Author : Kirill Likhachev

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Published on Sep 21, 2024 Updated 0 Hours ago

पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों से प्रेरित रूस की “पूर्व की तरफ देखने” की रणनीति उसके राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों के लिए इंडो-पैसिफिक को महत्वपूर्ण मानती है. 

#IndoPacific: इंडो-पैसिफिक को लेकर रूस की समस्या!

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रूस-यूक्रेन के बीच जारी संघर्ष और हाल के वर्षों में रूस एवं पश्चिमी देशों के बीच तेज़ होते टकराव के संदर्भ में रूस की “पूर्व की तरफ देखने” की रणनीति का कार्यान्वयन अमेरिका और यूरोपियन यूनियन (EU) के द्वारा लगाई गई सख्त पाबंदियों के एक ज़रूरी जवाब के रूप में उभरकर सामने आया है. इंडो-पैसिफिक क्षेत्र रूस के राजनीतिक और आर्थिक विकास के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हो गया है जिसकी वजह से यूक्रेन युद्ध शुरू होने के समय से इस क्षेत्र में रूस की सक्रियता बढ़ गई है. इसके नतीजतन इंडो-पैसिफिक की ताकतों के साथ रूस के द्विपक्षीय संबंध उसकी मौजूदा विदेश नीति की प्राथमिकताओं, जिनका उद्देश्य पश्चिमी देशों से गहरे होते मनमुटाव के बीच व्यापार एवं आर्थिक संबंधों को बढ़ाना है, के विश्लेषण में अधिक महत्वपूर्ण बन गए हैं. रूस, चीन, भारत और अमेरिका के बीच चतुष्कोणीय (क्वॉड्रिलेटरल) संबंध के असर का उनकी द्विपक्षीय बातचीत और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में व्यापक घटनाक्रम पर विचार करना भी ज़रूरी है. वैसे तो कुछ ख़ास आसियान देशों से संबंधों में तेज़ी के साथ-साथ ब्रिक्स+ और SCO जैसे बहुपक्षीय ढांचों के  घटनाक्रम ने रूस की विदेश नीति के हितों के अनुरूप नई तेज़ी हासिल की है लेकिन एशिया की बड़ी शक्तियों के साथ रूस के द्विपक्षीय संबंध उसके सामरिक दृष्टिकोण में बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. रूस और पश्चिमी देशों के बीच बढ़ता मनमुटाव रूस को चीन के साथ गहरे तालमेल की ओर धकेल रहा है, ये अलग बात है कि चीन रूस को सीधे सैन्य-तकनीकी समर्थन देना तो दूर बल्कि दूसरे दर्जे के प्रतिबंधों के साथ जुड़े महत्वपूर्ण ख़तरों से भी बचना चाहता है. इसके बदले में रूस-चीन की घनिष्ठता को भले ही कुछ हद तक सीमित माना जा सकता है लेकिन ये निस्संदेह रूस-भारत संबंधों को प्रभावित करता है, विशेष रूप से एशिया में भारत और चीन के बीच मौजूदा सीमा विवादों और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा को देखते हुए. 

रूस और पश्चिमी देशों के बीच बढ़ता मनमुटाव रूस को चीन के साथ गहरे तालमेल की ओर धकेल रहा है, ये अलग बात है कि चीन रूस को सीधे सैन्य-तकनीकी समर्थन देना तो दूर बल्कि दूसरे दर्जे के प्रतिबंधों के साथ जुड़े महत्वपूर्ण ख़तरों से भी बचना चाहता है. इसके बदले में रूस-चीन की घनिष्ठता को भले ही कुछ हद तक सीमित माना जा सकता है लेकिन ये निस्संदेह रूस-भारत संबंधों को प्रभावित करता है       

रूस की विदेश नीति की समीक्षा 

2023 की अपनी नवीनतम विदेश नीति के लक्ष्यों के अनुरूप रूस एशिया-पैसिफिक क्षेत्र पर ज़्यादा ज़ोर डालने का इरादा रखता है जो 2016 में उसकी विदेश नीति की प्राथमिकताओं में सातवें स्थान से ऊपर चढ़कर पिछले साल चौथे स्थान पर आ गया है. इस बीच चीन और भारत पर विशेष ध्यान के साथ यूरेशियाई महाद्वीप बढ़कर तीसरे स्थान पर आ गया है. इसने पारंपरिक रूप से प्राथमिकता वाले यूरो-अटलांटिक क्षेत्र की जगह ली है. ये रणनीतिक बदलाव 30 नामित “मित्र देशों” के बीच भरोसेमंद साझेदारों के रूप में चीन और भारत के महत्व पर ज़ोर डालता है. चीन और भारत- दोनों ने अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों के रूस विरोधी रवैये के साथ जुड़ने का काफी हद तक विरोध किया है. ध्यान देने की बात है कि रूस की ताज़ा रणनीति “इंडो-पैसिफिक” शब्द के उपयोग से बचती है. ये रूस की उस सोच को दिखाता है जिसके तहत वो इस विचार को हिंद महासागर के भीतर प्रभाव का विस्तार करने की भारतीय पहल की जगह मुख्य रूप से अमेरिका के द्वारा चीन का मुकाबला करने की रणनीति के रूप में देखता है. अमेरिका के साथ अपने टकराव के नज़रिए से रूस अमेरिका के नेतृत्व में क्वॉड और ऑकस जैसे मिनी-लेटरल संगठनों को एशिया में नेटो के समान मानता है. साथ ही रूस इसे चीन को नियंत्रित करने और इसके बदले भारत को चीन विरोधी गठबंधन के साथ जोड़ने की व्यापक अमेरिकी रणनीति के हिस्से के रूप में देखता है. 

