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सत्ता में ट्रंप की वापसी से अमेरिका की ऊर्जा नीति नए सांचे में ढल रही है. इससे भारत को व्यवहारिकता, लचीलेपन और अवसर के बीच संतुलन बनाने को मजबूर होना पड़ा है.
Image Source: Getty
जो बाइडेन के कार्यकाल से दूसरे ट्रंप प्रशासन के दौर में दाख़िल होने की वजह से अमेरिका की ऊर्जा नीति में क्रांतिकारी बदलाव आने की अपेक्षा पहले से थी. ख़ास तौर से इसलिए भी अमेरिका की ऊर्जा सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लक्ष्यों को लेकर क्योंकि दोनों ही राष्ट्रपतियों का नज़रिया एक दूसरे से बिल्कुल उलट है. मोटे तौर पर बाइडेन प्रशासन ने अमेरिकी ऊर्जा योजना निर्माण को हरित/ जलवायु संबंधी प्रतिबद्धताओं से जोड़ा था और इस तरह अहम मूलभूत ढांचे, संघीय सरकार की ख़रीदारी और यहां तक की कामगारों की ज़रूरतों को भी हरित परिवर्तन से संबद्ध कर दिया था. मिसाल के तौर पर बाइडेन प्रशासन ने 2021 में कीस्टोन XL परियोजना को रद्द कर दिया था, जो जलवायु के लिए लड़ने वालों के लिए बहुत बड़ी जीत थी. बाइडेन प्रशासन ने कई कार्यकारी आदेश जारी करके जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने को प्राथमिकता दी थी. इसमें समुद्र में तेल की खुदाई पर पाबंदियां भी शामिल थीं. वहीं दूसरी तरफ़, ट्रंप प्रशासन ने सत्ता में आने के पहले दिन से बाइडेन के दौर की जलवायु नीतियों को पलटने का काम किया. इसमें पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग करना और ऐसे क़दम उठाना शामिल था, जिसमें ऊर्जा क्षेत्र को तेज़ी से हरी झंडी देना शामिल था.
ऊर्जा नीति में ट्रंप द्वारा किए गए बदलाव
ट्रंप के व्हाइट हाउस में वापस आने के साथ ही दुनिया ने उथल-पुथल से निपटने की तैयारी कर ली थी. ये बात अमेरिका और भारत के ऊर्जा संबंधों में तो साफ़ तौर से नज़र आ रही थी. ट्रंप की नीतियां अक्सर भारत जैसे अमेरिका के पारंपरिक साझीदारों से तालमेल के उलट होती हैं. इनकी वजह से साझीदार देशों द्वारा बाइडेन के दौर की अपनी नीतियों में बड़े पैमाने पर परिवर्तन किए जा रहे हैं. इसमें भारत भी अपवाद नहीं है.
ट्रंप प्रशासन जिस तरह अमेरिका की परमाणु शक्ति से बनने वाली ऊर्जा को चार गुना बढ़ाने की बात कह रहे हैं, उससे परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सहयोग को दोबारा तवज्जो मिल सकती है.
भारत के लिए भी अमेरिका के साथ ऊर्जा नीतियों में बदलाव लाना अपेक्षित हो गया है. भारत, लंबे समय से अमेरिका का ऊर्जा साझीदार रहा है. पर, अब उसको उथल-पुथल भरे दौर के अनुरूप बदलाव करने पड़ रहे हैं. ट्रंप के कार्यकाल के पहले 100 दिनों के दौरान, जलवायु परिवर्तन संबंधी नीतियां वापस लेने, टैरिफ में बढ़ोत्तरी और ऊर्जा क्षेत्र में अमेरिका का दबदबा दोबारा क़ायम करने पर ज़ोर देने की वजह से भारत के साथ उसके सहयोग की राह पथरीली हो गई है. बाइडेन के दौर की भारत-अमेरिका सामरिक स्वच्छ ऊर्जा साझेदारी (SCEP) से मिले हौसले की वजह से भारत और अमेरिका ऊर्जा संबंधी एक टास्क फोर्स, राष्ट्रीय हाइड्रोजन रणनीति, बायो-एथेनॉल, इलेक्ट्रिक गाड़ियों और नई तकनीकों के ज़रिए सहयोग को काफ़ी तेज़ी से आगे ले जा रहे थे. ट्रंप ने जीवाश्म ईंधन पर केंद्रित ऊर्जा नीति को अपनाया है, इसकी वजह से पुरानी रूप-रेखा में बदलाव की ज़रूरत है.
