Author : Manish Vaid

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jun 03, 2025 Updated 1 Days ago

भारत ऊर्जा क्षेत्र में रूस का एक प्रमुख साझेदार बनकर सामने आया है. दोनों देशों के बीच ऊर्जा क्षेत्र में टिकाऊ और दीर्घकालिक सहयोग स्थापित हो रहा है. वहीं, दूसरी ओर ऊर्जा सेक्टर में चीन के साथ रूस के रिश्तों में तनातनी नज़र आ रही है. 

रूस की ऊर्जा नीति में बदलाव: चीन की जगह भारत बना नया प्रमुख सहयोगी

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रूस की पोस्ट ऑयल सर्वाइवल रणनीति यानी भविष्य में जीवाश्म ईंधन उपलब्ध नहीं होने या फिर पहुंच से बाहर होने के बाद की रूसी रणनीति में ज़बरदस्त बदलाव देखने को मिल रहा है. फिलहाल यूराल क्रूड की क़ीमत प्रति बैरल 53 अमेरिकी डॉलर के आसपास है. ज़ाहिर है कि यूराल क्रूड की यह क़ीमत 69.70 डॉलर से बहुत कम है, जो कि एक हिसाब से इसकी न्यूनतम क़ीमत है यानी जिस क़ीमत पर रूस को राजस्व घाटा नहीं उठाना होगा. अपने कच्चे तेल के दाम कम होने की वजह से रूस बेहद दबाव में है. हालांकि, जब रूस के तेल निर्यात पर प्रतिबंध थोपे गए थे, तब शुरुआती वर्षों में चीन ने रूस से जमकर क्रूड ऑयल का आयात किया था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि चीन की भी सीमाएं हैं और वह लगातार ऐसा करने की स्थिति में नहीं है. देखा जाए तो, मास्को की ट्विन-ट्रैक एनर्जी स्ट्रैटेजी यानी ऊर्जा के स्रोतों को लेकर दोहरी रणनीति है, जिसमें पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के साथ ही नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को भी साथ लेकर चला जाता है. लेकिन उसकी यह रणनीति अब दिक़्क़तों का सामना कर रही है. ऐसे इसलिए है, क्योंकि चीन अपने ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाने में जुटा हुआ है और इसी वजह से रूस के साथ एलएनजी यानी तरलीकृत प्राकृतिक गैस को लेकर चीन सौदेबाज़ी कर रहा है और जमकर मोल भाव करने में लगा है. इस हालातों में नई दिल्ली न केवल मास्को के एक प्रमुख ऊर्जा ख़रीदार के रूप में सामने आई है, बल्कि रूस के सबसे बड़े रणनीतिक ऊर्जा साझेदार के रूप में भी उभरी है.

चीन की कम होती दिलचस्पी बनाम भारत का बढ़ता महत्व

हाल के वर्षों में रूस और चीन के बीच ऊर्जा संबंध परवान चढ़े और वर्ष 2020 के बाद से रूस से तेल व गैस ख़रीदने वालों की फेहरिस्त में चीन का नंबर सबसे ऊपर रहा है. यहां तक कि रूस वर्ष 2024 में चीन का सबसे बड़ा क्रूड ऑयल आपूर्तिकर्ता बन गया. 2024 में रूस ने चीन को 108 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) से ज़्यादा क्रूड ऑयल की आपूर्ति की थी, जो कि चीन के कुल तेल आयात का 20 से 22 प्रतिशत है. इतना सब होने के बाद भी दोनों देशों के ऊर्जा संबंधों को देखें, तो इनमें बीजिंग का पक्ष मज़बूत नज़र आता है, यानी बीजिंग को इससे अधिक लाभ हो रहा है.

