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Published on Oct 06, 2025 Updated 0 Hours ago

भारत अब अपने अनुमानित रक्त की ज़रूरत को लगभग पूरा कर रहा है, लेकिन असमान पहुंच, नियमित दाताओं की कमी और प्रतिबंधात्मक नियमों के कारण विश्वसनीय रक्त आपूर्ति नेटवर्क अभी भी पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाया है.

राष्ट्रीय रक्त आपूर्ति की दिशा में कदम: संकल्प और नियम

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‘रक्त ही जीवन है’. यह वाक्य सबसे पहले ‘बाइबल’ में आया था और बाद में ब्रैम स्टोकर के ‘ड्रैकुला’ (1897) उपन्यास में विक्टोरियन गॉथिक कल्पना का हिस्सा बना, जिसमें विक्षिप्त रेनफील्ड अपनी जीवन-शक्ति की चाह में इन शब्दों को दोहराता रहता है. स्टोकर के समय में, रक्त-आधान, यानी ‘ब्लड ट्रांसफ्यूजन’ एक ख़तरनाक जुआ था, क्योंकि कार्ल लैंडस्टीनर ने तब तक रक्त समूहों की खोज नहीं की थी और विक्टोरियन चिकित्सा पद्धति अंधविश्वास और उभरते विज्ञान के बीच उलझन में झूल रही थी. रक्त का मतलब बेशक जीवन था, लेकिन उस समय इसका एक अर्थ ख़तरा भी था.

  • भारत को हर साल लगभग 1.46 करोड़ यूनिट रक्त की ज़रूरत पड़ती है, जबकि 2024-25 में देश ने 1,46,01,147 यूनिट रक्त जमा किया
  • EAG राज्यों- बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश का आकलन किया गया और यह पाया गया कि रक्त तक सबकी समान रूप से पहुंच नहीं है.
  • एक हालिया शोध में बताया भी गया है कि कैसे किसी जगह-विशेष का विश्लेषण करके रक्तदाताओं की कमी की वज़ह जानी जा सकती है.

आज भी यह मुहावरा विचित्र रूप से सही जान पड़ता है, हालांकि चुनौती अब इससे जुड़े किसी रहस्यमय भय की नहीं, बल्कि इसके व्यवस्थित वितरण की है. कुछ ही हफ्ते पहले (अगस्त 2025) सरकार ने बताया था कि भारत ने 2024-25 में देश भर में जितनी मांग है, उससे अधिक रक्त जमा कर लिया है. यह हमारी प्रगति और आधुनिक क्षमता, दोनों का संकेत है. फिर भी, ज़मीनी स्तर पर, शोध अध्ययन बताते हैं कि पूरा उत्तर भारत ‘रक्त का रेगिस्तान’ बना हुआ है और अस्पताल अब भी सही समय पर मरीज़ों को सही रक्त उपलब्ध कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. केवल संग्रह-अभियान चलाकर ही रक्त को ज़िम्मेदारीपूर्वक जमा नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए ज़रूरी है कि साल भर स्वेच्छा से रक्तदान करने की एक संस्कृति बनाई जाए और हर यूनिट रक्त को ज़रूरत वाली जगह पर पहुंचाने के लिए एक न्यायसंगत व आधुनिक प्रणाली तैयार की जाए.

 

कमी का भूगोल

इस वर्ष संसद में सरकार ने बताया है कि भारत को हर साल लगभग 1.46 करोड़ यूनिट रक्त की ज़रूरत पड़ती है, जबकि 2024-25 में देश ने 1,46,01,147 यूनिट रक्त जमा किया, जो इससे पहले के वर्ष में एकत्र किए गए 1,26,95,363 यूनिट से 15 प्रतिशत अधिक है. इस रक्तदान में लगभग 70 प्रतिशत दाता स्वैच्छिक थे और बिना किसी पारिश्रमिक के उन्होंने रक्तदान दिया था. यह आंकड़ा भी पिछले दशकों में उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है. बताया यह भी गया है कि रक्त की कमी के कारण सीधे तौर पर किसी की मौत नहीं हुई है.

औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 के तहत ‘औषधि’ की परिभाषा के अनुसार, मानव रक्त एक ऐसा संसाधन है, जो कुछ समय के बाद बेकार हो जाता है और इसका उपयोग मुख्य रूप से आपातकालीन स्वास्थ्य देखभाल के समय और शल्य चिकित्सा के दौरान किया जाता है, जैसे- ट्रामा, बच्चे के जन्म के समय अत्यधिक खून बहने, बड़ी सर्जरी, कैंसर चिकित्सा और थैलेसीमिया व सिकल सेल रोग जैसी बीमारियों के लिए लंबे समय तक रक्त-आधान के लिए रक्त की ज़रूरत पड़ती है. डेंगू के प्रसार के दौरान प्लेटलेट्स महत्वपूर्ण होते हैं, तो प्लाज्मा व लाल रक्त कोशिकाएं दुर्घटना पीड़ितों व शल्य चिकित्सा के रोगियों के लिए सहारा बनती है. फिर भी, सुरक्षित रक्त तभी जीवन बचाता है, जब यह सही रूप में, सही समय पर उपलब्ध हो और मरीज़ों की पहुंच में हो.

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (BMJ) ग्लोबल हेल्थ के एक हालिया अध्ययन में आठ एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप (EAG) राज्यों- बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तराखंड व उत्तर प्रदेश का आकलन किया गया और यह पाया गया कि रक्त तक सबकी समान रूप से पहुंच नहीं है. इन राज्यों में ब्लड बैंक तक 30 मिनट में केवल 26 प्रतिशत निवासी ही पहुंच सकते हैं और अगर इस समय को बढ़ाकर एक घंटा कर दिया जाए, तब भी 40 प्रतिशत लोग ब्लड बैंक से दूर रह रहे हैं. रक्त की उपलब्धता भी कम थी- हर 1,000 लोगों पर औसतन 0.6 यूनिट रक्त उपलब्ध था, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा तय मानक प्रति 1,000 में 10 यूनिट और ग्लोबल सर्जरी पर लैंसेट आयोग के मानक 1,000 में 15 यूनिट से काफ़ी नीचे है. ये क्षेत्र रक्त के लिहाज़ से ‘रेगिस्तान’ हैं, यानी ये ऐसे क्षेत्र हैं, जहां राष्ट्रीय स्तर पर रक्त की उपलब्धता के तमाम दावों के बावजूद समय पर रक्त-आधान को लेकर बहुत भरोसा नहीं बनता.

भारत का रक्त पारिस्थितिकी तंत्र कुछ ढांचागत और व्यावहारिक चुनौतियों से जूझ रहा है, जिसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर रक्त की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद, रक्त-आधान तंत्र में रक्त की कमी दिख सकती है. 

भारत में बड़े पैमाने पर (70 प्रतिशत) लोग स्वेच्छा से और बिना कोई दाम लिए रक्तदान करते हैं, लेकिन शेष (30 प्रतिशत) रक्त अब भी प्रतिस्थापन दाताओं (एक यूनिट रक्त के बदले एक यूनिट रक्तदान करना) द्वारा और परिजनों व मित्रों से जुटाया जाता है, जो मरीज़ों की ज़रूरत को पूरा करने के लिए रक्तदान करते हैं. बेशक, स्वैच्छिक रक्तदान को अधिक सुरक्षित और विश्वसनीय माना जाता है, लेकिन क्षेत्रवार उतार-चढ़ाव व कुछ ख़ास अवसरों पर ही किए जाने वाले रक्तदान इसकी राह में बड़ी चुनौती हैं. इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर ज़रूरत से अधिक रक्त की उपलब्धता के बावजूद स्थानीय स्तर पर संकट दिख सकता है.