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में उनके पहले कार्यकाल में दिखी राष्ट्रवादी ऊर्जा और व्यापार नीतियों की ओर वापसी के संकेत साफ़ दिख रहे हैं. भारत के लिए इसका मतलब एक बारीक़ संतुलन बनाना है. ऊर्जा सुरक्षा और ख़ास तौर से तरल प्राकृतिक गैस (LNG) और तकनीकी सहयोग के क्षेत्र में संवाद बनाए रखने के साथ साथ, भारत को अमेरिका के साथ व्यापार को लेकर उभरते तनावों और जलवायु नीति में अंतर के बीच संतुलन बिठाना होगा. ट्रंप के कार्यकाल के पहले 100 दिन ये संकेत देते हैं कि भारत का ध्यान अब प्रतीकात्मक तालमेल के बजाय ज़्यादा लेन-देन और लचीलेपन को अपनाने पर अधिक है.
राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के 2025 के शुरुआती दिनों में ऊर्जा का एजेंडा, उनके पहले कार्यकाल से काफ़ी मेल खाता है. लेकिन, इस बार दुनिया में उसका विस्तार होता दिख रहा है. उनका प्रशासन जीवाश्म ईंधन के उत्पादन को बढ़ाने पर ज़ोर दे रहा है. संघीय ज़मीनों में तेल की खुदाई के लिए दोबारा इजाज़त देना शुरू कर रहा है और उसने सौर ऊर्जा के उपकरणों और एल्युमिनियम पर नए टैरिफ लगा दिए हैं. उनसे पहले के प्रशासनों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो प्रगति की थी, उसे तेज़ी से पलटा जा रहा है. ‘ऊर्जा क्षेत्र में दबदबे’ पर नए सिरे से ज़ोर देने के लिए जो ज़रूरी अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक ढांचा चाहिए, उसका नितांत अभाव है और ट्रंप प्रशासन का सबसे अलग थलग रुख़ अपनाने का ढर्रा, लंबे समय से दुनिया में चले आ रहे ऊर्जा प्रवाह को अस्थिर बना रहा है.
भारत, अपनी ज़रूरत की LNG का एक बड़ा हिस्सा अमेरिका से आयात करता है. अब ट्रंप के दौर में उसको इसकी क़ीमतों की अनिश्चितता और अप्रत्याशित परिवर्तन की शंका का सामना करना पड़ रहा है. भारत, अमेरिका से तरल प्राकृतिक गैस ख़रीदना सस्ता बनाने, आसानी से ख़रीद और व्यापारिक असंतुलन को कम करने के लिए वहां से LNG ख़रीदने पर आयात शुल्क घटाने पर विचार कर रहा है. मिसाल के तौर पर इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने अमेरिका के हेनरी हब बेंचमार्क से जुड़े ट्राइफिगुरा से LNG ख़रीदने का पांच साल का सौदा किया है. जबकि, GAIL हर साल 58 लाख टन LNG ख़रीदने के दूरगामी सौदे को क़ायम रखे हुए है.
ट्रंप प्रशासन जिस तरह अमेरिका की परमाणु शक्ति से बनने वाली ऊर्जा को चार गुना बढ़ाने की बात कह रहे हैं, उससे परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सहयोग को दोबारा तवज्जो मिल सकती है.
फ़रवरी 2025 में अमेरिका से भारत को कच्चे तेल का निर्यात 357,000 बैरल प्रति दिन के रिकॉर्ड स्तर पर जा पहुंचा था, क्योंकि भारत की रिफाइनरी कंपनियां, रूस के तेल पर अमेरिका के सख़्त होते प्रतिबंधों से बने के लिए विकल्प तलाश रही थीं. हालांकि, तेल की क़ीमतों में गिरावट की वजह से अमेरिका में शेल ऑयल के उत्पादन में कमी आपूर्ति की विश्वसनीयता के लिए ख़तरा बन गई है. 2 मई 2025 को वेस्ट टेक्सस इंटरमीडिएट (WTI) का बेंचमार्क 58.31 डॉलर प्रति बैरल था. भविष्य में आपूर्ति की ऐसी चुनौतियों से जूझने के लिए भारत को तेल ख़रीदने के नए स्रोत तलाशने होंगे. इसके प्रभाव वैसे भी पूरे एशिया में दूर दूर तक नज़र आ रहे हैं. जापान और दक्षिण कोरिया जैसे अमेरिका से LNG ख़रीदने वाले जो बड़े देश, अमेरिका के साथ लंबे समय के सौदों के भरोसे हैं. वो भी अब अपनी ख़रीद की नीतियों में बदलाव कर रहे हैं. इससे भारत के लिए अच्छा मौक़ा है कि वो क्षेत्र में ऊर्जा सहयोग को, ख़ास तौर से मिलकर भंडारण और परिवहन के मूलभूत ढांचे के विकास को आगे बढ़ाए.