रूस और चीन के बीच प्रस्तावित पावर ऑफ साइबेरिया-2 पाइपलाइन जैसी परियोजनाएं अधर में लटकी हुई हैं. रूस इस पाइपलाइन के जरिए चीन को प्रतिवर्ष 50 बिलियन क्यूबिक मीटर गैस की आपूर्ति कर सकता है. ज़ाहिर है कि रूस द्वारा चीन को कच्चे तेल का निर्यात सफलतापूर्वक किया जा रहा है, लेकिन उसकी तुलना में गैस का निर्यात नहीं हो पा रहा है. यह अलग बात है कि चीन को भारी छूट के साथ कच्चे तेल का निर्यात करने के बावज़ूद रूस वहां टिकाऊ बाज़ार पाने में जद्दोजहद कर रहा है. दूसरी तरफ, भारत को भी रूस अच्छी मात्रा में कच्चे तेल का निर्यात कर रहा है और यह लगातार बढ़ता जा रहा है.

चीन को भारी छूट के साथ कच्चे तेल का निर्यात करने के बावज़ूद रूस वहां टिकाऊ बाज़ार पाने में जद्दोजहद कर रहा है. दूसरी तरफ, भारत को भी रूस अच्छी मात्रा में कच्चे तेल का निर्यात कर रहा है और यह लगातार बढ़ता जा रहा है.

चीन और रूस के बीच गैस की क़ीमतों को लेकर खींचतान चल रही है. चीन की मांग है कि रूस उसे अपनी घरेलू क़ीमत पर गैस की आपूर्ति करे. ज़ाहिर है कि रूस जिस क़ीमत पर यूरोपीय देशों को गैस की आपूर्ति करता है, उन दामों से यह काफ़ी कम है. हालांकि, वर्ष 2024 में चीन को रूसी एलएनजी निर्यात 3.3 प्रतिशत बढ़कर 8.3 MMT हो गया, लेकिन ऑस्ट्रेलिया और क़तर से चीन को होने वाले एलएनजी निर्यात की तुलना में यह अभी भी बहुत कम है.

रूसी एनर्जी उद्यमों में CNPC जैसी चीनी कंपनियों की बड़ी हिस्सेदारी है. यमल एलएनजी में चीनी कंपनियों की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत है, जबकि आर्कटिक एलएनजी-2 में 10 फीसदी हिस्सेदारी है. रूसी ऊर्जा कंपनियों में चीनी कंपनियों की बढ़ती हिस्सेदारी की वजह से ही रूस के साथ चीन कच्चे तेल और गैस की क़ीमतों को कम करने का दबाव बनाता है. रूस की ओर से चीन को यूराल क्रूड 53 से 61 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल पर बेचा जा रहा है. कहने का मतलब है कि बीजिंग का दबदबा होने के कारण मास्को चाहकर भी कुछ नहीं करने की स्थिति में है और इससे कहीं न कहीं रणनीतिक तौर पर भी उसकी स्थिति कमज़ोर हो जाती है.

एक तरफ चीन मौज़ूदा हालातों का फायदा उठा रहा और रूस पर दबाव बनाने में लगा है, वहीं दूसरी ओर भारत भी रूस के साथ अपना ऊर्जा सहयोग बढ़ा रहा है, साथ ही पारस्परिक लाभ के नज़रिए के साथ रूस से ऊर्जा आयात बढ़ाने में जुटा है. मई 2025 के ताज़ा आंकड़ों पर नज़र डालें तो अप्रैल के महीने में रूस से भारत का कच्चा तेल आयात रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया, यानी अप्रैल में लगभग 2 मिलियन बैरल प्रतिदिन (mb/d) तक रूसी क्रूड ऑयल का आयात किया गया, जो कि पिछले दो साल का उच्चतम स्तर है. इन आंकड़ों से साफ है कि भारत रूस के सबसे बड़े तेल ख़रीदार के रूप में उभरा है.

