भले काग़ज़ पर ही सही पर अफ़ग़ानिस्तान पर ध्यान टिकाने वाला सबसे मुनासिब अंतरराष्ट्रीय संगठन शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) ही हो सकता है. बीते हफ़्ते दुशांबे ने एससीओ के सदस्य देशों की सरकारों के प्रमुखों की 20वीं सालाना सम्मेलन की मेज़बानी की. हालांकि सम्मेलन के आग़ाज़ से पहले ही मौजूदा अवसर का लाभ उठाने के लिए तमाम सदस्य देशों के आगे आने और अफ़ग़ानिस्तान मसले से निपटने को लेकर समान नज़रिया पेश किए जाने के बेहद कम आसार नज़र आ रहे थे. अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसा देश है जो भौगोलिक रूप से इस संगठन में शामिल देशों के बिल्कुल सामने खड़ा है. स्थानीय तौर पर ये हक़ीक़त एक बार फिर उभर कर सामने आ गई है. दरअसल, एससीओ के सभी 7 स्थायी सदस्यों ने बीते हफ़्ते इस संगठन में ईरान को शामिल करने की मंज़ूरी दे दी. इस प्रकार अब अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी के तौर पर सिर्फ़ तुर्कमेनिस्तान ही वो अकेला देश बच गया है जो एससीओ का पूर्ण सदस्य नहीं है. ग़ौरतलब है कि तुर्कमेनिस्तान अपनी निर्गुटता की नीति को आक्रामकता के साथ अपनाने के लिए जाना जाता है.
एससीओ में आंतरिक मतभेद उसकी सांगठनिक कमज़ोरियों की निशानी नहीं है और न ही ये संगठन अप्रासंगिक हुआ है. बाहरी ताक़तों को इस तरह के निष्कर्ष नहीं निकालने चाहिए. हालांकि, ये बात अपनी जगह ठीक हो सकती है कि एससीओ क्षेत्रीय तौर पर नेटो या आसियान जैसा संगठन नहीं बनने जा रहा है.
जैसा सम्मेलन से पहले माना जा रहा था वैसा ही नतीजा देखने को मिला. अफ़ग़ानिस्तान के नए हुक्मरानों और इस पूरे इलाक़े में तेज़ी से फैलते तनावों से निपटने को लेकर क्षेत्रीय रूप से बंटी हुई राय सामने आई. बहरहाल बाहरी शक्तियों को यहां सतर्क रहने की ज़रूरत है. एससीओ में आंतरिक मतभेद उसकी सांगठनिक कमज़ोरियों की निशानी नहीं है और न ही ये संगठन अप्रासंगिक हुआ है. बाहरी ताक़तों को इस तरह के निष्कर्ष नहीं निकालने चाहिए. हालांकि, ये बात अपनी जगह ठीक हो सकती है कि एससीओ क्षेत्रीय तौर पर नेटो या आसियान जैसा संगठन नहीं बनने जा रहा है. इसके उलट एससीओ के ज़रिए ये बात खुलकर सामने आती है कि यूरेशियाई सरज़मी पर इसकी भूमिका को लेकर पारस्परिक तौर पर बेहद अलग-अलग नज़रिया देखने को मिल रहा है. इनमें सबसे प्रमुख देश चीन है जो यूरेशियाई भूक्षेत्र में अपना दबदबा बनाने के लिए एससीओ को बेहद उपयोगी माध्यम के तौर पर देखता है.
