यह लेख Comprehensive Energy Monitor: India and the World श्रृंखला का हिस्सा है.
पिछले सौ वर्षों में ऊर्जा परिवर्तन की प्रक्रिया काफ़ी धीमी थीं और बाज़ार द्वारा संचालित थी. बाज़ार के लिहाज़ से देखा जाए तो, वे ऊर्जा उत्पादन औरऊर्जा के उपयोग से होने वाले बाहरी नकारात्मक प्रभावों की अनदेखी करते है, जिसमें स्थानीय प्रदूषण और कार्बन डाइऑक्साइड ("कार्बन") का उत्सर्जनशामिल है. वर्तमान में जो वैश्विक ऊर्जा संक्रमण है, वह पूर्व के बदलावों से बहुत अलग है, क्योंकि यह प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने मेंबाज़ार की नाक़ामी का मुक़ाबला करने के लिए प्राथमिक तौर पर पॉलिसी द्वारा संचालित है. इस प्रकार नीति द्वारा संचालित ऊर्जा संक्रमण ने प्राथमिकवाहक के रूप में बिजली के साथ कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के लिए रिन्यूएबल एनर्जी (RE) पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया है. नवीकरणीयऊर्जा की विस्तारित प्रकृति की वजह से इसे हासिल करने के लिए सोलर पैनलों और वायु टरबाइन जैसे बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर की ज़रूरत होती है, जो क्रमश: सूर्य की प्रकाश ऊर्जा और हवा की काइनेटिक ऊर्जा को ग्रहण करते है और इसे उपयोग में लाए जाने योग्य बिजली के रूप में परिवर्तित करते है. इसकाअर्थ यह है कि जीवाश्म ईंधन से एक यूनिट बिजली का उत्पादन करने की तुलना में नवीकरणीय ऊर्जा से एक यूनिट बिजली पैदा करने के लिए सामानऔर प्राकृतिक संसाधन (मुख्य रूप से भूमि) के रूप में लागत काफ़ी ज़्यादा होती है. RE प्रोजेक्ट्स के लिए ज़मीन की इस बढ़ी हुई मांग और भारत केवनीकरण के संकल्प के अंतर्गत नवीनतम राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) में उल्लिखित भूमि की मांग के बीच कोई सामंजस्य स्थापित नहींकिया गया है.
पिछले दो दशकों के दौरान रिन्यूएबल एनर्जी की दिशा में अपनाई गई नीतियों द्वारा निर्धारित ऊर्जा परिवर्तन ने, देखा जाए तो काफ़ी हद तक बाज़ार द्वारा संचालित या बाज़ार के लिए उपयुक्त एनर्जी ट्रांसीजन में अवरोध पैदा करने का काम किया है. ज़ाहिर है कि बाज़ार हाइड्रोजन के साथ है, जबकि नीतियां प्राथमिक ऊर्जा वाहक के रूप में बिजली के साथ है.
नवीकरणीय ऊर्जा और भूमि
पहले के ऊर्जा संक्रमणों को देखें तो उनमें कंबस्टन यानी दहन (ऑक्सीकरण) से निकलने वाली ऊर्जा में पर्याप्त सुधार और हर एक चरण में हाइड्रोजनकंटेंट में बढ़ोतरी की वजह से कार्बन उत्सर्जन में कमी शामिल रही है. सबसे पहले लकड़ी से ऊर्जा उत्पादन शुरू हुआ था, देखा जाए तो इसका हाइड्रोजनसे कार्बन अनुपात (H/C) लगभग 0.1 था. इसके बाद मार्केट ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयले की ओर मुड़ गया, जिसका H/C अनुपात 1 था, और उसकेबाद तेल से ऊर्जा उत्पादन शुरू हुआ, जिसका H/C अनुपात 2 था और फिर प्राकृतिक गैस से ऊर्जा उत्पादन होने लगा, जिसमें हाइड्रोजन से कार्बन काअनुपात 4 था. H/C अनुपात में इस क्रमबद्ध बढ़ोतरी ने इस विचार को जन्म दिया कि हाइड्रोजन ऊर्जा बाज़ार में "सफल" हो रहा था और यहआख़िरकार ऊर्जा का एकमात्र वाहक बन जाएगा. पिछले दो दशकों के दौरान रिन्यूएबल एनर्जी की दिशा में अपनाई गई नीतियों द्वारा निर्धारित ऊर्जापरिवर्तन ने, देखा जाए तो काफ़ी हद तक बाज़ार द्वारा संचालित या बाज़ार के लिए उपयुक्त एनर्जी ट्रांसीजन में अवरोध पैदा करने का काम किया है. ज़ाहिर है कि बाज़ार हाइड्रोजन के साथ है, जबकि नीतियां प्राथमिक ऊर्जा वाहक के रूप में बिजली के साथ है.