रूस के साथ भारत की इस ऊर्जा साझेदारी को भारत के रिफाइनिंग सेक्टर ने एक रणनीतिक लाभ में तब्दील कर दिया है. दरअसल, रूस से आयातित कच्चे तेल की क़ीमत अपेक्षाकृत कम है, इससे भारतीय रिफाइनिंग कंपनियों को डीजल और जेट ईंधन में अच्छा मुनाफा होता है. यानी यह उनके लिए अच्छा अवसर है और भारतीय तेल रिफाइनिंग कंपनियां जमकर रूसी कच्चे तेल का आयात कर रही हैं, साथ ही परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पादों को फिर से यूरोपीय देशों में निर्यात कर रही हैं. ज़ाहिर है कि इससे कहीं न कहीं मास्को पर लगे पश्चिमी प्रतिबंध बेअसर हो रहे हैं. इसके अलावा, भारत के ज़रिए पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के इस व्यापार से रूस को विदेशी मुद्रा मिल रही है और इसमें कोई ज़्यादा राजनीतिक बाधा भी नहीं आ रही है.

अगर रूस के साथ भारत के ऊर्जा सौदों की बात की जाए, तो चीन की तुलना में यह न केवल पारदर्शी हैं, बल्कि व्यापार के दृष्टिकोण से पारस्परिक लाभ वाले भी हैं. 

अगर रूस के साथ भारत के ऊर्जा सौदों की बात की जाए, तो चीन की तुलना में यह न केवल पारदर्शी हैं, बल्कि व्यापार के दृष्टिकोण से पारस्परिक लाभ वाले भी हैं. ज़ाहिर है कि पूरी दुनिया की नज़र रूस से होने वाले क्रूड ऑयल के निर्यात पर है, फिर भी कच्चे तेल की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए भारतीय रिफाइनरी कंपनियां और रूसी बीमा कंपनियां मरीन इंश्योरेंस कवरेज के लिए बेहतर तालमेल के साथ काम कर रही हैं. यह पारस्परिक सहयोग दिखाता है कि तेल के व्यापार में पश्चिमी प्रभुत्व वाली पारंपरिक व्यवस्था को दरकिनार करते हुए किस तरह से पूर्व के दो शक्तिशाली देश यानी रूस और भारत क़दमताल कर रहे हैं.

भारत-रूस के बीच तेल से लेकर रणनीतिक उद्यमों तक बढ़ती साझेदारी

रूस पर वर्ष 2022 में लगे पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद से भारत में रूसी कच्चे तेल के आयात में ज़बरदस्त बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. आंकड़ों के मुताबिक़ इस दौरान भारत में रूसी क्रूड ऑयल का आयात दस गुना से ज़्यादा बढ़ गया है. भारत में कुल आयातित होने वाले क्रूड ऑयल में रूसी कच्चे तेल की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत से अधिक हो गई है, जबकि रूस-यूक्रेन युद्ध से पहले यह लगभग न के बराबर थी. एक और अहम बात यह है कि भारत और रूस के बीच साझेदारी अब केवल कच्चे तेल तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि इसका विस्तार दूसरे सेक्टरों में भी हो रहा है. हाल ही में भारत-रूस बिजनेस डायलॉग का आयोजन हुआ, जिसमें जहाज निर्माण, फार्मास्यूटिकल्स और महत्वपूर्ण खनिजों जैसे सेक्टरों में छह संयुक्त उद्यमों का ऐलान किया गया. इसके अलावा, स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टरों (SMRs) के निर्माण पर भी दोनों देशों के बीच सहयोग स्थापित हुआ है, जो कि एक अहम क़दम है.

भारत और रूस के बीच इन एसएमआर उद्यमों की स्थापना के तहत ही महाराष्ट्र ने ROSATOM के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. इस समझौते के तहत भारत का पहला थोरियम आधारित लघु मॉड्यूलर रिएक्टर विकसित किया जाएगा. ज़ाहिर है कि यह स्वच्छ और लचीली परमाणु टेक्नोलॉजी दोनों देशों के ऊर्जा पोर्टफोलियो यानी ऊर्जा पैदा करने, वितरित करने और उपभोग करने के तौर-तरीक़ों में विविधता ला सकती है. यह तकनीक़ देखा जाए तो हाइड्रोकार्बन की कम होती भूमिका को बढ़ाने का भी काम करती है.

