Author : Ramanath Jha

Published on Jan 21, 2020 Updated 0 Hours ago

2020 के साल का इस्तेमाल हमें शहरी बुनियादी ढांचे की मरम्मत और रख-रखाव की व्यवस्था के लिए एक नई नीति के निर्धारण में करना चाहिए.

2020 के दशक की मांग है कि शहरों के बुनियादी ढांचे की मरम्मत और आधुनिकीकरण हो

बाक़ी दुनिया के साथ-साथ भारत ने भी 2011-20 के दशक के आख़िरी वर्ष में प्रवेश कर लिया है. इस दशक के दौरान शहरी भारत के लिए कई कार्यक्रमों और योजनाओं की शुरुआत हुई और उन्हें लागू किया गया. जहां तक जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण योजना (JNNURM) की बात है, जिस की शुरुआत पहले हुई थी, वो अपने आख़िरी चरण में प्रवेश कर चुका है. वहीं, भारत सरकार ने भारत के शहरों की बेहतरी के लिए छह नए मिशन की शुरुआत की. इन योजनाओं के नाम हैं- अटल मिशन फॉर रिजुवेनेशन ऐंड अर्बन ट्रांसफ़ॉर्मेशन या AMRUT, प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY) -या सबके लिए मकान योजना, स्मार्ट सिटी मिशन (SCM), हेरिटेज सिटी डेवेलपमेंट ऐंड अगमेंटेशन योजना (HRIDAY), स्वच्छ भारत मिशन (SBM) और दीनदयाल अंत्योदय योजना- नेशनल अर्बन लिवलीहुड मिशन (DAY-NULM). इन योजनाओं को शहरों में आवाजाही को बेहतर करने वाली योजनाओं का भी सहयोग मिला. कुल मिलाकर देखें, तो इन योजनाओं के माध्यम से शहरी जीवन स्तर बेहतर बनाने और शहरी सेवाओं के विस्तार का लक्ष्य हासिल करने की कोशिश की गई. दशक के आख़िरी चरण में भारत सरकार ने नेशनल अर्बन पॉलिसी फ्रेमवर्क 2018 (NUPF) को भी सामने रखा. इस फ्रेमवर्क ने भविष्य में भारतीय शहरों के लिए योजनाओं के निर्माण और उन्हें लागू करने में एकीकृत और आपसी सहयोग के बुनियादी ढांचे को प्रस्तुत किया. एनयूपीएफ को दो बुनियादी बातों के लिहाज़ से तैयार किया गया था. पहली बात तो ये कि एनयूपीएफ़ के केंद्र में दस सूत्र या दर्शन सिद्धांत हैं. दूसरी बात ये कि ये दस सूत्र शहरी इलाक़ों के प्रबंधन के दस कार्यान्वित क्षेत्रों में लागू किए गए. एनयूपीएफ़ ये मानता है कि शहरों का विकास राज्यों की ज़िम्मेदारी है. इसीलिए राज्यों को बढ़ावा दिया गया कि वो अपने अपने राज्य की अलग शहरी नीतियां तैयार करें और उन्हें लागू करने की योजनाएं बनाएं. लेकिन, वो इसी फ्रेमवर्क पर आधारित हों. भारत ने सभी राज्यों को ऐसी नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने में पूरा सहयोग करने का भरोसा दिया. शहरों की बेहतरी के लिए भारत सरकार के प्रयासों को देखते हुए, ये बात पूरे भरोसे से कही जा सकती है कि केंद्र सरकार ने पिछले एक दशक में बड़े प्रत्यक्ष तौर पर ख़ुद को शहरों के विकास के साथ जोड़ा है.

