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अमेरिका के अर्थशास्त्री डेरॉन ऐसमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स ए. रॉबिन्सन ने अपने एक शोध में बताया था कि किसी देश भी देश की प्रगति और समृद्धि में उसकी सरकार और संस्थाओं की बेहद अहम भूमिका होती है और उन्हीं की बदौलत कोई राष्ट्र विकास की राह पर अग्रसर होता है. इन अर्थशास्त्रियों को उनकी रिसर्च के लिए वर्ष 2024 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. इन अर्थशास्त्रियों ने अपने शोध के दौरान पता लगाया था कि विभिन्न देशों की समृद्धि और स्थिरता में उपनिवेशवाद की क्या भूमिका रही है और उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद इन देशों में विकास पर इसका क्या असर पड़ा है. इन अर्थशास्त्रियों ने अपने शोध के दौरान अलग-अलग देशों में कई दशकों में हुए आर्थिक विकास का विस्तार से विश्लेषण किया. इनके मुताबिक़ किसी देश की प्रगति, स्थिरता और शांति में वहां की संस्कृति, प्राकृतिक संसाधनों या भूगोल की इतनी बड़ी भूमिका नहीं होती है, जितनी बड़ी भूमिका मज़बूत राजनीतिक संस्थाओं और सरकारों की होती है. जब संस्थाएं मज़बूत होती हैं, तभी राष्ट्र चौतरफा विकास करते हैं और ऐसा नहीं होने पर वहां अशांति, अव्यवस्था और संघर्ष का बोलबाला हो जाता है. ज़ाहिर है कि सूडान इसका सबसे सटीक उदाहरण है. सूडान के हालातों पर अगर बारीक़ी से नज़र डाली जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किसी राष्ट्र का भाग्य कहीं न कहीं सरकारी संस्थाओं की मज़बूती या कमज़ोरी पर बहुत अधिक निर्भर होता है.
सूडान में संकट
सूडान के दो बड़े सैन्य अफ़सरों सूडानी सेना के कमांडर जनरल अब्देल फतह अल-बुरहान और अर्धसैनिक बलों के प्रमुख जनरल मोहम्मद हमदान डागालो के बीच 15 अप्रैल 2023 को हिंसक युद्ध छिड़ गया था. कई महीनों तक दोनों प्रमुख सुरक्षा अधिकारियों के बीच लड़ाई चलती रही, नतीज़तन वर्ष 2024 के आख़िर में इस भीषण गृह युद्ध के 20 महीने बाद 62 हज़ार लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, जबकि 1.4 करोड़ नागरिकों को विस्थापित होने पर मज़बूर होना पड़ा.
सूडान में तख्तापलट या फिर गृह युद्ध का यह कोई पहला वाकया नहीं था, पहले भी कई बार सूडान के लोगों को ऐसे हिंसक हालातों का सामना करना पड़ा है.
सूडान में तख्तापलट या फिर गृह युद्ध का यह कोई पहला वाकया नहीं था, पहले भी कई बार सूडान के लोगों को ऐसे हिंसक हालातों का सामना करना पड़ा है. सूडान के पिछले सात दशकों के इतिहास पर नज़र डालें, तो देश में सैन्य तख्तापलट की कोशिशों की 20 घटनाएं हो चुकी हैं. दुनिया में सैन्य तख्तापलट की घटनाओं को देखा जाए तो बोलीविया के बाद सूडान दूसरे नंबर पर आता है. इतना ही नहीं इस दौरान सूडान ने दो गृह युद्धों का भी सामना किया है. सूडान में आख़िरी गृह युद्ध वर्ष 2011 में हुआ और उसी के बाद अफ्रीका के सबसे नए देश यानी दक्षिण सूडान का जन्म हुआ था.
सूडान में सैन्य तख्तापलट और गृह युद्ध की जड़ें देखा जाए तो उसके इतिहास में ही पैबस्त हैं. पहले सूडान पर ब्रिटिश शासन था और उस दौरान देश के जनजातीय ढांचे की परवाह किए बगैर एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की गई, जिसमें देश पर राज करने के लिए कुछ जातीय समूहों को प्रमुखता दी गई, बल्कि दूसरी जातियों को दरकिनार कर दिया गया. इसी के परिणामस्वरूप सूडान में जातीय और सांप्रदायिक संघर्ष की जड़ें समय के साथ गहरी होती चली गयी और समाजिक स्तर पर भी ये खाई चौड़ी होती गई.