 

पर्याप्त उपलब्धता भी नाकाफ़ी क्यों

भारत का रक्त पारिस्थितिकी तंत्र कुछ ढांचागत और व्यावहारिक चुनौतियों से जूझ रहा है, जिसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर रक्त की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद, रक्त-आधान तंत्र में रक्त की कमी दिख सकती है. दरअसल, अधिकांश रक्तदान कभी-कभार होते हैं और कुछ ख़ास प्रकृति के लोगों द्वारा किए जाते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले अभियान नए रक्तदाताओं, विशेषकर छात्रों को आकर्षित करने में सफल रहे हैं. हालांकि, नियमित तौर पर रक्तदान करने वालों का आंकड़ा अब भी कम ही है. कुछ तबकों में तो आज भी यही मान्यता या अफवाह है कि रक्तदान शरीर को कमज़ोर करता है, बांझपन का कारण बनता है या लंबे समय तक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दे सकता है, जिसके कारण नियमित रक्तदान करने वाले स्वस्थ वयस्कों की संख्या काफ़ी कम है. कई रक्तदाता, जो इच्छुक हैं, यह भी मानते हैं कि उम्र, वजन या मामूली चिकित्सा इतिहास के कारण वे रक्तदान नहीं कर सकते, जबकि हक़ीक़त में वे इसके लिए योग्य होते हैं. अस्थिर प्रकृति के ये रक्तदाता मौसमी कमी के दौरान इस पूरी व्यवस्था के सामने चुनौतियां पैदा करते हैं, जैसे- परीक्षाओं और छुट्टियों के कारण विश्वविद्यालय परिसर खाली हो जाते हैं, त्योहार व उपवास में लोग रक्तदान से दूरी बरतते हैं, और गर्मी व मानसूनी बीमारियां रक्तदाताओं की संख्या कम कर देती हैं.

रक्तदान शिविर, ख़ास तौर से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में होने वाले, आज भी रक्तदान का मुख्य स्रोत हैं. जब शैक्षणिक कैलेंडर में छुट्टियां होती हैं, तो रक्त-संग्रह अपने सबसे निम्न स्तर पर पहुंच जाता है. प्रतिस्थापन रक्तदान से, जिसमें परिजन या दोस्त मरीज़ की ज़रूरत अपने रक्त से पूरी करते हैं (जो कि पूरे भारत में एक आम प्रथा है), इस समस्या का कुछ हद तक समाधान ज़रूर होता है, लेकिन यह नियमित रक्तदान करने वाले स्वयंसेवक समूहों के बजाय एक प्रतिक्रियावादी व असुरक्षित संस्कृति बनाने का काम करता है.

छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले की एक रिपोर्ट, जिसे ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने प्रकाशित किया है और जो पूर्व के जिला कलेक्टर द्वारा तैयार की गई है, बताती है कि कैसे तकनीकी प्रगति से कमियों को दूर किया जा सकता है. अधिकारियों ने स्थानीय समुदाय के लिए एक दैनिक ऑनलाइन रक्त उपलब्धता डैशबोर्ड और एक रक्तदाता रजिस्ट्री तैयार की है. बेशक, इस तरह का खुलापन असामान्य है, लेकिन सरकार का ई-रक्तकोष प्लेटफ़ॉर्म ब्लड बैंकों के स्टॉक की जानकारी एक जगह दे सकता है और रक्तदाताओं से सीधा संपर्क बना सकता है. हालांकि, सभी ब्लड बैंक अपने स्टॉक के बारे में समान रूप से जानकारी नहीं देते, जिसके कारण 22 प्रतिशत ब्लड बैंक कभी-कभार या बिल्कुल भी अपडेट करते नहीं दिखते, जैसा कि BMJ अध्ययन में भी बताया गया है.

