भारत के औपनिवेशिक इतिहास से चले आ रहे राजद्रोह कानून के हो रहे दुरुपयोग के संदर्भ मे चिंता ज़ाहिर करते हुए, मुख्य न्यायाधीश एन.व्ही. रमना ने कहा है कि, “राजद्रोह कानून का इस्तेमाल बिल्कुल उसी तरह से है, जैसे हम किसी बढ़ई को लकड़ी का एक टुकड़ा काटने के लिये आरी देते हैं लेकिन वो उसका इस्तेमाल पूरे जंगल को ही काटने में कर डालता है.” उनका वक्तव्य और हाल फिलहाल हाई कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों ने राज्यों के अधिकारियों मे राजद्रोह कानून के बढ़ते (दूर)उपयोग के संदर्भ मे बहस छेड़ दी है.
उत्पत्ति और विकास
भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अनुसार, “कोई भी व्यक्ति अगर अपने शब्दों द्वारा चाहे वक्तव्य अथवा लिखित में, या फिर अपने इशारों, या अपने स्पष्ट व्यवहार से नफ़रत या निंदा की कोशिश, अथवा भारत की विधि-व्यवस्था द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ़ असंतोष/रोष व्यक्त या जागृत करता है, और दोषी पाया जाता है, तो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124-ए के अंतर्गत, उस पर (आजीवन कारावास) और जुर्माने की सज़ा लागू होगी. ये भी हो सकता है कि एक से तीन साल के कारावास के साथ उसपर जुर्माना भी लगाया जाये. “इस कानून को सर्वप्रथम 1860 मे, ब्रिटिश राज के दौरान राज्य के खिलाफ़ किसी भी प्रकार के असंतोष या विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए लागू किया गया था.
अंग्रेजों ने इस राजद्रोह कानून का इस्तेमाल प्रमुख रूप से असंतुष्टों के दमन और महात्मा गांधी व बाल गंगाधर तिलक सरीखे स्वतंत्रता सेनानियों, जो औपनिवेशिक सरकार की नीतियों के विरोधी थे, उन्हें जबरन गिरफ्त़ार करने के लिए किया था.
अंग्रेजों ने इस राजद्रोह कानून का इस्तेमाल प्रमुख रूप से असंतुष्टों के दमन और महात्मा गांधी व बाल गंगाधर तिलक सरीखे स्वतंत्रता सेनानियों, जो औपनिवेशिक सरकार की नीतियों के विरोधी थे, उन्हें जबरन गिरफ्त़ार करने के लिए किया था. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, संविधान निर्माताओं ने इस उपनिवेशिक कानून के विभिन्न पहलुओं मे आमूल-चूल सुधार और बदलाव के लिए उसमें काफी वक्त लगाया. इस उपनिवेशिक कानून के सबसे मुखर विरोधी रहे के. एम. मुंशी ने इस कठोर कानून पर अपनी राय रखते हुए साफ़-साफ़ कहा कि ऐसे कानून भारत के लोकतंत्र के ऊपर बहुत बड़ा ख़तरा है. उनके अनुसार, “असर में, किसी भी लोकतंत्र की सफ़लता का राज़ ही उसकी सरकार की आलोचना में है. “ये के.एम. मुंशी और सिख नेता भूपिंदर सिंह मान का ही संयुक्त प्रयास था जिसके फलस्वरूप, संविधान से राजद्रोह शब्द को हमेशा के लिये हटाया जा सका.
हालांकि, इस कानून को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली आज़ाद भारत की पहली सरकार ने अपने प्रथम विवादास्पद संशोधन के बाद पारित करके पुनःदेश में, लागू कर दिया था. 1951 मे संविधान के प्रथम संशोधन के वक्त़ बोलते हुए पंडित नेहरू ने कहा था,” अब जहां तक मैं समझता हूँ, चाहे हम इस इस कानून को चाहे जिस भी रूप में पारित कर ले लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि, इस कानून की एक खास धारा (124ए आईपीसी) वास्तव में काफी आपत्तिजनक और अप्रिय है. असल में इसका ऐतिहासिक और वास्तविक कारणों के कारण कोई अस्तित्व होना ही नहीं चाहिए था, इसलिये हम जितनी जल्दी हो सके, हमें इस कानून से निजात पा लेना चाहिये क्योंकि वही हमारे लिये बेहतर है. “हालांकि, नेहरू बाद में अपनी इस राय पर कायम नहीं रह पाये और 1951 में लाये गये अपनी सरकार के पहले संशधन में, उनकी सरकार ने व्यक्त की गई राय के विपरीत राजद्रोह कानून को न केवल फिर से लागू किया बल्कि उनमें दो नई धाराएँ – “विदेशी राष्ट्र के साथ मित्रवत रिश्ते” और “सार्वजनिक व्यवस्था” जैसे शब्दों को जोड़ कर मज़बूती प्रदान करते हुए स्वीकार कर लिया, जिसके नतीजा ये हुआ कि अभिव्यक्ति के अधिकार पर एक “वैध पाबंदी” लगाने को हरी झंडी मिल गयी.
