संशोधित योजना का ख़ाका
जून 2021 को सरकार ने बिजली वितरण कंपनियों (discoms) की माली हालत सुधारने के लिए रिफॉर्म बेस्ड ऐंड रिज़ल्ट लिंक्ड, रिवैम्प्ड डिस्ट्रीब्यूशन सेक्टर (RRRD) योजना को मंज़ूरी दी. इस योजना का मक़सद (प्राइवेट कंपनियों को छोड़कर) सभी बिजली वितरण कंपनियों का काम-काज बेहतर बनाने और उन्हें वित्तीय रूप से चलाने लायक़ बनाना है. इसके लिए सरकार की तरफ़ से बिजली सप्लाई के मूलभूत ढांचे में सुधार के लिए शर्तों पर आर्थिक मदद दी जाएगी. बिजली वितरण कंपनियों की आर्थिक सहायता के लिए कई वित्तीय पैमाने और बुनियादी न्यूनतम मानक तय किए गए हैं, जिनके आधार पर उन्हें वित्तीय मदद दी जाएगी. सरकार के मुताबिक़, इस योजना को सभी राज्यों पर एक ही मानक के आधार पर लागू करने के बजाय, हर राज्य के लिए तय किए गए अलग अलग एक्शन प्लान के हिसाब से लागू किया जाएगा.
इस योजना के लिए 3.03 ख़रब रुपयों का ख़ाका तैयार किया गया है. इसमें वित्त वर्ष 2021-22 से 2025-26 के दौरान केंद्र सरकार की तरफ़ से 976 अरब रुपयों की आर्थिक मदद देने के बजट आवंटन का अनुमान लगाया गया है.
इस योजना के लिए 3.03 ख़रब रुपयों का ख़ाका तैयार किया गया है. इसमें वित्त वर्ष 2021-22 से 2025-26 के दौरान केंद्र सरकार की तरफ़ से 976 अरब रुपयों की आर्थिक मदद देने के बजट आवंटन का अनुमान लगाया गया है. नई योजना में कई पुरानी योजनाओं, जैसे कि- इंटीग्रेटेड पावर डेवेलपमेंट स्कीम (IPDS), दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना (DDUGJY), जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित प्रदेशों के लिए प्रधानमंत्री विकास पैकेज (PMDP-2015) और प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाअभियान (PM-KUSUM) को इकट्ठा कर दिया गया है. इस योजना को लागू करने में मदद के लिए ग्रामीण ऊर्जा निगम (REC) और ऊर्जा वित्त निगम (PFC) को नोडल एजेंसियां बनाया गया है. इस योजना के जो लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, वो इस तरह से हैं:
- वितरण कंपनियों के कुल तकनीकी और कारोबारी घाटे (AT&C) को वर्ष 2024-25 तक घटाकर 12-15 प्रतिशत के स्तर पर लाना.
- बिजली आपूर्ति करने और उसके बदले में वसूली जाने वाली बिजली की दरों (ACS-ARR) के अंतर को वर्ष 2024-25 तक ख़त्म करना.
- बिजली वितरण कंपनियों को आधुनिक संस्थान के रूप में विकसित करना.
- वित्तीय रूप से टिकाऊ और कामकाजी-तौर पर कुशल सेक्टर का विकास करके ग्राहकों के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली, भरोसेमंद और सस्ती बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करना.
इस योजना के तहत, मदद हासिल करने के योग्य पायी गई बिजली वितरण कंपनियों (Discoms) को बिजली आपूर्ति के मूलभूत ढांचे को अपग्रेड करने और पूरे नेटवर्क में स्मार्ट मीटर और ग्राहकों के लिए प्रीपेड मीटर लगाने के लिए वित्तीय मदद उपलब्ध कराई जाएगी. स्मार्ट मीटर और प्रीपेड मीटर लगाने में आर्थिक मदद करने के अलावा, बिजली वितरण कंपनियों को बाक़ी की मदद तभी मिलेगी, जब वो अपने काम-काज का मूल्यांकन करने के लिए तय फॉर्मूले के तहत कम से कम 60 प्रतिशत अंक हासिल करेंगी. बिजली कंपनियों के काम-काज का ये आकलन उस एक्शन प्लान पर आधारित होगा, जिसे केंद्र सरकार ने इन कंपनियों का घाटा कम करने और काम-काज बेहतर बनाने के लिए मंज़ूर किया है.
