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अमेरिकी प्रतिबंधों ने भारत की चाबहार योजनाओं को जटिल बना दिया है, लेकिन यह बंदरगाह क्षेत्रीय संपर्क और यूरेशिया तक उसकी पहुंच बनाने का एक रणनीतिक आधार बना हुआ है.
Image Source: Wikipedia
‘ईरानी शासन को अलग-थलग करने की (अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड) ट्रंप की अधिकतम दबाव की नीति के अनुसार, (संयुक्त राज्य अमेरिका) ने अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में सहायता और आर्थिक विकास के लिए ‘ईरान स्वतंत्रता और प्रसार-रोधी अधिनियम’ (IFCA) के तहत 2018 में दी गई प्रतिबंध छूट को रद्द कर दिया है. यह फ़ैसला 29 सितंबर, 2025 से प्रभावी होगा.’ अमेरिकी विदेश विभाग की इस घोषणा के बाद भारतीय मीडिया और विशेषज्ञों के बीच जबरदस्त प्रतिक्रिया दिखी है. वे ट्रंप प्रशासन द्वारा पूर्व में की गई उन घोषणाओं का भी ज़िक्र करने लगे हैं, जिसने भारत के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचाया है. निश्चय ही, प्रतिबंधों में छूट को ख़त्म करना कोई अच्छा फ़ैसला नहीं है, मगर फ़िलहाल यह दावा करना जल्दबाज़ी होगी कि यह कदम ‘भारत के लिए एक रणनीतिक झटका’ है. वास्तव में, चाबहार से जुड़े जो हालात हैं, उसमें अभी कोई महत्वपूर्ण बदलाव शायद ही हो सकता है, फिर चाहे यह छूट मिले या न मिले.
अमेरिकी विदेश विभाग की इस घोषणा के बाद भारतीय मीडिया और विशेषज्ञों के बीच जबरदस्त प्रतिक्रिया दिखी है.
नई दिल्ली इस परियोजना से पीछे नहीं हटना चाहेगी, क्योंकि रणनीतिक अहमियत को किनारे भी कर दें, तो यह यूरेशिया तक भारत की आर्थिक पहुंच का एक महत्वपूर्ण केंद्र है.
चाबहार में दो टर्मिनल हैं- शाहिद कलंतरी और शाहिद बेहेश्ती. शाहिद कलंतरी पुराना बंदरगाह है, जिसका तट छोटा है और यहां फीडर जहाज़ों को व्यवस्थित करने के लिए 7 से 8 मीटर का ड्राफ्ट (पानी की गहराई) है. जबकि, शाहिद बेहेश्ती गहरे पानी वाला बंदरगाह है, जिसका ड्राफ्ट 16.5 मीटर है, जो बड़े जहाज़ों के लिए उपयुक्त है. इसे चार चरणों में विकसित किया गया है और इसका भौगोलिक लाभ भी है. ओमान की खाड़ी के उत्तरी तट पर स्थित यह बंदरगाह अरब सागर तक सीधी पहुंच बनाता है. यह भीड़ भाड़ वाले होर्मुज जलडमरूमध्य से दूर है, जिस कारण जहाज़ों के लिए आना-जाना आसान हो जाता है. बंदर अब्बास के व्यस्त बंदरगाह के विपरीत, चाबहार पर जहाज़ों को लंबे समय तक इंतजार नहीं करना पड़ता. इसके अलावा, चाबहार एक मुक्त आर्थिक क्षेत्र का हिस्सा है, जिसके कारण यहां सीमा शुल्क और कराधान प्रक्रिया सरल हैं.
बंदर अब्बास के व्यस्त बंदरगाह के विपरीत, चाबहार पर जहाज़ों को लंबे समय तक इंतजार नहीं करना पड़ता. इसके अलावा, चाबहार एक मुक्त आर्थिक क्षेत्र का हिस्सा है, जिसके कारण यहां सीमा शुल्क और कराधान प्रक्रिया सरल हैं.