ब्रिटिश शासन के दौरान सत्ता पर बैठे लोगों ने सूडान में काफ़ी भेदभाव किया था और देश की नौकरशाही व सेना में नदी के किनारे वाले खार्तूम इलाक़े में रहने वाले अरबों को प्राथमिकता दी थी. ब्रिटिश शासकों ने अपनी रणनीति के तहत ही देश के दारफुर एवं दक्षिण सूडान जैसे देश के दूसरे हिस्सों में रहने वाले अफ्रीकी समुदायों और एनिमिस्ट जनजातियों के लोगों को सरकार व सेना में नियुक्त के दौरान तवज्जो नहीं दी. सूडान को वर्ष 1956 में ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिली और उसके बाद से सूडान की बागडोर अधिकतर तानाशाहों के हाथों में ही रही. सूडान की सत्ता पर काबिज इन तानाशाहों ने शासन में ब्रिटिश काल के तौर-तरीक़ों को ही अपनाया. यानी इन्होंने भी सूडान के दारफुर इलाक़े में रहने वाली अफ्रीकी जनजातियों और दक्षिण सूडान में रहने वाले स्थानीय समूहों को दरकिनार करते हुए अरबों के वर्चस्व वाली विचारधारा को ही आगे बढ़ाया.
अगर सूडान की अर्थव्यवस्था को देखा जाए, तो यह प्रमुख रूप से क्रूड ऑयल एवं खेती पर आधारित है. इसी के चलते सूडान में होने वाले संघर्षों में ज़मीन और तेल के स्रोतों पर कब्ज़ा एक बड़ा कारण रहा है. सूडान में गृहयुद्ध की सबसे बड़ी वजहों में इसी तेल पर कब्ज़े का अहम योगदान था और इसी लड़ाई के चलते आख़िकार एक नए देश दक्षिण सूडान का निर्माण हुआ. इसके अलावा, दारफुर क्षेत्र में विवाद की प्रमुख वजह ज़मीन पर कब्ज़े की लड़ाई थी.
मज़बूत संस्थाएं और सरकारें महत्वपूर्ण क्यों हैं?
नोबेल पुरस्कार विजेता तीनों अर्थशास्त्रियों के मुताबिक़ किसी की सशक्त और स्थिर राष्ट्र के लिए संसद, न्यायपालिका और अनुशासित सैन्य बल जैसी संस्थाएं बेहद ज़रूरी हैं. वर्ष 2001 में, "तुलनात्मक विकास की औपनिवेशिक उत्पत्ति: एक तथ्यात्मक पड़ताल" शीर्षक वाले अपने शोध पत्र में इन अर्थशास्त्रियों ने सूडान की वर्तमान राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं पर ब्रिटिश दौर की शासन व्यवस्था की छाया को लेकर विस्तार से अध्ययन किया और उसी के आधार पर अपना निष्कर्ष निकाला था.
सूडान में लंबे वक़्त तक शासन करने वाले तानाशाह उमर अल-बशीर ने अपने शासन के दौरान ब्रिटिशों की “फूट डालो और राज करो” की नीति पर अमल करते हुए कुछ ऐसी ही रणनीति अपनाई.
सूडान में लंबे वक़्त तक शासन करने वाले तानाशाह उमर अल-बशीर ने अपने शासन के दौरान ब्रिटिशों की “फूट डालो और राज करो” की नीति पर अमल करते हुए कुछ ऐसी ही रणनीति अपनाई. उमर अल-बशीर ने अपनी सत्ता को कूप प्रूफ यानी तख्तापलट से बचाने के लिए कई सारे हथकंडे अपनाए, उनमें देश में ताक़तवर संगठनों को उभरने देना भी शामिल था. सूडान में “जांजावीद” नाम का एक ऐसा ही समूह था, जो एक अरब मिलिशिया संगठन था. इस मिलिशिया समूह का गठन मुख्य रूप से दारफुर इलाक़े के बग्घारा अरबों ने किया था. जांजावीद मिलिशिया समूह ने वर्ष 2003 में दारफुर में हुए गृह युद्ध में प्रमुख भूमिका निभाई थी. इस गृह युद्ध में स्वदेशी अफ्रीकी समुदाय को लोगों के सामूहिक नरसंहार में मुख्य रूप से यही मिलिशिया समूह शामिल था.