पहले के प्रत्येक ऊर्जा संक्रमण में प्रमुख ईंधन की ग्रेविमेट्रिक एनर्जी डेंसिटी (ऊर्जा सामग्री प्रति इकाई वजन) या वॉल्यूमेट्रिक एनर्जी डेंसिटी (ऊर्जासामग्री प्रति इकाई मात्रा) में वृद्धि भी शामिल थी. उदाहरण के लिए, कोयले के ऊर्जा घनत्व 22-25 MJ/kg और तेल उत्पादों के ऊर्जा घनत्व 42 MJ/kg की तुलना में सूखी लकड़ी का ऊर्जा घनत्व लगभग 17 मिलियन जूल प्रति किलोग्राम (MJ/kg) है. कच्चे तेल के ऊर्जा घनत्व 45 GJ (गीगाजूल)/m3 की तुलना में प्राकृतिक गैस का ऊर्जा घनत्व 35MJ/क्यूबिक मीटर (m3) है, जो लगभग 1000 गुना अधिक है, यही वजह है कि प्राकृतिकगैस के परिवहन की तुलना में तेल का परिवहन बहुत सस्ता है. हाइड्रोजन उच्चतम में से एक 143 MJ/kg के ग्रेविमेट्रिक ऊर्जा घनत्व वाला ऊर्जा वाहकहै, लेकिन जेट ईंधन (केरोसिन) के वॉल्यूमेट्रिक ऊर्जा घनत्व 33 MJ/l की तुलना में इसका वॉल्यूमेट्रिक ऊर्जा घनत्व 0.01 MJ/लीटर (l) है, जो कि3000 गुना से अधिक है और एविएशन के लिए ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का उपयोग करने में चुनौतियां पेश करता है.
भारत में सौर परियोजनाओं के लिए उतनी ही भूमि से 27 से 30 हेक्टेयर अप्रबंधित जंगल उजड़ जाएगा. यदि इस दिशा में कार्य किया जाता है, तो यह भारत के NDC संकल्पों में से एक के ख़िलाफ़ जाएगा, जिसकी बहुत कम चर्चा की जाती है.
