Author : Daehan Lee

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 05, 2025 Updated 0 Hours ago

दक्षिण कोरिया पूरी शिद्दत के साथ परमाणु क्षमता हासिल करने की कोशिश में जुटा हुआ है. इसके पीछे जो प्रमुख कारण हैं, उनमें मुख्य रूप से अमेरिका के साथ उसका बढ़ता तनाव और क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर पैदा हुआ अनिश्चितता का माहौल शामिल हैं.

परमाणु ताकत बनने की ओर दक्षिण कोरिया: सुरक्षा या खतरा?

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दक्षिण कोरिया में हमेशा से परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र बनने की मांग उठती रही है. इसके अलावा, जब भी उत्तर कोरिया के साथ तनातनी बढ़ती है, तो दक्षिण कोरिया में परमाणु क्षमता हासिल करने की चर्चाएं ज़ोर पकड़ने लगती हैं. हालांकि, सच्चाई तो यह है कि पिछले कुछ वर्षों के दैरान दक्षिण कोरिया को परमाणु हथियारों से लैस करने की मांग तेज़ हो गई है. देश का आम जनमानस और बुद्धिजीवी वर्ग अब खुलकर इसका समर्थन करने लगा है. ज़ाहिर है कि दक्षिण कोरिया को परमाणु ताक़त बनाने की मांग के पीछे उत्तर कोरिया का बढ़ता आक्रामक रवैया और रूस-यूक्रेन युद्ध तो है ही, साथ ही इसकी एक अन्य प्रमुख वजह दक्षिण कोरिया और अमेरिका के बीच बढ़ता अविश्वास और तल्ख होता रिश्ता भी है.

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन और दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति यून सुक योल के बीच शुरुआती वर्षों के दौरान हुई कूटनीतिक वार्ताओं में भी दोनों देशों के बीच यह अविश्वास स्पष्ट तौर पर दिखाई दिया था. अविश्वास से भरी इन्हीं बातचीतों के बाद आख़िरकार वर्ष 2023 में दोनों राष्ट्रों के बीच वाशिंगटन डिक्लेरेशन पर हस्ताक्षर किए गए थे. इस समझौते में दोनों देशों के बीच सहमति बनी थी कि “दोनों पक्ष परमाणु "निवारण" पर गंभीरता और आपसी सहयोग के साथ आगे बढ़ने को प्रतिबद्ध होंगे.” फिलहाल, दक्षिण कोरिया को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनाने के मुद्दे पर चर्चाओं का दौर जारी है और समय के साथ-साथ यह बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में यह पता लगाना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि इन चर्चाओं के पीछे मुख्य वजहें क्या हैं. साथ ही इसका आकलन करना भी आवश्यक है कि हक़ीक़त में दक्षिण कोरिया के परमाणु ताक़त बनने की क्या संभावनाएं हैं और उसके परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र बनने में सबसे बड़ी चुनौतियां कौन सी हैं. 

दक्षिण कोरिया के परमाणु ताक़त राष्ट्र बनने की मंशा के पीछे रणनीतिक वजहें

परमाणु हथियार हासिल करने की दक्षिण कोरिया की इच्छा कोई नई नहीं हैं. देखा जाए तो जब से इस देश की स्थापना हुई है, तभी से सियोल युद्ध के ख़ौफ़ में जी रहा है. दक्षिण कोरिया को वर्ष 1950 में एचेसन लाइन का अनुभव करना पड़ा था, इसके अलावा भी दक्षिण कोरिया लगातार सुरक्षा चिंताओं से घिरा हुआ है. इनमें अमेरिकी प्रशासन द्वारा समय-समय पर दक्षिण कोरिया से अमेरिकी सेना (USFK) को वापस बुलाने की कोशिशों से पैदा होने वाला डर का माहौल भी शामिल है.

दक्षिण कोरिया को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनाने के मुद्दे पर चर्चाओं का दौर जारी है और समय के साथ-साथ यह बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में यह पता लगाना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि इन चर्चाओं के पीछे मुख्य वजहें क्या हैं.