इसका पहला चरण पूरा हो चुका है. शाहिद बेहेश्ती टर्मिनल की क्षमता फ़िलहाल करीब 80 लाख टन है, जिसे दूसरे चरण में बढ़ाकर 1.8 करोड़ टन करने की योजना है. 2018 से यह बंदरगाह 450 से अधिक जहाज़ों और 134 हजार से अधिक TEU (20 फुट समतुल्य इकाई) कंटेनर युक्त कार्गो के साथ-साथ 87 लाख टन से अधिक थोक व सामान्य माल का संचालन कर चुका है. कंटेनर हैंडलिंग में, यानी कंटेनरों की लोडिंग, अनलोडिंग, भंडारण, रखरखाव आदि सभी कामों में भी वित्त वर्ष 2023-24 के दौरान उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है. वित्त वर्ष 2022-23 की 9,126 TEU की तुलना में 2023-24 में 60,059 TEU ट्रांसशिप (एक जहाज़ से दूसरे में माल का स्थानांतरण) किए गए. वित्त वर्ष 2025-26 के शुरुआती दो महीनों में भी 9,973 TEU ट्रांसशिप किए जा चुके हैं, जो साल-दर-साल 10 प्रतिशत की वृद्धि का संकेत है और उम्मीद जताई जा रही है कि यहां से कंटेनर का संचालन और भी बढ़ेगा ही. हालांकि, थोक माल यातायात में इसी तरह की प्रगति नहीं देखी गई है और बीते तीन वर्षों में यह 20 से 25 लाख टन के आसपास ही सिमटा रहा है.
चाबहार को लेकर भारत ने मई 2015 में ईरान के साथ एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किया था, जिसके एक साल के बाद ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के साथ उसने एक त्रिपक्षीय समझौता भी किया. उस समय, भारत और ईरान के बीच व्यापार फल-फूल रहा था, क्योंकि तेहरान को संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA) के तहत अपने परमाणु कार्यक्रम रोकने के बदले प्रतिबंधों से काफी राहत दी गई थी. मगर, 2018 में, जब ट्रंप प्रशासन ने ईरान पर अधिकतम दबाव की नीति अपनाई, तो हालात काफी बदल गए. इस नीति के तहत अमेरिका JCPOA से बाहर निकल गया, ईरान पर फिर से प्रतिबंधों की घोषणा कर दी गई और ईरान से तेल ख़रीदने पर रोक लगा दी गई. इसका ईरान के साथ व्यापार करने वाले अन्य देशों पर बुरा प्रभाव पड़ा. इन कदमों से भारत के हित भी बुरी तरह प्रभावित हुए और नई दिल्ली को मजबूर एक तय समय-सीमा के बाद ईरान से तेल आयात बिल्कुल बंद करना पड़ा.
हालांकि, भारत के लिए अच्छी बात यह रही कि अमेरिका ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में चाबहार की महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता दी. गंभीर कूटनीतिक प्रयासों और ‘व्यापक विचार-विमर्श’ के बाद, वाशिंगटन ने ‘चाबहार बंदरगाह के विकास और उससे जुड़े रेलवे के निर्माण, साथ ही अफ़ग़ानिस्तान के इस्तेमाल के लिए इस बंदरगाह के ज़रिये गैर-प्रतिबंधित वस्तुओं की ढुलाई के लिए’ IFCA से ‘छूट’ दे दी. भले ही, उसके इरादे नेक थे, लेकिन यह छूट कुछ हद तक आधी-अधूरी ही थी. इसमें पर्याप्त लिखित दस्तावेज़ों का अभाव था, जिस कारण बंदरगाह के विकास व रेल नेटवर्क से इसे जोड़ना संभव न हो सका. पूर्व भारतीय अधिकारियों के अनुसार, अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराया गया दस्तावेज़ सिर्फ़ एक सामान्य पत्र था, जिसमें भारत सरकार की प्रशंसा की गई थी और अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में चाबहार बंदरगाह का महत्व बताया गया था. विदेशी संपत्ति नियंत्रण कार्यालय (OFAC) से किसी औपचारिक लाइसेंस के बिना, इस पत्र को कभी किसी बैंक या विदेशी विक्रेता ने प्रतिबंधों से छूट का प्रमाण नहीं माना.
छूट पर स्पष्टता की इस कमी के कारण ज़रूरत से अधिक नियमों का पालन होने लगा, जिससे चाबहार से जुड़ी परियोजनाओं को पूरा करने के साथ ही सामान्य रूप से यहां से व्यापार करना लगभग असंभव हो गया.
