अक्टूबर 2019 तक भारत को पूरी तरह खुले में शौच मुक्त बनाने के लिए स्वच्छ भारत मिशन (SBM) के लॉन्च होने के बाद से सरकारी तंत्र और ग़ैर सरकारी तंत्र निरंतर काम कर रहे हैं। ग्रामीण स्वच्छता पर ध्यान केंद्रित करने का वास्तव में सकारात्मक नतीजा हुआ है। स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण (SBM-G) की वेबसाइट के मुताबिक़, 473,331 गांवों, 472 ज़िलों और 22 राज्यों को खुले में शौच मुक्त का दर्जा मिल गया है (26 सितंबर 2018 तक) [1]। हालांकि, ऐसे कई उदाहरण हुए हैं जहां खुले में शौच मुक्त के दर्जे पर सवाल उठाए गए। इन सवालों में सबसे महत्वपूर्ण सवाल आया 19 सितंबर 2018 को जब भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने गुजरात विधानसभा में एक रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में खुले में शौच मुक्त दर्जे के राज्य सरकार के दावे को ख़ारिज कर दिया गया।
CAG रिपोर्ट के मुताबिक़ गुजरात का मामला
गुजरात सरकार ने 2 अक्टूबर 2017 को राज्य के सभी ज़िलों को खुले में शौच मुक्त क़रार दे दिया। हालांकि, CAG रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014-2017 की अवधि के लिए चयनित 8 ज़िला पंचायतों के तहत 120 ग्राम पंचायतों के परीक्षण में 54,008 परिवारों में से 15,728 परिवारों यानी कुल परिवारों के 29 फ़ीसदी हिस्से को अब भी शौचालय नसीब नहीं है। खुले में शौच मुक्त दर्जे का एलान 2012 में पंचायतों, ग्रामीण आवास और ग्रामीण विकास विभाग द्वारा आयोजित आधारभूत सर्वेक्षण के आधार पर किया गया था। हालांकि, रिपोर्ट में यह भी नोट किया गया है कि इस सूची को 2012 के बाद अपडेट नहीं किया गया था और इसलिए, कई घर जो आधारभूत सर्वेक्षण के अंतर्गत शामिल नहीं थे और जिनके पास शौचालय नहीं थे, उन्हें खुले में शौच मुक्त दर्जे के एलान के वक़्त शामिल नहीं किया गया था।
वलसाड ज़िले के कपराडा ब्लॉक में, स्वच्छता अभियान/निर्मल भारत अभियान के तहत वित्तीय सहायता की मदद से निर्मित 17,646 शौचालयों में से महज़ 223 शौचालय स्वच्छ भारत मिशन के तहत नए बनाए गए थे, जबकि 17,423 शौचालय या तो अनदेखी की वजह से सूख गए या उपयोग में लाने लायक नहीं थे। गांधीनगर के स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के असिस्टेंट कमिश्नर ने कहा कि बंद पड़े इन शौचालयों में से 2,529 शौचालय नए बनाए गए थे और मार्च 2018 से इन्हें इस्तेमाल में लाना था, जबकि शेष निष्क्रिय शौचालयों के निर्माण की प्रक्रिया प्रगति पर थी। CAG रिपोर्ट में इस जवाब को तर्कसंगत नहीं माना गया है क्योंकि बड़ी संख्या में परिवार या तो बिना शौचालय के थे या कई वजहों से इसका इस्तेमाल करने में सक्षम नहीं थे।
खुले में शौच मुक्त का दर्जा और मूल्यांकन मानक
स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) दिशा-निर्देश खुले में शौच मुक्त दर्जे को इस तरह परिभाषित करते हैं- मल संबंधी-मौखिक प्रसार को ख़त्म करना, अर्थात, मल निपटान के लिए सुरक्षित तकनीकी विकल्पों का इस्तेमाल करके पर्यावरण, गांव और हर घर के साथ सार्वजनिक/सामुदायिक संस्थानों में कहीं मल नहीं दिखना।
