विद्युतीकृत परिवहन के परिदृश्य की तरफ़ परिवर्तन की रेस दुनिया भर में तेज़ होती जा रही है. ग्लासगो में कॉप 26 (संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन) की तारीख़ नज़दीक आने के साथ दुनिया भर के हिस्सेदार इलेक्ट्रिकल व्हीकल (ईवी) के विचार के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो रहे हैं. ये दुनिया भर में ई-मोबिलिटी के ज़रिए पर्यावरणीय और आर्थिक समस्या के समाधान की एक कोशिश है.
विभिन्न हिस्सेदार और फ़ैसला लेने वाले इस ई-मोबिलिटी के संवाद को आगे बढ़ाने के लिए अलग-अलग रास्तों पर क़दम बढ़ा रहे हैं. सरकारें, शहरी प्रशासन समेत, लक्ष्य की घोषणा के रास्ते पर चल रही हैं और इस तरह की गाड़ियों को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू कर रही हैं. हाल में बाइडेन प्रशासन ने 2050 तक गाड़ियों की कुल बिक्री में 50 प्रतिशत इलेक्ट्रिक गाड़ियों के लक्ष्य का एलान किया है. कई देशों ने इसी तरह की लक्ष्य आधारित घोषणाएं की हैं.
वैश्विक तौर पर बड़े नामों में कार बनाने वाली कंपनियां फोर्ड, जनरल मोटर्स और दूसरे कॉरपोरेट जैसे उबर, अमेज़ॉन, फेडएक्स के साथ-साथ भारतीय कंपनियां जैसे रिलायंस ग्रुप, महिंद्रा एंड महिंद्रा, वेदांता, ज़ोमैटो, फ्लिपकार्ट भी इसमें शामिल हैं.
दिलचस्प बात ये है कि भारत में केंद्रीय परिवहन मंत्री की तरफ़ से बयान आए हैं, राष्ट्रीय थिंक-टैंक नीति आयोग के आकलन आए हैं और दूसरे स्रोतों ने इलेक्ट्रिक गाड़ियों को अपनाने या इंटरनल कंबशन इंजन (आईसीई) गाड़ियों को हटाने की चरणबद्ध संभावना के बारे में बताया है लेकिन वैश्विक मंच पर इस मोर्चे पर कोई आधिकारिक संस्थागत प्रतिबद्धता नहीं जताई गई है.
सरकारों के अलावा अलग-अलग कारोबारी समूहों और कॉरपोरेट हाउस ने भी अपनी भविष्य की योजनाओं और अपनी गाड़ियों के बेड़े को इलेक्ट्रिक गाड़ियों में तब्दील करने के लक्ष्य का ऐलान किया है. वैश्विक तौर पर बड़े नामों में कार बनाने वाली कंपनियां फोर्ड, जनरल मोटर्स और दूसरे कॉरपोरेट जैसे उबर, अमेज़ॉन, फेडएक्स के साथ-साथ भारतीय कंपनियां जैसे रिलायंस ग्रुप, महिंद्रा एंड महिंद्रा, वेदांता, ज़ोमैटो, फ्लिपकार्ट भी इसमें शामिल हैं.
सार्वजनिक नीति के मोर्चे पर अलग-अलग थिंक-टैंक ने ई-मोबिलिटी की तरफ़ परिवर्तन को लेकर आंकड़े पेश किए हैं. नीति आधारित कई शोधकर्ताओं ने दूसरी बातों के अलावा सांख्यिकीय और आर्थिक सूचकों जैसे निवेश, रोज़गार, तकनीकी-आर्थिक व्यावहारिकता के ज़रिए अवसरों, लागत, फ़ायदों और चुनौतियों का पता लगाने की कोशिश की है. कुछ शोधकर्ताओं ने इलेक्ट्रिकल गाड़ियों के परिदृश्य की वजह से उत्सर्जन में कमी का भी अनुमान लगाया है.
तेल आयात बचत को ले लीजिए. एक तरफ़ जहां सरकार आयात बिल के मामले में इलेक्ट्रिक गाड़ी से संभावित तौर पर बड़ी रक़म बचा सकती है लेकिन इसकी वजह से सरकार, ख़ास तौर पर राज्य सरकारों, के राजस्व के दूसरे स्रोतों के कम होने का ख़तरा है.
भारतीय संदर्भ में निम्नलिखित सारणी उन सूचकों के बारे में संक्षेप में बताती है जिन्हें अकादमिक जगत से जुड़े लोगों और थिंक-टैंक ने बनाया है और जिनका इस्तेमाल अभी तक ई-मोबिलिटी की ओर परिवर्तन से जुड़ी सुर्ख़ियां तैयार करने में किया गया है.