प्रभावशाली पर्यावरण वैज्ञानिक वैक्लव स्मिल विभिन्न प्रकार के ऊर्जा स्रोतों की तुलना करने के लिए वाट्स प्रति वर्ग मीटर (W/m2) में ऊर्जा प्रवाहप्रति यूनिट सरफेस (पानी या भूमि) के रूप में व्यक्त पावर डेंसिटी का उपयोग करते हैं. पावर डेंसिटी के लिए उनकी विस्तृत गणना में खनन और ड्रिलिंगजैसे अपस्ट्रीम कार्यों के लिए आवश्यक भूमि के साथ-साथ भंडारण (विशेष रूप से कोयला) और डाउनस्ट्रीम गतिविधियों जैसे अपशिष्ट निपटान के लिएज़रूरी ज़मीन शामिल है. वैक्लाव स्मिल ने सऊदी अरब जैसे तेल से समृद्ध देशों में तेल निकालने के लिए कच्चे तेल की अधिकतम पावर डेंसिटी 65,000 W/m2 और कम तेल समृद्ध क्षेत्रों में लगभग 500 W/m2 होने की गणना की. प्राकृतिक गैस के लिए पावर डेंसिटी 200 W/m2 से 2000 W/m2 केबीच और कोयले के लिए 100 W/m2 से 1000 W/m2 के बीच होती है. रिन्यूएबल एनर्जी संसाधनों की पावर डेंसिटी अनुमानित रूप से काफ़ी कमहोती है, जैसे कि यह सोलर के लिए 4-10 W/m2 (फोटोवॉल्टिक और कंसंट्रेट सौर ऊर्जा दोनों), विंड के लिए 0.5-1.5 W/m2 और बायोमास के लिए0.5-0.6 W/m2 है. ऐसे में जबकि पिछले ऊर्जा संक्रमण उच्च पावर डेंसिटी वाले ऊर्जा स्रोतों की ओर चले गए, वर्तमान में चल रहा ऊर्जा संक्रमणवैश्विक ऊर्जा प्रणाली को अनुमानित तौर पर कम ऊर्जा घनत्व वाले ईंधन की ओर स्थानांतरित करने का एक प्रयास है. इसका अर्थ यह है कि RE-आधारित एनर्जी सिस्टम के लिए नया बुनियादी ढांचा न सिर्फ़ बहुत बड़ा होगा, बल्कि भारत में किसी और उपयोग में आने वाली ज़मीन को भी घेरेगा, विशेष रूप से वनीकरण के लिए आवश्यक भूमि को.
प्रमुख समस्याएं
तथ्यात्मक अध्ययनों के मुताबिक़ ऐसे अनुकूल इलाक़े जहां साल भर सूर्य की भरपूर रोशनी रहती है, वे भारत के बंजर भूमि में स्थित है. लेकिन देखा जाए, तो भारत में जो भी बड़े सोलर प्रोजेक्ट है, उनमें से केवल 11-12 प्रतिशत परियोजनाएं ही कई अनुमानों के मुताबिक़ भारत में रेगिस्तानों और शुष्कइलाकों में मौज़ूद है. सोलर प्रोजेक्ट लगाने वालों ने बंजर भूमि पर भी कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया है. ज़ाहिर है कि बंजर भूमि में परियोजनाओं को स्थापितकरना बेहद ख़र्चीला होता है, क्योंकि ये दुर्गम क्षेत्र होते हैं और ज़रूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं होने की वजह से प्रोजेक्ट की लागत बढ़ जाती है. यहां पैदा होनेवाली बिजली को उपभोक्ता केंद्रों तक ले जाने के लिए आवश्यक ट्रांसमिशन इन्फ्रास्ट्रक्चर भी लागत को बढ़ाने का काम करता है. लेकिन जब सोलरप्रोजेक्ट्स के लिए बंजर भूमि का उपयोग किया जाता है, तो छोटी-छोटी ज़मीन रखने वालों पर ख़र्च की गई सामाजिक-आर्थिक लागत के साथ-साथRE परियोजनाओं के लिए कृषि भूमि को बदलने में शामिल इकोलॉजिकल कॉस्ट कम होती है. अक्सर ऐसा कहा जाता है कि भारत में 175 GW (गीगावाट) नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्य को हासिल करने के लिए 55,000 वर्ग किलोमीटर (km2) से 125,000 वर्ग किलोमीटर भूमि की आवश्यकताहै. भूमि