परमाणु शक्ति (nuclear power) से लैस रूस (Russia) द्वारा परमाणु ताक़त से महरूम यूक्रेन पर अवैध रूप से आक्रमण को दस महीने से ज़्यादा समय बीत चुका है. उसके बाद से ही रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध (war) बदस्तूर जारी है, और ऐसा लगता है कि रूस के नियंत्रण वाले क्राइमिया प्रायद्वीप को रूस से जोड़ने वाले पुल में आग लगने के बाद से इस जंग ने और ख़तरनाक रुख़ अख़्तियार कर लिया है. कर्च पुल पर धमाके के बाद से रूस ने यूक्रेन पर अपने हमले और तेज़ कर दिए हैं. अब वो ड्रोन (drone) से कीव में बुनियादी सुविधाओं वाले मूलभूत ढांचे को निशाना बना रहा है. यूक्रेन (Ukraine) भी पूरी मज़बूती से रूस के हमलों का जवाब दे रहा है.
लॉफेयर को नैतिक मूल्यों से परे एक ऐसी रणनीति के तौर पर देखा जाता है, जहां पर क़ानून का इस्तेमाल भी हो सकता है, और उसका दुरुपयोग करते हुए भी सामरिक लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं. चीन और रूस इस क़ानूनी हथियार का दुरुपयोग करते रहे हैं.
हालांकि, रूस के ख़िलाफ़ यूक्रेन की लड़ाई सिर्फ़ जंग के मैदान तक सीमित नहीं है. यूक्रेन, रूस के ख़िलाफ़ कई अंतरराष्ट्रीय अदालतों में भी अभियान छेड़े हुए है. हालांकि, यूक्रेन की इस रणनीति को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गई है. सच तो ये है कि अदालतों में यूक्रेन की ये लड़ाई तो उसी वक़्त से चल रही है, जब 2014 में रूस ने क्राइमिया पर अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर लिया था. रूस के विरुद्ध यूक्रेन की इस क़ानूनी लड़ाई को उसकी ‘क़ानूनी जंग’ (lawfare) की रणनीति कहा जा रहा है. लॉफेयर (lawfare) शब्द को अंतरराष्ट्रीय क़ानून के शब्दकोष में चार्ल्स जे. डनलप ने जोड़ा था, जो अमेरिका के सैनिक थे और बाद में क़ानून के प्रोफ़ेसर बन गए थे. डनलप ने लॉफेयर को कुछ इस तरह से परिभाषित किया है: ‘अपने सामरिक लक्ष्य हासिल करने के लिए पारंपरिक सैन्य संसाधनों के बजाय क़ानून का इस्तेमाल या दुरुपयोग करना.’ इसमें और सुधार करते हुए कुछ जानकारों ने क़ानूनी जंग को ऐसी रणनीति बताया है, जिसमें अपने सैन्य विरोधी पर दबाव बनाने के लिए क़ानून का सहारा लिया जाता है, और एक साथ कई मोर्चों पर दबाव बनाया जाता है, जिससे कोई देश अपने सामरिक या सियासी मक़सद हासिल कर सके. लॉफेयर को नैतिक मूल्यों से परे एक ऐसी रणनीति के तौर पर देखा जाता है, जहां पर क़ानून का इस्तेमाल भी हो सकता है, और उसका दुरुपयोग करते हुए भी सामरिक लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं. चीन और रूस इस क़ानूनी हथियार का दुरुपयोग करते रहे हैं. दोनों देशों ने अपने दुश्मनों और विरोधियों के ख़िलाफ़ अपने सियासी और सामरिक लक्ष्य हासिल करने के लिए क़ानून को हथियार बनाया है.
यूक्रेन की नैतिक क़ानूनी जंग
चीन और रूस के उलट, यूक्रेन की ये क़ानूनी लड़ाई नैतिकता वाली है. यूक्रेन ने रूस के ख़िलाफ़ अपने कई अहम मक़सद पूरे करने के लिए तमाम अंतरराष्ट्रीय अदालतों का बख़ूबी इस्तेमाल किया है, ताकि वो रूस के अवैध युद्ध का पर्दाफ़ाश कर सके. पहले तो यूक्रेन ख़ुद को रूस के सामने एक पीड़ित देश के तौर पर पेश करता है. फिर वो दुनिया के सामने रूस के हमले को एक आक्रामक देश की अवैध हरकत के रूप में उजागर करता है और ये साबित करने की कोशिश करता है कि रूस ने उसके ऊपर हमला करके कई अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन किया है. दूसरा, यूक्रेन की कोशिश ये है कि वो रूस के ख़िलाफ़ कई क़ानूनी मोर्चे खोल सके, ताकि रूस को उसके दावों से निपटने के लिए अपनी पूरी ताक़त लगाने पड़े. इससे युद्ध लड़ने का रूस का ख़र्च बढ़ जाएगा. तीसरा, यूक्रेन अपने लिए उपलब्ध सभी क़ानूनी विकल्पों का इस्तेमाल करके, अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की नज़र में रूस की जवाबदेही तय करने की कोशिश कर रहा है, और इस तरह से रूस पर ये युद्ध रोकने का दबाव बनाने में जुटा है. इस वक़्त ऐसे कम से कम पांच अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी मंच हैं जहां यूक्रेन ने रूस के ख़िलाफ़ न्यायिक लड़ाई छेड़ रखी है.
