ये लेख हमारी पत्रिका रायसीना फ़ाइल्स 2023 का एक अध्याय है.
मार्च 2022 का अंत होते-होते श्रीलंका ने अपने अब तक के सबसे बदतर आर्थिक संकट का गहरा असर महसूस करना शुरू कर दिया था. उसी वक़्त वहां 100 से ज़्यादा स्व-आयोजित और रचनात्मक विरोध प्रदर्शनों का विस्तार हो गया.[1] इन प्रदर्शनों से पहले कई हफ़्तों से श्रीलंकाई लोग तक़रीबन आधे-आधे दिन तक बिजली कटौतियों का सामना करने को मजबूर हो रहे थे. खाद्य पदार्थों और दूसरी ज़रूरी वस्तुओं की क़ीमतें आसमान छूने लगी थी. कुछ ही महीनों में मुद्रास्फीति की दर 25 प्रतिशत तक पहुंच गई.[2] ईंधन और गैस की ख़रीद के लिए लोगों को घंटों कतार में खड़े रहने को मजबूर होना पड़ रहा था. उस अफरा तफरी में गर्मी की चपेट में आने से कम से कम चार बुजुर्गों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.[3]
इसके बाद श्रीलंकाई लोगों के सब्र का बांध टूट गया और वो तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफ़े की मांग के साथ सड़कों पर उतर गए. श्रीलंकाई जनता समूचे राजपक्षे परिवार से सत्ता छोड़ने की मांग कर रही थी. चारों ओर “गोटा वापस जाओ”, “राजपक्षे गद्दी छोड़ो” और “वापस जाओ 225” के नारे गूंज रहे थे. श्रीलंका के लोग सरकार में भाई-भतीजावाद के अंत और तमाम कैबिनेट मंत्रियों के त्यागपत्र की मांग कर रहे थे.[4]
इस लेख में श्रीलंका के आर्थिक संकट के साथ-साथ उसमें चीन की भूमिका और घरेलू नीतियों की नाकामियों की पड़ताल की गई है. इसमें द्विपक्षीय ऋणदाता के तौर पर चीन की भूमिका और पिछले कुछ सालों में इसके उभार को दर्शाया गया है.
अप्रैल 2022 में सभी 26 कैबिनेट मंत्रियों ने इस्तीफ़े दे दिए. 42 सांसदों ने संसद के निर्दलीय सदस्य के तौर पर काम करने का फ़ैसला कर लिया. ऐसे में सरकार के पास महज़ 114 सांसदों का समर्थन रह गया. लिहाज़ा उसका प्रचंड बहुमत झट से साधारण बहुमत में बदल गया. इस प्रकार देश की आर्थिक दुश्वारियां राजनीतिक संकट में तब्दील हो गई.[5] राजपक्षे के समर्थक और विरोधी गुटों के बीच हिंसक झड़पों के बीच मई 2022 की शुरुआत में महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया.[6]
गोटबाया राजपक्षे ने विरोध-प्रदर्शनों को शांत करने की तमाम कोशिशें की पर वो नाकाम रहे. प्रशासन ने आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी, पूरे द्वीप में कर्फ्यू लगा दिया और जगह-जगह सुरक्षा बलों की तैनाती कर दी. आखिरकार प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय पर धावा बोलकर उस पर क़ब्ज़ा जमा लिया. आंदोलनकारी सत्ताधारी नेताओं के इस्तीफ़े की मांग कर रहे थे. 2019 में भारी बहुमत से निर्वाचित गोटाबाया देश छोड़कर भाग गए.[7] आगे चलकर 14 जुलाई 2022 को गोटाबाया के आधिकारिक इस्तीफ़े के बाद देश के सांसदों ने गुप्त मतदान के जरिए रानिल विक्रमसिंघे को देश के निर्वाचित कार्यकारी राष्ट्रपति के तौर पर चुन लिया.
इन तमाम घटनाक्रमों ने श्रीलंका में चीनी कर्ज़ के मकड़जाल पर पूर्व में जारी विमर्श को दोबारा केंद्र में ला दिया. दरअसल पश्चिमी मीडिया ने श्रीलंका द्वारा अपने हंबनटोटा बंदरगाह को 99 साल के लिए चीन को लीज़ पर दिए जाने की घटना को कर्ज़ को इक्विटी से बदलने की क़वायद के तौर पर प्रचारित किया था. इसके बाद से श्रीलंका ‘चीनी कर्ज़ के मकड़जाल’ से जुड़े क़िस्से की बानगी बनकर उभर गया. पूंजी निर्माता के तौर पर चीन की बढ़ती भूमिका पर वैश्विक परिचर्चा में श्रीलंका को शामिल किए जाने का ये कोई पहला वाक़या नहीं था, लेकिन इस बार पश्चिमी जगत की ख़बरें निर्णायक साबित हुईं. 2022 में द्वीप देश में आर्थिक संकट की मार पड़ने से ऐसी परिचर्चा दोबारा उभर गई.[8] अप्रैल 2022 में श्रीलंका अपने संप्रभु ऋण की अदायगी में नाकाम साबित हुआ. चूंकि चीन उसका सबसे बड़ा द्विपक्षीय कर्ज़दाता है, लिहाज़ा श्रीलंकाई संकट में चीनी ऋण का प्रभाव नए सिरे से रोशनी में आ गया.
