Published on Sep 28, 2018 Updated 0 Hours ago

ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद भारत के पास तेल आयात के लिए क्या संभावित विकल्प हो सकते हैं?

ईरान पर प्रतिबंध: भारत में तेल आयात का खेल कठिन नहीं

इस वर्ष की शुरुआत में ‘संयुक्त व्यापक कार्य योजना (जेसीपीओए)’ से संयुक्त राज्य अमेरिका के अलग हो जाने के कारण ईरान पर एक बार फि‍र कड़े प्रतिबंध लग गए हैं जिससे इस इस्लामी गणराज्य की अर्थव्यवस्था का बुरी तरह प्रभावित होना तय है। वैसे तो इस कदम का उद्देश्य समझौते की शर्तों का कथित रूप से उल्लंघन करने के कारण इस पश्चिमी एशियाई राष्ट्र को ‘दंडित’ करना है, लेकिन इसके साथ ही य‍ह बात भी अवश्‍य समझनी होगी कि दुनिया भर के देशों के लिए इस कदम के दूरगामी और बहुआयामी निहितार्थ हैं। हालांकि, इस अध्ययन के उद्देश्‍य को ध्‍यान में रखते हुए विशेष फोकस केवल एक महत्‍वपूर्ण क्षेत्र पर होगा और वह है ‘तेल’ सेक्‍टर।

उल्‍लेखनीय है कि विश्‍व भर में कच्चे तेल का चौथा सबसे बड़ा प्रमाणित भंडार ईरान में ही है। इतना ही नहीं, ईरान एक ऐसा देश है जो अपने जीवाश्म ईंधन के निर्यात पर अत्यधिक निर्भर है। यह ईरान की 440 अरब अमेरिकी डॉलर [1] की जीडीपी (सकल घरेलू उत्‍पाद) का लगभग 15 फीसदी है। ईरान में उत्‍पादित कच्‍चे तेल के दो सबसे बड़े आयातक चीन और भारत हैं जो ऐसी उभरती महाशक्तियां हैं जिन्‍हें अपने यहां त्‍वरित औद्योगिक विकास की रफ्तार को और तेज के लिए काफी बड़ी मात्रा में कच्‍चा तेल चाहिए।

हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के तहत ईरान से कच्चे तेल की खरीद को लक्षित किया गया है। कार्यकारी आदेश 13622 और राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 1245 के जरिए अमेरिका उन बैंकों पर प्रतिबंध लगाएगा जिन्‍हें किसी तीसरे देश द्वारा ईरानी तेल के आयात का मार्ग प्रशस्‍त करने का दोषी पाया जाएगा। इस तरह के बैंकों के खातों को प्रतिबंधित करके और नए खातों को खोलने पर पाबंदी लगाकर इस काम को अंजाम दिया जाएगा। [2] इन कदमों से जो देश बुरी तरह प्रभावित होंगे उनमें भारत भी शामिल है।

भारत अपनी बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तेल आयात पर काफी हद तक निर्भर है। भारत में लगभग 80 फीसदी कच्‍चा तेल विदेश से आता है [3] ईरान ही भारत का तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है और वर्ष 2016-17 में भारत के कुल तेल निर्यात के लगभग 13 फीसदी का स्रोत ईरान ही था। सऊदी अरब और इराक के नाम इस सूची में सबसे ऊपर हैं। वित्त वर्ष 2017-18 में इराक ने इस मामले में सऊदी अरब को पछाड़ दिया। 

चूंकि‍ संयुक्त राज्य अमेरिका 5 नवंबर तक ईरान के साथ अपने व्यापार को निरस्‍त करने के लिए भारत पर भारी दबाव डाल रहा है, इसलिए इसे ध्‍यान में रखते हुए कच्‍चे तेल के वैकल्पिक स्रोतों की खोज बाकायदा शुरू हो गई है। मालूम हो कि आगामी 5 नवंबर से ही ईरान पर प्रतिबंध लागू होने वाले हैं।

