बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना ने लैंगिक भेदभाव पर देश का ध्यान केंद्रित तो किया है. लेकिन, अगर इस योजना के मौजूदा स्वरूप में बदलाव नहीं किया जाता, तो लागू करने में गड़बड़ियों और निगरानी की कमी के चलते, इस योजना के अपना मुख्य मक़सद हासिल करने में नाकाम हो जाने का डर है.
सबके लिए बराबर आर्थिक विकास के लिए जीवित बचने और शिक्षा के अवसरों में लैंगिक समानता बेहद ज़रूरी है. ये एक मूल मानव अधिकार सुनिश्चित करने की बुनियादी ज़रूरत भी है. टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDGs) 4 (अच्छी शिक्षा) और 5 (लैंगिक समानता) के ज़रिए लगातार ऐसी बेहतर नीतियां बनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है, जो लड़कियों और महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं शिक्षा के मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर को कम कर सकें.
2011 की जनगणना में 111 मर्दों पर 100 महिलाओं का अनुपात दर्ज किया गया था. हालांकि, हालिया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-21) के मुताबिक़ पिछले एक दशक में ये अंतर कुछ कम हुआ है. आज प्रति 100 महिलाओं पर 109 पुरुषों का अनुपात बचा है और अब ये घटकर 100 महिलाओं पर 108 पुरुष हो गया है. देश में महिलाओं की साक्षरता दर के मामले में भी यही बदलाव देखने को मिला है.
भारत में पितृसत्तात्मक सामाजिक नियमों, जैसे कि बेटों को तरज़ीह देने और महिलाओं को दबाने वाली सामाजिक सत्ता की संरचना लगातार बच्चियों का अस्तित्व बचानें और उनकी पढ़ाई में बाधा बनकर खड़ी होती रही है. इससे लड़कियों को ज़िंदगी में आगे बढ़ने के दौरान कई मुश्किलों से जूझना पड़ता है और पूरे जीवन वो तरक़्क़ी के कई आर्थिक अवसर गंवा देती हैं. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक़ वर्ष 2000 से 2020 के दौरान भारत दुनिया के उन देशों में शामिल हो गया जहां लड़कों और लड़कियों का अनुपात (CSR) बेहद ख़राब है. इसके प्रमुख कारण, गर्भपात कराने को क़ानूनी मान्यता मिलना और 1970 के दशक में गर्भ में ही बच्चे के लिंग का पता लगा लेने वाली तकनीक उपलब्ध होना रहे हैं. 2011 तक बच्चों के लिंग का पता चलने के बाद उनके गर्भपात कराने की तादाद लगातार बढ़ती रही थी. 2011 की जनगणना में 111 मर्दों पर 100 महिलाओं का अनुपात दर्ज किया गया था. हालांकि, हालिया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-21) के मुताबिक़ पिछले एक दशक में ये अंतर कुछ कम हुआ है. आज प्रति 100 महिलाओं पर 109 पुरुषों का अनुपात बचा है और अब ये घटकर 100 महिलाओं पर 108 पुरुष हो गया है. देश में महिलाओं की साक्षरता दर के मामले में भी यही बदलाव देखने को मिला है.
वैश्विक लैंगिक असमानता रिपोर्ट 2022 के मुताबिक़, महिलाओं की शिक्षा के मामले में भारत दुनिया के 146 देशों में 107वें स्थान पर था. शिक्षा के इस पैमाने में प्राइमरी, सेकेंडरी और उच्च शिक्षा में महिलाओं के दाख़िले और उनकी पढ़ाई के स्तर को शामिल किया गया था. 2018 के बाद से भारत की स्थिति में लगातार सुधार आ रहा है. इसकी बड़ी वजह सरकार द्वारा अपनी बड़ी योजना ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ (BBBP) के तहत व्यापक जागरूकता अभियान चलाना रही है. भारत सरकार ने, महिला और बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ मिलकर 2015 में BBBP योजना की शुरुआत की थी. इसका मुख्य लक्ष्य, उन ज़िलों में जन्म के समय लैंगिक अनुपात (SRB) में संख्या की दर से सुधार लाना था, जहां लड़कों और लड़कियों का अनुपात बहुत बिगड़ा हुआ था. योजना के तहत एक साल में इसमें दो अंकों का सुधार लाया जाना था. इसके अलावा इस योजना के ज़रिए पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर के लैंगिक अनुपात को 2014 में 7 से हर साल 1.5 अंक कम करने का लक्ष्य भी रखा गया था. इसके साथ साथ 2018-19 तक सेकेंडरी शिक्षा में लड़कियों की संख्या बढ़ाकर 82 प्रतिशत तक लानी थी. ये योजना शुरू में 161 ज़िलों में लागू की गई थी और आख़िरकार इसे देश के सभी 640 ज़िलों में लागू कर दिया गया था. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना को लड़कों और लड़कियों के बीच भेदभाव दूर करने की एक आक्रामक योजना के तौर पर देखा गया था. क्योंकि जिन 161 ज़िलों में इसे शुरुआत में लागू किया गया था, उनमें से 104 ज़िलों में जन्म के वक़्त बच्चों की लैंगिक असमानता में काफ़ी सुधार दर्ज किया गया था.