देखा जाए तो तभी से दक्षिण कोरिया में अलग-थलग पड़ जाने की भावना घर कर चुकी है और यही उसकी सुरक्षा चिंता की सबसे प्रमुख वजह भी है. दक्षिण कोरिया में शासन चाहे किसी का भी रहा हो, यानी चाहें वहां लचीला शासन रहा हो, या फिर ताक़तवर लोगों ने राज किया हो, लेकिन दुनिया से कट जाने का डर वहां के लोगों के दिलो-दिमाग में बस गया है. इसके साथ ही एक गैर-परमाणु राष्ट्र होने के नाते कोरियाई लोगों के जेहन में अमेरिका को लेकर एक बुनियादी सवाल गहराई से बसा हुआ है. वो सवाल है कि "क्या अमेरिका पेरिस के लिए न्यूयॉर्क का बलिदान देगा?" कहने का मतलब है कि क्या अमेरिका सियोल के लिए अपने हितों की कुर्बानी देने को तैयार है? दक्षिण कोरियाई लोगों के मन में यह सवाल इसलिए आता है, क्योंकि जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है, यानी कोई तनाव और असुरक्षा का माहौल नहीं होता है, तो वाशिंगटन के हित बिना किसी बाधा के पूरे होते रहते हैं और वो दक्षिण कोरिया के साथ मज़बूती से खड़ा दिखाई देता है. कहने का मतलब है कि अमेरिका को लगता है कि इस क्षेत्र में युद्ध जैसी परिस्थितियां पैदा होने पर अगर दक्षिण कोरिया की ओर से पारंपरिक हथियारों के ज़रिए किसी हमले का जवाब दिया जाता है, तो यहां हालात काबू में रहेंगे. यानी अमेरिका को लगता है कि भले ही प्योंगयांग की ओर से दक्षिण कोरिया पर परमाणु हमला किया जाए, फिर भी दक्षिण कोरिया द्वारा उसी तरह का करारा जवाब देने के लिए परमाणु कार्रवाई करने के बजाए पारंपरिक हथियारों से प्रतिक्रिया देना ही उचित है.

दक्षिण कोरियाई लोगों को लगता है कि अगर कभी ऐसे हालात पैदा होते हैं, तो अमेरिकी राष्ट्रपति चाहकर भी परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे, क्योंकि उन पर ऐसा क़दम नहीं उठाने के लिए ज़बरदस्त दबाव होगा और उन्हें उसके सामने झुकना पड़ेगा. कहने का मतलब है कि ऐसी किसी परिस्थिति में अमेरिकी राष्ट्रपति को दुविधा से जूझना पड़ेगा. उनके सामने दुविधा यह होगी कि एक ऐसे सहयोगी राष्ट्र, जो कि अमेरिकी क्षेत्र का हिस्सा नहीं है, के लिए अमेरिकी शहरों, निर्दोष अमेरिकी नागरिकों और दुनिया भर में फैले अमेरिकी ठिकानों को ख़तरे में डाला जाए या नहीं. ज़ाहिर है कि जिस प्रकार से उत्तर कोरिया का रवैया है, उसके मद्देनज़र भविष्य में इस तरह के हालात पैदा होना लाज़िमी हैं और यही भय सियोल को सताए जा रहा है. दक्षिण कोरियाई लोगों में इसी को लेकर आक्रोश पनप रहा है कि एक परमाणु हथियार विहीन राष्ट्र के रूप में उनका देश किसी परमाणु हमले की स्थिति में उचित जवाबी कार्रवाई करने में असमर्थ होगा. इसके अलावा, अमेरिका क्षेत्र में तनाव बढ़ने से रोकने के लिए, सियोल पर ही जवाबी हमलों को रोकने का दबाव बनाएगा.

एक परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र बनने में कई दशकों से अटक रहे रोड़ों की वजह से उत्पन्न हताशा भी दक्षिण कोरिया और अमेरिका के बीच पनप रहे अविश्वास की वजह बन रही है. 1960 के दशक से ही उत्तर कोरिया परमाणु क्षमता हासिल करने में जुटा हुआ है. कहा जा सकता है कि 1993 में परमाणु क्षमता हासिल करने और परमाणु कार्यक्रम शुरू करने की कोशिशों से बहुत पहले से उत्तर कोरिया का ऐसे प्रयासों का एक लंबा इतिहास रहा है. अगर दक्षिण कोरिया की बात की जाए तो, ठीक इसके उलट 1991 में अमेरिका ने दक्षिण कोरिया से अपनी सभी सामरिक परमाणु हथियार वापस ले लिए थे. दरअसल, 1991 में अमेरिका और दक्षिण कोरिया के बीच कोरियाई प्रायद्वीप को परमाणु मुक्त बनाने को लेकर संयुक्त समझौता हुआ था और फिर सियोल की सहमति के बाद अमेरिका ने अपने परमाणु हथियारों को वहां से समेट लिया था.