हालांकि श्रीलंका का आर्थिक संकट चीनी कर्ज़ की देनदारियों से कहीं ज़्यादा पेचीदा है. पहली बात ये है कि श्रीलंका द्वारा बाहरी कर्ज़ की अदायगी की बढ़ती ज़रूरतों के पीछे चीन का सबसे बड़ा योगदान नहीं है. हालांकि पिछले कुछ सालों में श्रीलंका को चीन द्वारा दिए गए कर्ज़ के ब्याज़ में भारी उछाल देखा गया है. ऐसे में श्रीलंका के ऋण पुनर्गठन से जुड़े उपायों में चीन एक अहम किरदार बन गया है.
इन तमाम पृष्ठभूमियों में इस लेख में श्रीलंका के आर्थिक संकट के साथ-साथ उसमें चीन की भूमिका और घरेलू नीतियों की नाकामियों की पड़ताल की गई है. इसमें द्विपक्षीय ऋणदाता के तौर पर चीन की भूमिका और पिछले कुछ सालों में इसके उभार को दर्शाया गया है. साथ ही कर्ज़ के ऐसे ही संकटों का सामना कर रहे देशों के लिए कई तरह के सबक़ भी प्रस्तुत किए गए है.
श्रीलंकाई आर्थिक संकट का ख़ुलासा
श्रीलंका का आर्थिक संकट अनेक आर्थिक और राजनीतिक कारकों का मिला जुला असर है. ये तमाम कारक दशकों से ज्वलंत बने हुए थे. [9] [10]दरअसल ये द्वीप देश व्यापक अर्थव्यवस्था में अस्थिरता और आर्थिक सुस्ती का दंश झेलता आ रहा था. बरसों के आर्थिक कुप्रबंधन और सरकारी भ्रष्टाचार के चलते श्रीलंका एक लंबे अरसे से दोहरे घाटे (भुगतान संतुलन और विदेशी मुद्रा भंडार) वाली समस्या की मार झेल रहा था.[11]
1977 में अर्थव्यवस्था में खुलापन आने के बाद श्रीलंका प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करने में नाकाम रहा. घरेलू मोर्चे पर छिड़े गृह युद्ध ने निवेशकों के लिए कारोबारी माहौल को उथल-पुथल भरा बना दिया. साथ ही एक के बाद एक तमाम सरकारों की नीतियों में भारी विसंगति देखी गई. इन तमाम कारकों के चलते देश की अर्थव्यवस्था आयात-आधारित बन गई. मुल्क गहरे कर्ज़ के दलदल में फंस गया. नतीजतन भुगतान संतुलन से जुड़ी समस्याएं और विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट की समस्या ने जड़ें जमा ली.
एक के बाद एक तमाम सरकारों की नीतियों में भारी विसंगति देखी गई. इन तमाम कारकों के चलते देश की अर्थव्यवस्था आयात-आधारित बन गई. मुल्क गहरे कर्ज़ के दलदल में फंस गया. नतीजतन भुगतान संतुलन से जुड़ी समस्याएं और विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट की समस्या ने जड़ें जमा ली.
आर्थिक नीति के मोर्चे पर एक के बाद एक तमाम सरकारों ने लोकलुभावन फ़ैसले किए. साथ ही लोकप्रियतावादी चुनावी नीतियों का पालन किया. अफ़सरशाही और दौलतमंद लोगों के बीच पारस्परिक संबंधों की हिमायत की गई. इससे सरकारी राजस्व संग्रहण और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के बीच का संतुलन बिगड़ गया. धनी लोगों, बहुराष्ट्रीय निगमों और स्थानीय कारोबारों को तमाम तरह की कर रियायतें मुहैया कराई गईं और उन्हें कर संग्रह से छूट दी गई. इसके चलते 1990 के दशक से कर राजस्व में स्थायी रूप से गिरावट का दौर शुरू हो गया.[12] 2021 के आंकड़ों के मुताबिक देश की GDP में कर राजस्व का हिस्सा महज़ 9.6 प्रतिशत था, जबकि GDP में व्यय का हिस्सा 20 प्रतिशत के क़रीब था. राजस्व के मोर्चे पर ख़राब प्रदर्शन के चलते GDP में सरकारी ख़र्च का अनुपात घटता चला गया. ऐसे में घाटे भरे वित्त-पोषण की ज़रूरत आ पड़ी.[13]
इस बीच मध्यम-आय वाले देश का दर्जा हासिल कर लेने के चलते द्विपक्षीय और बहुपक्षीय भागीदारों से रियायती ऋणों की आवक सीमित हो गई. लिहाज़ा श्रीलंका को अपनी ज़रूरतों के लिए वित्त जुटाने के वास्ते (ख़ासतौर से बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में) अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ारों से वाणिज्यिक ऋणों का सहारा लेना पड़ा. नतीजतन ऋण-जीडीपी अनुपात में 2014 के बाद से लगातार बढ़ोतरी होती चली गई. ग़ौरतलब है कि 2009 तक इस अनुपात में गिरावट का दौर रहा था.[14] 2018 के बाद से घरेलू और बाहरी मोर्चे पर नियमित रूप से आते आर्थिक संकटों ने श्रीलंका की हालत और पतली कर दी. 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना द्वारा प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को बर्ख़ास्त किए जाने से राजनीतिक संकट गहरा गया. इसके बाद 2019 में ईस्टर रविवार को बम हमले हुए. 2020 में कोविड-19 महामारी आ गई और 2022 में रूस-यूक्रेन के बीच जंग छिड़ गई. इन तमाम घटनाक्रमों ने श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव डाला.