रूस-चीन सहयोग की हदें 

2022 और 2024 के बीच रूस-चीन मेल-मिलाप राजनीतिक गठबंधन की तुलना में वैचारिक और आर्थिक कारणों से अधिक प्रेरित लगता है. दोनों देश दुनिया में अमेरिका के दबदबे और ‘उदारवादी मूल्यों” को बढ़ावा से असंतुष्ट हैं लेकिन इसके बावजूद उनका सहयोग चीन के निर्यात केंद्रित आर्थिक मॉडल और यूक्रेन को लेकर रूस-पश्चिमी देशों के टकराव में उलझने को लेकर चीन की साफ झिझक से बाधित है. 240 अरब अमेरिकी डॉलर के सालाना व्यापार के साथ रूस के सबसे बड़े व्यापार साझेदार के रूप में चीन को रियायती दर पर रूस के तेल (जिसका मूल्य जनवरी 2022 से जून 2024 के बीच 18 अरब अमेरिकी डॉलर है) की ख़रीद से फायदा हुआ है. इसके साथ ही चीन ने 2023 में रूस के ऑटोमोटिव बाज़ार के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर कब्ज़ा किया. लेकिन ये ध्यान देने की बात है कि गैस की कीमत के निर्धारण को लेकर चीन के सख्त रवैये ने शायद “सिला सिबिरी 2” प्रोजेक्ट को रोक दिया है जबकि 2022 से रूस इस पर ज़ोर दे रहा है. मॉस्को शेयर बाज़ार पर पश्चिमी देशों के नए प्रतिबंध लागू होने के बाद 12 जून से डॉलर और यूरो में विदेशी लेन-देन पर रोक लग गई. इसकी वजह से रूस में युआन विदेशी व्यापार के लिए प्राथमिक मुद्रा बन गया है. फिर भी चीन के बैंकों की तरफ से अपने रूस के ग्राहकों को युआन बेचने की बढ़ती झिझक की वजह से अगस्त 2024 में रूस के बैंकिंग सिस्टम को युआन की बढ़ती कमी का सामना करना पड़ा. अमेरिका के दूसरे दर्जे के प्रतिबंधों को लेकर संभावित चिंताओं के कारण चीन के बैंकों के द्वारा भुगतान को मंज़ूरी देने में व्यापक इनकार की वजह से ये समस्या और भी गंभीर हो गई है. वास्तविकता ये है कि रूस के तेल और गैस पर छूट या रूसी उपभोक्ता बाज़ार में विस्तार की तुलना में अमेरिका के साथ व्यापार चीन के लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है. ये आर्थिक प्राथमिकता रूस-चीन सैन्य-राजनीतिक गठबंधन के लिए ज़रूरत से ज़्यादा और शायद अवास्तविक उम्मीदों के स्वरूप को रेखांकित करती है. 