निसंदेह तौर पर कोरियाई प्रायद्वीप में परमाणु असंतुलन व्याप्त है, बावज़ूद इसके परमाणु ताक़त से लैस देश द्वारा यानी अमेरिका द्वारा दक्षिण कोरिया को सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं दी जा रही है. इतना ही नहीं, संयुक्त राज्य अमेरिका और कोरिया गणराज्य (ROK) का परमाणु परामर्श समूह (NCG) भी दक्षिण कोरियाई लोगों की सुरक्षा चिंता दूर नहीं कर पा रहा है. दक्षिण कोरिया को परमाणु हमले जैसी किसी स्थिति में मदद का जो आश्वासन दिया जा रहा है, वो कारगर साबित नहीं हो पा रहा है. अमेरिका का यह आश्वासन दक्षिण कोरिया के परमाणु क्षमता हासिल करने के मंसूबों को त्यागने के लिए पर्याप्त नहीं है. देखा जाए तो यह परमाणु अप्रसार व्यवस्था यानी परमाणु हथियारों को हासिल करने से राष्ट्रों को रोकने के लिए बनाए गए वैश्विक फ्रेमवर्क के ठीक उलट है, लेकिन इसके बारे में आमतौर पर ज़्यादा बातचीत नहीं होती है. दक्षिण कोरिया के मामले में अगर वाशिंगटन को लगता है कि ज़रूरत पड़ने पर जवाबी परमाणु हमले में जोख़िम है, तो फिर उसकी छद्म परमाणु रक्षा प्रतिबद्धता की विश्वसनीयता का कोई मतलब नहीं रह जाता है.

अगर दक्षिण कोरिया के पास परमाणु शक्ति होगी, तो वो अपने सहयोगी राष्ट्रों के साथ बेहतर तरीक़े से क़दम से क़दम मिलाकर चल सकेगा.

सियोल आखिरकार अब उस अंतर्विरोध को मानने लगा है, जिसको लेकर उसने अपनी आंखें बंद रखी थीं. यानी अब दक्षिण कोरिया को पता चल चुका है कि उसके जो भी सहयोगी देश हैं, सुरक्षा कारणों से उनके हाथ बंधे हुए हैं. मतलब कि वे चाहकर भी कुछ कर नहीं सकते हैं. यहां तक कि इन सहयोगियों को पता है कि परमाणु हथियार संपन्न तानाशाह राष्ट्र, जिनके पास एक से एक घातक परमाणु हथियार हैं और वे ख़तरों के बावज़ूद एक-दूसरे के अस्तित्व को मौन स्वीकृत देते हैं. हालांकि, इसके उलट अमेरिका सहयोगी देशों द्वारा परमाणु क्षमता हासिल करने के लिए किए जा रहे प्रयासों में रुकावटें खड़ी कर रहा है. यही वजह है कि बड़ी संख्या में दक्षिण कोरियाई नागरिकों का ये मानना है कि सियोल लगातार ख़राब हो रहीं क्षेत्रीय सुरक्षा परिस्थितियों को तभी काबू पा सकता है, जब वह परमाणु ताक़त हासिल कर ले. यानी दक्षिण कोरिया परमाणु शक्ति बनने के बाद ही क्षेत्र में मौज़ूदा परमाणु गतिरोध को समाप्त कर सकता है. इसके अलावा, देश के लोगों का यह भी मानना है कि सियोल परमाणु ताक़त से संपन्न तानाशाही राष्ट्रों का मुक़ाबला करते हुए भी यह सब आसानी से कर सकता है.

