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जिस प्रकार से रूस की ओर से उत्तर कोरिया के परमाणु क्षमता हासिल करने इरादों को हवा दी जा रही है और खुलकर उसकी मदद की जा रही है, उससे दुनिया भर में परमाणु अप्रसार को लेकर दशकों से की जा रही कोशिशों के पटरी से उतरने का ख़तरा बढ़ गया है.
Image Source: Getty
डेमोक्रेटिक पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया (डीपीआरके या उत्तर कोरिया) और रूस ने दिसंबर 2024 में एक पारस्परिक रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. यह रक्षा समझौता दोनों देशों के बीच रणनीतिक साझेदारी को एक नई ऊंचाई पर ले जाता है. इस समझौते में प्रावधान किया गया है कि बाहरी हमले की स्थिति में अगर दोनों में से किसी को सैन्य मदद की ज़रूरत होगी, तो वे एक-दूसरे की सैन्य सहायता करेंगे. इस समझौते में पश्चिमी देशों के किसी भी प्रतिबंध का मिलकर सामना करने का भी उल्लेख किया गया है.
रूस का यह दोहरा रवैया कहीं न कहीं हथियार नियंत्रण से संबंधित समझौतों के अस्तित्व को ही तार-तार करने का काम करता है, क्योंकि इन समझौते में रूस एक प्रमुख हस्ताक्षरकर्ता देश है, वहीं दूसरी तरफ वह ऐसे समझौतों को ठेंगे पर रखने वाले देश यानी डीपीआरके के पक्ष में खुलकर खड़ा नज़र आ रहा है.
दक्षिण कोरिया के सुरक्षा सलाहकार ने 2024 में बताया था कि रूस ने उत्तर कोरिया को विमान-रोधी मिसाइलें दीं हैं, जिसका मकसद प्योंगयांग की वायु रक्षा प्रणाली को सशक्त करना है. ये भी पता चला है कि मास्को उत्तर कोरियाई सेना की ज़रूरत के लिए तेल एवं दूसरे सैन्य साज़ो-सामान के ज़रिए प्योंगयांग की आर्थिक मदद भी कर रहा है. यानी एक तरफ रूस हथियार अप्रसार से जुड़ी वार्ताओं में शामिल हो रहा है और दूसरी ओर उत्तर कोरिया की हथियारों से मदद कर रहा है. ज़ाहिर है कि रूस का यह विरोधाभासी बर्ताव ऐसी वार्ताओं की गंभीरता को कम करता है. कहने का मतलब है कि अमेरिका के साथ न्यू स्टार्ट संधि यानी परमाणु हथियारों में कमी लाने से जुड़े समझौते एवं वैश्विक स्तर पर निरस्त्रीकरण से जुड़ी वार्ताओं में शामिल होने के साथ-साथ उत्तर कोरिया को घातक हथियारों की आपूर्ति रूस को संदेह के घेरे में लाती है. रूस का यह दोहरा रवैया कहीं न कहीं हथियार नियंत्रण से संबंधित समझौतों के अस्तित्व को ही तार-तार करने का काम करता है, क्योंकि इन समझौते में रूस एक प्रमुख हस्ताक्षरकर्ता देश है, वहीं दूसरी तरफ वह ऐसे समझौतों को ठेंगे पर रखने वाले देश यानी डीपीआरके के पक्ष में खुलकर खड़ा नज़र आ रहा है.