राजद्रोह कानून की ‘समस्याएं’
सन् 1962 के केदारनाथ के संदर्भ मे आये अदालत के फ़ैसले के अनुसार, राजद्रोह कानून का इस्तेमाल केवल विशेष परिस्थिति में ही की जा सकती है, ख़ासकर तब-जब की देश की सुरक्षा और संप्रभुता खंतरे में हो. हालांकि, हाल के दिनों में ये बार-बार देखा जा रहा है कि- इस कानून का इस्तेमाल सरकार-विरोधी राजनीतिक दलों को चुप कराने के लिये किया जा रहा है ताकि वे सरकार के खिलाफ़ रोष या असंतोष ज़ाहिर न कर सकें. धारा 14 द्वारा जारी किये गए ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, नागरिक संशोधन कानून के विरोध-प्रदर्शन में शामिल 25 लोगों, हाथरस गैंग रैप के बाद विरोध प्रदर्शन कर रहे 22 लोगों और पुलवामा हमले के बाद 27 अलग-अलग लोगों के ऊपर राजद्रोह कानून के तहत आरोप दर्ज किये गए हैं. पिछले एक दशक में जो 405 राजद्रोह के केस दर्ज हुए हैं उनमें से सबसे ज़्यादा 96% केस 2014 के बाद के हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्युरो द्वारा जारी डेटा मे ये साफ़ तौर पर बताया गया है कि जहां 2014 में राजद्रोह के कुल 47 मामले दर्ज किये थे, वहीं 2019 तक आते-आते इनकी संख्या 93 तक हो गई, जो कि सीधे-सीधे 163 प्रतिशत की उछाल है.
आगे, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्युरो द्वारा जारी डेटा मे ये साफ़ तौर पर बताया गया है कि जहां 2014 में राजद्रोह के कुल 47 मामले दर्ज किये थे, वहीं 2019 तक आते-आते इनकी संख्या 93 तक हो गई, जो कि सीधे-सीधे 163 प्रतिशत की उछाल है. हालांकि, इनमें से आरोप सिद्ध मात्र तीन प्रतिशत मामलों के ही हो पाये हैं. इससे साबित होता है कि, संबंधित राज्य अधिकारी और पुलिस दोनों किस तरह से इस राजद्रोह कानून का इस्तेमाल लोगों मे भय का माहौल बनाने और सरकार के खिलाफ़ किसी भी प्रकार के रोष अथवा असंतोष का दमन करने और आम लोगों मे भय का माहौल बनाने के लिए कर रहे हैं
कानूनी खामियां और ग़लत व्याख्या
कानूनी तौर पर देखा जाए तो, राजद्रोह कानून की सबसे बड़ी ख़ामी ये है कि, ये काफी ख़राब और कमज़ोर तरीके से परिभाषित की गई है. इसमें उल्लेख किये गये शब्द, “घृणा या अवमानना में लाना” या “असंतोष भड़काने की कोशिश” को अपनी सुविधानुसार कई तरीकों से परिभाषित किया जा सकता है, और इसी स्थिति का फ़ायदा उठाकर सरकार या पुलिस, उन बेगुनाह़ नागरिकों को परेशान करती है जो कि सरकार या उसका विरोध करते हैं. इस क़ानून की लचर परिभाषा के कारण ही, एक तरफ़ जहां राजद्रोह के अपराध को न तो साफ़-साफ़ परिभाषित किया गया है न ही राजद्रोह की कोई व्यापक रूपरेखा तय की गई है और इसी कमी का फ़ायदा उठाकर सरकार और पुलिस इस कानून की आड़ मे निर्दोष लोगों को ग़लत तरीकों से आरोपित कर रही है.
हाल ही में, दो तेलुगू न्यूज़ चैनल पर आंध्र-प्रदेश सरकार द्वारा लगाए गए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 (राजद्रोह) पर किसी भी प्रकार की कानूनी कार्यवाही पर रोक लगते हुए, जस्टिस डी. वाई. चन्द्रचूड ने इस मुद्दे पर विशेष तौर पर रौशनी डाला. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा,” हर एक्शन राजद्रोह नहीं होता, वक्त आ गया है कि हमें अब ये तय कर लेना चाहिए की क्या राजद्रोह है और क्या नहीं.” ऐसे ही एक अन्य महत्वपूर्ण केस में (जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख़ अब्दुल्लाह़ के खिलाफ़ दर्ज पीआईएल) के संदर्भ मे, जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “ऐसे किसी भी विचार की अभिव्यक्ति, जो कि सरकार के विचारों से असहमत और अलग हो, उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है.”
(जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख़ अब्दुल्लाह़ के खिलाफ़ दर्ज पीआईएल) के संदर्भ मे, जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “ऐसे किसी भी विचार की अभिव्यक्ति, जो कि सरकार के विचारों से असहमत और अलग हो, उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है.”
