कोविड-19 वैक्सीन की जब चर्चा शुरू हुई थी, तब इसे बनाना एक असंभव काम लग रहा था. वहां से यह एक लक्ष्य में बदला. ऐसा लक्ष्य, जिसे हम अब हासिल कर चुके हैं. कमाल की बात है कि यह सारा काम एक साल के अंदर हुआ. इसके लिए हमें बेशक साइंस का शुक्रगुजार होना चाहिए. दवा कंपनियों ने जल्द वैक्सीन बनाने के लिए पैसा जुटाया, उनमें से कुछ ने तो अपनी पूरी क्षमता एक कामयाब टीका बनाने में लगा दी. कई सरकारों ने भी वैक्सीन बनाने के लिए काफी ज़ोर लगाया और उनका सहयोग सिर्फ़ रिसर्च तक सीमित नहीं था. इसके तेज़ी से प्रोडक्शन में भी उनकी बड़ी भूमिका रही. उनके योगदान को इस बात से समझा जा सकता है कि प्रस्तावित वैक्सीन की जांच पूरी हो, इससे पहले ही उन्होंने प्रोडक्शन कैपेसिटी तैयार कर दी थी. इसमें भी कोई शक नहीं कि वैक्सीन के बनने में किस्मत ने भी साथ दिया. आख़िरी सूचना मिलने तक वैक्सीन के सही कैंडिडेट के लिए 240 से अधिक अलग-अलग दावेदार थे. यह भी तय था कि इनमें से कुछ सफल होंगी तो कुछ असफल, लेकिन अब तक हमने इस दिशा में जो हासिल किया है, वह अनोखा है.
आज न सिर्फ़ हमारे पास कई नई मेसेंजर आरएनए आधारित वैक्सीन हैं, जिन्हें कम समय में तैयार किया जा सकता है. बल्कि, इन्हें अपग्रेड करने में लागत भी कम आएगी. इनका इस्तेमाल पशुओं से इंसानों तक पहुंचने वाले दूसरे कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने में भी किया जा सकता है. इतना ही नहीं, कॉमन फ्लू और कोल्ड के लिए वैक्सीन बनाने में भी यह तकनीक काम आ सकती है. वैक्सीन बनाने में इस मुकाम तक पहुंचने के बाद हम दूसरी पीढ़ी के टीकों की उम्मीद कर रहे हैं, जो न सिर्फ़ कोरोना वायरस के बाइंडिंग या ‘स्पाइक’ जो एक तरह की जिल्दबंदी और अचानक आयी उछाल होती है, उसे बेअसर कर देंगे बल्कि वे मूल वायरस से मुकाबला करने में भी सक्षम होंगे. सच पूछिए तो मेडिकल जगत के लिए यह किसी क्रांति से कम नहीं और इस तकनीक का कहीं व्यापक इस्तेमाल किया जा सकता है.
कोरोना वायरस की कई सफल वैक्सीन बनने के भी अनेक फायदे होंगे. मेडिकली तो यह अच्छा है ही, इससे कम खर्च में वैक्सीन बनाने में भी मदद मिल रही है. इनमें से कुछ का निर्माण तो कुछ सरकारों ने अपने नागरिकों के लिए करवाया है.
कोरोना वायरस की कई सफल वैक्सीन बनने के भी अनेक फायदे होंगे. मेडिकली तो यह अच्छा है ही, इससे कम खर्च में वैक्सीन बनाने में भी मदद मिल रही है. इनमें से कुछ का निर्माण तो कुछ सरकारों ने अपने नागरिकों के लिए करवाया है. फाइज़र और मॉडर्ना की कोरोना वैक्सीन मेसेंजर आरएनए पर आधारित हैं और उन्हें काफी अच्छा भी माना जा रहा है, लेकिन इन्हें स्टोर करने और बांटने में कई चुनौतियां हैं और ये वैक्सीन महंगी भी हैं.