इसके अलावा, अगर परमाणु ताक़त से संपन्न उत्तर कोरिया को रूस जैसे एक दूसरे परमाणु हथियारों से लैस प्रमुख राष्ट्र का खुला समर्थन मिलता है, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि उसकी ताक़त कई गुना बढ़ जाएगी. ऐसे में आस-पास के सभी देशों और परमाणु शक्तियों को ख़ास तौर पर उन देशों को जिन्हें प्योंगयांग से सीधा ख़तरा है, उन्हें अपनी रक्षा और सुरक्षा इंतज़ामों के बारे में नए सिरे से सोचने की ज़रूरत होगी. इन हालातों में यह लाज़िमी है कि जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश जो कि फिलहाल अमेरिकी परमाणु सुरक्षा कवर के तहत हैं, वे परमाणु ताक़त बनने के बारे में गंभीरता से विचार करेंगे. अगर ऐसा होता है, तो क्षेत्रीय स्तर पर परमाणु हथियारों की होड़ शुरू हो जाएगी.
एक समय ऐसा था जब उत्तर कोरिया के साथ सोवियत संघ के रिश्ते बहुत प्रगाढ़ थे, लेकिन शीत युद्ध के बाद दोनों के संबंधों में ठंडापन आ गया था. हालांकि, हाल के वर्षों में रूस और उत्तर कोरिया के रिश्तों में गर्माहट दिखी है. ख़ास तौर पर 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद जब उस पर पश्चिमी देशों ने दबाव बनाया और तमाम प्रतिबंध थोपे, तो उन हालातों का सामना करने के लिए रूस ने उत्तर कोरिया के साथ अपने संबंधों को बढ़ाना शुरू किया.
इन परिस्थितियों को उत्तर कोरिया भी अपने लिए एक अवसर की तरह मानता है. उत्तर कोरिया ने वर्ष 2006 में पहला परमाणु परीक्षण किया था और उसी के बाद से वह अपने हथियारों के ज़खीरे को बढ़ाने और उसमें अत्याधुनिक हथियारों को शामिल करने में जुटा है. उत्तर कोरिया ने ऐसी अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें विकसित की हैं, जो अमेरिका की धरती पर निशाना साधने में सक्षम हैं. प्योंगयांग पर बड़ी संख्या में अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाए गए हैं, बावज़ूद इसके मास्को की ओर से लगातार मिल रही मदद के बल पर उत्तर कोरिया धीरे-धीरे अपनी ताक़त बढ़ा रहा है और मज़बूती के साथ आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है.
आधिकारिक तौर पर रूस परमाणु और अन्य घातक हथियारों के प्रसार के विरोध में है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं है. पश्चिमी देशों की तुलना में इस मामले में रूस का रुख लचर है. यही वजह है कि उसने उत्तर कोरिया पर तमाम वैश्विक प्रतिबंधों के बावज़ूद उसके साथ आपसी रिश्तों को तवज्जो दी है और प्योंगयांग का घातक व आधुनिक हथियारों के विकास से जुड़े कार्यक्रमों को चलाने में पूरा समर्थन किया है. प्योंगयांग किस तरह के हथियारों का विकास कर रहा है और किस स्तर पर इस काम को अंज़ाम दे रहा है, इसके बारे में हालांकि कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है. ख़बरों के मुताबिक़ उत्तर कोरिया के हथियार विकास कार्यक्रमों में रूस की तरफ से भरपूर सहयोग किया गया है. KN-23 बैलिस्टिक मिसाइल उत्तर कोरिया की कम दूरी की मिसाइल है और इसे सोवियत युग की R-17 एल्ब्रस मिसाइल का ही प्रतिरूप माना जाता है. KN-23 को बनाने में रूसी टेक्नोलॉजी और सामग्री का उपयोग किया गया है. KN-23 बैलिस्टिक मिसाइल के क्रूज इंजन में रूस की रोटरी हुड टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया है, जिसकी ख़ासियत एनुलर ग्रूव्स हैं. इसके अलावा, इसके निर्माण में जो अन्य घटकों का इस्तेमाल किया गया है, वे भी रूसी मानकों के अनुरूप हैं. ख़ास तौर पर इस मिसाइल में यूनीफाइड सिस्टम ऑफ डिज़ाइन डॉक्युमेंटेशन और GOST 2.113-75 का उपयोग किया गया है, जिससे साफ पता चलता है कि इसे बनाने में रूसी डिजाइन प्रोटोकॉल को अपनाया गया है. इसके अलावा, इस मिसाइल को बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्रियों की रासायनिक संरचना में रूसी झलक दिखाई देती है, यानी मिसाइल बनाने में जो चीज़ें रूस उपयोग करता है, उन्हीं को उत्तर कोरिया की मिसाइल बनाने में इस्तेमाल किया गया है. KN-23 बैलिस्टिक मिसाइल का फ्यूल टैंक रूसी स्टील ग्रेड्स (12X2NVFA, 19X2NVFA, 21X2NVFA और 23X2NVFA) से बना है. इसके अतिरिक्त, मिसाइल की गैस-डायनेमिक कंट्रोल सरफेस को रूसी ग्रेड 9 टंगस्टन अलॉय से बनाया गया है. ज़ाहिर है कि रूसी एयरोस्पेस और रक्षा उद्योगों में भी इसी का इस्तेमाल किया जाता है.