छूट पर स्पष्टता की इस कमी के कारण ज़रूरत से अधिक नियमों का पालन होने लगा, जिससे चाबहार से जुड़ी परियोजनाओं को पूरा करने के साथ ही सामान्य रूप से यहां से व्यापार करना लगभग असंभव हो गया. इससे बंदरगाह उपकरणों की ख़रीद भी प्रभावित हुई. जैसे- भारत शिप-टु-शोर (STS) क्रेन पाने में नाकाम रहा, जो कंटेनरों के लोडिंग और अनलोडिंग के लिए ज़रूरी होता है, और इसलिए उसे मोबाइल हार्बर क्रेन (MHC) से काम चलाना पड़ा. हालांकि, कार्गो के लिहाज़ से MHC अधिक उपयुक्त होता है, लेकिन वे बड़े कंटेनरों के लिए काम के लायक नहीं माने जाते. यहां तक कि MHC की प्राप्ति भी एक लंबी प्रक्रिया रही, जिसमें मूल विदेशी निर्माता द्वारा क्रेन को सबसे पहले मुंबई में उतारने के लिए भारत को मजबूर होना पड़ा, और फिर प्रतिबंधों से अछूती एक छोटी शिपिंग कंपनी के माध्यम से उसे चाबहार भेजना पड़ा.
साफ़ है, छूट के बावजूद, भारत को प्रतिबंधों को लेकर सजग रहना पड़ा. इसका पहला उदाहरण यही है कि शाहिद बेहेश्ती टर्मिनल के ज़रिये सिर्फ़ अधिकृत वस्तुएं ही भेजी गईं, जिनमें मानवीय सहायता वाले सामान, गेहूं, मक्का, दवाइयां और चिकित्सा उपकरण शामिल थे. ये सभी मुख्य रूप से अफ़ग़ानिस्तान के लिए थे. दूसरा उदाहरण, भारतीय झंडे वाले जहाज़ चाबहार सहित ईरानी बंदरगाहों पर रुकने से बचते थे, क्योंकि कारोबारी गतिविधियां मुख्य रूप से खुली रजिस्ट्री वाले देशों (जहां कोई भी जहाज़ पंजीकृत हो सकता है) के झंडों वाले जहाज़ों से की जाती थीं.
चाबहार के लिए छूट ख़त्म करने का अमेरिकी फ़ैसला ऐसे समय में आया है, जब यहां पर कामकाज बढ़ने लगा है. मई 2024 में, इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल लिमिटेड ने शाहिद बेहेश्ती टर्मिनल को सुसज्जित और संचालित करने के लिए पोर्ट्स एंड मैरीटाइम ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ ईरान के साथ 10 साल का अनुबंध किया है. इस समझौते के तहत, भारत ने उपकरणों की लागत को पूरा करने के लिए 12 करोड़ अमेरिकी डॉलर देने के साथ-साथ बंदरगाह के विकास के लिए 25 करोड़ डॉलर कर्ज़ की सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही. मगर अब जो नए हालात बन गए हैं, वे बंदरगाह के विकास के लिए शुभ नहीं हैं. फिर भी, यह कहना गलत होगा कि शाहिद बेहेश्ती बंदरगाह बंद हो जाएगा.
वास्तव में, भारत ने इस परियोजना को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं और तमाम चुनौतियों के बावजूद सकारात्मक गति से अपने कदम बढ़ाए हैं. अफ़ग़ानिस्तान की जीवन रेखा के अलावा, यह बंदरगाह हमेशा से भारत को मध्य एशिया से जोड़ने के व्यापक लक्ष्य का हिस्सा रहा है. हालांकि, इसका अमेरिकी छूट से कोई सीधा संबंध नहीं है, फिर भी, उज़्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान जैसे मध्य एशियाई देशों में चाबहार को हिंद महासागर के प्रवेश-द्वार के रूप में देखा जाता रहा है. भारत-मध्य एशिया वार्ता के अंतर्गत चाबहार कार्य समूह, और भारत-ईरान-उज़्बेकिस्तान त्रिपक्षीय वार्ता इसके उदाहरण हैं, जो बता रहे हैं कि इस क्षेत्र के साथ व्यापार के लिए भारत चाबहार के उपयोग को बढ़ाने पर ध्यान दे रहा है.
दूसरी बात, इस परियोजना को छोड़ने से चीन जैसे बाहरी पक्षों के लिए इस क्षेत्र में स्थान खाली हो जाएगा. चूंकि यूरेशिया के साथ व्यापार के लिए पाकिस्तान पर निर्भरता से बचने का एकमात्र व्यावहारिक रास्ता चाबहार का उपयोग है, इसलिए भारत प्रतिबंधों के ख़तरे की परवाह किए बिना, बंदरगाह पर अपना नियंत्रण बनाए रखने का प्रयास करेगा. वैसे भी, एक अर्थ में, ईरान के साथ संबंध बनाए रखने से भारतीय हितधारकों पर ख़तरे की आशंका हमेशा से रही है, इसलिए छूट की समाप्ति से कोई नई चुनौती नहीं आएगी. ईरान के साथ सीधे तौर पर पहले से कारोबार कर रहे लोगों के ‘निकटतम दायरे’ के अलावा, अन्य बैंक, जहाज़ से माल भेजने वाले और बीमाकर्ता, ईरान के साथ किसी भी तरह की गतिविधि करने से हिचकिचाएंगे, जिससे भारत को पारंपरिक समाधान से अलग कोई रास्ता निकालने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.