ऐसे में यह मानना बिल्‍कुल सही है कि कच्‍चे तेल के आयात की दिशा बदलना विशेष रूप से सरकारी निर्णय लेने के अधिकार क्षेत्र में ही आता है। हालांकि, भारत की तेल खरीद सरकारी नीति द्वारा नहीं, बल्कि काफी हद तक निजी तेल कंपनियों द्वारा निर्धारित की जाती है। ये निजी कंपनियां वैश्विक स्पॉट मार्केट द्वारा निर्धारित की जाने वाली कीमतों के अनुसार ही सौदे करती हैं। वैसे तो इन कंपनियों के लेन-देन भारत की आर्थिक एवं ऊर्जा नीति की व्‍यापक रूपरेखा के दायरे में रहते हुए ही होने चाहिए, लेकिन इसके साथ ही हमें इस तथ्य से अवश्‍य अवगत रहना चाहिए कि ये कंपनियां संभावित जोखिमों और मुनाफे को ध्‍यान में रखते हुए ही कोई निर्णय लेती हैं।

तीन संभावित तरीकों पर ध्‍यान केंद्रित करके इन प्रतिबंधों के कारण विदेश से कच्‍चे तेल के प्रवाह को बुरी तरह प्रभावित होने से बचाया जा सकता है। भारत या तो इन तीनों ही तरीकों के मिले-जुले रूप का उपयोग करने का विकल्प चुन सकता है या इनमें से केवल किसी एक तरीके पर ही फोकस कर सकता है।

पहला तरीका यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका से छूट हासिल करने के प्रयास किए जाएं। ऐसे में भारत आगे भी ईरान के साथ अपना व्यापार जारी रख सकेगा। यह छूट हासिल करने के लिए भारत को अमेरिका के समक्ष यह तथ्य सामने रखना होगा कि भारत ने पिछले दो वर्षों में ईरान से तेल आयात को काफी हद तक कम कर दिया है। हालांकि, यह छूट मिलने की संभावना बेहद कम है क्‍योंकि इसके लिए भारत को अमेरिकी कांग्रेस से अधिदेश या इजाजत लेनी होगी। दरअसल, रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत वाली अमेरिकी कांग्रेस तीसरे देशों को प्रतिबंधों से ढील और रियायतें प्रदान करने की इच्छुक प्रतीत नहीं होती है।

दूसरा तरीका यह है कि उन देशों से तेल आयात बढ़ाया जाए जो पहले से ही बड़ी मात्रा में भारत को कच्‍चे तेल की आपूर्ति करते रहे हैं। इस मामले में उपयुक्त उदाहरण इराक, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और कुवैत हैं। इन तीनों देशों ने खुद को विश्वसनीय व्यापार साझेदार साबित किया है और हाल के म‍हीनों में भारत ने अपने तेल निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की है। वैसे तो संयुक्त अरब अमीरात से भारत में हुए आयात में पिछले वित्त वर्ष के दौरान कमी दर्ज की गई थी, लेकिन दोनों ही देशों के रणनीतिक और वित्तीय समुदायों ने निकट भविष्य में ज्‍यादा घनिष्‍ठ एवं सहयोगात्‍मक संबंध विकसित होने की जो आशा जताई है उससे इस संकट से बचने की संभावनाओं को काफी बल मिल रहा है। [5] इस बात का उल्‍लेख बड़े ही अच्‍छे ढंग से देश की सबसे बड़ी तेल कंपनी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) के चेयरमैन संजीव सिंह ने किया है जिन्‍होंने जुलाई के आरंभ में ‘ब्लूमबर्ग’ को दिए एक साक्षात्कार में आईओसी की खरीद की दिशा बदलने के लिए सीधे तौर पर संयुक्त अरब अमीरात को संभावित विकल्प बताया था। [6] इस बीच, इराक से कच्‍चे तेल के आयात में वृद्धि अत्‍यंत उत्साहजनक नजर आती है, क्योंकि यह देश वर्ष 2017-18 में सऊदी अरब को पीछे छोड़ कर भारत का सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता बन गया था। इराक ने इस दौरान तेल की वास्तविक मात्रा में 21.14 फीसदी की आकर्षक वृद्धि दर्ज की (जैसा कि नीचे दिए गए ग्राफ में दिखाया गया है)। यही नहीं, इस दौरान अमेरिकी डॉलर में तेल के कुल मूल्‍य में तो 51.03 फीसदी की और भी अधिक प्रभावशाली वृद्धि आंकी गई है [7] वहीं, दूसरी ओर कुवैत दो दशकों से भी अधिक समय से कच्‍चे तेल का एक स्थिर एवं निरंतर स्रोत रहा है।