जबकि सुरक्षित तकनीक के इस्तेमाल का ज़िक़्र है, लक्ष्य और मूल्यांकन मानकों को निर्धारित करने के मामले में फ़ोकस मल संबंधी-मौखिक प्रसार और आस-पड़ोस में मल न दिखने पर होना चाहिए। इस विचार में, निर्माण किए गए शौचालयों की संख्या के आधार पर किसी भी गांव, ज़िला या राज्य को खुले में शौच मुक्त का दर्जा नहीं देना चाहिए, विशेष रूप से तब जब आधारभूत डेटा आमतौर पर दोषपूर्ण और अपर्याप्त पाया जाता है। शौचालय निर्माण पर अत्यधिक ज़ोर की लंबे समय तक आलोचना की गई है और इसे अक्सर उन प्रमुख कारणों में से एक माना जाता है जिसकी वजह से स्वच्छता पर भारत की अधिकांश राष्ट्रीय नीतियां ज़्यादा सफल नहीं हुई हैं।
भारत के गांवों को खुले में शौच मुक्त बनाना एक जटिल काम है। कई धार्मिक, सांस्कृतिक और जाति आधारित कारणों के साथ ही भारतीय लोग मल की बदबू, इसके दिखने और यहां तक कि मौखिक ज़िक़्र के भी ख़िलाफ़ हैं। भारतीय शौच के बाद पानी का इस्तेमाल पसंद करते हैं और टॉयलेट को फ़्लश करते हैं, जिसे पर्याप्त जल आपूर्ति सुनिश्चित किए बिना नहीं बनाया जा सकता है। ये फ़ैक्टर शौचालय निर्माण के उन तकनीकों को सीमित करते हैं जिनका इस्तेमाल किया जा सकता है और इसलिए स्वच्छ भारत मिशन के तहत बने शौचालयों की कई कमियां सामने आ रही हैं। अक्सर लोग इन शौचालयों का इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं, जिसकी वजह से इनकी संख्या न सिर्फ़ सीमित है बल्कि कई शौचालय बिना इस्तेमाल के पड़े हैं। जैसा कि CAG रिपोर्ट में ज़िक़्र है, परीक्षण किए गए 120 ग्राम पंचायतों में से 41 में घरों में पानी का कनेक्शन नहीं है और इसीलिए स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाए गए शौचालय बिना इस्तेमाल के रह गए। 15 गांवों में या तो पानी की अनुपलब्धता और सूखे गड्ढे या अधूरे निर्माण की वजह से शौचालयों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था।
खुले में शौच मुक्त का दावा सरकारें करती हैं, जबकि शहरी स्थानीय निकाय (ULBs) और पंचायती राज (PRIs) मूल रूप से ग़लत लगते हैं, इसके पीछे की सच्चाई का पता लगाना ज़रूरी है। कई वजहें हो सकती हैं, इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण कारण है वो है राजनीतिक फ़ायदा। स्वच्छ भारत मिशन के शुरुआती दिनों में, खुले में शौच मुक्त का स्टेटस राजनेताओं के लिए अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को घर में शौचालय बनाने के लिए प्रोत्साहित करने में इन्सेन्टिव के तौर पर काम करता था। जहां, इंदौर जैसे कुछ ज़िलों में ये सफल हुआ, वहीं कई दूसरी जगहों पर शौचालय निर्माण में ये एक बड़ी रुकावट साबित हुई। उदाहरण के लिए, गुजरात के एक गांव में, विपक्षी नेता ने अपने समर्थकों को शौचालय निर्माण को लेकर हतोत्साहित किया ताक़ि मौजूदा सरपंच के कार्यकाल के दौरान गांव को खुले में शौच मुक्त का दर्जा न मिल सके। खुले में शौच मुक्त का स्टेटस राजनीतिक उपलब्धियों के अनुरूप बन गई है, जो राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखाई दे रही है — मौजूदा सरकार पर्याप्त और विश्वसनीय साक्ष्य के बावजूद स्पष्ट रूप से स्वच्छ भारत मिशन की उपलब्धियों का विज्ञापन कर रही है।
व्यवहार में बदलाव