ज़ाहिर है कि अगर दक्षिण कोरिया के पास परमाणु शक्ति होगी, तो वो अपने सहयोगी राष्ट्रों के साथ बेहतर तरीक़े से क़दम से क़दम मिलाकर चल सकेगा. जैसे कि मिसाइल डिफेंस और दक्षिण कोरिया-अमेरिका गठबंधन के समन्वय में दक्षिण कोरिया परमाणु ऊर्जा से चलने वाली हमलावर पनडुब्बियों और बैलिस्टिक मिसाइलों के साथ एक सशक्त नौसेना बना सकता है. यानी अगर दक्षिण कोरिया के पास अपने देश में विकसित परमाणु हथियार होंगे, तो इसका मतलब यह नहीं होगा कि वो अपने सहयोगियों के गठबंधन से अलग हो जाएगा. बल्कि इसका मतलब यह होगा कि वो अपने सहयोगियों के साथ मज़बूत स्थिति में खड़ा होगा.

दक्षिण कोरिया में परमाणु हथियारों से जुड़ी चर्चा के अलग-अलग समूह

दक्षिण कोरिया में 2010 के दशक के मध्य से ही जनमानस के बीच न्यूक्लियर पावर बनने को लेकर चर्चा तेज़ होती जा रही है. इनमें परमाणु प्रसार और परमाणु अप्रसार दोनों तरह के विचारों को मानने वाले लोग हैं और वे इस बात की खुलकर चर्चा कर रहे हैं कि दक्षिण कोरिया को भविष्य में अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए परमाणु हथियार हासिल करना चाहिए या नहीं.

अमेरिका में ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने से पहले दक्षिण कोरिया में परमाणु हथियार हासिल करने की तरफ नहीं बढ़ने का तर्क देने वाले इस चर्चा में आगे थे. इस समूह में शामिल कई विशेषज्ञों को लगता है कि अगर दक्षिण कोरिया परमाणु हथियार हासिल करने की होड़ में शामिल होता है और उसे तमाम परेशानियों से जूझना पड़ सकता है. जैसे कि उसे गंभीर आर्थिक प्रतिबंध झेलने पड़ सकते हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकते हैं. इतना ही नहीं, जिस प्रकार से उत्तर कोरिया दुनिया में एक अलग-थलग देश बना हुआ, कुछ इसी तरह के हालातों का सामना दक्षिण कोरिया को भी करना पड़ सकता है. इसके अलावा, ROK-US गठबंधन भी समाप्त हो सकता है, साथ ही दुनिया में जो परमाणु अप्रसार की व्यवस्था बनी हुई है, वो तार-तार सकती है और जिससे वैश्विक स्तर पर सुरक्षा परिदृश्य बेहद नाज़ुक स्थिति में पहुंच सकता है.

इस बीच दक्षिण कोरिया को परमाणु ताक़त बनाने की हिमायत करने वाले समूह ने पिछले दस वर्षों के दौरान अपनी बातें ज़ोरदार तरीक़े से रखना शुरू किया है. ऐसे लोगों को लगता है कि आने वाले दिनों में उत्तर कोरिया से परमाणु हथियारों का खात्मा होने की संभावना बेहद कम है. इसके अलावा, इन्हें यह भी लगता है कि रूस द्वारा यूरोप के ख़िलाफ़ परमाणु हथियारों के उपयोग की धमकी से स्थितियां बदतर होंगी और चीन भी अपनी परमाणु शक्ति को बढ़ाने में जुटा हुआ है. इस सभी बातों को देखते हुए दक्षिण कोरिया को परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र बनाने की वक़ालत करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है और इनका स्पष्ट कहना है कि परमाणु अप्रसार की बातें करने वाले लोगों द्वारा, परमाणु ताकत बनने पर जो प्रतिबंधों का भय दिखाया जा रहा है, उसे काफ़ी बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. परमाणु प्रसार के हिमायतियों के मुताबिक़ अगर दक्षिण कोरिया परमाणु हथियारों से लैस राष्ट्र बन जाएगा, तो वो वैश्विक मंच पर अमेरिका के एक प्रमुख सहयोगी के रूप में ज़्यादा ज़िम्मेदार भूमिका निभा पाएगा. इसके अलावा, ऐसा होने पर ROK-US गठबंधन को भी नई ऊर्जा मिलेगी और यह अधिक मज़बूती के साथ उभरेगा. इसके अलावा, दक्षिण कोरिया को परमाणु राष्ट्र बनाने की तरफदारी करने वालों का यह भी तर्क है कि दुनिया में जो परमाणु अप्रसार संधि है, वो बेमानी हो चुकी है, क्योंकि जो राष्ट्र घोषित रूप से परमाणु हथियार संपन्न हैं, उनका परमाणु हथियार कम करके इस संधि के लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर रवैया निराशाजनक है. इतना ही नहीं, ईरान और उत्तर कोरिया जैसे परमाणु ताक़त हासिल करने में जुटे देशों के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाने और AUKUS  फ्रेमवर्क (ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच एक त्रिपक्षीय सुरक्षा साझेदारी) के तहत ऑस्ट्रेलिया को परमाणु-संचालित हमलावर पनडुब्बियां उपलब्ध कराने के प्रावधानों की वजह से भी परमाणु अप्रसार संधि वर्तमान में अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है. दक्षिण कोरिया को परमाणु ताक़त बनाने का तर्क देने वालों का यह भी कहना है कि दक्षिण कोरिया को अपनी आत्मरक्षा के लिए परमाणु हथियार हासिल करना कतई अनुचित नहीं है. इनका मानना है कि अगर सियोल परमाणु शक्ति हासिल कर लेता है, तो उसे सुरक्षा वजहों से उसे उत्तर कोरिया और चीन के मुक़ाबले ज़्यादा समर्थन हासिल होगा और कहीं न कहीं सामरिक आत्मनिर्भरता भी मिलेगी.