नीतिगत मोर्चे पर एक के बाद एक ग़लत क़दमों और गोटाबाया राजपक्षे सरकार द्वारा लचर आर्थिक प्रबंधन ने शायद ताबूत में आख़िरी कील का काम किया. सरकार ने मूल्य वर्धित कर (VAT) को 15 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया. लिहाज़ा 2020 की निवेश श्रेणी में श्रीलंका का दर्जा घटाकर उसे ‘बेहद जोख़िम भरा’ देश क़रार दे दिया गया. इससे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाज़ारों के दरवाज़े बंद हो गए. कोविड-19 महामारी ने निर्यातों, प्रवासी श्रीलंकाइयों द्वारा विदेशी मुद्रा भेजे जाने और पर्यटन से होने वाले राजस्व पर ज़बरदस्त प्रभाव डाला. डॉलर की कमाई किए बग़ैर श्रीलंका को अपने कर्ज़ों पर ब्याज़ की अदायगी जारी रखनी पड़ी. उधर, देश का आयात भी लगातार बढ़ता चला गया. ऐसे में श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भंडार में तेज़ गति से गिरावट आ गई. जैविक खेती का रुख़ करने की आड़ में रासायनिक उर्वरकों पर लगाई गई पाबंदी का रातोंरात उलटा असर हुआ. इसने कृषि पैदावार पर असर डाला, जिससे आख़िरकार भोजन की किल्लत पैदा हो गई. देश में विदेशी मुद्रा के एक मुख्य स्रोत चाय उद्योग की पैदावार घटकर आधी रह गई.[15] यूक्रेन युद्ध के चलते वैश्विक ईंधन बाज़ारों में बढ़ोतरी ने चुनौतियां और बढ़ा दीं. इसके चलते सरकारी राजस्व में तेज़ी से गिरावट आ गई. सरकारी ख़ज़ाने में नाटकीय कमी आई और देश का आयात बढ़ गया.
भोजन, दवाइयों और ईंधन जैसे ज़रूरी सामानों की लगातार किल्लत, बेहद ऊंची महंगाई दर और लंबे समय तक बिजली कटौतियों ने सरकार को अप्रैल 2022 में अपने अंतरराष्ट्रीय भुगतान से नाकाम रहने को मजबूर कर दिया. हालांकि विशेषज्ञ एक लंबे अरसे से श्रीलंका को IMF की मदद लेने की सलाह दे रहे थे, लेकिन श्रीलंका लगातार इसकी अनदेखी करता रहा. बहरहाल अप्रैल 2022 में उसने IMF के साथ बेलआउट पैकेज पर वार्ताओं का दौर शुरू कर दिया. 12 अप्रैल 2022 को IMF के साथ वार्ताओं के जारी रहते श्रीलंका ने शुरुआती उपाय के तौर पर विदेशी कर्ज़ों की अदायगी को फ़ौरी तौर पर रोक दिया. तक़रीबन एक महीने बाद मई के मध्य में श्रीलंका ऋण अदायगी को लेकर 30 दिन की छूट वाली मियाद का लाभ लेने से भी चूक गया. इस तरह इतिहास में पहली बार वो ‘कर्ज़ चुकाने में अग्रिम रूप से नाकाम’ रहा. नतीजतन रेटिंग एजेंसी फिच ने श्रीलंका का दर्जा घटाकर उसे ‘प्रतिबंधित दिवालिया’ सूची में डाल दिया.[16] राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे के मातहत नई सरकार 2.9 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम सुरक्षित करने के लिए IMF से बेल आउट सहायता पाने की जुगत लगा रही है. गोते लगाती देश की अर्थव्यवस्था के लिए अगले चार सालों में ये मदद जारी होने की उम्मीद है.[17]
चीन के साथ श्रीलंका के कर्ज़ की कहानी
2000 के दशक के शुरुआती दौर से पहले श्रीलंका के कर्ज़ प्रदाता के तौर पर चीन की भूमिका बहुत सीमित थी. वैसे तो 1970 के दशक के मध्य में श्रीलंका के सार्वजनिक ऋण में चीन का हिस्सा तक़रीबन 10.1 प्रतिशत था, लेकिन बाद के वर्षों में चीनी कर्ज़े में भारी गिरावट आती चली गई. और तो और 1990 के दशक के अंत में श्रीलंका में चीनी कर्ज़ का हिस्सा महज़ 0.3 प्रतिशत हो गया था. चीन द्वारा उपलब्ध कराई गई आधिकारिक ऋण सहायता ब्याज़-मुक्त आधार पर थी. इनकी परिपक्वता मियाद काफ़ी लंबी थी और छूट की पर्याप्त समय सीमा भी उपलब्ध थी. तब से लेकर अब तक चीन की भूमिका में नाटकीय उभार हुआ है. आज चीन इस द्वीप देश का सबसे बड़ा ऋण प्रदाता और विकास सहभागी है.[18] श्रीलंका में चीनी ऋण का हिस्सा साल 2000 में 0.3 था जो 2016 में बढ़कर 16 प्रतिशत तक पहुंच गया. 2022 का अंत होते-होते श्रीलंका में चीनी ऋण का भंडार तक़रीबन 7.3 अरब अमेरिकी डॉलर तक जा पहुंचा, जो श्रीलंका के सार्वजनिक विदेशी ऋण का 19.6 प्रतिशत हिस्सा था. इन आंकड़ों में श्रीलंका के केंद्रीय बैंक और सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों (SOEs) द्वारा दर्ज किए गए कर्ज़ शामिल है.[19]
मुरामुदाली और पांडुवावाला (2022) के मुताबिक श्रीलंका के ऋणदाता के तौर पर चीन की भूमिका चार विशिष्ट चरणों में उभरकर सामने आई. शुरुआत में वो विशुद्ध रूप से द्विपक्षीय ऋणदाता था, इसके बाद परियोजना-आधारित कर्ज़दाता बन गया और आख़िरकार भुगतान संतुलन के मददगार में बदल गया.[20] 2001 से 2005 के बीच पहले चरण में चीन ने चाइना एक्ज़िम बैंक के ज़रिए सरकारी स्वामित्व वाले सिलॉन पेट्रोलियम कॉरपोरेशन (CPC) को 7.2 करोड़ अमेरिकी डॉलर का कर्ज़ मुहैया कराया. ये पहला मौक़ा था जब चीन ने चाइना एक्ज़िम बैंक (ChExim) को ऋणदाता संस्था के तौर पर आगे किया. मुथुराजावेला तेल टैंक फार्म परियोजना के वित्तपोषण के लिए 2001 में ये ऋण हासिल किया गया. इस ऋण पर ब्याज़ की अदायगी होनी थी, और इसकी परिपक्वता अवधि 20 सालों की थी. इसके तहत पांच साल की रियायती समय सीमा मुहैया कराई गई थी. इसी चरण में चीनी निर्माण कंपनियों ने बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के विकास के लिए श्रीलंका में अपने क़दम रखे. इनमें CHEC और चाइना मेटालर्जिकल कॉरपोरेशन शामिल है.