शौचालय निर्माण के मुक़ाबले स्वच्छता को लेकर लोगों के रवैये/व्यवहार में बदलाव कितना महत्वपूर्ण है, इसके बारे में स्वच्छता विशेषज्ञों के बहुत अधिक शोर के बाद स्वच्छ भारत मिशन ने फ़ोकस और बजटीय प्रावधानों को लेकर लोगों की मानसिकता बदलने पर अपने पूर्ववर्तियों से ज़्यादा ध्यान दिया। हालांकि यह अभी भी पर्याप्त प्रतीत नहीं लगता है, लेकिन व्यवहार परिवर्तन स्वच्छ भारत मिशन के तहत विचार किए गए बेहतर घटकों में से एक बन गया है। तार्किक रूप से, भारत के खुले में शौच की समस्या का एकमात्र समाधान हो सकता है-व्यवहार परिवर्तन। इसके बावजूद, स्वच्छ भारत मिशन के मूल्यांकन और/या ऑडिट में व्यावहारिक संकेतों की पूरी तरह अनुपस्थिति न सिर्फ़ परेशान करनेवाली हैं, बल्कि खुले में शौच मुक्त के दर्जे की विश्वसनीयता को भी कमज़ोर करती हैं। समझा जा सकता है कि व्यवहार में परिवर्तन मात्रात्मक नहीं है जिससे मूल्यांकन करना मुश्किल हो जाता है। हालांकि, व्यवहार परिवर्तन प्रक्रियाओं और नतीजों को ट्रैक करने के लिए कई प्रॉक्सी-संकेतक लगाए जा सकते हैं, जो स्वच्छ भारत मिशन की प्रगति की ज़्यादा सच्ची तस्वीर लाएगा।
इस संदर्भ में और खुले में शौच मुक्त की परिभाषा को मानते हुए, खुले में शौच मुक्त स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए व्यावहारिक, स्वास्थ्य, आर्थिक और शौचालय इस्तेमाल के संकेतकों को शामिल करना केवल शौचालयों की संख्या पर विचार करने से ज़्यादा पक्का होगा।
खुले में शौच मुक्त का दर्जा: फ़ायदा या नुक़सान?
जहां खुले में शौच मुक्त का दर्जा क़ागज़ पर एक उपलब्धि है, वहीं खुले में शौच मुक्त दर्जे का समय से पहले एलान का अपना प्रतिकूल परिणाम भी है। खुले में शौच मुक्त योजना के एलान के बाद, स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत वित्तीय छूट उपलब्ध नहीं है, यहां तक कि योग्य परिवारों के लिए भी नहीं और इसीलिए दूसरी योजनाओं के ज़रिए फ़ंड लाने की ज़रूरत होती है। कई इलाक़ों में कई लाभार्थियों को क़ागज़ पर शौच मुक्त घोषित कर दिया गया, जिसकी वजह से स्वच्छ भारत मिशन के तहत उन्हें वित्तीय छूट नहीं मिल सकती है। जूनागढ़ ज़िले के मंगरोल ब्लॉक में जून-जुलाई 2017 में जुटाए गए गुणात्मक आंकड़ों के मुताबिक़, क़रीब 3,000 घरों में शौचालय नहीं थे, लेकिन पूरे ब्लॉक को उससे काफ़ी पहले खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया गया था। ऐसे में संभावित लाभार्थियों को शौचालय बनाने के लिए पैसा नहीं मिल सका और वो इतने ग़रीब थे कि वो बिना आर्थिक मदद के शौचालयों का निर्माण नहीं कर सके। जहां सरकार ये कहती रहती है कि कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) फ़ंड इस अंतर को भर देंगे, वहीं अचूक साक्ष्य कहते हैं कि अभी लक्ष्य बहुत दूर है। इसके अलावा, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) फ़ंड न तो सरकार केंद्रित है और न ही सीधे तौर पर सरकार के नियंत्रण में है, जो उन्हें सिर्फ़ एक संभावित समाधान बनाती हैं जो हमेशा विश्वसनीय नहीं हो सकता।
निष्कर्ष
हालांकि खुले में शौच मुक्त का दर्जा सरकारों को शेख़ी बघारने के काफ़ी मौक़े देती हैं, लेकिन वास्तविकता बहुत अलग दिखती है। ये हक़ीक़त पूरे भारत में देखी जा सकती है-मुंबई के लोकल ट्रेनों से लेकर गुजरात के तटीय गांवों में घूमते हुए और महाराष्ट्र के आंतरिक इलाक़ों में और ऐसे कई जगहों पर। दुर्भाग्यवश, फ़ैंसी विज्ञापनों, शेख़ी बघारते राजनीतिक भाषणों, सोशल मीडिया और आधिकारिक वेबसाइट के ज़रिए उदार सरकार के दावे ग़लत तस्वीर पेश करते हैं, जो भविष्य में स्वच्छ भारत मिशन के मक़सद को नुक़सान पहुंचा सकता है। गुजरात में CAG की रिपोर्ट ने भी इन सामान्य परीक्षणों/अवलोकनों को सत्यापित किया है, और निश्चित तौर पर ये एक इकलौता मामला नहीं है।
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