अपने शोध के लिए सम्मानित तीनों अर्थशास्त्रियों के मुताबिक़ वर्तमान में किसी भी आधुनिक और समृद्ध राष्ट्र के लिए एक स्थिर और वफादार सैन्य बल सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. जहां तक सूडान की बात है, तो वहां की सेना को एक लिहाज़ से अलग-अलग कबीलाई सरदारों के हवाले कर दिया गया था और उन्हें ही महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया गया था. इन सरदारों के लिए देश से पहले अपना कबीला या जातीय समूह था. इस वजह से सूडान की सेना की एक राष्ट्रीय पहचान क़ायम नहीं हो पाई और वो कबीलाई गुटों में बंटी रही.
सूडान के सशस्त्र बलों में भी स्थानीय जातियों को तवज्जो देने में भी भेदभाव साफ नज़र आता है. यानी सेना में देश के अफ्रीकी समुदाय की तुलना में अरबों को ज़्यादा तरजीह दी गई थी. इसने कहीं न कहीं सूडानी सशस्त्र बलों में जातीय मुद्दों को हवा देने का काम किया और सेना में जातीय आधार विभाजन की एक लकीर सी खिंच गई. सूडान के सशस्त्र बलों में सबसे बड़ी संख्या अरबों की है, वहीं दूसरी ओर सूडान लिबरेशन मूवमेंट (SLM) और जस्टिस एंड इक्वालिटी मूवमेंट (JEM) जैसे विद्रोही गुटों में अफ्रीकी समूहों के लोगों को प्राथमिकता के आधार पर भर्ती किया जाता है. इन अफ्रीकी समूहों में मुख्य रूप से फर, ज़गहवा और मसालित जैसे समूह शामिल हैं. वक़्त गुजरने के साथ सूडान में ये जातीय विभाजन जातीय संघर्षों में तब्दील हो गया. इन जातीय संघर्षों के दौरान सूडान की सत्ता पर आसीन लोग हमेशा अरबों के पक्ष में खड़े नज़र आए, जबकि अफ्रीकी जातीय समूहों को नज़रंदाज़ किया जाता रहा. इन्हीं हालातों की वजह से सूडान में अफ्रीकी जनजातीय समूहों के नरसंहार और उन्हें देश से विस्थापित करने जैसी घटनाएं सामने आईं.
एक नाक़ाम और अस्थिर राष्ट्र के पीछे जो प्रमुख कारण होते हैं, उनमें आर्थिक तंत्र और वित्तीय संस्थानों की विफलता भी बड़ी वजह होती है. ज़ाहिर है कि जब आर्थिक तंत्र नाक़ाम होगा, तो निश्चित तौर पर देश की अर्थव्यवस्था भी डांवाडोल होगी. आज़ादी के बाद से ही सूडान की अर्थव्यवस्था तेल पर सबसे अधिक निर्भर रही है. लेकिन वर्ष 2011 में दक्षिण सूडान के एक अलग राष्ट्र बनने के बाद सूडान के आर्थिक हालात बेहद नाज़ुक दौर में पहुंच गए. इसकी वजह यह थी कि दक्षिण सूडान बनने के बाद सूडान का 75 प्रतिशत तेल संसाधनों पर नियंत्रण नहीं रहा. इसने काफ़ी मुश्किलें खड़ी कीं और सूडान की अर्थव्यवस्था को एक हिसाब से रसातल में पहुंचा दिया. डांवाडोल अर्थव्यवस्था का असर सूडान की विदेश नीति और घरेलू नीतियों दोनों में देखने को मिला.
सूडान को जब अपने तेल से संसाधनों से हाथ धोना पड़ा, तो सूडान के शासकों ने यमन में युद्ध के लिए सूडान से भाड़े के सैनिकों को भेजने का काम शुरू कर दिया. गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल यानी खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के राष्ट्रों को भाड़े के सैनिकों की आपूर्ति करना सूडान के बिजनेस और कमाई का एक बड़ा माध्यम है. सूडान के लड़ाकों के ज़रिए अपनी लड़ाई लड़कर खाड़ी देशों ने एक तरह से परस्पर अपने युद्ध को भाड़े के सैनिकों के हवाले कर दिया. ज़ाहिर है कि सूडान ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) की तरफ से युद्ध लड़ने के लिए हज़ारों की संख्या में अपने भाड़े के सैनिकों को यमन भेजा.