ये योजना बिजली वितरण कंपनियों की वित्तीय समस्याओं से निपटने के लिए तकनीक पर बहुत अधिक निर्भर है. प्रीपेड स्मार्ट मीटर लगाने का काम सरकारी और निजी क्षेत्र की साझेदारी (PPP) के ज़रिए पूरा किया जाएगा. सूचना तकनीक और काम-काज की तकनीक के ज़रिए जुटाए गए आंकड़ों के विश्लेषण में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) की मदद ली जाएगी. इसमें स्मार्ट मीटर और प्रीपेड मीटर शामिल होंगे, जिनके आंकड़ों की मदद से बिजली की आपूर्ति और खपत का हर महीने हिसाब लगाया जाएगा. इससे बिजली वितरण कंपनियों को घाटा कम करने, बिजली की मांग का अनुमान लगाने, दिन के अलग-अलग समय में अलग बिजली दर, नवीनीकरण योग्य ऊर्जा (RE) को व्यवस्था का हिस्सा बनाने और आंकड़ों के आधार पर अन्य मूल्यांकन करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने में मदद मिलेगी. व्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए, निगरानी के नियंत्रण और आंकड़े इकट्ठे करने (SCADA) के केंद्र, सभी शहरी क्षेत्रों में स्थापित किए जाएंगे. वहीं, बिजली के वितरण का प्रबंधन करने की व्यवस्था भी हर शहरी केंद्र में की जाएगी. इस योजना के तहत किसानों को बिजली आपूर्ति सुधारने के लिए अलग कृषि फीडर सिस्टम विकसित किया जाएगा. इसके अलावा, इसमें शामिल की गई PM-KUSUM योजना के ज़रिए किसानों को दिन में बिजली आपूर्ति की जाएगी और कृषि फीडर सेवा को सौर ऊर्जा पर निर्भर बनाया जाएगा.
बिजली कंपनियों के काम-काज का ये आकलन उस एक्शन प्लान पर आधारित होगा, जिसे केंद्र सरकार ने इन कंपनियों का घाटा कम करने और काम-काज बेहतर बनाने के लिए मंज़ूर किया है.
मुद्दे क्या हैं?
पिछले कुछ दशकों के दौरान बिजली वितरण कंपनियों की माली हालत सुधारने के लिए कई योजनाएं लागू की गई हैं. RRRD भी उन्हीं योजनाओं की सूची में एक नया नाम भर लग रही है. राज्य विद्युत परिषदों (SEB) या अब जिन्हें वितरण कंपनियां (DISCOM) कहते हैं, उनकी वित्तीय स्थिति ख़राब होने को लेकर चर्चा और उनकी रोकथाम के उपाय करने की बातें, चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74) के दौरान शुरू हुई थीं. उसके बाद से पंचवर्षीय योजना के हर दस्तावेज़ में बिजली कंपनियों की ख़राब होती माली हालत का ज़िक्र मिलता है. अलग-अलग सरकारों ने अपने कार्यकाल में वितरण कंपनियों की आर्थिक सेहत सुधारने और उनमें नई जान डालने की कई योजनाएं लागू कीं. लेकिन, इनमें से लगभग सभी योजनाएं नाकाम हो गईं. हाल के वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा दिए गए आर्थिक मदद के पैकेज, 2013 में लाई गई वित्तीय पुनर्गठन योजना (FRP) और 2017 और 2020 में लायी गई उदय 1 और 2 (उज्जवल डिस्कॉम एश्योरेंस योजनाएं) भी वितरण कंपनियों को मुश्किल से उभारने में नाकाम रहीं. उदय योजना के तहत कारोबारी और तकनीकी कारणों से हो रहे नुक़सान (AT&C) को कम करने और लागत और आमदनी के अंतर को पाटने में कुछ प्रगति तो हुई थी. लेकिन बिजली वितरण कंपनियों के मुनाफ़ा कमाने की स्थिति में पहुंचने की राह में जो चुनौतियां पहले थीं, वो अब भी बनी हुई हैं. जैसा कि रिज़र्व बैंक इंडिया ने भी कहा कि उदय योजना के तहत वितरण कंपनियों के घाटे को जब राज्य सरकारों के बजट का हिस्सा बना दिया गया, तो इससे वितरण के क्षेत्र में सुधार और ऊर्जा आपूर्ति की योजनाओं को हासिल करने के दूरगामी लक्ष्यों पर भी बुरा असर पड़ा.