वैक्सीन की एक और कैटिगरी रीकॉम्बिनेंट एडेनोवायरस (एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफर्ड) है, जिसका प्रभाव कुछ कम है और शायद बुज़ुर्गों को इससे अधिक फायदा नहीं होता. लेकिन इसे बनाने में बहुत कम ख़र्च आता है. निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इसका तेज़ी से वितरण किया जा सकता है. अच्छी बात यह है कि इन देशों में औसत उम्र भी कम है. इसी तरह से रूस की स्पूतनिक V वैक्सीन का भी ज़िक्र किया जाना चाहिए. ट्रायल पूरा होने से पहले ही इस्तेमाल को लेकर इसकी आलोचना हुई थी, लेकिन यह सस्ती होने के साथ काफ़ी असरदार भी है. इसे आसानी से स्टोर और वितरित किया जा सकता है. रूस की वैक्सीन को लेकर कोई दिक्कत है तो इसके तेज़ी से प्रोडक्शन की.
किफ़ायती कोवैक्सीन और भारत की भूमिका
इधर, भारत में बनी पहली कोवैक्सीन भी किफ़ायती है और उसे स्टोर करना भी आसान है. तीसरे वर्ग में ऐसी वैक्सीन शामिल हैं, जिन्हें इनएक्टिवेटेड वायरसों (सिनोफार्मा और सिनोवैक) से बनाया गया है. इनके प्रोडक्शन प्रॉसेस को सुरक्षित बनाए रखना असल चुनौती है. इसके बावजूद इनका काफ़ी पहले ही इस्तेमाल शुरू हो गया. उसकी एक वजह यह रही कि नई आरएनए आधारित वैक्सीन की तुलना में इनकी काफी रिसर्च पहले से उपलब्ध थी.
अगर आदर्श स्थिति की बात करें तो दुनिया में हर शख्स़ को वैक्सीन लगनी चाहिए. महामारी की नई लहर उठने पर उसकी रोकथाम में जहां वैक्सीन अहम भूमिका निभाएगी, वहीं इसे काबू में करना इस बात पर भी निर्भर करेगा कि हम कितने लोगों को कितनी जल्दी वैक्सीन लगा पाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि महामारी को 100 फीसदी वैक्सीनेशन के ज़रिये नहीं हराया जाएगा, लेकिन इसे शिकस्त देने में वैक्सिनेशन के साथ दूसरे ज़रियों से भी मदद मिलेगी.
यह भी सच है कि वैक्सीन बन जाने से ही महामारी से हमारी जंग खत्म नहीं हुई है. अब कई वैक्सीन को मिलाकर टेस्ट किए जा रहे हैं. इसके साथ हर महीने फेज थ्री पास करने वाली वैक्सीन की संख्य़ा भी बढ़ रही है. इसके नए कैंडिडेट्स भी आ रहे हैं. हाल में जॉनसन एंड जॉनसन की कोरोना वैक्सीन ने आख़िरी चरण का ट्रायल पास किया है. केनसिनो वैक्सीन भी प्रोडक्शन से पहले की इस आखिरी बाधा को पार कर चुकी है. कथित ‘दूसरी पीढ़ी’ की वैक्सीन की एक नई रेस भी शुरू हो रही है. इसमें सबसे अधिक चर्चा कोरोना वायरस के नए वेरिएंट्स के खिलाफ़ नई आरएनए आधारित वैक्सीन को लेकर हो रही है. एक और संभावित कैटेगरी वायरल वेक्टर्स से जुड़ी है, जो इंसानी रिसेप्टर्स को बांधने वाले ‘पाइक्स’ के बजाय वायरल प्रोटीन को टारगेट करती है. कैंसर के इलाज के लिए इस तकनीक को आजमाने की शुरुआत हुई थी और कोरोना वायरस महामारी के दस्तक देने के बाद इसे लेकर काम और तेज हुआ है.
सबसे बड़ी दिक्कत चीन की कंपनियों से जुड़ी है, जो मेडिकल जांच की पूरी सूचना नहीं दे रही हैं, और ना ही वे अंतरराष्ट्रीय तौर-तरीकों का पालन कर रही हैं. दिलचस्प बात यह है कि रूस की स्पूतनिक V के साथ अब ऐसा नहीं रहा.
कुल मिलाकर, इन उपलब्धियों की वजह से महामारी के दौरान जो विज्ञान-विरोधी और कांस्पिरेसी थ्योरी की हवा बहती है, उस पर विराम लग जाना चाहिए. लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? सच पूछिए तो प्रिंटिंग की खोज से पहले जो काम अफ़वाह करते थे, आज उसकी जगह सोशल मीडिया ने ले ली है.
