बड़ी आर्थिक सफलताएं मिली हैं, यह एक नई और अप्रत्याशित स्थिति है, क्योंकि संघर्ष सीमाओं से आगे निकल गया है. इस बीच, ईरान के ख़िलाफ़ इज़रायल की लगातार सामरिक सफलताएं इन देशों के नीति-निर्माताओं को अंतरराष्ट्रीय दबाव से बचने और जितना संभव हो सके, ईरान को उतना नुकसान पहुंचाने के लिए प्रेरित कर रही हैं. यह सिर्फ ईरानी परमाणु और सैन्य स्थलों के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि ईरानी सत्ता की पकड़ को कमजोर करने के लिए IRGC केंद्रों के ख़िलाफ़ भी है. ईरान की क्षमता को कम करना इज़रायली रणनीतिकारों के लिए आकर्षक रणनीति बनी रहेगी. हाल ही में IRGC की बासिज और अल्बोरज़ सेनाओं को, जो विशेष रूप से आंतरिक सुरक्षा और शासन की राजनीतिक स्थिरता को बनाए रखने का काम करती हैं, जिस तरह से निशाना बनाया गया, वह इसी सोच की ओर इशारा करती है. विपक्षी राजनीतिक नेताओं को बंदी बनाकर रखने के लिए प्रसिद्ध एविन जेल पर भी हमला किया गया, ताकि वहां बंद कैदियों को छुड़ाया जा सके.

कुल मिलाकर कहें, तो ट्रंप द्वारा वक्त-बेवक्त दखल देने के बावजूद, जिसका एलान वह अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर करते रहते हैं, ईरान और इज़रायल को फंसाने वाली बुनियादी चुनौतियां बनी रहेंगी. इज़रायल ने ईरानी सुरक्षा तंत्र को बेअसर करने के लिए अलग नज़रिये का फ़ायदा उठाया, जिससे तेहरान की स्थिति सिर्फ सांस चलने लायक रह गई है. ईरान इन सबसे कैसे निपटता है, उसका सीधा और लंबे समय तक प्रभाव उसके राजनीतिक ढांचे की स्थिरता पर पड़ेगा, जिसकी सुरक्षा आज भी तेहरान का सबसे बड़ा उद्देश्य है.


(कबीर तनेजा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम के उप-निदेशक और फेलो हैं)  

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