 भारत न केवल इस तकनीक़ का उपभोक्ता है, बल्कि रूस के साथ मिलकर रणनीतिक प्रौद्योगिकियों के विकास में भी जुटा हुआ है. यह तकनीक़ जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करती ही है, साथ ही दोनों ही देशों के लक्ष्यों और मकसदों को भी पूरा करती है.

भारत और रूस के बीच इस सेक्टर में यह व्यापक सहयोग दिखाता है कि दोनों देश फौरी तौर पर नहीं, बल्कि लंबे समय तक इस दिशा में मिलकर काम करना चाहते हैं. यानी भारत न केवल इस तकनीक़ का उपभोक्ता है, बल्कि रूस के साथ मिलकर रणनीतिक प्रौद्योगिकियों के विकास में भी जुटा हुआ है. यह तकनीक़ जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करती ही है, साथ ही दोनों ही देशों के लक्ष्यों और मकसदों को भी पूरा करती है.

OPEC से अलग हटकर ऊर्जा भू-राजनीति

वर्ष 2024 की शुरुआत में रूस का तेल उत्पादन तय कोटे से ज़्यादा हो गया था और 4,80,000 b/d के आंकड़े को पार कर गया था. इसके बाद रूस ने 2025 तक अपने कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती का वादा किया था, लेकिन वास्तविकता में ऐसा हो नहीं रहा है. इसके अलावा, इराक को जून 2026 तक 1.93 mb/d और कज़ाकिस्तान को 1.3 mb/d की कटौती करना है.

ओपेक+ ने इस बीच मई 2025 से क्रूड ऑयल के उत्पादन में प्रतिदिन 4,11,000 बैरल की बढ़ोतरी करने की योजना बनाई है. यह निर्णय समूह के सदस्य देशों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा, बाज़ार हिस्सेदारी को वापस पाने की कोशिश और निर्देश नहीं मानने वाले सदस्यों को नियंत्रित करने की रणनीति के तहत लिया गया है. इस फैसले के तहत समय के साथ कुल 2.2 एमबी/डी कच्चे तेल के उत्पादन को बहाल करना है. ओपेक+ की इस क़वायद से स्पष्ट है कि समूह के सदस्य देशों के बीच तालमेल नहीं है और तनातनी का माहौल है. ज़ाहिर है कि सऊदी अरब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की क़ीमतों को स्थिर करने के लिए उत्पादन में कटौती की मांग कर रहा है, जबकि तेल से होने वाली कमाई को बनाए रखने के लिए रूस की प्राथमिकता अधिक से अधिक कच्चे तेल का निर्यात करने की है.

कुल मिलाकर रूस फिलहाल दुविधा में फंसा हुआ है. एक ओर रूस कच्चे तेल के निर्यात से होने वाली आय को बनाए रखना चाहता है, वहीं दूसरी ओर ओपेक+ के तेल की क़ीमतों को स्थिर रखने के लक्ष्य को भी पाना चाहता है और इस सबके लिए वो ओपेक+ के भीतर एक तरह की बेचैनी महसूस कर रहा है. वैश्विक स्तर भू-राजनीतिक उथल-पुथल से अंतरराष्ट्रीय तेल बज़ार प्रभावित होता है और लगातार ऐसा हो भी रहा है. ऐसे में मास्को को अपने मकसद और लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ओपेक+ समूह के बाहर भी हाथ-पैर मारने की ज़रूरत है. इन हालातों में रूस के लिए भारत जैसे साझेदार देश लाभदायक साबित हो सकते हैं और उसे राहत दे सकते हैं.