यही वजह है कि उसने उत्तर कोरिया पर तमाम वैश्विक प्रतिबंधों के बावज़ूद उसके साथ आपसी रिश्तों को तवज्जो दी है और प्योंगयांग का घातक व आधुनिक हथियारों के विकास से जुड़े कार्यक्रमों को चलाने में पूरा समर्थन किया है.
एक और अहम बात यह है कि उत्तर कोरिया ने अपनी KN-23 बैलिस्टिक मिसाइल का पहली बार परीक्षण मई 2019 में किया था. इससे साबित होता है कि रूस ने अपनी इन मिसाइल प्रौद्योगिकियों और सामग्रियों को वर्ष 2023 से पहले ही प्योंगयांग को दिया था. इससे साफ पता चलता है कि रूस और उत्तर कोरिया की रणनीतिक सैन्य साझेदारी हाल-फिलहाल में ही नहीं बनी है, बल्कि पिछले पांच वर्षों से रूस हथियारों के विकास में उत्तर कोरिया की मदद कर रहा है.
वैश्विक स्तर पर परमाणु अप्रसार व्यवस्था को सबसे अधिक नुक़सान रूस और उत्तर कोरिया के रिश्तों से हुआ है. ख़ास तौर पर 1968 की एनपीटी यानी परमाणु हथियार अप्रसार संधि को इससे बहुत झटका लगा है, जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियार नियंत्रण की बुनियाद रही है. रूस ने 1968 में परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए थे. इस संधि में शामिल पांच परमाणु-हथियार संपन्न देशों में से एक रूस भी है और उस पर इस संधि के सिद्धांतों व प्रावधानों को बरक़रार रखने और उनका पालन करने की ज़िम्मेदारी है. हालांकि, रूस ने उत्तर कोरिया के साथ गठबंधन करके एनपीटी की विश्वसनीयता को गिराने का काम किया है. ज़ाहिर है कि उत्तर कोरिया ने वर्ष 2003 में NPT से हाथ खींच लिए थे और उसके बाद से ही वह इस समझौते के मानकों का लगातार उल्लंघन कर रहा है.
रूस के इस रवैये से पूरी दुनिया में यह संदेश गया है कि बड़ी परमाणु ताक़तें भी अपने भू-राजनीतिक फायदे के लिए परमाणु अप्रसार संधि के मापदंड़ों को अपने मुताबिक़ तोड़ मरोड़ सकती हैं. परमाणु अप्रसार समझौते को लागू करने के लिहाज़ से देखें तो रूस का यह रुख न सिर्फ़ कूटनीतिक रुकावटें खड़ा करता है, बल्कि कहीं न कहीं इस अहम संधि को बेमानी बना देता है. इतना ही नहीं, रूस का यह गैरज़िम्मेदाराना रवैया ईरान जैसे कई देशों को, जिनकी परमाणु क्षमता हासिल करने की मंशा है, उन्हें परमाणु अप्रसार से संबंधित वैश्विक मानकों और प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन करने के लिए उकसाता है.