एक आलोचनात्मक नज़रिया
इस योजना का मोटे तौर पर सकारात्मक मूल्यांकन ही हुआ है. लेकिन अभी भी योजना में कई कमियां हैं. जैसे कि बजट की योजना और निगरानी की कमी. हिना विजयकुमार गवित की अध्यक्षता वाली एक संसदीय समिति ने दिसंबर 2021 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के ख़ास संदर्भ में पढ़ाई के ज़रिए महिलाओं के सशक्तिकरण’ नाम की एक रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान ये पाया था कि इस योजना के लिए 2016 से 2019 के दौरान 446.7 करोड़ रुपए जारी किए गए थे. इसमें से एक बड़ा हिस्सा, लगभग 78.91 फ़ीसद रक़म को केवल मीडिया में प्रचार अभियान और जागरूकता के मद में ही ख़र्च कर दिया गया था.
हिना विजयकुमार गवित की अध्यक्षता वाली एक संसदीय समिति ने दिसंबर 2021 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के ख़ास संदर्भ में पढ़ाई के ज़रिए महिलाओं के सशक्तिकरण’ नाम की एक रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान ये पाया था कि इस योजना के लिए 2016 से 2019 के दौरान 446.7 करोड़ रुपए जारी किए गए थे. इसमें से एक बड़ा हिस्सा, लगभग 78.91 फ़ीसद रक़म को केवल मीडिया में प्रचार अभियान और जागरूकता के मद में ही ख़र्च कर दिया गया था.
इस संसदीय समिति ने अपनी पड़ताल में पाया था कि इस योजना के तहत फंड का समग्र इस्तेमाल तय मानकों से काफ़ी कम है. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की शुरुआत के बाद से इसका फंड लगातार घटते हुए 848 करोड़ तक आ गया है. इसमें वित्त वर्ष 2020-21 के आंकड़े शामिल नहीं हैं, क्योंकि उस वक़्त देश कोविड-19 महामारी से जूझ रहा था. उस साल, इश योजना के नाम पर राज्यों के लिए 622.48 करोड़ रुपए जारी किए गए थे. लेकिन इनमें से केवल 156.46 करोड़ रुपए ही ख़र्च किए जा सके थे, जो राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आवंटित कुल रक़म का महज़ 25.13 प्रतिशत है. समिति ने ये भी पाया था कि राष्ट्रीय स्तर के मीडिया के बीच जिस तरह इस योजना के प्रचार के लिए भारी रक़म ख़र्च की जा रही थी, वो योजना के अपने प्रावधानों के ख़िलाफ़ थी. जबकि इन प्रावधानों के मुताबिक़ हर ज़िले में 50 लाख रुपए, नई पहल और जागरूकता फैलाने, अलग अलग सेक्टर के बीच सलाह मशविरे और क्षमता के निर्माण, निगरानी का मूल्यांकन और स्वास्थ्य व शिक्षा के मामले में मदद जैसे छह मदों में ख़र्च किए जाने चाहिए थे.
हरियाणा के मामले में 2015 से 2016 के दौरान, जिन 20 ज़िलों में ये योजना लागू थी उनमें से तीन का ऑडिट किया गया था. इस ऑडिट में पाया गया था कि इस योजना के बारे में राज्य स्तर की केवल एक बैठक हुई थी और ज़िला स्तर पर तो एक भी बैठक नहीं हुई.