अलग-अलग सरकारों ने अपने कार्यकाल में वितरण कंपनियों की आर्थिक सेहत सुधारने और उनमें नई जान डालने की कई योजनाएं लागू कीं. लेकिन, इनमें से लगभग सभी योजनाएं नाकाम हो गईं.
ऐसे में जहां बाक़ी योजनाएं असफल रहीं, वहां RRRD योजना के सफल होने की संभावनाएं बहुत कम हैं. इसकी मुख्य वजह यही है कि ये योजना भी अपने से पहले लायी गई अन्य योजनाओं की तरह ही है. इस योजना में भी उन वितरण कंपनियों को वित्तीय प्रोत्साहन देने की बात है, जो अपने काम-काज को सुधारती हैं. हालांकि, योजना बनाने वालों नेदावा किया है कि कि इस योजना में सबको एक ही छड़ी से हांकने वाली बात नहीं है. फिर भी इस योजना में बिजली वितरण कंपनियों के सुधारों को मापने के लिए वही पैमाने रखे गए हैं. बदक़िस्मती से सभी बिजली वितरण कंपनियां एक जैसी नही हैं. RRRD योजना के तहत जिन डिस्कॉम को वित्तीय और तकनीकी कुशलता के पैमानों के तहत अच्छा काम करने वाला बताया गया है, उनके पास ज़्यादा कृषि क्षेत्र और घरेलू ग्राहकों से कहीं ज़्यादा कारोबारी और औद्योगिक ग्राहक हैं. गुजरात की वितरण कंपनियों की रेटिंग A+ की गई है. जो उनके बेहद शानदार काम करने की क्षमता को दर्शाता है. वहीं, तमिलनाडु की बिजली वितरण कंपनी की रेटिंग C की गई है, जिससे ये लगता है कि उसका काम-काज अच्छा नहीं है. लेकिन, इस रेटिंग से दोनों ही राज्यों की कंपनियों के अलग अलग तरह के ग्राहक होने की बात सामने नहीं आ पाती है. गुजरात में घरेलू बिजली का बोझ बस 15 प्रतिशत है. वहीं, तमिलनाडु में घरेलू स्तर पर बिजली का इस्तेमाल, कुल खपत का लगभग 40 प्रतिशत है. गुजरात में सबसे ज़्यादा महंगी बिजली पाने वाले औद्योगिक क्षेत्र की हिस्सेदारी कुल बिजली खपत में 60 प्रतिशत है. वहीं बिहार में औद्योगिक क्षेत्र में कुल बिजली की महज़ 15 फ़ीसद खपत है. बिहार की बिजली वितरण कंपनियों की रेटिंग C+ की गई है, जो C से कुछ ही बेहतर है.
गुजरात में सबसे ज़्यादा महंगी बिजली पाने वाले औद्योगिक क्षेत्र की हिस्सेदारी कुल बिजली खपत में 60 प्रतिशत है. वहीं बिहार में औद्योगिक क्षेत्र में कुल बिजली की महज़ 15 फ़ीसद खपत है.