भारत को इन सकारात्मक रुझानों से लाभ उठाने के लिए निश्चित तौर पर काम करना चाहिए और इसके साथ ही इन देशों से कच्‍चे तेल के प्रवाह में निरंतर वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए भी काम करना चाहिए। इसी तरह भारत को पारंपरिक रूप से अपने सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता सऊदी अरब से तेल आपूर्ति में स्थिरता लाने की दिशा में भी ठोस काम करना चाहिए। वैसे तो सऊदी अरब से तेल आयात में पिछले दो वर्षों में लगभग 9 प्रतिशत की कमी देखने को मिली है और यह चिंता का कारण तो है, लेकिन फि‍र भी इस ओर अवश्‍य ही ध्यान दिया जाना चाहिए [8]. खाड़ी देशों की विशाल तेल रिजर्व क्षमता को देखते हुए भारत में तेल प्रवाह में अचानक होने वाली कमी की भरपाई करने में इन देशों का योगदान अत्‍यंत महत्वपूर्ण साबित होगा।

तीसरा संभावित तरीका यह हो सकता है कि नए एवं इच्छुक साझेदारों की तलाश की जाए और अल्‍पावधि में ही इन साझेदारों के साथ विश्वास एवं आपसी समझ का एक मजबूत रिश्ता बनाने की दिशा में समर्पित ढंग से काम किया जाए। इस दिशा में आगे बढ़ने पर इन दो देशों के नाम जेहन में आते हैं – ओमान और संयुक्त राज्य अमेरिका।

जहां तक ओमान का सवाल है, पिछले साल इस देश से भारत में तेल आयात में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई। वर्ष 2016-17 से वर्ष 2017-18 तक की अवधि के दौरान तेल आयात की वास्तविक मात्रा में 1071 प्रतिशत की जोरदार वृद्धि आंकी गई। [9] इसके साथ ही एक और उल्‍लेखनीय बात यह है कि अप्रैल माह में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) ने ओमान के मखाइजना ऑयल फील्ड में शेल की 17 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली थी। [10] भारत को इस अधिग्रहण का उपयोग एक शुरुआती कदम के रूप में करते हुए अपस्ट्रीम सेक्टर में विस्‍तार और विकास का क्रम निरंतर जारी रखना चाहिए। यही नहीं, भारत को यह सुनिश्चित करने की दिशा में भी काम करना चाहिए कि ओमान से तेल आयात में देखी जा रही उछाल अप्रत्याशित रूप से कम न हो जाए।

हालांकि, यह अमेरिकी तेल कंपनियां ही हैं जो ‘शेल गैस’ के व्यापार में स्थिरता सुनिश्चित करने की खातिर दुनिया के तीसरे सबसे बड़े तेल उपभोक्ता यानी भारत की ओर आकर्षित हो रही हैं। फि‍लहाल जारी व्यापार युद्ध के एक हिस्से के रूप में अमेरिका से तेल आयात पर चीन द्वारा शुल्‍क (टैरिफ) में की गई बढ़ोतरी को देखते हुए भारत इस तथ्य से लाभान्वित हो सकता है कि वह अमेरिकी तेल के लिए अगला बाजार साबित हो सकता है। रिफाइनिंग कंपनियां पिछले साल से ही अमेरिकी क्रूड का परीक्षण कर रही हैं और भारतीय कंपनियां इस तरीके को अपनाने को लेकर निश्चिंत हैं कि वे अन्य देशों के कच्‍चे तेल (क्रूड) के साथ अमेरिका की शेल गैस को संतुलित कर सकती हैं। ऊर्जा परामर्श फर्म पेट्रोमैट्रिक्स के प्रबंध निदेशक ओलिवियर जैकब का दावा है कि भारत संयुक्त राज्य अमेरिका से हो रहे नियमित प्रवाह से पहले से ही काफी सहूलियत महसूस कर रहा है। [11] जैकब के दावे में काफी दम है। दरअसल, संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस साल जून में भारत को प्रति दिन रिकॉर्ड 228,000 बैरल का निर्यात किया था। [12]