2017 की नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट में भी इस योजना के फंड के अकुशल बंटवारे और दावों की तरफ़ ध्यान खींचा गया था. CAG की रिपोर्ट में कहा गया था कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना सामाजिक, आर्थिक और सामान्य मामलों में कमज़ोर साबित हुई है. CAG की रिपोर्ट ने पंजाब और हरियाणा की मिसालें देकर कहा था कि दिशा-निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है. फंड का पूरा इस्तेमाल नहीं हो रहा है और काम से जुड़ी बैठकें भी नियमित रूप से नहीं हो रही हैं. हरियाणा के मामले में 2015 से 2016 के दौरान, जिन 20 ज़िलों में ये योजना लागू थी उनमें से तीन का ऑडिट किया गया था. इस ऑडिट में पाया गया था कि इस योजना के बारे में राज्य स्तर की केवल एक बैठक हुई थी और ज़िला स्तर पर तो एक भी बैठक नहीं हुई. ऑडिट में ये भी पाया गया था कि तीनों ज़िलों में जहां स्कूलों को 15 लाख रुपए दिए जाने चाहिए थे, वहीं उन्हें केवल एक लाख रुपए दिए गए. पंजाब में मासिक प्रगति रिपोर्ट और अनियमित बैठकों ने 2015-16 में इस योजना को ठीक ढंग से लागू करने में मुश्किलें पैदा कीं और कुल आवंटित 6.36 करोड़ रुपए की रक़म में से केवल 0.91 करोड़ रुपए का ही उपयोग किया गया.
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का मूल्यांकन
नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनमिक रिसर्च ने BBBP योजना के मूल्यांकन के लिए एक स्टडी की. जिसमें ये पता लगाने की कोशिश की गई थी कि जिन 161 ज़िलों में ये योजना शुरु में लागू की गई थी, क्या वहां उम्मीद के मुताबिक़ बदलाव हुए हैं. इस अध्ययन में भी योजना को लागू करने की प्रक्रिया में कई कमियां पाई गई थीं और लड़कियों के स्कूल में दाख़िले और पढ़ाई जारी रखने की राह में संरचनात्मक बाधाएं सामने आई थीं. नीचे की टेबल में स्कूल स्तर के सूचकांक दिए गए हैं. जैसे कि अपनी पढ़ाई जारी रखने में लड़कियों को जो मुश्किलें आती हैं, उनकी पहचान करने और लड़कियों को कम से कम बारहवीं तक पढ़ाई जारी रखने में मदद के लिए स्कूलों ने क्या किया. सर्वे में शामिल 73.5 प्रतिशत स्कूलों में देखा गया कि उनके ऊपर देख-रेख की ज़िम्मेदारी, साफ़ सुथरे और चालू शौचालयों की कमी, किताबें या यूनीफ़ॉर्म ख़रीद पाने में नाकामी और आवाजाही के सुरक्षित साधनों की कमी जैसे कई कारण हैं, जिससे लड़कियों की पढ़ाई बाधित होती है.
इस अध्ययन में ये पता लगाने की कोशिश की गई थी कि उस समूह के बीच कितनी जागरूकता है, और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना के तहत ज़मीनी स्तर पर लागू की जाने वाली पहलों जैसे कि बालिका मंच[1], सक्रिय स्कूल प्रबंधन समितियां और स्कूलों में लड़कियों के दाख़िले की स्थिति बेहतर करने के लिए स्कूल वापस चलो जैसे विकल्प आज़माने को किस हद तक लागू किया जा रहा है.
14 राज्यों के शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में व्यापक अध्ययन के नतीजों के बाद ये सुझाव दिया गया था कि ज़मीनी स्तर पर निरीक्षण के लिए कर्मचारियों की भर्ती की जानी चाहिए और ज़मीनी स्तर योजना को लागू करने की समीक्षा भी नियमित रूप से होनी चाहिए.
14 राज्यों के शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में व्यापक अध्ययन के नतीजों के बाद ये सुझाव दिया गया था कि ज़मीनी स्तर पर निरीक्षण के लिए कर्मचारियों की भर्ती की जानी चाहिए और ज़मीनी स्तर योजना को लागू करने की समीक्षा भी नियमित रूप से होनी चाहिए.
योजना बेहतर ढंग से लागू करने के लिए सुझाव
डिजिटलीकरण
महामारी के बाद से मोबाइल और इंटरनेट सेवाओं की पहुंच में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है. आज शिक्षा, भुगतान और बातचीत जैसे बुनियादी कामों के लिए तकनीक एक ज़रूरी चीज़ बन गई है. लेकिन अब निगरानी और मूल्यांकन जैसे कामों के लिए भी तकनीक का इस्तेमाल अनिवार्य होना चाहिए. वैसे तो बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना के प्रचार के लिए चलाए जाने वाले मीडिया अभियानों के ज़रिए बेटों को तरज़ीह देने जैसे मुद्दे उजागर करने के शानदार नतीजे निकले हैं. लेकिन, अब नियमित नमूने लेने, योजना लागू करने की तिमाही प्रगति रिपोर्ट लेने जैसे निगरानी के उचित उपाय अपनाए जाने ज़रूरी हैं, ताकि राज्य और ज़िला स्तर पर बेहतर नीतियां बनाकर, लड़कियों की सेहत, उनके अस्तित्व और पढ़ाई पर असर डालने वाली बुनियादी परिस्थितियों में सुधार लाया जा सके.