चूंकि RRRD योजना में तकनीकी और वित्तीय पैमानों पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर दिया गया है. ऐसे में ये योजना अच्छी सेवा से जुड़ी ग्राहकों की चिंताओं को दूर करती नहीं दिखती है. इसमें बिजली कंपनियों द्वारा नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों से बिजली ख़रीदने के बोझ (RPO) को भी शामिल नहीं किया गया है. दक्षिणी राज्यों की वितरण कंपनियों पर ये बोझ अधिक है, क्योंकि नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बिजली के क़रीब 50 प्रतिशत स्रोत उसी क्षेत्र में स्थित हैं. योजना में ये प्रावधान है कि स्मार्ट और प्रीपेड मीटर लगाना, किसी कंपनी के काम-काज पर निर्भर करेगा. इससे मीटर लगाने का काम अटकने या टल जाने का डर है. जबकि स्मार्ट और प्रीपेड मीटर लगाने से कनेक्शन और बिजली का बिल सही बनाने में काफ़ी सुधार लाया जा सकता है. कुशलता हासिल करने का तर्क वहीं दिया गया है जहां पर बिजली आपूर्ति निजी कंपनियां करती हैं, जैसे कि दिल्ली. या फिर उन राज्यों में जहां पर बिजली आपूर्ति निजी कंपनियां फ्रैंचाइज़ी लेकर कर रही हैं, जैसे कि ओडिशा और महाराष्ट्र. मगर, ये निजी कंपनियां ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों में हैं और इन्हें राज्यों की सरकारों से काफ़ी मदद मिलती है. ऐसे में निजी कंपनियों के ज़रिए बिजली सप्लाई करने के मॉडल को ग्रामीण और कृषि क्षेत्र में लागू करने की संभावनाएं सीमित हैं. इसके अलावा केंद्र सरकार की तरफ़ से लायी गई योजनाओं में उन राज्यों की कंपनियों को तरज़ीह दिए जाने की आशंका है, जहां पर उसी दल की सरकार है, जिसकी सरकार केंद्र में है. इससे क्षेत्रीय और अन्य दलों के शासन वाले राज्यों की बिजली कंपनियों के काम को ख़ारिज किए जाने की आशंका भी बनी हुई है.
अब ये समझ से परे है कि अफ़सरशाही की एक और परत से नियामक कार्यों में राजनीतिक दख़लंदाज़ी किस तरह से कम होने वाली है. ये बात तो सबको पता है कि केंद्र में राज करने वाली पार्टी भी राज्यों में चुनाव के वक़्त बिजली की दरें बढ़ाने के दबाव का विरोध करती है.
बिजली वितरण के क्षेत्र में सुधारों पर नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में क्षेत्रीय बिजली नियामक आयोगों के गठन का सुझाव दिया गया है. इसमें केंद्र सरकार की भागीदारी राज्य बिजली नियामक प्राधिकरण से ऊपर होगी. इससे नियमन के काम में राजनीतिक दख़लंदाज़ी कम होगी. अब ये समझ से परे है कि अफ़सरशाही की एक और परत से नियामक कार्यों में राजनीतिक दख़लंदाज़ी किस तरह से कम होने वाली है. ये बात तो सबको पता है कि केंद्र में राज करने वाली पार्टी भी राज्यों में चुनाव के वक़्त बिजली की दरें बढ़ाने के दबाव का विरोध करती है. ये एक ऐसा अहम मसला है, जो वितरण कंपनियों के ‘सुधार’ की सबसे बड़ी बाधा है. जब कोई राजनीतिक दल सस्ती दरों पर बिजली देने का वादा करता है, तो इसका सीधा लाभ उसे मिलने वाले वोटों के तौर पर मिलता है. वहीं, इस लॉलीपॉप से होने वाले नुक़सान का बोझ वितरण कंपनियों पर डाल दिया जाता है, जिससे उनका घाटा बढ़ता ही जाता है और रेटिंग C हो जाती है. जब तक इस बुनियादी हक़ीक़त से नहीं निपटा जाता, तब तक बिजली वितरण कंपनियों का सुधार एक औपचारिकता भर बना रहेगा, जिसे कोई भी गंभीरता से नहीं लेगा.
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