एससीओ की स्थापना 2001 में 9/11 की आतंकी वारदात के चंद महीनों पहले हुई थी. दरअसल शुरुआत में इस संगठन की स्थापना के पीछे शीत युद्ध के परवर्ती कालखंड में सामने आया ढांचा था. भूतपूर्व सोवियत संघ के साथ चीन अपनी सरहदों को स्पष्ट तौर पर रेखांकित करना चाहता था. उसकी इसी चाहत ने एससीओ की नींव रखी. औपचारिक तौर पर स्थापना के पहले इसका स्वरूप शंघाई फ़ाइव के तौर पर था. इसमें चीन, रूस, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान और कज़ाकिस्तान शामिल थे. इसके बाद इसमें उज़्बेकिस्तान को भी शामिल कर लिया गया. हालांकि ये बात उसी वक़्त ज़ाहिर हो चुकी थी कि इस संगठन के भावी मकसद को लेकर तमाम देशों की व्याख्याएं भिन्न-भिन्न थीं. इतना ही नहीं संगठन में सबकी दिलचस्पी का स्तर भी अलग-अलग था. इसके बावजूद एक मसले पर सबकी राय समान थी और वो मसला था आतंकवाद का विरोध. कुछ हद तक ये सामान्य समझ और मानदंडों की बात है. एकाधिकारवादी ताक़तें सत्ता पर क़ाबिज़ रहना चाहती हैं. वो अपनी सत्ता के सामने मौजूद किसी भी ख़तरे को राजनीतिक हिंसा (दूसरे शब्दों में आतंकवाद) के तौर पर देखती हैं. लिहाज़ा ये एक ऐसा मुद्दा है जिसपर सबकी आम राय होना लाजिमी है. हालांकि तमाम सदस्य देशों को ये बात भी अच्छे से मालूम है कि वो अफ़ग़ानिस्तान के ठीक पड़ोस में बैठे हैं. अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसा देश है जिसने सोवियत संघ के पतन और एससीओ की स्थापना के बीच के दशक में क्षेत्रीय स्तर पर कई मुश्किलात पैदा किए हैं.
2001 में शंघाई में हुए उद्घाटन सम्मेलन के तत्काल बाद 11 सितंबर को अमेरिका पर आतंकवादी हमले हो गए. इस कांड ने पूरे हालात को और पेचीदा बना दिया. अमेरिका की अगुवाई में मित्र देशों ने अफ़ग़ानिस्तान पर धावा बोलकर वहां की तालिबानी सत्ता को उखाड़ फेंका. अमेरिका की इस कार्रवाई ने एससीओ द्वारा कोई क़दम उठाने की ज़रूरतों पर ही पानी फेर दिया
एससीओ और अफ़ग़ानिस्तान
एससीओ के सदस्य देशों के दिलोदिमाग़ में शुरू से ही अफ़ग़ानिस्तान छाया रहा है. जून 2001 में शंघाई में एससीओ की स्थापना से जुड़े समारोह में अपने उद्घाटन भाषण में कज़ाकिस्तान के राष्ट्रपति नज़रबायेव ने अफ़ग़ानिस्तान के बारे में चर्चा करते हुए उसे “आतंकवाद, अलगाववाद और उग्रवाद का पालना” करार दिया था. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान को एससीओ की आतंकवाद विरोधी मौलिक सोच के बिल्कुल विपरीत बताते हुए उसे “तीन बुराइयों” का अड्डा बताया था. उसी उद्घाटन सम्मेलन के दौरान चीनी सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ से अलग से बातचीत करते हुए ताजिकिस्तान (2021 शिखर सम्मेलन के मेज़बान) के राष्ट्रपति रहमान ने “अफ़ग़ानिस्तान के मसले को शांतिपूर्ण तरीक़े से हल करने के लिए साझा रुख़ अपनाने और एकजुट कार्रवाई करने की अपील” की थी. मुख्य समारोह में अपने संबोधन के दौरान किर्गिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अकायेव ने “उम्मीद जताई थी कि एससीओ के सदस्य देश इलाक़े के मुल्कों के लिए ख़तरा बन चुके अफ़ग़ान मसले से निपटने के लिए एकसाथ मिलकर काम करेंगे.” 2001 में एससीओ की स्थापना के मौके पर जुटे तमाम देश किसी न किसी कालखंड में हिंसक इस्लामिक आतंकवाद का सामना कर चुके थे. इनमें से ज़्यादातर वारदातों में किसी न किसी रूप में अफ़ग़ानिस्तान की भूमिका रही थी.
हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान को लेकर इस तरह की व्याकुलता के बावजूद वजूद में आने के बाद से लेकर अबतक एससीओ ने उसे लेकर कोई भी ठोस क़दम नहीं उठाया है. कुछ हद तक इसके लिए बाहरी कारक ज़िम्मेदार रहे हैं. 2001 में शंघाई में हुए उद्घाटन सम्मेलन के तत्काल बाद 11 सितंबर को अमेरिका पर आतंकवादी हमले हो गए. इस कांड ने पूरे हालात को और पेचीदा बना दिया. अमेरिका की अगुवाई में मित्र देशों ने अफ़ग़ानिस्तान पर धावा बोलकर वहां की तालिबानी सत्ता को उखाड़ फेंका. अमेरिका की इस कार्रवाई ने एससीओ द्वारा कोई क़दम उठाने की ज़रूरतों पर ही पानी फेर दिया. दरअसल 9/11 के बाद ग़ुस्से से तमतमाया अमेरिका पूरी आक्रामकता के साथ काबुल पहुंचा था. उसने मानो वहां के हालात को सिर के बल पलट देने की ठान रखी थी. अफ़ग़ानिस्तान के हालात से परेशान तो सभी थे लेकिन ये अमेरिका ही था जिसने प्रभावी तौर पर वहां की तस्वीर ही बदल डाली. हालांकि एससीओ के कुछ सदस्य देश अपने पड़ोस में दीर्घकाल तक अमेरिकी फ़ौज की मौजूदगी को लेकर चिंतित भी थे. बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान के हालात उनकी सुरक्षा के लिए सीधी चुनौती पेश कर रहे थे और अमेरिका की कार्रवाई से ये हालात बदल गए थे. लिहाज़ा भविष्य को लेकर उनकी चिंताओं का तात्कालिक लाभ के साथ संतुलन कायम हो गया था.
भारत और पाकिस्तान दोनों के ही अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने विशिष्ट संबंध हैं. ये संबंध सीधे तौर से भारत-पाकिस्तान के बीच के संघर्षों से तय और प्रभावित होते हैं. मध्य एशियाई देश ज़रूर अफ़ग़ानिस्तान के हालातों को लेकर चिंतित हैं.
आने वाले वक़्त में भी अमेरिका के साथ ये तनाव लगातार जारी रहा. 2005 में ये टकराव तब कम हुआ जब इस इलाक़े में ‘रंग क्रांति’ के रूप में लोकशाही की बयार बहनी शुरू हुई. 2005 की वसंत ऋतु में किर्गिस्तान में तथाकथित ट्यूलिप क्रांति हुई. इसके बाद उसी साल मई के महीने में उज़्बेकिस्तान के अंदिजन में नरसंहार की वारदात हुई. पश्चिमी जगत ने किर्गिस्तान की घटना की जमकर तारीफ़ की तो दूसरी ओर उज़्बेकिस्तान की वारदात की घोर निंदा करते हुए इस पूरे इलाक़े के लिए ऐसे ख़तरों का अंदेशा जताया. हालांकि इन घटनाओं का एससीओ पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा. साफ़ तौर पर एससीओ अस्थिरता भरे इन हालातों से नाख़ुश था और अपने सदस्यों के पीछे मज़बूती से खड़ा रहा. हालांकि अफ़ग़ान मसले पर एससीओ के सदस्य देश अपनी डफ़ली अपना राग ही छेड़ते रहे. 2008/09 में अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान तक रसद आपूर्ति पहुंचाने के लिए नॉर्दर्न डिस्ट्रिब्यूशन नेटवर्क की स्थापना की. ये नेटवर्क यूरोप, रूस और मध्य एशिया के ज़मीनी इलाक़ो से होता हुआ अफ़ग़ानिस्तान को पहुंचता था. बहरहाल उज़्बेकिस्तान के अंदिजन में हुए नरसंहार की निंदा करने की वजह से अमेरिका को काशी ख़ानाबाद स्थित एक प्रमुख एयरबेस से हाथ धोना पड़ा था. हालांकि दूसरी ओर अमेरिका के लिए किर्गिस्तान के मनास एयरबेस का विस्तार भी हुआ.