क्रम संख्या |
सूचक |
विस्तार/मूल्य/सीमा |
1 |
उत्सर्जन में कमी की संभावना |
2030 तक बिजली उत्पादन के लिए सामान्य हालात में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कम-से-कम 29 प्रतिशत की कमी, पीएम 2.5 में कम-से-कम 79 प्रतिशत की कमी |
2 |
निवेश अवसर |
2030 तक:
● वाहन उत्पादन में 177 अरब अमेरिकी डॉलर
● चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर में 2.9 अरब अमेरिकी डॉलर
● बैट्री उत्पादन में 12.3 अरब अमेरिकी डॉलर
● बिक्री से राजस्व के रूप में 206 अरब अमेरिकी डॉलर
|
3 |
रोज़गार संभावना |
2030 तक एक करोड़ नौकरी |
4 |
तेल के आयात बिल में बचत |
हर साल 1.1 लाख करोड़ से 2.2 लाख करोड़ रुपये तक |
हालांकि, ये सूचक और घटनाक्रम महत्वपूर्ण हैं लेकिन इनका इस्तेमाल भारत और विश्व में ई-मोबिलिटी के इर्द-गिर्द नीतिगत संवाद को बढ़ावा देने में जिस तरह किया जाता है, उसमें कुछ समस्या खड़ी करने वाली विशेषताएं भी हैं.
सबसे पहले कि ये दिखावे और छवि बनाने के लिए तो ठीक हैं लेकिन जब बात कार्रवाई की ठोस योजना या उस पर अमल करने की आती है तो अक्सर खोखले होते हैं. उदाहरण के लिए, लक्ष्य आधारित घोषणाएं, नीतियों और नियमों की शुरुआत और फायदों की मात्रा को तय करने का लालच ई-मोबिलिटी की ओर बदलाव के इर्द-गिर्द लोकप्रिय सोच को शांत करता है.
दूसरा ये कि इस विशेषता के कारण ऐसे घटनाक्रम लोगों की धारणा में दबदबा बना लेते हैं और अक्सर संभावित निवेशकों और उपभोक्ताओं को ई-मोबिलिटी समाधान के बारे में आंशिक सूचना के साथ बताते हैं.
ई-मोबिलिटी परिवर्तन की वजह से हरित नौकरियों की वक़ालत करते वक़्त इस तरह की नौकरियों के स्वरूप का मुक़ाबला करने की ज़रूरत है, ख़ास तौर पर तब जब भारतीय अर्थव्यवस्था का ट्रैक रिकॉर्ड इस मोर्चे पर आदर्श स्थिति से नीचे रहा है.
आख़िर में, इन सूचकों के महत्वपूर्ण हिस्से के ‘क्यों’ और ‘कैसे’ को आकर्षक सुर्खियों की पृष्ठभूमि में साकार किया जा सकता है. इसकी वजह से उन्हें हासिल करने के रास्तों और तरीक़ों पर चर्चा की क्वालिटी सीमित हो जाती है.
ये विशेषताएं अलग-अलग कारणों से इस संवाद को समस्याग्रस्त बनाती हैं.
एक बार के लिए, आंकड़े और सांख्यिकी को एक ख़ास सोच को बढ़ावा देने के लिए आसानी से तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है. इसका अक्सर ये नतीजा होता है कि उस सोच के इर्द-गिर्द पक्षपात की काफ़ी गुंजाइश होती है. इसका नतीजा साक्ष्य आधारित नीति निर्माण से बदलकर नीति आधारित साक्ष्य निर्माण हो सकता है. मिसाल के तौर पर तेल आयात बचत को ले लीजिए. एक तरफ़ जहां सरकार आयात बिल के मामले में इलेक्ट्रिक गाड़ी से संभावित तौर पर बड़ी रक़म बचा सकती है लेकिन इसकी वजह से सरकार, ख़ास तौर पर राज्य सरकारों, के राजस्व के दूसरे स्रोतों के कम होने का ख़तरा है. इनमें से एक पेट्रोल और डीज़ल की बिक्री के ज़रिए जमा होने वाला सेल्स टैक्स/वैल्यू एडेड टैक्स है. निम्नलिखित सारणी बता रही है कि कुछ राज्य सरकारों ने सेल्स टैक्स के ज़रिए कितनी रक़म इकट्ठा की है और उन राज्य सरकारों के कुल कर राजस्व में इस सेल्स टैक्स का अनुपात कितना है.