अगर रूस की ऊर्जा रणनीति 2035 की बात की जाए तो, इसमें हाइड्रोकार्बन की पुरज़ोर वक़ालत की गई है. इस रणनीति के तहत आर्कटिक एलएनजी विस्तार के लिए तकरीबन 60 प्रतिशत निवेश आवंटित किया गया है. रूस की इस ऊर्जा रणनीति का लक्ष्य यमल और ग्यदान जैसे क्षेत्रों से 140 मिलियन टन प्रति वर्ष (MTPA) एलएनजी उत्पादन का है. इसके अलावा, आधिकारिक तौर पर मास्को का लक्ष्य वैश्विक हाइड्रोजन मार्केट के 20 से 25 प्रतिशत हिस्से पर कब्ज़ा करना है. हालांकि, रूस का फोकस ब्लू हाइड्रोजन पर भी बना हुआ है, जिसमें रूस का दबदबा है और इससे जुड़ा उसका इन्फ्रास्ट्रक्चर बहुत मज़बूत है. यानी ग्रीन हाइड्रोजन की तुलना में ब्लू हाइड्रोजन सेक्टर में रूस को विशेषज्ञता हासिल है.

इसके विपरीत, भारत का फोकस ग्रीन एनर्जी यानी हरित ऊर्जा पर सबसे अधिक है. नई दिल्ली इसके लिए मज़बूत इकोसिस्टम बनाने में जुटी है. इसी के तहत भारत में 2.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत से नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन चलाया जा रहा है, जिसके अंतर्गत वर्ष 2030 तक वार्षिक 5 एमएमटी हरित हाइड्रोजन उत्पादन क्षमता विकसित करने का लक्ष्य रखा गया है.

 ज़ाहिर है कि रूस अपने आर्थिक सहयोग में विविधता लाना चाहता है, यानी इसे केवल कच्चे तेल तक सीमित नहीं रखना चाहता है, वहीं भारत ऊर्जा सुरक्षा और हरित ऊर्जा को लेकर बेहद गंभीर है.

ऊर्जा के मामले में रूस इन दिनों जहां पश्चिमी प्रतिबंधों से जूझ रहा है, वहीं चीन की ओर से भी उसे सख़्त रवैये का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में रूस के लिए भारत ऊर्जा निर्यात के लिहाज़ से एक बेहतर विकल्प के रूप में उभरा है. इसी के चलते भारत मास्को के सबसे प्रमुख रणनीतिक ऊर्जा साझेदार के तौर पर स्थापित हो गया है. ऊर्जा सेक्टर में चीन और रूस के रिश्ते बराबरी पर आधारित नहीं हैं, यानी चीन इसमें सिर्फ़ अपना फायदा देखता है. वहीं, भारत और रूस की ऊर्जा साझेदारी की बात की जाए, तो इसमें दोनों देश पारस्परिक लाभ को प्राथमिकता देते हैं. भारत के साथ ऊर्जा साझेदारी ने न केवल रूस को आर्थिक तौर फायदा पहुंचाया है, बल्कि बाज़ार स्थिरता भी प्रदान की है. भारत और रूस की साझेदारी सिर्फ़ कच्चे तेल और गैस तक ही सीमित नहीं रही है, बल्कि जहाज निर्माण, फार्मास्यूटिकल्स और उन्नत परमाणु प्रौद्योगिकी तक फैल चुकी है. इन सेक्टरों में दोनों देश साझा उद्यम स्थापित कर रहे हैं, जो दिखाता है कि भारत और रूस के बीच सहयोग दीर्घकालिक भी है और टिकाऊ भी है. ज़ाहिर है कि रूस अपने आर्थिक सहयोग में विविधता लाना चाहता है, यानी इसे केवल कच्चे तेल तक सीमित नहीं रखना चाहता है, वहीं भारत ऊर्जा सुरक्षा और हरित ऊर्जा को लेकर बेहद गंभीर है. ऐसे में निश्चित तौर पर भारत और रूस के बीच सशक्त होता सहयोग वैश्विक ऊर्जा सेक्टर को एक नया आयाम प्रदान कर रहा है.


मनीष वैद ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में जूनियर फेलो हैं.

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