चीन शुरू से ही एससीओ पर अफ़ग़ानिस्तान मसले पर और अधिक सक्रियता दिखाना का दबाव बनाता रहा है. 2005 में बीजिंग ने एससीओ कॉन्टैक्ट ग्रुप के गठन का समर्थन करते हुए इससे जुड़े प्रयासों को बढ़ावा दिया था. 2012 में बीजिंग शिखर सम्मेलन के दौरान चीन ने अफ़ग़ानिस्तान को आधिकारिक तौर पर पर्यवेक्षक देश के तौर पर संगठन में शामिल कर लिया. हालांकि बीजिंग की और से कूटनीतिक ऊर्जा ख़र्च किए जाने के बावजूद इस मोर्चे पर कुछ ख़ास हासिल नहीं हो सका. ऐसा लगता है कि चीन भी इस मसले से जुड़े हदों को स्वीकार करता है. यही वजह है कि वो अफ़ग़ानिस्तान से द्विपक्षीय जुड़ावों या दूसरे क्षेत्रीय बहुपक्षीय ढांचों की मदद लेने पर ज़्यादा ज़ोर देता रहा है. हक़ीक़त में चीन को छोड़कर शायद ही किसी और सदस्य देश ने कभी भी अफ़ग़ानिस्तान पर ज़ोर देने का दबाव बनाया हो. हालांकि, हाल के समय में ऐसा लग रहा था कि रूस एससीओ-अफ़ग़ानिस्तान कॉन्टैक्ट ग्रुप को ठोस रूप से दोबारा सक्रिय करने के विचार के प्रति गंभीर हुआ था. वैसे रूस की इस क़वायद का कोई नया नतीजा देखने को नहीं मिला. लिहाज़ा ऐसा लगता है कि रूस एक बार फिर अपनी सीधी सुरक्षा चिंताओं पर ज़ोर देने लगा है. इसके लिए वो ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को मज़बूत बनाने और तालिबान के साथ सतही तौर पर जुड़ाव जारी रखने पर ज़ोर दे रहा है.
दूसरी ताक़तों की ओर से भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिली है. भारत और पाकिस्तान दोनों के ही अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने विशिष्ट संबंध हैं. ये संबंध सीधे तौर से भारत-पाकिस्तान के बीच के संघर्षों से तय और प्रभावित होते हैं. मध्य एशियाई देश ज़रूर अफ़ग़ानिस्तान के हालातों को लेकर चिंतित हैं. इनमें से उज़्बेकिस्तान का झुकाव नए तालिबानी निज़ाम के साथ जुड़ाव बनाने की ओर दिखाई देता है. वहीं ऐसा लगता है कि अफ़ग़ान मसले पर किर्गी और कज़ाक सरकारों का रुख़ फ़िलहाल इंतज़ार करो और देखो का है. वहीं ताजिकिस्तान ने इस मसले पर बिल्कुल विपरीत रुख़ अपनाते हुए तालिबान के ख़िलाफ़ नॉर्दर्न अलायंस के प्रतिरोध का खुलकर समर्थन किया है. इस तरह से ताजिकिस्तान काबुल के नए हुक्मरानों के ख़िलाफ़ सबसे मुखर ताक़त के तौर पर उभरा है. नए नवेले सदस्य ईरान द्वारा भी अफ़ग़ानिस्तान से जुड़े भावी मसलों को लेकर एससीओ को सबसे अहम मंच के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की उम्मीद न के बराबर है. वहीं दूसरे पर्यवेक्षकों (जैसे मंगोलिया) या डायलॉग पार्टनरों (जैसे श्रीलंका या बेलारूस) के भी मौजूदा बेतरतीबी का हिस्सा बनने के ही आसार हैं.
एससीओ से इतर बाक़ी दुनिया इसे एकाधिकारवादी ताक़तों के जमावड़े के तौर पर देखती है. इतना ही नहीं सुरक्षा से जुड़े जो अहम सवाल एससीओ की कार्ययोजना सूची में सबसे ऊपर होनी चाहिए उनको लेकर इसका रुख़ और उसकी कार्रवाई बेहद ढीली ढाली रही है.