उसी तरह से, दिशा रवि के खिलाफ़ दायर आरोप को ख़ारिज करते हुए हाई-कोर्ट ने कहा कि सरकार महज़ इसलिए किसी भी नागरिक को यूं ही गिरफ्तार नहीं कर सकती है क्योंकि वे राज्य अथवा सरकार की नीतियों से सहमत नहीं थे और “राजद्रोह का अपराध सिर्फ़ इस बिनां पर किसी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है कि, उस व्यक्ति ने सरकार के अहम् को ठेस पहुंचाई है. “अदालत के द्वारा दिये गये ये फैसले और ये टिप्पणी स्पष्ट तौर पर परिभाषित राजद्रोह क़ानून के विपरीत है और इससे ये भी ज़ाहीर होता है की किस तरह से इस कानून को राजतंत्र अपनी सुविधानुसार फ़ायदे के लिए इस्तेमाल में ला रही है.
स्वतंत्रता और लोकतंत्र के ख़िलाफ़
बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतंत्र की भव्यता का प्रतीक है और आज राजद्रोह कानून की आड़ में इससे भी समझौता किया जा रहा है. लोकतंत्र मे नागरिकों को सरकार की नीतिओं के खिलाफ़ रचनात्मक रूप से किसी भी राजनीतिक मंच से हो रही बहस, विमर्श आदि द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की आज़ादी प्राप्त है. जबकि, इस राजद्रोह कानून ने सत्तासीन सरकार को नागरिकों के बीच अपनी नीतियों के खिलाफ़ किसी भी प्रकार के विरोध अथवा असंतोष के दमन में कारगर एक अतिरिक्त हथियार थमा दी है, जिसका प्रयोग आवाज़ को दबाने के लिए किया जा रहा है. ये राजद्रोह कानून वो हथियार बन गया है जो आम लोगों को सरकार द्वारा बनायी गए नीति को मानने के लिए बाध्य कर रहा है. ऐसी कई घटनाएं इस बात की गवाह है जहां सरकार इस राजद्रोह कानून की मदद से अपने खिलाफ़ उठने वाली विरोध के स्वर को दबाने मे सफ़ल रही है.
कोविड-19 के खिलाफ़ लड़ने मे सरकार की लापरवाही की आलोचना करने के लिए एनडीटीवी के पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ राजद्रोह का केस, ग्रेटा थनबर्ग टूलकित संदर्भ में गिरफ्तार दिशा रवि, जहां उन्होंने किसान आंदोलन के औचित्य के समर्थन मे ट्वीट लिखे थे, जैसी घटनाओं ने भारत में, विचारों के बोलने और अभिव्यक्ति के अधिकार के औचित्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं. जब राजद्रोह कानून के आधार पर किसी पत्रकार को अपनी बात रखने से रोक जाता है तो इससे लोकतंत्र पर आघात पड़ता है. राजद्रोह कानून की वजह से न सिर्फ़ सरकार की विश्वसनीयता घटी है, बल्कि इस कानून की आड़ में वो आलोचकों और विरोधिओं को अपना मुंह बंद रखने को विवश कर रही है.
जब राजद्रोह कानून के आधार पर किसी पत्रकार को अपनी बात रखने से रोक जाता है तो इससे लोकतंत्र पर आघात पड़ता है. राजद्रोह कानून की वजह से न सिर्फ़ सरकार की विश्वसनीयता घटी है, बल्कि इस कानून की आड़ में वो आलोचकों और विरोधिओं को अपना मुंह बंद रखने को विवश कर रही है.
हालांकि, और भी ज्य़ादा चिंता का विषय ये है की इस कानून के अंतर्गत एक बार गिरफ्तार हुए व्यक्ति के लिए तुरंत बेल मिल पाना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि इस आरोप के अंतर्गत सुनवाई की प्रक्रिया काफ़ी लंबे वक्त तक चलती है. इस वजह से बेगुनाह लोग बेवजह परेशान होते है और बाकी अन्य भी सरकार के खिलाफ़ बोलने से कतराते हैं. उदाहरण के लिए हुबली मे कश्मीरी छात्रों पर लगे आरोप, जहां उन पर लगे राजद्रोह के आरोप की वजह से उन्हें 100 दिनों के बाद अपना पहला औपचारिक बेल प्राप्त हुआ है।
अंत में, राजद्रोह कानून और सभी सरकारों द्वारा (विपक्षी सत्ता दल) इस राजद्रोह कानून का दुरुपयोग जिस तरह से किया जा रहा है वो चिंता का विषय है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और भाषण की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एक शिष्ट लोकतंत्र की पहचान है और राजद्रोह कानून और उसके बढ़े दुरुपयोग भारतीय संविधान मे दिए गए स्वतंत्रता के अधिकार पर, एक कुठाराघात है. ज़रूरत है कि न्यायपालिका इस राजद्रोह रूपी कठोर कानून का दोबारा अवलोकन करे. इस कानून को पूरी तरह से हटाया जाना भी सही नहीं होगा, इसे नरम किया जाना चाहिए और इस कानून के बेवजह़ और भेदभावपूर्ण इस्तेमाल किये जाने से रोकने के भीिया जाना चाहिए और इस कानून के आ प्रावधान होने चाहिए ताकि भारत के अंदर लोकतंत्र भी मज़बूती के साथ अपनी पकड़ कायम रख सके और देश के भीतर लोगों के अभिव्यक्ति की आज़ादी को भी सुरक्षित रखा जा सके.
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