सारणी 1: स्रोत: बजट विश्लेषण, पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च और पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय
राज्य का नाम |
2019-20 के लिए पेट्रोलियम, तेल और लुब्रिकेंट्स के ज़रिए सेल्स टैक्स/वैट (करोड़ में) |
2019-20 के लिए पेट्रोलियम, तेल और लुब्रिकेंट्स का कर राजस्व में हिस्सा |
आंध्र प्रदेश |
10,168 |
17.65 |
दिल्ली |
3,833 |
10.48 |
गुजरात |
15,337 |
19.41 |
कर्नाटक |
15,381 |
15.02 |
महाराष्ट्र |
26,791 |
14.17 |
राजस्थान |
13,319 |
22.48 |
तेलंगाना |
10,045 |
14.86 |
पश्चिम बंगाल |
7,534 |
12.42 |
इससे पता चलता है कि अगर परिवहन के परिदृश्य पर इलेक्ट्रिक गाड़ियों का कब्ज़ा हो जाता है तो कई राज्य जैसे राजस्थान, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र अपने राजस्व के स्रोत का महत्वपूर्ण हिस्सा गंवाने के ख़तरे का सामना कर रहे हैं.
इसके अलावा इलेक्ट्रिकल गाड़ियों के उत्पादन और बिक्री के मामले में सब्सिडी वाली संस्कृति राजस्व के वैकल्पिक स्रोतों जैसे रजिस्ट्रेशन टैक्स, जीएसटी और रोड टैक्स के ज़रिए इस नुक़सान की भरपाई के अवसर को सीमित करती है क्योंकि इलेक्ट्रिकल गाड़ियों को लेकर ज़्यादातर नीतियों में सभी वैकल्पिक स्रोतों को छूट के दायरे में रखा गया है. इस तरह आयात बिल के ज़रिए केंद्र सरकार की बचत राज्य सरकारों के लिए बोझ साबित हो सकती है. कोविड और राज्य सरकारों की सीधे तौर पर वित्तीय मदद में केंद्र की झिझक को देखते हुए ये और भी ज़्यादा गंभीर चिंता हो जाती है. इसलिए इलेक्ट्रिक गाड़ियों की तरफ बदलाव में सबसे पहले राज्यों की वित्तीय स्थिति को लेकर चिंता खड़ी होती है.
इलेक्ट्रिक बसों से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ने की आशंका
इसी तरह अलग-अलग वैज्ञानिक रिपोर्ट में ये बताया गया है कि इलेक्ट्रिक गाड़ियों के जीवन काल में उत्सर्जन के आकलन का नतीजा मिला-जुला रहा है. हालांकि, गाड़ी चलाने के दौरान उत्सर्जन नहीं होता है लेकिन उत्पादन और संचालन के चरणों में उत्सर्जन होता है, ख़ास तौर पर कार्बन सघन ऊर्जा उत्पादन के परिदृश्य में. यही वजह है कि इलेक्ट्रिक बसों से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ने की आशंका है और भारत में मौजूदा बिजली उत्पादन की परिस्थितियों में कुछ इलेक्ट्रिक कार से भी पीएम 2.5 उत्सर्जन बढ़ने की आशंका है. इससे भी बढ़कर, बड़े पैमाने पर बैट्री और गाड़ियों के उत्पादन से जो तकनीकी वेस्ट जमा होगा, उससे एक और समस्या खड़ी होने जा रही है.
इतना ही नहीं, इस सिलसिले में हम निवेश और रोज़गार के आंकड़ों को ले सकते हैं. अलग-अलग देखने पर ये आंकड़े भारी-भरकम नज़र आते हैं जो भारत की आर्थिक आकांक्षाओं से पूरी तरह मेल भी खाते हैं. हालांकि इनको तोड़-मरोड़कर एक वैकल्पिक पटकथा भी तैयार की जा सकती है. बुनियादी रूप से सरसरी तौर पर किए गए आकलन से 2030 तक 190 अरब 190 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश करने पर 1 करोड़ नौकरियों का निर्माण होगा. इसका ये मतलब है कि एक करोड़ के निवेश पर सिर्फ़ सात नौकरियों का निर्माण होगा. हाल के दिनों में होसुर प्लांट पर ओला के निवेश से भी पता चला कि प्रति करोड़ के निवेश पर सिर्फ़ चार लोगों को नौकरी मिलती है जबकि इसके मुक़ाबले परंपरागत ऑटोमोबाइल सेक्टर ने भारत में पिछले 10 वर्षों के दौरान प्रति करोड़ के निवेश पर क़रीब 123 नौकरियों का निर्माण किया है.