भारत की राष्ट्रीय रक्त-आधान परिषद के दिशा-निर्देशों के अनुसार, आज भी सभी लोग रक्तदान नहीं कर सकते. पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुष (MSM) और ट्रांसजेंडर व्यक्ति अब भी इससे बाहर हैं. उनको पहचान के आधार पर बाहर रखा गया है, न कि रक्त के व्यवहार-आधारित जोखिमों का मूल्यांकन करके. पहचान-आधारित होने के कारण इस नीति की आलोचना की जाती है, क्योंकि यह जनसंख्या-स्तरीय जोखिम प्रबंधन वाली रणनीति है. इसमें व्यक्तिगत जोखिम मूल्यांकन को भरोसे के साथ लागू करना मुश्किल होता है और न्यूक्लिक एसिड जांच तुरंत करने की क्षमता प्रयोगशाला के पास नहीं होती, इसलिए मरीज़ को खून चढ़ाने के बाद होने वाले संक्रमणों को कम करने के लिए कुछ सामाजिक-समूहों को रक्तदान से दूर रखने का तरीका अपनाया जाता है. हालांकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन सिर्फ़ यही कहता है कि रक्तदाता के चयन में जोखिम मूल्यांकन और निष्पक्षता के बीच संतुलन होना चाहिए.

फिलहाल, सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में बताया गया है कि इस तरह की रणनीति संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है, क्योंकि यह वैज्ञानिक तथ्यों के बजाय अवैज्ञानिक धारणाओं पर आधारित है. सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने इस रणनीति का सावधानीपूर्वक समर्थन किया है और कहा है कि महामारी संबंधी ख़तरों, जांच संबंधी मुश्किलों और तंत्र की सीमा के कारण पूरी तरह से व्यक्तिगत जोखिम-आधारित जांच नीति को लागू करना सुरक्षित नहीं है. हालांकि, दुनिया के कई देश इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, जैसे- ऑस्ट्रेलिया में रक्तदान के लिए जेंडर प्रतिबंध की शर्त ख़त्म की जा रही है और वह सभी दाताओं से समान व्यवहार करने जा रहा है. वहां राष्ट्रीय रक्त सेवा ‘लाइफब्लड’ में समलैंगिक और उभयलिंगी पुरुषों व ट्रांसजेंडर महिलाओं को बिना प्रतीक्षा समय के रक्तदान की अनुमति मिलने जा रही है. इसी तरह, बेल्जियम और न्यूजीलैंड भी उन देशों में शामिल हो गया है, जहां एक सीमित समय तक के लिए ही रक्तदान से रोकने की व्यवस्था है. उनके यहां स्थायी प्रतिबंध का प्रावधान नहीं है और कुछ दिन इंतजार करने के बाद रक्तदान की अनुमति मिल जाती है. यह वक्त कुछ महीनों का भी हो सकता है, जिसकी गणना अंतिम बार यौन संबंध बनाने के बाद से की जाती है.

 

भारत की रक्त-आपूर्ति के लिए समता और सुरक्षा

भारत ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है. हाल ही में शुरू की गई राष्ट्रीय दुर्लभ रक्तदाता रजिस्ट्री (RDRI) में जांचे-परखे गए रक्तदाताओं की संख्या अब बढ़कर 4,000 से अधिक हो चुकी है. इनके रक्त की 300 से अधिक मानकों पर जांच की गई है, जिससे डॉक्टरों को दुर्लभ रक्त के मिलान में मदद मिलती है. इस रजिस्ट्री का मकसद ई-रक्तकोष के साथ मिलकर एक एकल राष्ट्रीय मंच बनाना है. एक हालिया शोध में बताया भी गया है कि कैसे किसी जगह-विशेष का विश्लेषण करके रक्तदाताओं की कमी की वज़ह जानी जा सकती है. भारत नए केंद्रों की शुरुआत करने और आपूर्ति में समानता लाने के लिए इस तरह के काम को आगे बढ़ा सकता है.