आने वाले दशक की बात करें, तो 2021 एक मील का पत्थर साबित होने वाला है. इस साल, देश भर में सबसे ताज़ा जनगणना होगी, जो हर दसवें साल होती है. इस से तमाम नए आंकड़े सामने आएंगे. 2021 से पहले के एक परीक्षण को पहले ही 12 अगस्त से 30 सितंबर 2019 के बीच, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पूरा किया जा चुका है. जनगणना के बारे में केंद्रीय गृह सचिव ने कहा था कि, ‘जनगणना केवल देश में मौजूद लोगों की गिनती की प्रक्रिया भर नहीं है. बल्कि इसके माध्यम से बहुमूल्य सामाजिक-आर्थिक आंकड़े भी जुटाए जाते हैं. इन्हीं की बुनियाद पर नीतियों का निर्माण और संसाधनों का बंटवारा होता है. जनगणना के माध्यम से तेज़ी से बदलती आबादी के जो सामाजिक-आर्थिक पैमाने सामने आते हैं, उन के आधार पर नीतियों को नए सिरे से बनाया जाता है. और देश इन्हीं आंकड़ों के आधार पर जनता के कल्याण की योजनाओं को तैयार करती है, ताकि लोगों का सामाजिक-आर्थिक स्तर बेहतर किया जा सके.’

पहले हुई जनगणना के सारे आंकड़े जारी करने में पहले कई बरस लग जाते थे. लेकिन, इस बार ऐसी उम्मीद की जा रही है कि आधुनिक तकनीक की मदद से हो रही जनगणना, आंकड़ों को जल्दी से इकट्ठा कर के इन्हें नए तथ्यों के साथ जल्द से जल्द जारी करने में मदद करेगी. जनगणना से मिली जानकारी के आधार पर भारत सरकार के अगले दस साल के लिए नीतियां बनाने की संभावना है. इसी मायने से कहें तो 2020 का साल वो आख़िरी टिमटिमाहट वाला वर्ष है, जब हम ये देख सकें कि पिछले एक दशक में सरकारों ने क्या किया. ये साल हमें ये मौक़ा भी देता है कि हम पुरानी योजनाओं की कमियों को दूर करने पर ध्यान दें, न कि जोश में नई-नई योजनाओं और कार्यक्रमों को ही लागू करते रहें. बेहतर होगा कि ये नई योजनाएं, 2021 की जनगणना के आंकड़ों के आने का इंतज़ार करें.

इस बीच, जब हम भारत में शहरीकरण की पहले की चुनौतियों और इनका सामना करने वाले शहरी स्थानीय निकायों की प्रतिक्रियाओं को देखें, तो, ये स्पष्ट हो जाता है कि पिछले कई दशकों से बड़ी तेज़ी से हो रहे शहरीकरण ने शहरी स्थानीय निकायों को अपनी सीमित भौगोलिक सीमाओं के दायरे में रह कर ज़्यादा आबादी की सेवा करने को मजबूर किया है. इस तथ्य का एक और अर्थ स्पष्ट है कि इन स्थानीय निकायों को नई संपत्तियां सृजित करने को मजबूर होना पड़ा है. उन्हें नई सड़कें बनानी ही होंगी, पानी की आपूर्ति बढ़ानी होगी. सीवेज सिस्टम को बेहतर बनाना होगा. सड़कों पर नई स्ट्रीट लाइटें लगानी होंगी और कचरा उठाने के ज़्यादा इंतज़ाम करने होंगे. लगभग इन सभी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए नई संपत्तियों के सृजन की ज़रूरत होती है. इसके अतिरिक्त सभी शहरों को, ख़ास तौर से बड़े शहरों को भारत सरकार द्वारा लायी गई नई योजनाओं को लागू करने का बोझ भी उठाना पड़ा है. हर शहर ने अपने स्तर पर इन योजनाओं को ही तरज़ीह दी है. क्योंकि अब शहरों की गुणवत्ता का निर्णय इसी आधार पर हो रहा है कि उन्होंने भारत सरकार द्वारा लागू की गई योजनाओं को कितनी कुशलता से लागू किया है.