इसके अलावा, अगर रूस जैसी दुनिया की एक बड़ी परमाणु ताक़त द्वारा उत्तर कोरिया में परमाणु तकनीक़ और हथियारों का प्रसार किया जाता है, तो इससे सिर्फ़ कोरियाई प्रायद्वीप में ही हथियारों की होड़ शुरू नहीं होगी, बल्कि विश्व के बाक़ी हिस्सों में भी परमाणु अस्थिरता का माहौल बनेगा और देशों में परमाणु क्षमता हासिल करने की महत्वाकांक्षा पैदा होगी. कहने का मतलब है कि इससे एक ऐसा वातावरण बना सकता है, जहां परमाणु अप्रसार से जुड़ी संधियां एक हिसाब से बेमतलब हो जाएंगी. यानी एक ऐसा संदेश दुनिया में फैलेगा कि इन अहम समझौतों को लागू करने में महाशक्तियों की कोई दिलचस्पी नहीं है और इन संधियों के प्रावधानों पर अमल करो या न करो कोई फर्क नहीं पड़ता है.
पूरी दुनिया में भू-राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है और ऐसे में रूस और उत्तर कोरिया का सैन्य गठजोड़ दिखाता है कि क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर खुद को ताक़तवर बनाने के लिए किस प्रकार तेज़ी से घटनाक्रम बदल रहे हैं और शक्ति के नए केंद्र बन रहे हैं. इसके लिए रूस, उत्तर कोरिया और चीन के बीच बढ़ती नज़दीकी को समझना ज़रूरी है. ज़ाहिर है कि जिस प्रकार से रूस खुलकर उत्तर कोरिया के समर्थन में आ चुका है और जिस तरह से यूक्रेन पर रूसी हमले में उत्तर कोरिया ने अपने सैनिकों और बैलिस्टिक मिसाइलों के जरिए रूसी सेना की मदद की है, उससे कहीं न कहीं उत्तर कोरिया के सबसे बड़े आर्थिक और राजनीतिक शुभचिंतक चीन के साथ रूस के रिश्तों में भी मधुरता आई है और उनकी क़रीबी बढ़ी है. निस्संदेह रूप से रूस, उत्तर कोरिया और चीन का यह गठजोड़ पूर्वी एशिया में परमाणु प्रसार को रोकने के लिए पश्चिमी देशों की ओर से की जा रही कोशिशों को पलीता लगाने का काम करता है. इसके अलावा, रूस और चीन के इस रवैये से प्योंगयांग पर कूटनीति दबाव डालना और प्रतिबंध लगाना भी बेहद जटिल हो गया है.