इस प्रगति का अर्थ यह भी है कि भारत के पास रक्त सुरक्षा के साधन उपलब्ध हैं. अब इस प्रणाली को लगातार स्वैच्छिक, समावेशी और आंकड़ों पर आधारित बनाने की ज़रूरत है. इसके लिए कुछ काम करने होंगे- पहला, भारत को नियमित रक्तदान करने वालों का एक मज़बूत आधार बनाना चाहिए. विश्वविद्यालय कैंपस में चलाए जाने वाले एक बार के अभियान से रक्त की कमी या ‘रक्त बाजार’ (जिसमें दबाव में आकर परिजन रक्त ख़रीदते हैं) को ख़त्म  नहीं कर सकते. व्यावहारिक प्रोत्साहन, कार्यस्थल पर चलाए जाने वाले स्वास्थ्य कार्यक्रम, रक्तदाता की पहचान और रक्तदान के बाद भरोसेमंद फ़ॉलो-अप कुछ ऐसे उपाय हैं, जो पहली बार रक्तदान करने वालों को आजीवन रक्तदाता बनाने में मदद कर सकते हैं.

दूसरा, आधुनिक विज्ञान और अधिकारों के अनुसार नीतियां तय की जानी चाहिए. दुनिया की बात करें, तो ऑस्ट्रेलिया जैसे देश अब व्यवहार-आधारित, लिंग-तटस्थ जांच पर ज़ोर देते हैं, जो उन्नत न्यूक्लिक एसिड जांच व अन्य वैज्ञानिक तकनीकों द्वारा किए जाते हैं और सुरक्षा को बेहतर ढंग से सुनिश्चित किया जाता है. इसलिए, व्यक्तिगत जोखिम मूल्यांकन या बड़े पैमाने पर नई जांच विधियों को अपनाने की ओर भारत को बढ़ना चाहिए.

तीसरा, आपूर्ति श्रृंखला को और अधिक पारदर्शी व कुशल बनाना होगा. कुछ अध्ययनों (1,2,3,4) के अनुसार, अब भी एकत्र यूनिटों का 5 से 15 प्रतिशत हिस्सा बर्बाद (एक्सपायरी, टूट-फूट या ख़राब प्रबंधन के कारण नष्ट होने वाला रक्त) हो जाता है. ई-रक्तकोष को अपडेट करने (नियमित तौर पर और अनिवार्य रूप से) के साथ-साथ ABHA (आयुष्मान भारत स्वास्थ्य खाता) आईडी से इसको जोड़ने से रक्त की यूनिटों की वास्तविक समय पर निगरानी हो सकती है, उसकी एक्सपायरी की आशंका घट सकती है और दुर्लभ रक्त यूनिटों के मरीज़ों से रक्त का ज़ल्द मिलान संभव हो सकता है.

और आखिरी बात, भारत को अपनी सामाजिक मानसिकता बदलनी होगी. रक्तदान को दान नहीं, बल्कि नागरिकता का एक कर्तव्य मानना चाहिए. राष्ट्रीय स्तर पर रक्त का एक भरोसेमंद स्रोत बनाने के लिए ज़रूरी है कि केवल आपात समय में मदद का आह्वान न किया जाए, बल्कि ऐसी नीति बनाई जाए कि लोग रक्तदान को दैनिक जीवन का हिस्सा बना लें. सिर्फ़ रक्त यूनिटों के बढ़ जाने से सुरक्षा नहीं मिल सकती. आधुनिक रक्त प्रणाली नियमित तौर पर स्वैच्छिक रक्तदान करने वाले दाताओं, सक्रिय युवा पहल, समावेशी व विज्ञान आधारित पात्रता नियमों, पारदर्शी तकनीक और सामाजिक एकजुटता पर आधारित होनी चाहिए. ऐसा करने पर ही रक्त, जो कि लंबे समय से जीवन का प्रतीक माना जाता रहा है, प्रत्येक रोगी के लिए एक गारंटीकृत जीवन-रेखा बन सकती है.


(के एस उपलब्ध गोपाल ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में हेल्थ इनिशिएटिव के एसोसिएट फेलो हैं)

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