पहले चीन एक छोटा, मुख्य रूप से ग़ैर-वाणिज्यिक ऋणदाता था, लेकिन अब उसकी भूमिका बदल गई. अब वो बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक ऋण मुहैया कराने वाले ऋणदाता में बदल गया. इस कड़ी में उसने बुनियादी ढांचे से जुड़ी बड़ी-बड़ी परियोजनाओं का वित्तपोषण शुरू कर दिया.
2007 से 2010 के बीच दूसरे चरण में चीन से ऋण के वितरण में ज़बरदस्त उछाल देखा गया. पहले चीन एक छोटा, मुख्य रूप से ग़ैर-वाणिज्यिक ऋणदाता था, लेकिन अब उसकी भूमिका बदल गई. अब वो बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक ऋण मुहैया कराने वाले ऋणदाता में बदल गया. इस कड़ी में उसने बुनियादी ढांचे से जुड़ी बड़ी-बड़ी परियोजनाओं का वित्तपोषण शुरू कर दिया. ChExim ने बुनियादी ढांचे से जुड़ी उच्च-श्रेणी की परियोजनाओं के लिए ऋण (निर्यात या ख़रीदारों से जुड़े क्रेडिट समेत) उपलब्ध कराना शुरू कर दिया. इनमें नोरा कोलाई कोयला ऊर्जा संयंत्र, हम्बनटोटा बंदरगाह, मताला हवाई अडडा और एक्सप्रेसवे नेटवर्क शामिल हैं. इनमें से कुछ को तो बेहद ऊंची ब्याज़ दरों पर ऋण दिए गए.[21] हालांकि उस समय श्रीलंका के लिए औसत सार्वजनिक ऋण पर ब्याज़ दर महज़ 3.1 प्रतिशत के स्तर पर था, लिहाज़ा उसके लिए अब भी वहन किए जाने योग्य था.[22]
तीसरे चरण की मियाद 2011 से 2014 के बीच रही. इस दौरान श्रीलंकाई सरकार ने बुनियादी ढांचे की विशाल परियोजनाओं के लिए ChExim से बड़ी मात्रा में रकम उधार ली. साथ ही परिवहन क्षेत्र की कुछ नई परियोजनाओं के लिए भी चीन से कर्ज़ लिए गए. इनमें रेलवे, एक्सप्रेस वे और ग्रामीण सड़कें शामिल हैं. इसी चरण में चीन ने अपने प्रमुख कार्यक्रम बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की शुरुआत की. श्रीलंका के साथ कुछ परियोजनाओं को BRI के झंडे तले जोड़ लिया गया. इसी दौरान पहले और दूसरे चरणों में हासिल किए गए कर्ज़ों के मूलधन की अदायगी पर दी गई रियायती मियाद ख़त्म हो गई. नतीजतन 2013 के बाद से मूलधन के भुगतान में बढ़ोतरी का दौर शुरू हो गया.