इस साल फरवरी में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तो उसके फ़ौरन बाद यूक्रेन ने दोबारा ICJ का दरवाज़ा खटखटाया. इस बार उसने रूस पर नरसंहार से जुड़ी संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया था. यूक्रेन को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस से ये आदेश लेने में कामयाबी मिली, जिसमें रूस से अपना सैन्य अभियान तुरंत और तब तक रोकने को कहा गया था
पहला, क्राइमिया पर रूस द्वारा अवैध रूप से क़ब्ज़ा करने के बाद यूक्रेन ने 2017 में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (ICJ) में रूस के विरुद्ध दावा किया था. इस साल फरवरी में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तो उसके फ़ौरन बाद यूक्रेन ने दोबारा ICJ का दरवाज़ा खटखटाया. इस बार उसने रूस पर नरसंहार से जुड़ी संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया था. यूक्रेन को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस से ये आदेश लेने में कामयाबी मिली, जिसमें रूस से अपना सैन्य अभियान तुरंत और तब तक रोकने को कहा गया था, जब तक न्यायालय नरसंहार से जुड़ी संधि के उल्लंघन के मामले पर फ़ैसला नहीं कर लेता. हालांकि, रूस ने ICJ के इस आदेश का पालन नहीं किया, जबकि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की धारा 94 (1) के मुताबिक़ वो ऐसा करने के लिए बाध्य है. लेकिन रूस ने अपना सैन्य अभियान जारी रखा है.
दूसरा, यूक्रेन ने रूस के ख़िलाफ़ स्ट्रॉसबर्ग स्थित यूरोप के मानव अधिकारों से जुड़े न्यायालय का भी दरवाज़ा खटखटाया है और 2014 के बाद से उसके ख़िलाफ़ कई अर्ज़ियां यहां पर भी दी हैं. यूरोप के इस न्यायालय में सबसे ताज़ा अर्ज़ी यूक्रेन बनाम रूस (X) की है, जिसे इस साल फरवरी में रूस के हमले के बाद दाख़िल किया गया था. यूक्रेन ने युद्ध के दौरान रूस के सैनिकों द्वारा बड़े पैमाने पर मानव अधिकारों के उल्लंघन के गंभीर आरोप लगाए हैं. यूरोप के मानव अधिकारों से जुड़े न्यायालय (ECtHR) ने इस साल मार्च में रूस को संकेत दिया था कि वो नागरिकों और नागरिक ठिकानों को अपने हमले का निशाना न बनाए. रूस ने ICJ की तरह यूरोपीय न्यायालय के इस आदेश को भी कोई तवज्जो नहीं दी है, और वो लगातार असैन्य ठिकानों को निशाना बना रहा है. कीव पर ड्रोन से किए गए हालिया हमले इस बात की सबसे ताज़ा मिसाल हैं.
तीसरा, हैम्बर्ग स्थित इंटरनेशनल ट्राइब्यूनल ऑफ द लॉ ऑफ़ द सीज़ में भी रूस के ख़िलाफ़ यूक्रेन द्वारा दायर किए गए एक मुक़दमे की सुनवाई चल रही है. ये मुक़दमा रूस द्वारा यूक्रेन के तीन नौसैनिक जहाज़ों को अपने क़ब्ज़े में लेने से जुड़ा है. यूक्रेन का आरोप है कि उसके जहाज़ों को बंधक बनाकर रूस ने संयुक्त राष्ट्र के समुद्र से जुड़े क़ानूनों की संधि (UNCLOS) के तहत अपनी ज़िम्मेदारियों का उल्लंघन किया है.
चौथा, हेग स्थित एक और अदालत इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC) भी रूस और यूक्रेन के संघर्ष का हिस्सा बना हुआ है. हालांकि यूक्रेन ने उस रोम संधि पर दस्तख़त नहीं किए हैं, जिसके ज़रिए ICC की स्थापना की गई थी. फिर भी यूक्रेन ने धारा 12 (3) के तहत एक घोषणा करके अपने ऊपर इस अदालत के अधिकारों को मान्यता दी है. यूक्रेन ने 20 फरवरी 2014 के बाद से अपनी धरती पर हो रहे युद्ध अपराधों की शिकायत इस अदालत से की है, जिसकी कोई समय सीमा उसने नहीं तय की है. नतीजा ये हुआ है कि रूस और यूक्रेन का मौजूदा युद्ध भी इस मुक़दमे के दायरे में आ गया है.