इन सबके बीच कोरोना वैक्सीन से जुड़ी कई ऐसी चीजें भी हुई हैं, जिन्हें ठीक नहीं माना जा सकता. इनमें सबसे बड़ी दिक्कत चीन की कंपनियों से जुड़ी है, जो मेडिकल जांच की पूरी सूचना नहीं दे रही हैं, और ना ही वे अंतरराष्ट्रीय तौर-तरीकों का पालन कर रही हैं. दिलचस्प बात यह है कि रूस की स्पूतनिक V के साथ अब ऐसा नहीं रहा. इस मामले में भी चीन ने वैश्विक संदर्भ का अपना अलग मतलब निकाला है यानी वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ तो काम कर रहा है, लेकिन उनसे बिल्कुल अलग रहकर. शुक्र है कि अभी तक यह बड़ा मसला नहीं बना है क्योंकि चीन ने अपने सहयोगी देशों को जितनी वैक्सीन देने का वादा किया था, वह उससे काफी पीछे चल रहा है.
ऊपर जिस साइंटिफिक कामयाबी का जिक्र किया गया है और राष्ट्रवादी दावों, भू-राजनीतिक और वैक्सीन डिप्लोमेसी को रहने दें तो अभी की चुनौती व्यावसायिक लागत, प्रोडक्शन संबंधी परेशानियां और डिस्ट्रीब्यूशन से जुड़ी हैं. महामारी के पहले चरण में मास्क और टेस्ट के मामले में जो परीक्षा हुई थी, उसकी तुलना में यह कहीं बड़ा इम्तेहान है. अगर वायरस के नए वेरिएंट्स के लिए नई वैक्सीन बनानी पड़ी तो यह सिलसिला कहीं लंबा चल सकता है. फ्लू-वैक्सीन के मामले में हम ऐसा होते देख ही रहे हैं.
वैक्सीन लगाने की रफ्तार के मामले में अमेरिका, ब्रिटेन और एक हद तक इज़रायल आगे दिख रहे हैं. इज़रायल का अच्छा प्रदर्शन यहां हैरान नहीं करता. साइंस के मामले में वह काफी आगे है. वहां की सरकार ने शुरुआती दौर में महामारी को नियंत्रित करने में जो गलती की, उसकी भरपाई उसने वैक्सीन खरीदने में दूरदर्शिता दिखाकर कर दी है. इजरायल में सेना और नागरिकों की एक दूसरे पर जो निर्भरता है, उससे काफी मदद मिली है. छोटा देश होने के नाते वैक्सीन का लॉजिस्टिक्स मैनेजमेंट भी वहां बढ़िया रहा है. ब्रिटेन के लिए भी ऐसी ही दलील दी जा सकती है. उसकी किस्मत अच्छी थी कि यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देशों ने उसकी तरह वैक्सीन खरीदने की रेस शुरू नहीं की. अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो अंजाम खतरनाक होता.
वैक्सीन बनाने में चीन के मुक़ाबले अमेरिका आगे
इस मामले में अमेरिका की कामयाबी वाकई चौंकाने वाली रही है. वहां राज्यों के गवर्नरों और संघीय एजेंसियों के बीच काफी तनाव था, लेकिन उसे ऑपरेशन वार्प स्पीड (तेजी से कोरोना वैक्सीन बनाने के प्रोग्राम का नाम) और कई वैक्सीन कैंडिडेट्स के प्रोडक्शन के लिए निवेश का फायदा मिला. इससे वैक्सीन डिस्ट्रीब्यूशन की शुरुआत बहुत जल्द और व्यापक पैमाने पर हुई. 15 फरवरी तक यह आंकड़ा 5.5 करोड़ डोज तक पहुंच चुका था और लेख लिखे जाने तक इसकी रफ्त़ार बढ़कर 10 लाख रोजाना हो गई थी.