2015 से 2016 के बीच ऋण वितरण में सुस्ती के बाद 2017 से चौथे चरण का आग़ाज़ हो गया. हालांकि इस समय तक आते-आते श्रीलंका में ऋण संकट के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे. अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार से उधार लेने के चलते उसका ऋण भंडार काफ़ी बढ़ गया. श्रीलंका का भुगतान संतुलन धीरे-धीरे नाज़ुक होता चला गया, विदेशी कर्ज़ों की अदायगी लगातार बढ़ती रही और निर्यात के मोर्चे पर प्रदर्शन में सुस्ती छा गई. ऐसे में चीन- परियोजना वित्त-पोषण और बजटीय वित्त-पोषण- दोनों तरह के ऋणदाता के तौर पर उभरकर सामने आया. चाइना एक्ज़िम बैंक ने बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए ऋण वितरित किए. दूसरी ओर अक्टूबर 2018 में चाइना डेवलपमेंट बैंक (CDB) ने सीधे बजटीय वित्त-पोषण के तौर पर 1 अरब अमेरिकी डॉलर की विदेशी मुद्रा सावधि वित्त पोषण सहूलियत (FCTFF) के तौर पर मुहैया करवाई. इसके बाद के कालखंड में चीन, श्रीलंका को भुगतान संतुलन सहायता के तौर पर निरंतर FCTFF उपलब्ध कराता रहा. इससे चीन से ऋण के प्रवाह का स्तर उसको ऋण पर ब्याज़ की बढ़ती अदायगी की तुलना में ऊंचा बना रहा. चीन से हासिल साख सुविधाओं ने विदेशी मुद्रा भंडार को मज़बूत करने में श्रीलंका की मदद की. कोलंबो को ये मदद एक ऐसे वक़्त पर नसीब हुई जब उसके सार्वजनिक ऋण से जीडीपी का अनुपात इतिहास में सबसे ज़्यादा था. लिहाज़ा उसके पास निवेश उद्देश्यों से और ज़्यादा उधार लेने के मुक़ाबले बेहद सीमित विकल्प बचे थे. बाद के वर्षों में उपलब्ध करवाई गई FCTFF सुविधाओं ने महामारी के दौर में बाहरी वित्त से जुड़ी उलझनों पर क़ाबू पाने में श्रीलंका की भारी मदद की.
क्या चीन इस समस्या की जड़ है?
बहरहाल आम धारणा के विपरीत केवल चीनी कर्ज़ ने ही श्रीलंका को ऋण के मकड़जाल में नहीं फंसाया है. ताज़ा शैक्षणिक शोधों में तथाकथित ‘चीनी ऋण के मकड़जाल’ से जुड़ी दलील को झुठलाया गया है. भले ही श्रीलंका में चीनी कर्ज़ के भंडार में बढ़ोतरी हुई है लेकिन ऋण से जुड़ी उसकी समस्या चीन निर्मित नहीं है.[23] कैथम हाउस के मुताबिक BRI के कालखंड में चीन से लिए गए ऋण में BRI से पहले की समय सीमा की तुलना में मामूली बढ़त ही देखी गई है.[24]
श्रीलंका की ऋण समस्या प्राथमिक रूप से पश्चिम के अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ारों में पैदा हुई है. इसके लिए सरकार द्वारा वाणिज्यिक दरों पर ज़रूरत से ज़्यादा ऋण लिए जाने की क़वायद ज़िम्मेदार है. श्रीलंकाई अर्थशास्त्रियों के ताज़ा आकलनों के मुताबिक 2021 के अंत तक देश का बकाया विदेशी सार्वजनिक ऋण 40.654 अरब अमेरिकी डॉलर था. इनमें से 37.615 अरब अमेरिकी डॉलर केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों द्वारा लिए गए गारंटीड ऋण थे.[25] साल 2018 से 2021 के बीच श्रीलंका की जीडीपी में सार्वजनिक ऋण का अनुपात 91 प्रतिशत से बढ़कर 119 प्रतिशत तक पहुंच गया.[26] मार्च 2022 के अंत तक श्रीलंका के विदेशी कर्ज़ों पर ब्याज़ की अदायगी सालाना 6 अरब अमेरिकी डॉलर के स्तर तक जा पहुंची थी, हालांकि उसका विदेशी मुद्रा भंडार महज़ 1.9 अरब डॉलर था.[27]
टेबल 1. श्रीलंका का विदेशी ऋण भंडार (2000 और 2021)
[caption id="attachment_118733" align="aligncenter" width="660"] Source:Moramudali and Panduwawala (2022)[28][/caption]
श्रीलंका की ऋण समस्या का मुख्य वाहक डॉलर में नामित अंतरराष्ट्रीय सॉवरिन बॉन्ड (ISBs) या अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार से उधार लिए गए यूरो बॉन्ड में हुई बढ़ोतरी है. 2021 के अंत तक श्रीलंका के ISBs का हिस्सा 13 अरब अमेरिकी डॉलर था, जो वहां की सरकार के सकल विदेशी ऋण का 35 प्रतिशत है.[29] साल 2021 में श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय सॉवरिन बॉन्ड के मूलधन के तौर पर 1 अरब डॉलर और ब्याज़ के तौर पर 93.4 करोड़ अमेरिकी डॉलर की रकम चुकता कर दी. उस साल वहां की सरकार ने सरकार के विदेशी कर्ज़े का 47.5 प्रतिशत ब्याज़ अदा कर दिया और चीन के ऋण का दोगुना हिस्सा चुका दिया. इतना ही नहीं चीनी ऋणों पर ब्याज़ की अदायगी को लेकर श्रीलंका के सामने कोई तात्कालिक मसला नहीं था और ना ही हम्बनटोटा बंदरगाह के लीज़ की प्रक्रिया इक्विटी की अदला-बदली वाली क़वायद थी (जैसा कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने धारणा बना दी थी). हम्बनटोटा बंदरगाह को लेकर लिए गए कर्ज़ पर श्रीलंकाई सरकार अब भी ब्याज़ चुकता कर रही है. श्रीलंकाई बंदरगाह प्राधिकरण (SLPA) के बही खाते से निकाले जाने के बाद इस रकम को ख़ज़ाने के तहत दर्ज किया जाता है.[30] ज़ाहिर है कि श्रीलंका को कर्ज़ से घिरे देश में तब्दील करने को लेकर चीन की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है.