चीन जैसे दुश्मनों से निपटने के लिए भारत के पास एक स्पष्ट और दूरगामी नज़रिया होना चाहिए कि वो साहस के साथ चीन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर घसीट सके. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय संबंध चलाने के भारत के तौर-तरीक़ों में क्रांतिकारी बदलाव लाने की ज़रूरत है.
पांचवां, यूक्रेन अपनी कंपनियों को इन्वेस्टर स्टेट डिस्प्यूट सेटेलमेंट (ISDS) व्यवस्था का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. ये व्यवस्था 1998 में यूक्रेन और रूस के बीच निवेश की द्विपक्षीय संधि (BIT) के तहत बनाई गई थी. यूक्रेन अपने देश की कंपनियों को कह रहा है कि वो क्राइमिया में रूस द्वारा अपनी संपत्तियां ज़ब्त करने के फ़ैसलों को इस व्यवस्था के तहत चुनौती दैं. निवेश की द्विपक्षीय संधि (BIT) में इस (ISDS) प्रावधान का इस्तेमाल कोई विदेशी निवेशक, अपने देश नहीं, बल्कि किसी तीसरे देश के प्रति कर सकता है. क्राइमिया में कारोबार कर रही यूक्रेन की कंपनियां, इस वक़्त ख़ुद को रूस के नियंत्रण वाले इलाक़े में फंसा हुआ महसूस कर रही हैं. इसीलिए उन्होंने निवेश की द्विपक्षीय संधि के इस प्रावधान का इस्तेमाल किया है, और ISDS पंचायत के सामने रूस की खुली अवैध हरकतों को उजागर करने के लिए क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय क़ानून का बड़ी चालाकी से इस्तेमाल किया है.
अपनी इस रणनीति में यूक्रेन काफ़ी हद तक सफल रहा है. कई अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी मंचों जैसे कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय, अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय, यूरोप के मानव अधिकार न्यायालय में रूस की जवाबदेही तय करने की यूक्रेन की कोशिशों का कई देश समर्थन कर रहे हैं.
भारत के लिए सबक़
यूक्रेन की इस क़ानूनी रणनीति से भारत भी काफ़ी कुछ सीख सकता है, ताकि वो अपने पड़ोसियों के कारण पैदा हुई सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपट सके. मिसाल के तौर पर भारत को अंतरराष्ट्रीय क़ानून का इस्तेमाल करके आतंकवाद प्रायोजित करने और अनुच्छेद 370 हटने के बाद अवैध रूप से द्विपक्षीय व्यापार बंद करने जैसी हरकतों के लिए पाकिस्तान को जवाबदेह ठहराने की कोशिश करनी चाहिए. इसी तरह भारत को चाहिए कि वो चीन द्वारा बार बार उन द्विपक्षीय समझौतों के उल्लंघन के लिए उसकी जवाबदेही तय कर सके, जिन समझौतों पर दोनों देशों ने सीमा पर शांति के लिए दस्तख़त किए हैं. इसके पीछे बड़े राजनीतिक और सामरिक मक़सद कुछ इस तरह के होने चाहिए. पहला, तो ये दिखाना कि चीन और पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं और उनकी गतिविधियां अवैध हैं. दूसरा चीन और पाकिस्तान पर इस बात का दबाव बनाना कि वो भारत के राष्ट्रीय और सुरक्षा हितों के ख़िलाफ़ चलाई जा रही अपनी गतिविधियां रोक दें. तीसरा, चीन और पाकिस्तान पर इस बात का दबाव बनाना कि वो अंतरराष्ट्रीय क़ानून तोड़ने के आरोपों का जवाब दें, और अंतरराष्ट्रीय अदालतों समेत पूरे वैश्विक समुदाय को इस बात का अवसर देना कि वो चीन और पाकिस्तान से उनकी अवैध हरकतों पर जवाब तलब करें.
हालांकि, लॉफेयर यानी क़ानूनी जंग का कामयाबी से इस्तेमाल करने की दो बुनियादी ज़रूरतें हैं. पहला, तो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के मामले में किसी भी देश के पास ज़बरदस्त क्षमता होनी चाहिए. फिलहाल भारत के पास इसकी कमी है. क्योंकि विदेश नीति को लेकर माहौल बनाने का काम आम राजनयिक और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार ही करते हैं. दूसरा, चीन जैसे दुश्मनों से निपटने के लिए भारत के पास एक स्पष्ट और दूरगामी नज़रिया होना चाहिए कि वो साहस के साथ चीन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर घसीट सके. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय संबंध चलाने के भारत के तौर-तरीक़ों में क्रांतिकारी बदलाव लाने की ज़रूरत है. क्या भारत इसके लिए तैयार है?
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