दुनिया लगातार संकट मैं ही दिख रही है. मध्य - पूर्व का युद्ध तो है ही, जो असल में कभी बंद ही नहीं हुआ, यूरोप भी युद्ध में बुरी तरह फंसा दिख रहा है, जहां मान लिया गया था कि वह इस तरह के संघर्षों से आगे निकल चुका है. इन तमाम उथल-पुथल के बीच दुनिया के एक खास हिस्से को करीब-करीब भुला दिया गया है, जो 11 सितंबर, 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद वैश्विक चर्चा का केंद्र बन गया था.
तालिबान का नया कानून अगस्त 2021 में अमेरिकी सेना की वापसी के बाद से अफगानिस्तान की ओर से दुनिया का ध्यान जैसे हट चुका है. यह दिखाने की कोशिश हो रही है कि यह देश कोई मुद्दा नहीं रहा, लेकिन अफगानिस्तान बार-बार सुर्खियों में आ जाता है. पिछले महीने ही तालिबान ने सर्वोच्च नेता हिबतुल्लाह अखुंदजादा द्वारा अनुमोदित नए कानून जारी किए. 2021 में तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद से यह अफगानिस्तान में बुराई और अच्छाई वाले कानूनों की पहली औपचारिक घोषणा है.
महिलाओं और लड़कियों को सार्वजनिक जीवन के लगभग हर क्षेत्र से बाहर रखने और उन्हें बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित करने के इस व्यवस्थित प्रयास को ठीक ही 'लैंगिक रंगभेद' कहा गया है.
महिलाएं मुख्य निशाना ये कानून रोजमर्रा की जिंदगी के पहलुओं से जुड़े हैं, लेकिन इनका मुख्य निशाना हैं महिलाएं और लड़कियां, जो पहले ही छठी कक्षा से आगे की पढ़ाई करने और स्थानीय नौकरियां करने से रोकी जा चुकी हैं. महिलाओं को जब भी बाहर जाना हो, उनके साथ एक पुरुष अभिभावक होना जरूरी होता है. तालिबान ने व्यभिचार के आरोप में महिलाओं को सार्वजनिक रूप से कोड़े और पत्थर मारने का नियम फिर से लागू करने की भी घोषणा की है. महिलाओं और लड़कियों को सार्वजनिक जीवन के लगभग हर क्षेत्र से बाहर रखने और उन्हें बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित करने के इस व्यवस्थित प्रयास को ठीक ही 'लैंगिक रंगभेद' कहा गया है.
और सख्त पाबंदियां नए कानून अफगानिस्तान की 1.4 करोड़ महिलाओं और लड़कियों की तकलीफ व पीड़ा को बढ़ाते हुए उनकी स्थिति को बदतर बनाने वाले हैं. अब महिलाओं के लिए सार्वजनिक तौर पर अपने शरीर को हमेशा पूरी तरह ढके अनिवार्य होगा क्योंकि 'प्रलोभन बचने और दूसरों को बचाने के लिए' उनका चेहरा ढके रहना जरूरी है. नए नियमों के मुताबिक जब भी कोई वयस्क महिला घर से बाहर निकलती है, तो उसे 'अपनी आवाज, चेहरा और शरीर ' छिपाकर रखना होगा. यानी बुर्का डालकर भी कोई महिला सार्वजनिक रूप से कुछ गा, पढ़ या बोल नहीं पाएगी.
पुरुष भी हैं जद में नए नियम समलैंगिकता, पशुओं की लड़ाई, सांस्कृतिक समारोहों को भी प्रतिबंधित करते हैं. किसी सार्वजनिक मौके पर या गैर-मुस्लिम छुट्टियों में संगीत बजाने पर भी प्रतिबंध लग चुका है. ये नियम पुरुषों पर भी लागू होते हैं, उनकी गतिविधियों को भी सीमित करते हैं लेकिन इनका खामियाजा खास तौर पर महिलाओं को भुगतना पड़ेगा.
संयुक्त राष्ट्र की सीमाएं अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि रोजा ओटुनबायेवा के मुताबिक, 'यह अफगानिस्तान के भविष्य के लिहाज से परेशान करने वाला दृश्य है . मोरल पुलिसिंग करने वालों के पास असीमित ताकत आ गई है... वे किसी को भी धमकाने और हिरासत में लेने की स्थिति में आ गए हैं.' लेकिन जब संयुक्त राष्ट्र की विश्वसनीयता पहले ही अपने सबसे निचले स्तर पर है, ऐसे बयानों का कोई प्रभाव पड़ने की उम्मीद नहीं की जा सकती.
साफ है कि तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से किया कोई भी वादा पूरा नहीं किया है. इसके बावजूद ज्यादातर देशों ने धीरे- धीरे तालिबान के साथ रिश्ते सामान्य बनाने शुरू कर दिए हैं. रूस, चीन और मध्य एशियाई देशों से -उनका ठीक-ठाक संपर्क स्थापित हो गया है.
बनने लगे हैं संपर्क साफ है कि तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से किया कोई भी वादा पूरा नहीं किया है. इसके बावजूद ज्यादातर देशों ने धीरे- धीरे तालिबान के साथ रिश्ते सामान्य बनाने शुरू कर दिए हैं. रूस, चीन और मध्य एशियाई देशों से -उनका ठीक-ठाक संपर्क स्थापित हो गया है. साल की शुरुआत में चीन ने पूर्व तालिबानी प्रवक्ता बिलाल करीमी को आधिकारिक तौर पर पेइचिंग में राजदूत मान लिया. इसके बाद संयुक्त अरब अमीरात ने भी तालिबान द्वारा नियुक्त राजनयिक को अफगानिस्तान का राजदूत मान लिया .
अमेरिकी रुख में नरमी यहां तक कि अमेरिका भी यह कहते हुए तालिबान के साथ संपर्क बढ़ाने में लग गया है कि वहां के मानवीय संकट को देखते हुए आम अफगान आबादी की मदद करना जरूरी है. तमाम देशों में आम राय बनती जा रही है कि तालिबान को नजरअंदाज करते हुए अफगानिस्तान की समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता.
तमाम देशों में आम राय बनती जा रही है कि तालिबान को नजरअंदाज करते हुए अफगानिस्तान की समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता.
भारत की दुविधा भारत जैसे पड़ोसी मुल्कों के लिए चुनौती ज्यादा गंभीर इसलिए भी है क्योंकि अल कायदा समेत तमाम आतंकी संगठन आज भी अफगानिस्तान में गतिविधियां जारी रखे हुए हैं. भारत हालांकि तालिबान को मान्यता देने को तैयार नहीं है, लेकिन नई दिल्ली मानवीय मदद जारी रखने के लिए निचले स्तर पर संपर्क बनाए हुए है. 2022 से भारत ने अपने काबुल दूतावास में एक 'टेक्निकल टीम' भी तैनात कर रखी है. जाहिर है, तालिबान 2.0 के साथ तालमेल बनाना दुनिया के लिए एक खतरनाक जुआ ही है, जिसकी कीमत वहां की महिलाओं को चुकानी पड़ रही है.
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