हालांकि‍, उपर्युक्त तरीकों में से किसी के भी कारगर साबित होने के मार्ग में कई बड़ी चुनौतियां भी हैं जिनसे अवश्‍य ही पार पाना होगा। पहली एवं सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत अपने यहां तेल आयात में जितनी वृद्धि को आवश्‍यक मानता है वह किसी भी दृष्टि से मामूली नहीं है, इसलिए इस दिग्‍गज एशियाई देश और किसी भी ऐसे आपूर्तिकर्ता के बीच संबंधों को सुदृढ़ बनाना जरूरी है जो अपने निर्यात में अच्‍छी–खासी बढ़ोतरी करना चाहता है। इस इस्लामी गणराज्य के भीतर कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचे में भारत द्वारा व्‍यापक निवेश करने जैसे तथ्‍यों को ध्‍यान में रखकर कोई भी यह दलील दे सकता है कि भारत-ईरान के बीच संबंध शुरू से ही सहयोगात्मक रहा है। चाबहार बंदरगाह विकास परियोजना इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है। एक और बाधा नए साझेदारों के साथ ढुलाई संबंधी रियायतों और विस्तारित ऋण अदायगी अवधि के लिए सौदेबाजी करने के दौरान उत्‍पन्‍न हो सकती है। दरअसल, इस तरह की दोनों ही गारंटी ईरान ने भारत को दे रखी है। [13] चूंकि आयात करने वाले देश के लिए अपने साझेदार से ऐसी शर्तों को मनवाना मुश्किल है, इसलिए ऐसे में ईरान के तेल को प्रतिस्थापित करने वाले स्रोत से भारत में होने वाला आयात महंगा हो सकता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका से खरीद में प्रस्तावित वृद्धि के कारण भी भारत का फुटकर खर्च बढ़ जाने का अंदेशा है। चूंकि ईरान से आयातित क्रूड की तुलना में अमेरिकी शेल काफी हल्की है, इसलिए ऐसे में भारत को बड़ी मात्रा में इसकी ढुलाई की जरूरत पर विचार करना होगा। अमेरिका से शेल एवं किसी और देश से भारी क्रूड की खरीद का अनुपात तय करने का जो अन्‍य विकल्‍प है उससे भी जटिलताएं बढ़ सकती हैं क्‍योंकि वैसी स्थिति में कई पार्टियों के साथ सौदेबाजी करनी होगी।

हालांकि, एक ऐसी बेहद महत्वपूर्ण चुनौती भी है जिससे हम अब तक कमोबेश अनजान रहे हैं और वह चुनौती यह है कि भारत में सार्वजनिक तेल रिफाइनरियों की अपनी तकनीकी सीमाएं हैं। वैसे तो ‘नेल्सन जटिलता सूचकांक’ में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) जैसी रिफाइनिंग कंपनियों को काफी ऊंची रेटिंग मिलती है, लेकिन सार्वजनिक रिफाइनरियों की अनुकूलन क्षमता अक्‍सर कम होती है। मतलब यह है कि विभिन्न प्रकार के क्रूड को परिष्कृत करने की उनकी क्षमता इस तथ्य से सीमित प्रतीत होती है कि सार्वजनिक रिफाइनरियां अब भी पुरानी तकनीक का ही उपयोग करती हैं। दरअसल, कुछ रिफाइनरियां विशेष रूप से ईरानी क्रूड पर ही आधारित हैं, इसलिए इस इस्लामी गणराज्य से आयात को निरस्‍त कर देने की स्थिति में इन रिफाइनरियों के उन्नयन में भारी-भरकम निवेश करना होगा। यही नहीं, इस अहम कार्य में यदि धन का अभाव आड़े आया तो वैसी स्थिति में इन्‍हें स्थायी रूप से बंद करने की भी नौबत आ सकती है।

इसके मद्देनजर भारत को अपनी विदेश नीति में जो पुनर्निर्धारण और बदलाव करने होंगे उनके दायरे में रहते हुए अलग-अलग तेल कंपनियों के अलग-अलग तरीकों को एकीकृत करना निश्चित रूप से काफी मायने रखता है। सरकार निजी कंपनियों की जोखिम-उन्मुख रणनीति और विदेश नीति एवं जन कल्याण के व्यापक प्रयोजन को आखिरकार कैसे संतुलित करेगी, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर अवश्‍य ही दिया जाना चाहिए। नि:संदेह सबसे कठिन चुनौतियां तेल आयात की दिशा बदलने से जुड़े इसी पहलू में निहित हैं।