लेकिन, ज़मीनी स्तर पर ऐसी कुछ और चुनौतियां हैं, जिन पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. नए सृजित किए गए संसाधनों का रख-रखाव करना पड़ता है. अगर वो अपनी मियाद पूरी कर चुके हैं, तो उन की जगह नए संसाधन तैयार करने होते हैं. इसका ये मतलब होता है कि शहरों के पास मौजूद संसाधनों के बंटवारे में ऐसा संतुलन बैठाना पड़ता है कि नई संपत्तियों का सृजन भी होता रहे और पुराने संसाधनों की मरम्मत और रख-रखाव भी समान रूप से हो. अगर शहरों को चुनने का मौक़ा मिले, तो उन्हें नई संपत्तियों के सृजन पर तभी ज़ोर देना चाहिए, जब वो मौजूदा संसाधनों का भलीभांति रख-रखाव कर पा रहे हों. क्योंकि नई संपत्तियों का सृजन एक मायने में भविष्य में एक बोझ को बढाने जैसा ही है. क्योंकि जब इन संपत्तियों का निर्माण हो जाएगा, तो फिर इन की गिनती मरम्मत मांगने वाले संसाधनों में होने लगती है. अब अगर आप उन चीज़ों को ठीक से नहीं संभाल सकते, जो आप के पास पहले से मौजूद हैं. तो फिर, अपनी ज़िम्मेदारियों का बोझ बढ़ाना बुद्धिमानी क़तई नहीं कहा जा सकता है. हालांकि, हमें ये समझना होगा कि कई बार ये विभेद ख़त्म हो जाता है. क्योंकि जिस आबादी को आप को सेवा मुहैया करानी होती है, उस का दबाव बढ़ता है, अगर उनकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए नगर निकायों के पास बुनियादी ढांचा और सार्वजनिक सेवाएं नहीं होती हैं.

अफ़सोस की बात ये है कि नगर निकायों के बीच ये चलन आम है कि वो नए संसाधनों के निर्माण पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं. न कि मौजूदा संसाधनों के रख-रखाव पर समय और पैसा लगाते हैं. केंद्र और राज्य सरकारों ने स्थानीय निकायों को इस रास्ते पर चलने को और भी मजबूर किया है. राजनीतिक दलों की कोशिश होती है कि वो शहर में अपना कुछ नया योगदान दें, जिससे मतदाताओं के ज़हन में उनकी सकारात्मक छवि बने. इस की मदद से वो दोबारा चुनाव जीतने की आस लगाते हैं. बहुत से नगर निकायों के प्रमुख कार्यकारी भी ऐसे ही मनोवैज्ञानिक दबाव में काम करते हैं. और अपने पूर्ववर्ती के काम को बेकार का बताते हैं. पुराने कामों की अनदेखी कर के अपने नाम पर नई योजनाओं की शुरुआत कर देते हैं. ये इंसानी कमज़ोरियां नए संसाधनों के विकास पर ज़्यादा ध्यान देते हैं. इस का नतीजा ये होता है कि पुरानी संपत्तियों का न ठीक से रख-रखाव होता है और न ही समय पर मरम्मत हो पाती है.

ये तब और ज़ाहिर होता है, जब पुराने पुल ढह जाते हैं. इमारतें गिर जाती हैं, या फिर उन में आग लग जाती हैं. सड़कों पर गड्ढों की भरमार हो जाती है. पानी और सीवर की लाइनें रख-रखाव की कमी से ठप होने लगती हैं. नालों और नालियों की सफ़ाई न होने की वजह से शहरों में बाढ़ आती है. भारत के तमाम शहरों में ये परेशानियां आम हैं. बुनियादी ढांचे की ये नाकामियां नहीं होतीं, अगर नगर निकाय, अपनी संपत्तियों का ठीक से रख-रखाव कर रहे होते.