रूस-उत्तर कोरिया के रिश्तों का नया दौर 

जहां तक बात इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में दूसरे प्रमुख देशों के साथ रूस के संबंधों की है तो हाल के दिनों में उत्तर कोरिया के साथ सैन्य-राजनीतिक सहयोग पर रूस के ज़ोर की तरफ दुनिया का काफी ध्यान गया है क्योंकि ये एक असाधारण लेकिन अनिवार्य कदम की तरह है, विशेष रूप से उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों का रूस के द्वारा पारंपरिक रूप से पालन करने को देखते हुए. 19 जून 2024 को हस्ताक्षरित रूस-उत्तर कोरिया व्यापक सामरिक साझेदारी संधि इंडो-पैसिफिक में शक्ति के संतुलन को बदल सकती है क्योंकि इसमें पूर्वी एशिया में रूस को अपना असर बढ़ाने की व्यवस्था की गई है. हालांकि इस संधि के तहत वास्तविक रक्षा समझौता रूस को उत्तर कोरिया के सीमा संघर्ष या झड़प में सीधे तौर पर शामिल होने से बचने जबकि यूक्रेन संघर्ष में रूस को उत्तर कोरिया के समर्थन के लिए एक रूप-रेखा बनाने की अनुमति देता है. इस संधि के तहत यूक्रेन में उत्तर कोरिया के सैनिकों की संभावित तैनाती या रूस के उद्योगों में उत्तर कोरिया के मज़दूरों का इस्तेमाल अनिश्चित बना हुआ है और कई तरह के सवाल खड़े करता है. इसके साथ-साथ रूस-उत्तर कोरिया के बीच इस घनिष्ठता का चीन-रूस संबंधों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है. उत्तर कोरिया के प्रमुख संरक्षक के रूप में चीन इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं करेगा कि उत्तर कोरिया रूस के साथ नज़दीकी सैन्य-राजनीतिक और व्यापार-आर्थिक संबंधों के माध्यम से नए विकल्प तैयार करने की कोशिश कर रहा है. 


19 जून 2024 को हस्ताक्षरित रूस-उत्तर कोरिया व्यापक सामरिक साझेदारी संधि इंडो-पैसिफिक में शक्ति के संतुलन को बदल सकती है क्योंकि इसमें पूर्वी एशिया में रूस को अपना असर बढ़ाने की व्यवस्था की गई है.

आर्कटिक नीति का महत्व 

रूस की 2023 की विदेश नीति प्राथमिकता के मामले में आर्कटिक को चीन, भारत और एशिया-पैसिफिक क्षेत्र से ऊपर रखती है. ऐसा लगता है कि रूस नॉर्दर्न सी रूट (NSR) और ग्रेटर यूरेशियन पार्टनरशिप प्रोजेक्ट को पूर्व, दक्षिण-पूर्व और दक्षिण एशिया के समुद्री रसद रूट के साथ जोड़ने का इरादा रखता है. लेकिन आर्कटिक काउंसिल से रूस का निलंबन और NSR प्रोजेक्ट के लिए उसकी सीमित उत्पादन क्षमता चीन और भारत से सक्रिय भागीदारी की ज़रूरत पर ज़ोर डालती है. नॉर्दर्न सी रूट इंडो-पैसिफिक में बड़े समुद्री रास्तों का एक विकल्प पेश करता है और इस तरह संभावित रूप से मलक्का स्ट्रेट और दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे व्यस्त रास्तों में तेल के टैंकर को रोकने को लेकर चीन की असुरक्षा को कम करता है. हालांकि NSR को लेकर चीन का नज़रिया रूस की योजनाओं से अलग है क्योंकि चीन इस रास्ते को साझा चीन-रूस पोलर सिल्क रोड पहल के हिस्से के रूप में देखता है और उसका लक्ष्य इसे अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के साथ जोड़ने का है. ये अलग-अलग रवैया संभावित रूप से बताता है कि NSR के ऊपर रूस के संप्रभुता के दावे का चीन ने अभी तक समर्थन क्यों नहीं किया है और इस विशेष प्रोजेक्ट में शामिल होने को लेकर उसने सीमित दिलचस्पी क्यों दिखाई है. इसके नतीजतन NSR को चेन्नई-व्लादिवोस्तोक ईस्टर्न मैरिटाइम कॉरिडोर के साथ जोड़कर भारत के साथ व्यापार-आर्थिक सहयोग को मज़बूत करना रूस के लिए निकट भविष्य में एक प्रमुख लक्ष्य हो सकता है.  