ट्रंप की टैरिफ व्यवस्था और अप्रत्याशित व्यापार नीतियों ने ऊर्जा बाज़ार में उथल पुथल को और बढ़ा दिया है. सोलर एनर्जी के उपकरणों पर नए टैरिफ ने भारत के हरित ऊर्जा परिवर्तन को और जटिल बना दिया है. वैसे तो अमेरिका को भारत से सौर ऊर्जा संसाधनों का निर्यात बढ़ गया है. लेकिन अब उन पर 36 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया गया है, जिससे घरेलू स्तर पर प्रोजेक्ट की लागत बढ़ गई है. यही नहीं, वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धताओं से अमेरिका के पीछे हटने की वजह से स्वच्छ ईंधन की साझेदारियों पर से भरोसा हिल गया है. अमेरिका और भारत के बीच सामरिक स्वच्छ ईंधन साझेदारी (SCEP) जैसी प्रमुख पहलों के सामने भी अब विश्वास के मसले खड़े हो गए हैं और बहुपक्षीयवाद की जगह इकतरफ़ा क़दम ले रहे हैं. अमेरिका ने स्वच्छ ऊर्जा के बहुपक्षीय मंचों से ख़ुद को अलग कर लिया है. इससे भी वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे क्षेत्रीय साझीदारों के लिए भविष्य अनिश्चित हो गया है. इससे भारत के लिए अच्छा मौक़ा है कि वो पूरे हिंद प्रशांत क्षेत्र में आगे बढ़कर जलवायु कूटनीति में नेतृत्व देने की भूमिका अदा करे.
इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, असैन्य परमाणु क्षेत्र में सहयोग की उम्मीदें नज़र आ रही हैं. अमेरिका और भारत के बीच ऊर्जा सुरक्षा की साझेदारी के व्यापक ढांचे के तहत दोनों देशों ने लंबे समय से अटके पड़े 123 समझौते को लागू करने की प्रतिबद्धता जताई है. जवाबदेही की चिंताएं दूर करने के लिए भारत, एटॉमिक एनर्जी एक्ट और सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट में तब्दीली लाने पर काम कर रहा है. जिससे बड़े पैमाने पर अमेरिका के रिएक्टर और उन्नत छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर भारत आने का मार्ग प्रशस्त होगा. इस सहयोग में स्थानीयकरण, तकनीक देने और उद्योग की साझा भागीदारी पर ज़ोर दिया जा रहा है. वैसे तो परमाणु ऊर्जा को स्वच्छ ईंधन और सामरिक ऊर्जा तालमेल की दिशा में बड़ा क़दम कहा जाता है. लेकिन, इस राह की बड़ी क़ानूनी और लॉजिस्टिक संबंधी बाधाएं अभी बनी हुई हैं, जिससे इस समझौते को लागू करने और इसकी दूरगामी उपयोगिता पर सवाल खड़े होते रहे हैं. ट्रंप प्रशासन जिस तरह अमेरिका की परमाणु शक्ति से बनने वाली ऊर्जा को चार गुना बढ़ाने की बात कह रहे हैं, उससे परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सहयोग को दोबारा तवज्जो मिल सकती है.
अगर भारत के साथ असैन्य परमाणु सहयोग को कामयाबी से लागू किया गया, तो ये दक्षिणी पूर्वी एशिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में विविधता तलाशने का मॉडल बन सकता है. सिंगापुर वैसे तो अभी असैन्य परमाणु ऊर्जा पर काम नहीं कर रहा है. लेकिन, वो 123 समझौते का लाभ उठाकर परमाणु क्षेत्र में अपने ज्ञान का विस्तार कर रहा है. ये इस बात का संकेत है कि डिफेंस के साथ साथ ऊर्जा सुरक्षा में सहयोग हिंद प्रशांत क्षेत्र में तालमेल का आधार बन सकता है.
आज जब अमेरिका के साथ भारत के सामरिक रिश्ते और गहरे हो रहे हैं, तो भारत को बहुआयामी भविष्य के मुताबिक़ आगे बढ़ना होगा, जहां पर अमेरिका उसके व्यापक समीकरणों का महज़ एक बिंदु हो. दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग के बहुत से अवसर अभी भी बने हुए हैं.