17 सितंबर को संपन्न हुआ एससीओ शिखर सम्मेलन
सम्मेलन में आंतरिक तनावों और कड़वाहटों की झलक देखने को मिली. भले ही मध्य एशियाई देशों ने अपने बीच के कई विवाद सुलझा लिए हों लेकिन हक़ीक़त यही है कि इस साल अप्रैल तक किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान के बीच सरहदों पर मारकाट हो रही थी. पाकिस्तान और भारत आम तौर पर अपनी द्विपक्षीय समस्याओं को इस मंच पर लेकर नहीं आते. हालांकि पिछले साल सितंबर ये परंपरा भी टूट गई. तब एससीओ के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के वर्चुअल सम्मेलन के दौरान पाकिस्तानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ़ द्वारा विवादित नक्शा पेश किए जाने पर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने ख़ुद को सम्मेलन से अलग कर लिया था. यूसुफ़ द्वारा पेश किया गया नक्शा भारतीय नज़रिए से मेल नहीं खाता था. बहरहाल एससीओ में ईरान के शामिल होने से संगठन में सहयोग को बढ़ावा देने पर ज़ोर रहेगा. हालांकि हक़ीक़त यही है कि सदस्यों की तादाद बढ़ने से और अधिक समस्याएं पैदा होने के आसार हैं.
हालांकि, ये बात भी सच है कि इस तरह के संगठन सिकुड़ते या ख़त्म नहीं होते बल्कि इनका तो फैलाव ही होता है. विस्तार की इस प्रक्रिया में एससीओ व्यापक यूरेशियाई भूक्षेत्र के कोने-कोने तक चीनी प्रभाव का बेहद बारीकी से प्रसार कर रहा है. इस प्रक्रिया को अब आगे पलटा नहीं जा सकता. एससीओ से इतर बाक़ी दुनिया इसे एकाधिकारवादी ताक़तों के जमावड़े के तौर पर देखती है. इतना ही नहीं सुरक्षा से जुड़े जो अहम सवाल एससीओ की कार्ययोजना सूची में सबसे ऊपर होनी चाहिए उनको लेकर इसका रुख़ और उसकी कार्रवाई बेहद ढीली ढाली रही है. हालांकि ये बात भी सच है कि इस संगठन के तहत कई क्षेत्रों में संवाद की प्रक्रिया कामयाबी से जारी है. विभिन्न सदस्य देशों के बीच जनता से जनता का जुड़ाव बना है. इतना ही नहीं ख़ासतौर से चीन ने संगठन के ज़रिए कई नई संस्थाओं को बढ़ावा दिया है. इससे चीनी हितों, जुड़ावों और मानकों को इस पूरे क्षेत्र में आगे बढ़ाने में मदद मिली है. ये बात सच है कि इनमें से कोई भी अपने आप में क्रांतिकारी बदलावों का वाहक नहीं है. बहरहाल एक साथ जोड़कर देखने पर हम पाते हैं कि ये तमाम प्रयास मिलकर हक़ीक़त में अपना असर दिखा रहे हैं.
ये बात साफ़ है कि अफ़ग़ानिस्तान मसले पर आगे कैसे बढ़ा जाए, इसको लेकर एससीओ के सदस्य देशों के बीच किसी भी तरह की कोई आम सहमति नहीं है. एससीओ के भीतर भी इस मसले पर अपने-आप कुछ करने के लिए कोई संस्थागत क्षमता मौजूद नहीं है. इसके बावजूद शिखर सम्मेलन के केवल इस पहलू पर ध्यान देकर बाक़ी दुनिया के देश वृहत यूरेशियाई भूक्षेत्र में एससीओ द्वारा कायम किए जा रहे विस्तृत मानकीकृत बुनियादों की जाने-अनजाने अनदेखी कर रहे हैं. इस इलाक़े में पहले से ही अमेरिका की भारी-भरकम पाबंदियों की ज़द में रहने वाली ताक़तों का बोलबाला है, ऐसे में एससीओ के ज़रिए चीन एक ऐसा ढांचा खड़ा कर रहा है जिसमें वो धीरे-धीरे अपना रुतबा और दबदबा बढ़ाकर उसे एक आम रिवायत के तौर पर स्थापित कर देगा.
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