सबक़ और सीख
श्रीलंका में चीनी ऋण का पेचीदा क़िस्सा, ऋण-संकट से घिरी दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के लिए कई उपयोगी सबक़ देता है. इससे ऋण संकट के वक़्त लेनदार के रूप में चीन के मिज़ाज का पता चलता है.
हम्बनटोटा बंदरगाह को लेकर लिए गए कर्ज़ पर श्रीलंकाई सरकार अब भी ब्याज़ चुकता कर रही है. श्रीलंकाई बंदरगाह प्राधिकरण (SLPA) के बही खाते से निकाले जाने के बाद इस रकम को ख़ज़ाने के तहत दर्ज किया जाता है.
दरअसल ऋण के मोर्चे पर देर से शुरुआत करने के बावजूद चीन आज विदेशी विकास वित्त-पोषण मुहैया कराने में दुनिया का सबसे बड़ा संप्रभु ऋणदाता है.[31] इसके दो बैंक- चाइना डेवलपमेंट बैंक (CDB) और एक्सपोर्ट-इंपोर्ट बैंक ऑफ़ चाइना (ChExim) मिलकर अंतरराष्ट्रीय विकास वित्त के रूप में उतनी ही रकम मुहैया कराते हैं जितनी अगले छह सबसे बड़े बहुपक्षीय ऋणदाता मिलकर उपलब्ध कराते हैं.[32] साथ ही ये एक ऐसा किरदार भी है जो अन्य द्विपक्षीय ऋणदाताओं के मुक़ाबले अलग नियम-क़ानूनों का इस्तेमाल करता है. नतीजतन चीन अपने वित्त के वितरण में अपेक्षाकृत कम सख़्त प्रक्रियाओं का पालन करता है. जापान या पेरिस क्लब के अन्य सदस्यों के विपरीत चीन, संप्रभु साख मुहैया कराने के पहले ख़ुद से जांच-पड़ताल की कोई क़वायद नहीं करता. चीनी कर्ज़ हर तरह की परियोजना के लिए उपलब्ध होते हैं. इससे उधार लेने वाले देशों को तेज़ी से ऋण हासिल करने की सहूलियत मिल जाती है. वो किसी भी परियोजना के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं. इन प्रक्रियाओं ने चीन को विकासशील विश्व के लिए एक आकर्षक ऋण-प्रदाता में बदल दिया है. हालांकि चीन की यही ख़ासियत अब प्रामाणिक रूप से अंतरराष्ट्रीय वित्त प्रबंधन पर गंभीर असर छोड़ती दिखाई दे रही है.
श्रीलंका की कहानी ये दिखाती है कि भले ही चीन अपनी ऋण नीतियों में उदार हो लेकिन देनदारों द्वारा ऋण अदायगी की व्यवस्था का पालन नहीं किए जाने पर वो उदार नहीं रहता है. आमतौर पर चीन, ऋण की पुनर्संरचना से जुड़े अनुरोधों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं जताता. श्रीलंका ने 2014 और 2017 में चीन के साथ अपने ऋण की पुनर्संरचना किए जाने की गुहार लगाई थी, लेकिन दोनों बार उसके अनुरोध को चीन ने ख़ारिज कर दिया गया था.[33] साल 2022 में आर्थिक संकट गहराने और ऋण की अदायगी में नाकाम रहने के बाद जब श्रीलंका ने ऐसा ही अनुरोध किया था, तब भी चीन ने बेहद ठंडी प्रतिक्रिया जताई. नतीजतन IMF का कार्यक्रम शुरू करने की श्रीलंका की क़वायदों में देरी हो गई. इस लेख के लिखे जाते समय तक श्रीलंका के दूसरे ऋणदाता ऋण पुनर्संरचना को लेकर चीन के फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे है.
इससे ख़ुलासा होता है कि किसी देश के चीन के साथ सियासी रिश्ते चाहे कितने भी अच्छे क्यों ना हों, ऋण संकट के समय वो मुल्क चीन से तत्काल प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं कर सकता. चीन की विलंबित प्रतिक्रिया के पीछे कई वजहें हो सकती हैं. पहली बात ये है कि चीन इस व्यवस्था में नया-नवेला है और विदेशी कर्ज़ों के मामले में फ़िलहाल ग़ैर-तजुर्बेकार है.[34] ऋण की पुनर्संरचना में भी उसके पास समान रूप से अनुभव का अभाव है. अतीत में वैचारिक कारणों से वो लगातार पश्चिम की अगुवाई वाले नियम-क़ायदों को ख़ारिज करता रहा है. हालांकि अब चीन ने ये सीख लिया है कि ऐसे तमाम नियम और तौर-तरीक़े ऋणदाता और देनदार दोनों की हिफ़ाज़त के लिए वजूद में होते हैं. ज़ाहिर है चीन इस प्रणाली को बेहतर रूप से समझने और नए घटनाक्रमों से रणनीतिक रूप से निपटने के तरीक़े ढूंढने में वक़्त लगा रहा है.[35] हालांकि इसके साथ ही दुनिया के सबसे बड़े संप्रभु साख प्रदाता के तौर पर चीन, ऋण देने के अपने तौर-तरीक़ों के बारे में किसी तरह की परंपरा क़ायम नहीं करने को लेकर सतर्क रहने की सोच रखता है.[36] आज जब पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुज़र रही है, तब बड़ी तादाद में चीन के देनदार ऋण संकट का सामना कर रहे हैं. श्रीलंका को देनदारियों पर एकतरफ़ा रूप से स्थगन की सुविधा मुहैया कराने से एक नई परंपरा क़ायम होने का ख़तरा रहेगा. ऐसे में चीन को अन्य कर्ज़दारों के साथ भी ऐसी ही वार्ताएं करनी पड़ जाएगी. इस परिस्थिति ने चीन को रणनीतिक रूप से असमंजस में डाल दिया है.