इसका ये मतलब नहीं है कि सूचक अप्रासंगिक हैं. ये सिर्फ़ इतना बताता है कि इस तरह के सूचकों के अंकित मूल्य का महत्व शायद चर्चा, मंथन और संवाद के लिए आदर्श मुद्दा नहीं है. इसके बदले इस तरह के सूचकों के पीछे प्रक्रिया और नीयत अगर ज़्यादा नहीं तो समान तौर पर एक नीतिगित दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है.
इस संदर्भ में, जांच के प्रासंगिक बिंदु को निवेश के महज़ मौद्रिक फ़ायदे से निवेश की क्वालिटी की ओर बदलने की ज़रूरत है. सिर्फ़ नौकरी की संख्या पर ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान देने के बदले चर्चा अच्छी क्वालिटी और टिकाऊ आमदनी के अवसरों की तरफ़ बदलने की ज़रूरत है. दूसरे शब्दों में, ई-मोबिलिटी परिवर्तन की वजह से हरित नौकरियों की वक़ालत करते वक़्त इस तरह की नौकरियों के स्वरूप का मुक़ाबला करने की ज़रूरत है, ख़ास तौर पर तब जब भारतीय अर्थव्यवस्था का ट्रैक रिकॉर्ड इस मोर्चे पर आदर्श स्थिति से नीचे रहा है.
इस तरह का नज़रिया जो ई-मोबिलिटी की ओर बदलाव, या फिर किसी भी तरह का बदलाव, में शामिल प्रक्रियाओं और लोगों से छानबीन कर ‘कैसे’ और ‘क्यों’ के सवाल की खोज करे, उसका नतीजा देना सुनिश्चित है. ये नतीजा देश में लोगों को छोड़ देने (आर्थिक रूप से) और शोषण करने (पर्यावरणीय रूप से) वाले विरासत में मिले मुद्दों का समाधान कर सकता है.
इस तरह के मूलभूत बदलाव के साथ चर्चा का केंद्र सुर्खियां बटोरने वाले आंकड़ों से बदलकर उसे लागू करने की कार्य योजना की ओर हो जाएगा. ज़रूरी नहीं होने पर यातायात से परहेज़, बिना मोटर वाले परिवहन का इस्तेमाल, सार्वजनिक परिवहन को मज़बूत करना, एक समावेशी ई-मोबिलिटी बदलाव को वित्त मुहैया कराना, रोज़गार के अवसरों का लाभ उठाना, इत्यादि के ज़िक्र को नीति और योजना के संवाद के केंद्र में रखा जा सकता है. इसलिए ‘न्याय संगत’ ई-मोबिलिटी की ओर बदलाव में ‘न्याय’ का तत्व मुश्किल सवाल पूछने और मेहनत से उनका जवाब तलाश करने से आने की ज़रूरत है.
हर हिस्सेदार को ख़ुद से और एक-दूसरे से इस तरह के मुश्किल सवाल पूछने चाहिए. इनमें से कुछ सवालों में शामिल हैं:
- मोबिलिटी के भविष्य को लेकर मौजूदा हिस्सेदारों के इकोसिस्टम का साझा लक्ष्य क्या है?
- वो कौन से सूचक हैं जिनका इस्तेमाल साझा लक्ष्य को हासिल करने में हिस्सेदारों के प्रदर्शन को मापने में समुचित रूप से किया जा सकता है?
- ऊपर बताए गए साझा लक्ष्य को हासिल करने के संबंध में संस्थानों और उनके संचालन ने अभी तक मोबिलिटी इकोसिस्टम में कैसा प्रदर्शन किया है?
- मौजूदा चुनौतियों/अक्षमता का समाधान कैसे हो सकता है और मौजूदा अवसरों का कैसे फ़ायदा उठाया जा सकता है?
- इस बहाने ई-मोबिलिटी समाधान का डिज़ाइन, उसको लागू करना और निगरानी कैसे की जा सकती है कि उससे साझा लक्ष्य को हासिल करने में इकोसिस्टम का प्रदर्शन बेहतर हो सके?
- किस तरह गिरावट और अप्रत्याशित परिणामों की पहचान हो सकती है, उनकी निगरानी की जा सकती है और बिना किसी बाधा के उनका समाधान किया जा सकता है?
महज़ गिनती या सांख्यिकीय खेल अच्छी स्थिति में समाधान का भ्रम जाल बनाएगा और ख़राब स्थिति में समस्या को बढ़ाएगा.
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