का यह अनुमान विंड एनर्जी प्रोजेक्ट्स के लिए 2 MWp (Megawatt Peak)/km2 की पावर डेंसिटी और सोलर फोटोवोल्टिक परियोजनाओंके लिए 26 MWp/km2 की पावर डेंसिटी पर आधारित है. हालांकि, यह अनुमानित क्षेत्र कोई बहुत बड़ा नहीं है क्योंकि यह देश के कुल सरफेस एरियाका मात्र 1 से 3 प्रतिशत है, लेकिन यह बंजर भूमि का लगभग 50 से 100 प्रतिशत है. एक अन्य अध्ययन के मुताबिक़ यदि भारत में 78 प्रतिशत बिजलीउत्पादन सोलर पीवी द्वारा किया जाता है और इसमें लगभग 3 प्रतिशत वर्ष 2050 में रूफटॉप सौर पीवी से प्राप्त होता है, तो इसके लिए जो भूमि क्षेत्रकी ज़रूरत होगी, वो वर्ष 2010 के कुल शहरी भूमि क्षेत्र के 137-182 प्रतिशत से अधिक होगी, जबकि भूमि की यह ज़रूरत वर्ष 2050 में फसल क्षेत्र कीअधिकतम 2 प्रतिशत होगी. अध्ययन में यह भी पाया गया है कि सोलर पीवी पैनलों के प्रत्येक 100 हेक्टेयर के लिए, दुनिया भर में 31 से 43 हेक्टेयरऐसे जंगलों को उजाड़ा जा सकता है, जिनकी एक लिहाज़ से उचित देखरेख नहीं की जाती है. भारत में सौर परियोजनाओं के लिए उतनी ही भूमि से 27 से 30 हेक्टेयर अप्रबंधित जंगल उजड़ जाएगा. यदि इस दिशा में कार्य किया जाता है, तो यह भारत के NDC संकल्पों में से एक के ख़िलाफ़ जाएगा, जिसकी बहुत कम चर्चा की जाती है. NDC के इस संकल्प के तहत वर्ष 2030 तक नए वन क्षेत्र विकसित करके और वृक्षों को लगाकर कार्बनडाइऑक्साइड इक्विवेलेंट (CO2eq) 2.5 से 3 बिलियन टन (3BT) का "अतिरिक्त कार्बन सिंक" बनाना है.
लैंड गैप रिपोर्ट 2022 के मुताबिक़ भारत के वनीकरण के संकल्प को पूरा करने के लिए देश के 56 प्रतिशत भूमि क्षेत्र को नए वन बनाने के लिए समर्पितकरना होगा. यह संयुक्त राज्य अमेरिका (14 प्रतिशत) और चीन (2 प्रतिशत) जैसे बड़े देशों के वनीकरण संकल्पों के लिए ज़रूरी भूमि की तुलना मेंकाफ़ी अधिक है. अन्य अनुमानों के मुताबिक भारत में 30 से 40 मिलियन हेक्टेयर (M ha) क्षेत्र पर वनीकरण करने के लिए जितनी भूमि की जरूरत है, वह बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे तीनों राज्यों के कुल क्षेत्रफल के बराबर है. ज़ाहिर है कि वनीकरण को लेकर योजना बनाने से पहले इस मुद्देपर अच्छे से विचार-मंथन नहीं किया गया है और यह भारत के रिन्यूएबल एनर्जी स्थापना लक्ष्यों के साथ भी मेल नहीं खाता है. अगर अक्षय ऊर्जापरियोजनाओं और वनीकरण के बीच भूमि हासिल करने की प्रतिस्पर्धा को क़रीब से देखें, तो यह स्पष्ट है कि इसमें RE प्रोजेक्ट्स आगे रहेंगे, क्योंकि इन्हेंबड़े-बड़े औद्योगिक और आर्थिक हितों का समर्थन मिला हुआ है. लेकिन नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने की ज़ल्दबाज़ी से देश का वन क्षेत्र दांवपर लग सकता है, जो देखा जाए तो कतई ठीक नहीं है और सैद्धांतिक रूप से भारत के लगभग 3 बिलियन टन के वार्षिक कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पानेमें एक बड़ा अवरोध साबित हो सकता है.
स्रोत: वर्ल्ड बैंक डेटाबेस
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