हालांकि यहां ग़ौरतलब है कि चीन में ऋण पुनर्संरचना एक पेचीदा प्रक्रिया है. चीन की अनेक वित्तीय संस्थाओं ने श्रीलंका को ऋण मुहैया कराए है और इन तमाम संस्थाओं की अपनी प्रक्रियाएं है. वो ख़ुद से अपने फ़ैसले लेती है.[37] ChExim और CDB (श्रीलंका को ऋण मुहैया करा चुके दो सबसे बड़े बैंक) अलग-अलग तरीक़े से काम करते है. इतना ही नहीं, श्रीलंकाई कर्ज़ की सूरत भी बदलती रहती है क्योंकि उसने वाणिज्यिक और रियायती- दोनों तरह के ऋण ले रखे हैं. रियायती ऋणों में ब्याज़ की दरें नीची हैं और उन पर चीन की सरकार सब्सिडी भी देती है. इस संदर्भ में, बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं के भीतर और पारस्परिक तौर पर वृहत सर्वसम्मति के लिए चीन को ऋण पुनर्संरचना प्रक्रिया पर सबके लिए स्वीकार्य नियम-क़ायदे तय करने होंगे. ऐसी ही सर्वसम्मति की दरकार चीन और अन्य द्विपक्षीय ऋण प्रदाता (जैसे भारत और जापान) और ISB बॉन्ड धारकों के बीच भी होगी. ज़ाम्बिया और इक्वाडोर जैसे देशों के साथ ऋण पुनर्गठन को लेकर अतीत में चीन के बर्ताव से साफ़ हुआ है कि वो ख़ुद को वरीयता दिए जाने की क़वायद को प्राथमिकता देता है.[38] हालांकि बाक़ी सभी ऋणदाता भी अपने साथ परस्पर सापेक्ष रूप से समान व्यवहार किए जाने को ही पसंद करते है.
श्रीलंका की कहानी ये दिखाती है कि भले ही चीन अपनी ऋण नीतियों में उदार हो लेकिन देनदारों द्वारा ऋण अदायगी की व्यवस्था का पालन नहीं किए जाने पर वो उदार नहीं रहता है. आमतौर पर चीन, ऋण की पुनर्संरचना से जुड़े अनुरोधों पर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं जताता.
आख़िरकार, ऋण पुनर्संरचना से जुड़ी क़वायदों की कामयाबी में दूसरे साख प्रदाताओं के साथ चीन के समीकरण की भी अहम भूमिका रहने वाली है. श्रीलंका के दूसरे प्रमुख द्विपक्षीय ऋणदाताओं (यानी भारत और जापान) के साथ चीन के रिश्ते पेचीदा हालत में हैं. इनकी सियासी जटिलताएं वार्ताओं की मेज़ पर नज़र आने के आसार है. इससे ना सिर्फ़ श्रीलंका की ऋण पुनर्संरचना की प्रक्रिया में देरी होगी बल्कि इसका द्विपक्षीय रिश्तों के भविष्य पर भी असर होगा.
सौ बात की एक बात ये है कि श्रीलंकाई ऋण का मसला व्यापक अर्थव्यवस्था से जुड़ी देश की कमज़ोर नीतियों और वाणिज्यिक ऋणों पर उसकी ऊंची निर्भरता का नतीजा है. दोहरे घाटे के वित्त-पोषण के लिए वो निर्यात साख का सहारा लेता आ रहा था, जिसके चलते भी हालात पेचीदा हो गए है. ऋण से जुड़े इस पूरे क़िस्से में चीन की भूमिका जटिल और विवादित है. भले ही चीन ने ऋण का ये संकट खड़ा ना किया हो, लेकिन इसके निपटारे में उसकी भूमिका बेहद अहम है. निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि श्रीलंकाई संकट के साथ चीन जिस तरीक़े से पेश आएगा, उससे उभरते बाज़ारों के ऋण संकटों के निपटारे की एक नई परंपरा क़ायम होगी.
Endnotes:
[1] Thilina Walpola, “The Art of Dissent: The Aragalaya Showcased the Most Creative Form of Protest,” The Island, August 28, 2022.
[2] Deutsche Welle, “What’s behind Sri Lanka’s Economic Crisis?,” The Indian Express, April 2, 2022.
[3] Keshini Madara Marasinghe, “Economic Crisis in Sri Lanka and Its Impact on Older Adults,” Oxford Institute of Population Ageing, May 5, 2022.
[4] “Photos: Sri Lanka Protesters Defy Curfew after Social Media Ban,” Al Jazeera, April 3, 2022.
[5] Chandani Kirinde, “Gota’s Govt. Hangs onto Simple Majority in Parliament for Now,” Daily FT, April 6, 2022.
[6] “Mahinda Rajapaksa Steps down as Sri Lankan Prime Minister amid Economic Crisis,” The Indian Express, May 9, 2022, ; Alasdair Pal and Uditha Jayasinghe, “Sri Lanka Protesters Call for New Government a Day after Clashes Kill Eight,” Reuters, May 11, 2022, sec. Asia Pacific.