उम्मीद के उलट, इस मामले में चीन से अमेरिका आगे है. चीन में अभी तक चार करोड़ लोगों को ही टीका लगा है. इसकी एक वजह यह है कि चाइनीज़ वैक्सीन के प्रोडक्शन की रफ्त़ार धीमी रही है क्योंकि उसे बनाना आसान नहीं है. इस मामले में पूर्वी एशियाई देश कहीं नजर नहीं आ रहे, जिन्होंने महामारी को काबू करने को लेकर एक आदर्श स्थापित किया था. असल में इसी कामयाबी के कारण वे वैक्सीन को लेकर बहुत उतावले नहीं हैं और दूसरी बात यह है कि इन देशों में लोकल वैक्सीन अभी तक नहीं बनी है. दूसरी तरफ, भारत के पास दवा और वैक्सीन प्रोडक्शन का लंबा अनुभव है. इसलिए वह महामारी से जंग में वैश्विक केंद्र बन सकता है. अगर भारत में कोरोना की कई वैक्सीन बन सकीं, तो इसमें मदद मिलेगी. लेकिन अगर ये न भी बन पाईं तो इस मामले में दुनिया में उसकी केंद्रीय भूमिका तय है.
भारत के पास दवा और वैक्सीन प्रोडक्शन का लंबा अनुभव है. इसलिए वह महामारी से जंग में वैश्विक केंद्र बन सकता है. अगर भारत में कोरोना की कई वैक्सीन बन सकीं, तो इसमें मदद मिलेगी.
इसके बाद बच जाता है यूरोप का मामला, जिसकी अंदरूनी और कभी-कभी बाहर भी आलोचना होती है. इससे यूरोप की उपलब्धियों और ख़ामियों दोनों का पता चलता है. वैक्सीन खरीदने की एक पॉलिसी बनाने के लिए 27 अमीर देशों के बीच मुकाबले से बचा जा सका. अगर यह मुकाबला हुआ होता तो वैश्विक स्तर पर वैक्सीन की कीमत बढ़ जाती. इन 27 देशों में प्रति व्यक्ति आय 8,000 से 80,000 डॉलर के बीच है. इन सभी देशों के बीच वैक्सीन का ईमानदारी से वितरण इनके बीच एका का सबसे बड़ा प्रमाण होगा. लेकिन फैसले लेने और उन पर अमल में देरी एक तरह से यूरोपीय संघ का ट्रेडमार्क बन चुका है, भले ही यह मुद्दा उसकी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर हो.
यूरोपीय संघ के स्तर पर कम बजट और टैक्सपेयर्स का पैसा बचाने के इरादे के कारण उन वैक्सीन की खरीदारी के अग्रिम समझौते बहुत कम हुए हैं, जो अभी तक नहीं बनी हैं. यूरोपीय संघ अब इस गलती को ठीक करने में लगा है, लेकिन स्थिति ऐसी है कि वह वैक्सीन हासिल करने की कतार में पीछे है. वैसे, यूरोपीय संघ ने तुरंत ही COVAX और गावी अलायंस को जॉइन कर लिया था. वह भी ऐसे वक्त में, जब ऐसा करने वाले देशों की संख्या बहुत कम थी. उसने निम्न और मध्यम आय वाले देशों से एक्सपोर्ट पर कोई बंदिश नहीं लगाई है. साथ ही, यूरोपीय संघ ने 2021 में 1 अरब डॉलर की रकम इन देशों को वैक्सीन देने के लिए अलग रखी है. मिसाल के लिए, इस साल के अंत तक उसने आसियान देशों को 3.2 करोड़ वैक्सीन डोजेज देने का वादा किया है.
एक बात और कि महामारी के इस दौर में विनम्र बने रहना होगा. कुछ देश (ऐसे देश जो द्वीप में स्थित हैं या साउथ कोरिया जैसे मुल्क़, जिनकी ज़मीनी सीमा इनएक्टिव है) महामारी को काबू में करने के लिहाज़ से रोल मॉडल साबित हुए हैं. एक बात और है कि बिना वैक्सीन के कोविड से पूरी तरह मुक्ति नहीं पाई जा सकती. अलग-अलग देशों में कोरोना के पॉज़िटिव केस और उससे मरने वालों की संख्या में काफी अंतर है. इसका मतलब यह है कि यह सिर्फ़ हेल्थ रिसोर्सेज और वायरस की रोकथाम से ही नहीं जुड़ा है. इसलिए महामारी पर अंतिम फैसला वैक्सीन और उसकी उपलब्धता से तय होगा. हम उम्मीद करते हैं कि फैसले की यह घड़ी जल्द ही आएगी.
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