प्रतिबंधों को देखते हुए रूस-भारत साझेदारी 

रूस-भारत विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी बेहद व्यावहारिक और अमेरिका एवं चीन के साथ दोनों देशों के संबंधों से काफी प्रभावित है. चूंकि चीन के साथ रूस ज़्यादा नज़दीकी रूप से जुड़ा है, ऐसे में भारत के अमेरिका की तरफ और अमेरिका के भारत की तरफ झुकने की संभावना है. अधिक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के साथ भारत-अमेरिका सैन्य-तकनीक और हाइटेक सहयोग में मज़बूती भारत-रूस रिश्तों को मौजूदा रूस-पश्चिमी देशों के बीच टकराव पर अधिक निर्भर बनाती है. ये गतिशीलता चीन और अमेरिका के साथ रूस और भारत- दोनों की बातचीत में बाधा डालती है. साथ ही सैन्य-तकनीकी तालमेल जैसे पारंपरिक क्षेत्रों समेत व्यापक रूस-भारत सहयोग की संभावना को सीमित करती है. इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर जैसी साझा रसद परियोजनाओं में कुछ प्रगति के बावजूद द्विपक्षीय व्यापार 2023 में बढ़कर 65 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया (2022 से पहले आम तौर पर 11-12 अरब अमेरिकी डॉलर की तुलना में). व्यापार में इस बढ़ोतरी का एक प्रमुख कारण रूस की तरफ से हाइड्रोकार्बन की आपूर्ति है. रूस 2023-24 में भारत का सबसे बड़ा तेल सप्लायर बन गया और रियायती कीमत एवं रिफाइन किए गए उत्पादों की बिक्री के माध्यम से भारत को 10 अरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा की बचत हुई. लेकिन रूस के साथ वित्तीय लेन-देन में दूसरे दर्जे के प्रतिबंध के ख़तरे को लेकर चीन के रवैये की तरह भारत की झिझक ध्यान देने लायक है. ख़बरों के मुताबिक इसकी वजह से 2022-23 में भारत के द्वारा ख़रीदे गए रूसी तेल के लिए लगभग 40 अरब अमेरिकी डॉलर का भुगतान पिछले साल भारतीय खातों में बचा हुआ है. हालांकि रूस के आर्थिक विशेषज्ञों ने इस आंकड़े को लेकर शक जताया है. इससे पता चलता है कि इस मुद्दे का वास्तविक पैमाना काफी छोटा है. इस तरह के हालात को दोनों पक्षों के लिए रणनीतिक रूप से नुकसानदेह माना जा सकता है जो व्यापक संबंधों को और बढ़ाने में दिलचस्पी रखता है. 2024 में रूस के हाइड्रोकार्बन की लगातार सप्लाई से पता चलता है कि ये बाधा दूर हो गई है. हालांकि द्विपक्षीय सेटलमेंट में लेन-देन के तौर-तरीकों में सुधार करते हुए संसाधन और गैर-संसाधन- दोनों क्षेत्रों में द्विपक्षीय व्यापार को आगे बढ़ाना भारत के साथ अपने संबंधों में रूस के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है.

रूस 2023-24 में भारत का सबसे बड़ा तेल सप्लायर बन गया और रियायती कीमत एवं रिफाइन किए गए उत्पादों की बिक्री के माध्यम से भारत को 10 अरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा की बचत हुई. लेकिन रूस के साथ वित्तीय लेन-देन में दूसरे दर्जे के प्रतिबंध के ख़तरे को लेकर चीन के रवैये की तरह भारत की झिझक ध्यान देने लायक है.  

इंडो-पैसिफिक में अलग-अलग विदेश नीति और संतुलन  

जटिल अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के सामने चीन और भारत के साथ अपने संबंधों में रूस अपेक्षाकृत संतुलन बनाए रखने की कोशिश कर रहा है, विशेष रूप से चीन-भारत द्विपक्षीय संबंधों, अमेरिका के साथ उनके सहयोग और एक साझेदार पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भता के ख़तरों को कम करने की ज़रूरत के संदर्भ में. ये संतुलन रूस के साथ भारत के तालमेल के महत्व को रेखांकित करता है, जिसका पता जुलाई में प्रधानमंत्री मोदी के मॉस्को दौरे से चलता है, जो रूस की इंडो-पैसिफिक रणनीति का एक उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण तत्व है. रूस-यूक्रेन सैन्य संकट कभी भी ख़त्म हो, इस बात की संभावना नहीं है कि रूस के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों के प्रतिबंध में काफी कमी आएगी. इसके परिणामस्वरूप रूस की “पूर्व की तरफ देखने” की रणनीति, जिसका लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में बहुध्रुवीयता (मल्टीपोलेरिटी) को बढ़ावा देना है, का एक दीर्घकालीन रुझान बनना तय है जिसमें “मित्र देशों” पर विशेष ज़ोर होगा. प्रतिबंध अलग-अलग साझा परियोजनाओं में बाधा तो डाल सकते हैं लेकिन वो एशिया में रूस के प्रमुख साझेदारों को रूस के साथ अपने सामरिक संबंधों को कम करके अपने राष्ट्रीय हितों के ख़िलाफ़ काम करने के लिए शायद मजबूर नहीं कर सकते हैं. इस संबंध में अलग-अलग (डी-हाइफीनेशन) नीति रूस के लिए एक अधिक प्रभावी दृष्टिकोण लगती है. इसके ज़रिए वो पश्चिमी देशों के साथ अपने मौजूदा टकराव के बीच अपनी इंडो-पैसिफिक रणनीति को लागू करते हुए भारत, चीन और उत्तर कोरिया से एक साथ सहयोग के लिए सक्षम होता है.


किरिल लिखाचेव सेंट पीटर्सबर्ग स्टेट यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस (SIR SPbSU) में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. 

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Kirill Likhachev

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Kirill Likhachev is an associate professor at School of international relations, St. Petersburg State University (SIR SPbSU). Among his main research interests are foreign policy ...

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