[7] “Sri Lanka: Protesters ‘Will Occupy Palace until Leaders Go,’” BBC News, July 10, 2022, sec. Asia.
[8] Ananth Krishnan, “‘Entrapment’ or ‘Ineptitude’? Sri Lanka Debt Crisis Reignites Debate on Chinese Lending,” The Hindu, May 7, 2022, sec. World.
[9] Chulanee Attanayake, “Years of Policy Failure and COVID Throw Sri Lanka into Deep Crisis,” East Asia Forum, April 24, 2022.
[10] Vagisha Gunasekara, “Crises in the Sri Lankan Economy: Need for National Planning and Political Stability,” Institute of South Asian Studies, November 23, 2021.
[11] Chulanee Attanayake and Ganeshan Wignaraja, “Sri Lanka’s Simmering Twin Crises,” The Interpreter, August 26, 2021.
[12] Gunasekara, “Crises in the Sri Lankan Economy”
[13] Yougesh Khatri, Edimon Ginting, and Prema-chandra Athukorala, “The Sri Lankan Economy: Charting A New Course, Chapter 2 Economic Performance and Macroeconomic Management,” ADB, 2017.
[14] Gunasekara, “Crises in the Sri Lankan Economy”
[15] Joanik Bellalou, “Photos: How Sri Lanka’s Forced Organic Transition Crippled Its Tea Industry,” Mongabay Environmental News, October 1, 2022.
[16] Peter Hoskins, “Sri Lanka Defaults on Debt for First Time in Its History,” BBC News, May 20, 2022, sec. Business.
[17] “Unprecedented economic and political crisis mark 2022 in Sri Lanka; India’s assistance provides breather,” The Print, December 30, 2022.
[18] Attanayake, Chulanee, and Archana Atmakuri. “Sri Lanka: Navigating Sino-Indian Rivalry,” in Navigating India-China Rivalry: Perspectives from South Asia, C. Raja Mohan and Jia Hao Chen, eds., 67–77. Singapore: Institute of South Asian Studies, 2020.
[19] The figure is little higher than often quoted 10% of the total. However, it is to be noted that this is because of the complexity in Sri Lanka’s recording of debt stock. For more information see Umesh Moramudali and Thilina Panduwawala, “Evolution of Chinese Lending to Sri Lanka since the Mid-2000s – Separating Myth from Reality,” Briefing Paper, no. 8 (December 28, 2022); Umesh Moramudali and Thilina Panduwawela, “Demystifying China’s Role in Sri Lanka’s Debt Restructuring,” The Diplomat, December 20, 2022.
[20] Umesh Moramudali and Thilina Panduwawala, “Evolution of Chinese Lending to Sri Lanka since the Mid-2000s – Separating Myth from Reality,” Briefing Paper, no. 8 (December 28, 2022).
[21] Moramudali and Panduwawala, “Evolution of Chinese Lending to Sri Lanka since the Mid-2000s”
[22] Umesh Moramudali and Thilina Panduwawala, “From Project Financing to Debt Restructuring: China’s Role in Sri Lanka’s Debt Situation,” Panda Paw Dragon Claw, June 13, 2022.
[23] Dushni Weerakoon and Sisira Jayasuriya, “Sri Lanka’s Debt Problem Isn’t Made in China ,” East Asia Forum, February 28, 2019.
[24] Ganeshan Wignaraja et al., “Chinese Investment and the BRI in Sri Lanka” (Chatham House, March 2020).
[25] Moramudali and Panduwawala, “Evolution of Chinese Lending to Sri Lanka since the Mid-2000s”
[26] International Monetary Fund, “Sri Lanka: 2021 Article IV Consultation-Press Release; Staff Report; and Statement by the Executive Director for Sri Lanka,” IMF, March 25, 2022.
[27] Central Bank of Sri Lanka, “Presentation by the Governor of the Central Bank Ajith Nivard Cabraal at the All-Parties Conference on 23rd March 2022,” March 28, 2022.
[28] Moramudali and Panduwawala, “Evolution of Chinese Lending to Sri Lanka since the Mid-2000s”
[29] Moramudali and Panduwawala, “Evolution of Chinese Lending to Sri Lanka since the Mid-2000s”
[30] Saliya Wickremesuriya, interview by Chulanee Attanayake, December 1, 2022.
[31] Jue Wang and Michael Sampson, “China’s Approach to Global Economic Governance from the WTO to the AIIB,” Chatham House – International Affairs Think Tank, December 2021.
[32] Robert Soutar, “China Becomes World’s Biggest Development Lender,” China Dialogue, May 25, 2016.
[33] Umesh Moramudali and Thilina Panduwawela, “Demystifying China’s Role in Sri Lanka’s Debt Restructuring,” The Diplomat, December 20, 2022.
[34] Micheal Pettis, “Twitter Thread,” Twitter, September 27, 2022.
[35] “BRI Notebook: Chinese Central Bank Official Calls for Balanced Approach to Debt Crisis,” Panda Paw Dragon Claw, November 15, 2022.
[36] Ganeshan Wignaraja, “China’s Dilemmas in Bailing out Debt-Ridden Sri Lanka,” East-West Center, January 20, 2022.
[37] Moramudali and Panduwawela, “Demystifying China’s Role in Sri Lanka’s Debt Restructuring”
[38] Anushka Wijesinghe, China’s Role in Sri Lanka’s Debt Crisis, interview by Paul Haenle, China in the World, August 10, 2022.
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