नगर निकायों के बुनियादी ढांचों में पानी के शुद्धिकरण के संस्थान, सीवर लाइनें, सड़कें, बिजली की ग्रिड, पुल और अन्य कई शहरी सुविधाएं शामिल हैं. आम तौर पर लंबी आयु वाले संसाधनों को कई बार मरम्मत और नियमित रूप से रख-रखाव के क़दमों की ज़रूरत होती है. कई बार तो उन का पुनर्नवीकरण ही करना पड़ जाता है. अगर योजनाबद्ध तरीक़े से मरम्मत हो, तो इन संसाधनों के रख-रखाव का ख़र्च घट जाता है. लेकिन अगर यही मरम्मत का काम बिना सोचे-समझे किया जाए तो उन्हें इस की भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है. इसीलिए, ये ज़रूरी है कि हर शहर बुनियादी ढांचे के विकास और उस की मरम्मत को लेकर बुनियादी प्रक्रिया का पालन करे और अपनी संपत्तियों का अच्छे से रख-रखाव करे. इस दिशा में जो सब से पहला क़दम है वो है कि नगर निकायों के पास अपनी हर सपंत्ति का एक रिकॉर्ड मौजूद हो. मसलन, कितने में ख़रीदा गया था, उसकी सेवा की उम्र कितनी थी और पहले हुई मरम्मत और रख-रखाव वग़ैरह का रिकॉर्ड हो. दूसरी बात ये कि शहरी स्थानीय निकायों (ULB) को चाहिए कि वो नियमित रूप से अपनी संपत्तियों और संसाधनों की हालत की समीक्षा करें. तीसरी बात ये ध्यान में रखनी चाहिए कि सभी नगर निकाय एक सुनिश्चित योजना बनाकर अपनी संपत्तियों को चालू हालत में रखें. और, योजनाबद्ध तरीक़े से उनकी मरम्मत से ऐसा सुनिश्चित करें. ऐसे संसाधनों की उम्र पूरी होने पर उनकी जगह नई संपत्तियां लाई जाएं. और आख़िर में हर नगर निकाय को चाहिए कि वो इन व्यवस्थाओं को लागू करने और उन के प्रबंधन का एक सिस्टम लागू करे.

विकसित देशों में शहरी रख-रखाव के मैनेजमेंट सिस्टम अब ज़्यादा से ज़्यादा जियोग्राफ़िकल इन्फ़ॉर्मेशन सिस्टम यानी GIS का प्रयोग कर के अपनी संपत्तियों की हिफाज़त कर रहे हैं. जीआईएस की मदद से पश्चिमी देशों के नगर निकाय अपनी संपत्तियों के आंकड़े जुटाते हैं. उनका संरक्षण करते हैं. उनकी हालत की समीक्षा करते हैं और उन में ज़रूरत पड़ने पर बदलाव करते हैं. ताकि सभी आंकड़े एक-दूसरे से जुड़े हों और शहर का एक स्मार्ट नक़्शा तैयार रहे. नई नई तकनीकों की मदद से जीआईएस की क्षमता लगातार बेहतर हो रही है. और ये दिनों दिन सस्ता भी होता जा रहा है. इन तकनीकों को हमारे हर शहर में लागू करने के लिए एक सघन प्रयास किए जाने की ज़रूरत है. और इस के इस्तेमाल के लिए शहरी स्थानीय निकायों के कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिए जाने की भी ज़रूरत है.

किसी भी नगर निगम के बजट की घोषणा का विश्लेषण करने पर साफ़ हो जाता है कि नगर निकायों के संसाधनों के रख-रखाव की लगातार अनदेखी होती रही है. इस में बदलाव लाने की ज़रूरत है. चूंकि आज शहरों के एजेंडा राष्ट्रीय स्तर पर तय हो रहे हैं, तो यहां पर हम एक सुझाव देना चाहेंगे- 2020 के साल का इस्तेमाल हमें शहरी बुनियादी ढांचे की मरम्मत और रख-रखाव की व्यवस्था के लिए एक नई नीति के निर्धारण में करना चाहिए.

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