सियोल ने अब तक परमाणु हथियार हासिल नहीं करने के अपने विचारों को नहीं बदला है और एक गैर-परमाणु देश बना रहा है. यहां तक कि पड़ोसी मुल्कों के पास परमाणु हथियार होने के बाद भी दक्षिण कोरिया ने परमाणु क्षमता हासिल करने के लिए कुछ नहीं किया.

दक्षिण कोरिया में परमाणु अप्रासर और परमाणु प्रसार के हिमातायती दोनों समूहों के बीच वर्षों से तर्क-वितर्क का दौर चल रहा है. इसी बीच वहां एक नई विचारधारा वाला तीसरा समूह भी सामने आया है, जो कहीं न कहीं बीच के रास्ते पर चलने की बात कह रहा है और न्यूक्लियर लैटेंसी यानी परमाणु विलंबता हासिल करने के पक्ष में खड़ा है. परमाणु विलंबता का मतलब है कि किसी देश के पास परमाणु हथियार बनाने की तकनीक, विशेषज्ञता, और बुनियादी ढांचा है,  लेकिन उसने अभी तक ऐसा नहीं किया है और ज़रूरत पड़ने पर परमाणु हथियारों को तेज़ी से विकसति करने की क्षमता है. ऐसा लगता है कि दक्षिण कोरिया अपने परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाले परमाणु कचरे को अब और ज़्यादा इकट्ठा नहीं कर पाएगा. ऐसे में दक्षिण कोरिया को ज़ल्द ही न्यूक्लियर वेस्ट रिप्रोसेसिंग फैसेलिटी यानी परमाणु अपशिष्ट पुनर्संसाधन सुविधा के ज़रिए इस परमाणु कचरे को दोबारा उपयोग में लाने के लिए रिसाइकिल करने की ज़रूरत होगी. ज़ाहिर है कि कोरियाई नौसेना ब्लू सी में सक्रिय संचालन के लिए ज़्यादा विकसित और उन्नत तौर-तरीक़ों को प्राथमिकता देती है. इस वजह से दक्षिण कोरियाई नौसेना की अगली पीढ़ी की पनडुब्बियों को संचालित करने के लिए LEU (कम समृद्ध यूरेनियम) की ज़रूरत बढ़ेगी. इसीलिए, दक्षिण कोरिया के लिए न्यूक्लियर लैटेंसी का विकल्प अपनाना सबसे बेहतर होगा, क्योंकि यह न केवल देश की परमाणु आधारित औद्योगिक और सुरक्षा ज़रूरतों को पूरा कर सकता है, बल्कि उसके परमाणु ऊर्जा अनुसंधान एवं विकास को भी गति दे सकता है. देखा जाए तो परमाणु प्रसार और परमाणु अप्रसार की तुलना में परमाणु विलंबता एक बेहतर विकल्प है, जिसमें कोई ज़्यादा दिक़्क़तें भी नहीं हैं और यह देश की फौरी ज़रूरतों को भी पूरा करने वाला है. हालांकि, इसको लेकर देश के एंटी-न्यूक्लियर एक्सपर्ट चिंतित हैं, क्योंकि इस विकल्प में परमाणु हथियारों का उत्पादन शामिल नहीं है.