रूस, उत्तर कोरिया और चीन के बीच प्रगाढ़ होते संबंधों से पड़ोसी देशों पर ख़ासा असर पड़ रहा है. उत्तर कोरिया परमाणु और मिसाइल ताक़त को हासिल करने में ज़ोरशोर से जुटा हुआ है. रूस से मिल रहे तक़नीकी और राजनीतिक सहयोग से उसे अपने परमाणु एवं मिसाइल कार्यक्रमों को गति देने में मदद मिल रही है. ज़ाहिर है कि इससे उसके पड़ोसी देश यानी जापान और दक्षिण कोरिया परेशान हैं और उन्हें ख़तरा महसूस हो रहा है. रूस, उत्तर कोरिया और चीन का यह गठजोड़ और इनकी ओर से जो क़दम उठाए जा रहे हैं, वो देखा जाए तो वैश्विक व्यवस्था के तानेबाने को तहस-नहस करने का काम करते हैं. इतना ही नहीं, इन देशों की हरकतें वैश्विक स्तर पर सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए किए जा रहे सामूहिक प्रयासों की धार भी कुंद कर रही हैं और उनके सामने चुनौती खड़ी कर रही हैं. दक्षिण-पूर्व एशिया की बात की जाए, तो वहां भी इस गठजोड़ का असर दिखाई दे रहा है. इस क्षेत्र में भारत के रूस से निकट रिश्ते हैं और लंबे समय से रक्षा एवं ऊर्जा क्षेत्रों में दोनों के बीच व्यापक सहयोग बना हुआ है. लेकिन अब भारत भी रूस के साथ इस सहयोग में रणनीतिक संतुलन स्थापित करने की समस्या से जूझ रहा है. रूस के सहयोग से भारत में चल रही कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र परियोजना में यह दुविधा साफ दिखाई दे रही है. इसके साथ ही भारत क्षेत्रीय परमाणु ख़तरों, ख़ास तौर पर उत्तर कोरिया की ओर से पैदा होने वाले परमाणु ख़तरों, जिसे रूस का पूरा समर्थन मिला हुआ है, को लेकर बेहद चिंतित है. भारत परमाणु अप्रसार से जुड़ी वार्ताओं में भागीदार रहा है. इन्हीं प्रयासों के तहत भारत ने परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियारों के अप्रसार को लेकर 2024 में भारत-दक्षिण कोरिया परामर्श बैठक की थी और इस संबंध में विचारों का आदान-प्रदान किया था.
इस क्षेत्र में भारत के रूस से निकट रिश्ते हैं और लंबे समय से रक्षा एवं ऊर्जा क्षेत्रों में दोनों के बीच व्यापक सहयोग बना हुआ है. लेकिन अब भारत भी रूस के साथ इस सहयोग में रणनीतिक संतुलन स्थापित करने की समस्या से जूझ रहा है.
वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था और क्षेत्रीय स्थिरता के लिहाज़ से देखा जाए तो रूस और उत्तरी कोरिया के बीच बढ़ती सैन्य साझेदारी न केवल एक सामरिक गठजोड़ बनाने का काम करती है, बल्कि रणनीतिक चुनौतियां भी पेश करती है. रूस जिस तरह से उत्तरी कोरिया की परमाणु क्षमता हासिल करने की हसरतों को हवा दे रहा है, ऐसा करके वह कहीं न कहीं वैश्विक स्तर पर परमाणु हथियार हासिल करने की होड़ पर लगाम लगाने के लिए दशकों से किए जा रहे प्रयासों को तार-तार कर रहा है. जहां तक भारत की बात है, तो वैश्विक स्तर लगातार बदल रही भू-राजनीति, उसे अपनी बढ़ती वैश्विक ज़िम्मेदारियों और लंबे समय से चले आ रहे गठबंधनों व समझौतों के बीच संतुलन स्थापित करने में दिक़्क़तें पेश कर रही है. रणनीतिक लिहाज़ से भारत पूर्व और पश्चिम के बीच एक अहम कड़ी है और ऐसे में भारत एक उल्लेखनीय भूमिका निभा सकता है. यानी भारत परमाणु अप्रसार, रणनीतिक सूझबूझ, हथियारों का संभलकर इस्तेमाल करने एवं बहुपक्षीय भागीदारी के मुद्दे को ज़ोरदार तरीक़े से उठाकर वैश्विक स्तर पर अपनी भूमिका को सशक्त कर सकता है. हालांकि, इसके लिए भारत को सोच-समझकर कूटनीतिक क़दम उठाने की ज़रूरत होगी, साथ ही वैश्विक परमाणु सुरक्षा को लेकर दृढ़ और अटल इरादा दिखाना होगा.
श्रविष्ठा अजयकुमार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रेटेजी एंड टेक्नोलॉजी में एसोसिएट फेलो हैं.
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Shravishtha Ajaykumar is Associate Fellow at the Centre for Security, Strategy and Technology. Her fields of research include geospatial technology, data privacy, cybersecurity, and strategic ...
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