जब प्रतिबंध प्रभावी हो जाएंगे, तब चाबहार परियोजनाएं, जो लगातार सार्वजनिक जांच से बचती रही हैं, और भी संदिग्ध हो सकती हैं. संभव है कि भारत भी रूस की राह पर चलते हुए निविदाओं और ख़रीदो से जुड़े आधिकारिक आंकड़ों को सार्वजनिक करने से बचें. हालांकि, प्रतिबंधों से बचने के अपने अनुभवों को साझा करने के अलावा, रूस चाबहार के विकास में भारत की कोई मदद करने की स्थिति में नहीं है. रूसी कंपनियां ज़रूरी उपकरणों, जैसे STS या MHC क्रेन की आपूर्ति करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि रूस के सबसे बड़े बंदरगाह स्वयं यूरोप व चीन के तकनीकों पर निर्भर हैं.
राजनीतिक रूप से देखें, तो मॉस्को ने चाबहार को अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (INSTC) से जोड़ने के भारत के प्रस्ताव का समर्थन किया है. हालांकि, इस बंदरगाह को अभी तक औपचारिक रूप से इस गलियारे का हिस्सा नहीं बनाया गया है और इसके मार्गों पर आपूर्ति मुख्य रूप से बंदर अब्बास के माध्यम से होती रही है. इतना ही नहीं, रूस, ईरान में रेलवे के आधुनिकीकरण को लेकर निवेश करता रहा है, जिसमें अस्तारा-रश्त रेल लिंक का निर्माण और अस्तारा से बंदर अब्बास तक बड़ी लाइन वाले एक नए रेलवे गलियारे का प्रस्तावित विकास भी शामिल है, जिसका मक़सद अनावश्यक ट्रांसशिपमेंट से बचना है. ये तमाम योजनाएं बता रही हैं कि INSTC को लेकर रूस की जो सोच है, उसमें चाबहार शामिल नहीं है.
प्रतिबंधित ईरान या गैर-प्रतिबंधित पाकिस्तान में से यदि किसी एक को चुनने की नौबत आएगी, तो भारत निश्चय ही प्रतिबंधित ईरान को चुनना पसंद करेगा.
ऐसा लग रहा है कि भारत बंदरगाह के उपकरणों के अधिग्रहण को प्राथमिकता देते हुए स्वतंत्र रूप से आगे बढ़े. यदि बंदरगाह की क्षमता बढ़ती है और उसकी उचित मार्केटिंग की जाती है, तो कारोबारी इसे अपने आपूर्ति-मार्गों में शामिल करने के तरीके खोज ही लेंगे. चाबहार को रेलवे से जोड़ने का जो निर्माण-कार्य चल रहा है, वह यदि पूरा हो गया, तो यह INSTC के पूर्वी हिस्से से जुड़ सकता है.
निश्चय ही भू-रणनीतिक बाध्यताओं और ज़मीनी व्यावसायिक हक़ीक़तों के बीच आमतौर पर अंतर होता है, लेकिन चाबहार के मामले में, भारत के पास विकल्प बिल्कुल साफ़ हैं. नई दिल्ली इस परियोजना से पीछे नहीं हटना चाहेगी, क्योंकि रणनीतिक अहमियत को किनारे भी कर दें, तो यह यूरेशिया तक भारत की आर्थिक पहुंच का एक महत्वपूर्ण केंद्र है. प्रतिबंधित ईरान या गैर-प्रतिबंधित पाकिस्तान में से यदि किसी एक को चुनने की नौबत आएगी, तो भारत निश्चय ही प्रतिबंधित ईरान को चुनना पसंद करेगा.
(अलेक्सी ज़खारोव ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में रूस व यूरेशिया विषय के फेलो हैं)
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Aleksei Zakharov is a Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. His research focuses on the geopolitics and geo-economics of Eurasia and the Indo-Pacific, with particular ...
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