भारत ने ऊर्जा को लेकर ट्रंप प्रशासन की अनिश्चितताओं का जवाब ख़ामोश लचीलेपन से दिया है. अमेरिका को खुलकर चुनौती देने के बजाय भारत अपनी ऊर्जा कूटनीति को तेज़ कर रहा है. भारत LNG के स्रोत में विविधता ला रहा है. मिसाल के तौर पर क़तर एनर्जी और पेट्रोनेट LNG के बीच 20 साल तरल प्राकृतिक गैस आपूर्ति करने का सौदा हुआ है, जो 2028 से लागू होगा. इससे भारत के लिए ऊर्जा की दूरगामी उपलब्धि सुनिश्चित होगी. इसके अलावा भारत ने यूरोपीय संघ (EU) और संयुक्त अरब अमीरात के साथ स्वच्छ ईंधन की साझेदारियों को रफ़्तार दी है. भारत की प्रतिक्रिया ये दिखाती है कि वो टकराव के बजाय सामरिक स्वायत्तता पर बल दे रहा है.
अनिश्चितता के बावजूद भारत अमेरिकी एजेंसियों और कंपनियों के साथ उच्च स्तर का संवाद बनाए हुए है, ताकि मौजूदा परियोजनाओं में कम से कम खलल पड़े. हालांकि, ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत की ऊर्जा नीति साफ़ तौर पर निर्भरता कम करने और विविधता पर ज़ोर देने की है. चूंकि अमेरिका लगातार ऐसी ऊर्जा नीति पर अमल कर रहा है, जिसमें वो अन्य देशों की तुलना में असमान निर्यातक (जैसा कि भारत और अमेरिका के हालिया साझा बयान से ज़ाहिर भी है) बन सके. ऐसे में भारत को लचीली आपूर्ति श्रृंखलाओं, हरित तकनीक की वैकल्पिक साझेदारियों और LNG आपूर्ति के लचीली शर्तों वाले स्थिर सौदों पर अपना दांव लगाना होगा. आज जब अमेरिका के साथ भारत के सामरिक रिश्ते और गहरे हो रहे हैं, तो भारत को बहुआयामी भविष्य के मुताबिक़ आगे बढ़ना होगा, जहां पर अमेरिका उसके व्यापक समीकरणों का महज़ एक बिंदु हो. दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग के बहुत से अवसर अभी भी बने हुए हैं. फिर चाहे वो तकनीक का आदान-प्रदान हो या फिर ग्रीन हाइड्रोजन, कार्बन कैप्चर हो या फिर बैटरी भंडारण व्यवस्था. हालांकि, इन क्षेत्रों में द्विपक्षीय गारंटी के साथ आगे बढ़ना चाहिए. ख़ास तौर से ऐसी गारंटी जिसमें अमेरिका में सियासी अनिश्चितताओं के बावजूद निरंतरता पर ज़ोर हो. इसका एक उम्मीदें जगाने वाला उदाहरण ब्लूम एनर्जी का भारत को सॉलिड ऑक्साइड इलेक्ट्रोलाइज़र देने का है, जिससे उच्च कुशलता के साथ हाइड्रोजन का उत्पादन हो सकेगा. आज जब भारत हाइड्रोजन के पहले बड़े स्तर के प्रोजेक्ट का इंतज़ार कर रहा है, तब तकनीक पर आधारित सहयोग हाइड्रोजन के एक लचीले इकोसिस्टम को आकार देने में मददगार बन सकते हैं, जो भू-राजनीतिक उथल-पुथल से महफ़ूज़ रहेंगे और द्विपक्षीय सहयोग पर केंद्रित होंगे.
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के पहले 100 दिन भारत के नीति निर्माताओं के लिए तल्ख़ सच्चाई भरे रहे हैं. भारत और अमेरिका की ऊर्जा संबंधी साझेदारी वैसे तो मूल्यवान है. लेकिन, इसको समय के साथ बदलना होगा. आज जब अमेरिका हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत को एक अहम सामरिक साझीदार के तौर पर देख रहा है, तो इसमें ऊर्जा क्षेत्र का सहयोग एक अहम नया स्तंभ हो सकता है. आज जब अमेरिका जीवाश्म ईंधन को दोबारा ज़िंदा कर रहा है, तो ट्रंप प्रशासन, भारत को ऊर्जा निर्यात के एक बड़े ठिकाने के तौर पर देखता है. भारत के लिए वैसे तो विविधता लाना अहम होगा, लेकिन, अमेरिका के साथ ऊर्जा सहयोग उसको अन्य प्रमुख क्षेत्रों में टैरिफ के दुष्प्रभाव से बचने में मदद कर सकते हैं.
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Vivek Mishra is Deputy Director – Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation. His work focuses on US foreign policy, domestic politics in the US, ...
Read More +Manish Vaid is a Junior Fellow at ORF. His research focuses on energy issues, geopolitics, crossborder energy and regional trade (including FTAs), climate change, migration, ...
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