महिला शिक्षकों की संख्या में बढ़ोत्तरी
अगर पढ़ी लिखी महिलाओं को स्कूल टीचर के तौर पर भर्ती होने को हौसला दिया जाए, तो स्कूलों में लड़कियों के पढ़ाई करने आने की संख्या काफ़ी बढ़ाई जा सकती है. इससे कर्मचारियों के मामले में भी लैंगिक समानता लाई जा सकेगी और लड़कियों को महिला टीचर से बात करने और अपनी दिक़्क़तें सामने रखने में भी सहूलत होगी.
समुदायों की अगुवाई वाली योजनाओं में महिलाओं की भागीदारी
लैंगिक रूप से संवेदनशील योजनाएं लागू करने में महिलाओं की भागीदारी भी बहुत अहम है. सामुदायिक स्तर के कर्मचारी, जो अक्सर आम जनता के बीच काम करते हैं, और अपने समुदाय को अच्छे से जानते समझते हैं, उन्हें ही इस योजना का चेहरा बनाया जाना चाहिए. आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और महिला मंडल जैसे स्थानीय स्तर पर काम करने वाली महिलाओं को इस योजना को लागू करने का अहम हिस्सा बनाया जाना चाहिए.
सामुदायिक जागरूकता की गतिविधियों में लगे ज़मीनी कर्मचारियों का प्रशिक्षण
ज़मीनी स्तर पर तैनात कर्मचारियों को उनकी क्षमता बढ़ाने वाले प्रशिक्षण देकर समुदाय के बीच पहुंच बनाने में मदद मिल सकती है. ये इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि इन्हीं कर्मचारियों को ज़मीनी हक़ीक़त का एहसास होता है. कर्मचारियों को डिजिटल तकनीक की बुनियादी ट्रेनिंग देने के साथ साथ उन्हें लैंगिक समानता के मुद्दे पर भी संवेदनशील बनाया जाए तो इस योजना को ठीक ढंग से लागू करने में काफ़ी मदद मिल सकती है.
साफ़ और इस्तेमाल के लायक़ शौचालयों की व्यवस्था
नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकॉनमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, स्कूल परिसर में टॉयलेट का न होना, लड़कियों के पढ़ाई छोड़ने की एक बड़ी वजह बन जाती है. स्कूलों जैसी सार्वजनिक जगहों पर स्वच्छ शौचालयों की उपलब्धता सुनिश्चित करने से पढ़ाई करने वाली लड़कियों की संख्या काफ़ी बढ़ाई जा सकती है.
ज़िला और राज्य स्तर पर नियमित रूप से बैठकों की कमी के चलते, इस योजना ने पिछले कुछ वर्षों में जो माहौल बनाया है, उससे पीछे हो जाने का डर है. ऐसे में ये ज़रूरी है कि राज्य और ज़िला स्तर पर योजना को लागू करने वाली समितियों में सामुदायिक स्तर के कर्मचारियों की नुमाइंदगी बढ़े.
निष्कर्ष
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना ने बेटियों पर बेटों को तरज़ीह देने की बड़ी समस्या को सामने लाने में बड़ी कामयाबी ज़रूर हासिल की है. लेकिन, अपने मौजूदा स्वरूप में इस योजना के अपना मुख्य मक़सद हासिल करने में नाकाम होने की आशंका है. क्योंकि इसे लागू करने और निगरानी में काफ़ी कमियां हैं. ज़िला और राज्य स्तर पर नियमित रूप से बैठकों की कमी के चलते, इस योजना ने पिछले कुछ वर्षों में जो माहौल बनाया है, उससे पीछे हो जाने का डर है. ऐसे में ये ज़रूरी है कि राज्य और ज़िला स्तर पर योजना को लागू करने वाली समितियों में सामुदायिक स्तर के कर्मचारियों की नुमाइंदगी बढ़े. इस योजना को लागू करके, जो लक्ष्य हासिल किए जाने हैं, उन सूचकांकों में सुधार लाना है, तो इस योजना के तहत उन चुनौतियों को भी समझना और दूर करना होगा, जो पढ़ने वाली लड़कियों को झेलनी पड़ती हैं. जैसे कि शौचालय का न होना. इसके अलावा, इस योजना की नियमित निगरानी और मूल्यांकन की भी मज़बूत व्यवस्था बनानी होगी.
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[1]Balika Manches are platforms created at government schools in which girls from senior secondary and higher senior secondary classes come together, participate and find a solution to issues that confront adolescent girls.
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