सूडान का जो जांजावीद मिलिशिया समूह था वो ही आगे चलकर सूडान के अर्धसैनिक बल में तब्दील हो गया. इससे कहीं न कहीं सूडान के इन हथियारबंद सैनिकों को यमन में युद्ध का अच्छा-ख़ासा अनुभव मिला, साथ ही इन्हें भारी मात्रा में पैसा और हथियार व सैन्य साज़ो-सामान भी हासिल हुआ. सूडान के इस अर्धसैनिक बल का रैपिड सपोर्ट फोर्सेज (RSF) के रूप में फिर से गठन किया गया. आरएसएफ का दबदबा सूडान में बढ़ता गया और इसके प्रमुख मोहम्मद हमदान दुगोला उर्फ हेमेदेती ने अपनी निगाहें सूडान की सत्ता हासिल करने पर टिका दीं. समय के साथ-साथ हेमेदेती की ताक़त और आर्थिक संसाधनों में बढ़ोतरी होती गई और इसी के साथ उसकी महत्वाकांक्षा में भी वृद्धि होती गई. हेमेदेती ने सूडान में सोने के अपने अवैध कारोबार को बढ़ाया और इसके साथ उसके इरादे भी दृढ़ होते गए, क्योंकि ताक़त के साथ कमाई बढ़ गई थी. हेमेदेती द्वारा इस सोने को संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में रिफाइनरियों को निर्यात किया जाता है.
वर्ष 2019 में सूडान में तानाशाही का अंत हुआ और राजनीतिक बदलाव की वजह से देश के नेताओं के सामने आगे बढ़ने के तमाम अवसर भी बने. उस दौरान इन नेताओं और प्रभावशाली लोगों ने अपने-अपने तरीक़े से सूडान के भविष्य को गढ़ने की कोशिश की. आरएसएफ के प्रमुख मोहम्मद हमदान दुगोला बेहद महत्वाकांक्षी थे और इसी वजह से उन्हें न केवल यूएई में सहयोगी मिले, बल्कि रूस के वैगनर समूह में कई साथी मिले. हेमेदेती का यूएई और वैगनर ग्रुप के साथ यह रिश्ता ऐसा था, जिसमें दोनों पक्षों का फायदा था. इसमें जहां सूडान में यूएई और वैगनर समूह के सोने के खनन व दूसरे हितों की रक्षा सुनिश्चित हुई, वहीं बदले में आरएसएफ को यूएई और वैगनर समूह से वित्तीय व लॉजिस्टिक्स मदद हासिल हुई. सूडान में संघर्ष बढ़ने के साथ-साथ आरएसएफ का प्रभुत्व भी बढ़ता गया और उसने देश के बड़े हिस्से पर अपना कब्ज़ा जमा लिया. इस दौरान चाड, लीबिया, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक और दक्षिण सूडान से मिलने वालों हथियारों एवं भाड़े के सैनिकों ने आरएसएफ की ताक़त को लगातार मज़बूती प्रदान की.
सूडान में बीते दशकों में जो भी हालात पैदा हुए हैं, उनसे साफ ज़ाहिर होता है कि अगर किसी देश में राजनीतिक और सरकारी संस्थाएं मज़बूत नहीं होती हैं, तो कितनी मुश्किलात सामने आ सकती हैं.
निष्कर्ष
सूडान अरब देशों और अफ्रीका के बीच बुरी तरह से फंसा हुआ है और वहां ब्रिटिश राज के समय की रणनीति यानी फूट डालो और राज करो की सोच आज भी गहराई से जमी हुई है. इसमें कोई शक नहीं है कि सूडान में जो हालात हैं, वो इसे विरासत में मिले हैं, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि समय-समय पर सूडान में राज करने वाले शासकों और तानाशाहों ने इन हालातों को और विकट बनाने का काम किया है. इसके अलावा, विदेशी दख़ल से सूडान में परिस्थितियां और बेकाबू होती गई हैं. सूडान में बीते दशकों में जो भी हालात पैदा हुए हैं, उनसे साफ ज़ाहिर होता है कि अगर किसी देश में राजनीतिक और सरकारी संस्थाएं मज़बूत नहीं होती हैं, तो कितनी मुश्किलात सामने आ सकती हैं. यानी सशक्त राजनीतिक एवं सैन्य संस्थाओं के बगैर कोई भी देश फल-फूल नहीं सकता है और आख़िर में एक असफल राष्ट्र में तब्दील हो जाता है. इससे यह भी पता चलता है कि किसी भी देश में समावेशी सरकार होना कितना आवश्यक होता है, यानी ऐसी सरकार जो सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हो. हर देश की और हर समाज की कुछ न कुछ कमज़ोरियां होती हैं, लेकिन अगर हालात सूडान जैसे हों, तो बाहरी ताक़तें स्थानीय नेताओं के साथ सांठगांठ करके देश में आसानी से अपना दबदबा स्थापित कर सकती हैं.
समीर भट्टाचार्य ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं.
केल्विन बेनी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में पीएचडी रिसर्च स्कॉलर हैं.
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