निष्कर्ष

कोरियाई प्रायद्वीप में दक्षिण कोरिया के पड़ोसी देश न केवल परमाणु हथियारों से लैस हैं, बल्कि इन हथियारों का ज़खीरा बढ़ाने में जुटे हैं. वहीं दूसरी ओर अमेरिका का सहयोगी होने के बावज़ूद दक्षिण कोरिया एक परमाणु हथियार विहीन राष्ट्र बना हुआ है. दुनिया के बड़े देश और संगठन जो परमाणु अप्रसार का दम भरते हैं, वे तानाशाह देशों के परमाणु ताक़त बनने के मंसूबों को रोक नहीं पाए हैं, यानी उत्तर कोरिया पर कोई लगाम नहीं लगा पाए हैं. ऐसे में दक्षिण कोरिया को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बनने या नहीं बनने की चर्चा बहुत अधिक बढ़ गई है. अमेरिका के सहयोगी राष्ट्र अब परमाणु प्रसार को लेकर वाशिंगटन की ढुलमुल रणनीति के ख़िलाफ़ खुलकर बोलने लगे हैं. उनका कहना है कि वाशिंगटन की यह कैसी रणनीति है, जो सहयोगी राष्ट्रों को आत्मरक्षा के लिए परमाणु क्षमता हासिल करने से रोकती है, जबकि तानाशाह देशों की हरकतों के सामने आखें मूंद लेती है.

दक्षिण कोरिया को भली भांति पता है कि क्यूबा मिसाइल संकट के दौरान अमेरिका ने किस तरह से ज़ल्दबाज़ी में क़दम उठाए थे, तब शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ परमाणु युद्ध की कगार पर आ गए थे. दक्षिण कोरिया के लोगों को लगता है कि पूर्वोत्तर एशिया पर भी कुछ इसी तरह का संकट बढ़ता जा रहा है. ज़ाहिर है कि कोरियाई प्रायद्वीप में जो हालात बने हुए हैं और जिन परिस्थितियों के बीच दक्षिण कोरिया फंसा हुआ है, ऐसे में दक्षिण कोरिया की जगह अगर कोई और देश होता तो, वो अब तक परमाणु क्षमता हासिल कर चुका होता और परमाणु हथियार बना चुका होता.

दक्षिण कोरिया के पड़ोसी देश परमाणु हथियारों से लैस हैं और उसे उनसे ख़तरा बना हुआ है. हालांकि, ज़्यादातर दक्षिण कोरियाई नागरिकों का मानना है कि परमाणु हथियार सबसे अच्छा विकल्प या सभी समस्याओं का समाधान नहीं है. लेकिन इसको लेकर देश में आम राय है कि दक्षिण कोरिया का परमाणु क्षमता हासिल करना बेहद ज़रूरी है. सियोल ने अब तक परमाणु हथियार हासिल नहीं करने के अपने विचारों को नहीं बदला है और एक गैर-परमाणु देश बना रहा है. यहां तक कि पड़ोसी मुल्कों के पास परमाणु हथियार होने के बाद भी दक्षिण कोरिया ने परमाणु क्षमता हासिल करने के लिए कुछ नहीं किया. लेकिन अब यह स्थिति ज़्यादा दिनों तक नहीं रहने वाली है, क्योंकि क्षेत्र में जिस प्रकार से परमाणु हथियारों को हासिल करने की होड़ मची है और सुरक्षा से जुड़ी पेचीदा परिस्थितियां बनी हुई हैं, ऐसे में दक्षिण कोरिया अब ज़्यादा समय तक परमाणु क्षमता हासिल नहीं करने के अपने विचार पर क़ायम नहीं रह सकता है. यानी अब वो समय आ चुका है, जब दक्षिण कोरिया को निर्णय करना है कि उसे कब तक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बनना है.


डेहान ली रिपब्लिक ऑफ कोरिया फोरम फॉर न्यूक्लियर स्ट्रैटेजी (ROKFNS) में रिसर्चर हैं.

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