इन विशिष्ट चुनौतियों के अलावा यह भी एक बड़ा सवाल है कि भारत कच्‍चे तेल की अंतरराष्‍ट्रीय कीमतों में हालिया तेज उतार-चढ़ाव से निपटते हुए संबंधित वार्ताओं और सौदेबाजी के बीच संतुलन कैसे स्‍थापित करेगा। भारतीय रिफाइनिंग कंपनियों ने 2017-18 के पूरे वित्त वर्ष में 56.43 डॉलर प्रति बैरल की औसत कीमत की तुलना में चालू वित्त वर्ष में अप्रैल से लेकर 5 जुलाई तक 72.83 डॉलर प्रति बैरल की ऊंची कीमत पर कच्चा तेल खरीदा[14] कच्‍चे तेल की बढ़ती कीमतों के कारण आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ सकती है और इस वजह से चालू खाता घाटा बढ़ सकता है। यही नहीं, रुपये की हालत भी खस्‍ता हो गई है जो नि:संदेह अपने इतिहास में आज सबसे कमजोर है और इस वजह से महंगाई बढ़ जाने का अंदेशा है।

हालांकि, भारतीय तेल उद्योग, जहां जमीनी स्तर के निर्णय लिए जाते हैं, में मूड अब भी अत्‍यंत आशावान है। इस स्थिति के साथ-साथ उपर्युक्त चुनौतियों से प्रभावकारी ढंग से निपटने की क्षमता को लेकर भारतीय तेल उद्योग विश्वास से लबरेज है। इसकी झलक पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेंद्र प्रधान द्वारा दिए गए एक साक्षात्‍कार में बयां किए गए शब्दों में स्‍पष्‍ट रूप से देखने को मिलती है जिसमें उन्‍होंने यह कहा है, ‘भारत के ऊर्जा बास्‍केट में अब कई स्रोत हैं। हमारा फोकस इस पर रहेगा कि हमारी आवश्यकता कतई प्रभावित नहीं हो और यह सुनिश्चित करने के लिए हम जो भी करना चाहते हैं, हम अवश्‍य करेंगे।’[15] भारत इस कठिन हालात में किस तरह प्रभावकारी ढंग से सौदेबाजी करेगा और आगामी 5 नवंबर से अपनी ऊर्जा मांगों को पूरा करने के लिए किस तरह से स्‍वयं को तैयार करेगा, यह देखना अभी बाकी है।

लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशनदिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं।


ऐंडनॉट्स

[1] Islamic Republic of Iran: Overview, The World Bank, 1 April 2018, Accessed on 23 August 2018.

[2] Katman, Kenneth, Iran Sanctions, Congressional Research Service Report RS20871, Pgs. 29-30, 7 August 2018, Accessed on 22 August 2018.

[3] Energy Indicators (2015-16) at a Glance, Energy Statistics 2017, Central Statistics Office, Ministry of Statistics and Program Implementation, Government of India, pg. 89, Accessed on 22 August 2018.

[4] Export Import Data Bank, Import: Commodity-wise all countries, Department of Commerce, Ministry of Commerce and Industry, Government of India, Accessed on 23 August 2018.

[5] Quamar, Md. Muddassir, India and the UAE: Progress towards ‘Comprehensive Strategic Partnership’, Institute for Defence Studies and Analyses, 5 July 2018, Accessed 17 August 2018.

[6] Chakraborty, Debjit and Krishnan, Unni, India Has ‘Plan D’ for Iran Oil as Trump Adds Sanction Pressure, Bloomberg, 2 July 2018, Accessed 22 July 2018.

[7] Ibid, 4

[8] Ibid

[9] Ibid

[10] Press Trust of India, IOC acquires Shell’s 17 pc Oman oilfield, The Times of India Business, 5 April 2018, Accessed on 24 August 2018.

[11] Eaton, Collin and Verma, Nidhi, U.S. oil exports to India soar ahead of sanctions on Iran, Reuters Business News, 12 July 2018, Accessed on 21 August 2018.

[12] Ibid

[13] India to revive rupee trade mechanism for its payments to Iran: Source, Business Standard, 22 June 2018, Accessed on 22 August 2018.

[14] Mishra, Richa, Iran Oil: Demand will be the deciding factor, says Pradhan, The Hindu Business Line, 8 July 2018, Accessed 23 August 2018.

[15] Ibid

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