पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी मॉडल) को प्राइवेट/निजी सेक्टर के संसाधनों और दक्षता का व्यापक रूप से इस्तेमाल करने और सार्वजनिक बुनियादी ढांचों एवं सेवाओं के सफल कार्यान्वयन के लिए व्यापक पैमाने पर स्वीकृति प्राप्त हुई है.
ऐसे किसी भी व्यवस्था में, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों ही एक विशिष्ट ताकत के साथ आते हैं और जोख़िम एवं ज़िम्मेदारी को एक साथ साझा करते हैं. लेकिन, हाल के दिनों में, विश्व भर के कई देशों नें भी पीपीपी मॉडल की प्रभावशीलता पर सवाल खड़े किए हैं. नगरपालिका के मूलभूत ढांचे जैसे जल, विशेषतः आलोचना के दायरे में आ गई है, जिस वजह से ‘पुनर्पूँजीकरण या री-म्यूनिसिपिलाइज़ेशन का जन्म हुआ है.
पीपीपी की परंपरा सदियों पहले से रही है. संयुक्त राज्य ब्रिटेन (यूके), संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस), और चीन ने राजस्व धाराओं के निर्माण के लिये, इस मॉडल की मदद से हाइवे और पुल आदि का निर्माण किया है.
पीपीपी की परंपरा सदियों पहले से रही है. संयुक्त राज्य ब्रिटेन (यूके), संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस), और चीन ने राजस्व धाराओं के निर्माण के लिये, इस मॉडल की मदद से हाइवे और पुल आदि का निर्माण किया है. यूके में थैचर सरकार, 1980 के दशक के दौरान पीपीपी को अपने चरम पर ले गई. सार्वजनिक उद्यमों/ उद्योग एवं उपयोगिताओं का पूरा पर्दाफाश किया गया और फिर उसका स्वामित्व एवं संचालन, सार्वजनिक सेक्टर से निजी सेक्टर में कर दिया गया. 1990 के बाद से, विश्व बैंक ने पूरी सक्रियता से जल उपयोगिता के निजीकरण पर ज़ोर दिया.
खासकर के भारत में, नगरपालिका के बुनियादी ढांचों में पीपीपी की उपस्थिति काफी ज्य़ादा महसूस की गई है. यूएलबी (शहरी स्थानीय निकाय) बड़ी संख्या में सार्वजनिक वस्तु एवं सेवा प्रदान करने के लिये ज़िम्मेदार हैं. इनमें से ज्य़ादातर कार्यक्रमों को उचित तरीके से वित्त पोषित नहीं किया गया है. इसके अलावा, इनमें क्षमता की उपलब्धता भी अपर्याप्त है. इस स्थिति से बाहर आने का माकूल तरीका है यूएलबी से बाहर के संस्थानों के साथ साझेदारी तैयार करने की, जिनके पास यूएलबी के एक या उससे अधिक कमियों को पूरा करने की योग्यता एवं क्षमता है.
भारत में, जहां एक ओर रोड और परिवहन के क्षेत्र में पीपीपी बड़ी सफलता हासिल कर पाने में सफल रही है, वहीं हवाईअड्डों और विमानन, बंदरगाहों और रेलवे जैसे सेक्टर में, नगरपालिका के बुनियादी ढांचों और सेवाओं में इस तरह की उपलब्धि हासिल नहीं हुई है.
हालांकि, भारत में, जहां एक ओर रोड और परिवहन के क्षेत्र में पीपीपी बड़ी सफलता हासिल कर पाने में सफल रही है, वहीं हवाईअड्डों और विमानन, बंदरगाहों और रेलवे जैसे सेक्टर में, नगरपालिका के बुनियादी ढांचों और सेवाओं में इस तरह की उपलब्धि हासिल नहीं हुई है. इससे पहले, इस प्रकार के बुनियादी ढांचे या सेवाओं पर पब्लिक मोनोपोली मानी जाती थी. हालांकि, शहरीकरण का विस्तार सतत् जारी है, और इसके फलस्वरूप, भारत के कुल शहरी आबादी का एक काफी बड़ा हिस्सा रखते हुए, मेट्रोपोलिटन या महानगरीय शहरों (10 लाख से ज्य़ादा की आबादी) वाले शहरों में वृद्धि हुई है. इसकी वजह से, नगरपालिका की खूबियों वाले इंफ्रास्ट्रक्चर की मांग लगातार बढ़ती जा रही है, और उसे पूरा करने के लिए प्रशासन बाध्य हो रही है. और इसी वजह से, शहरीकरण की प्रक्रिया लगातार रोज़गार मुहैय्या करा पाने में निरंतर सफल हो रही है.
नकदी की भारी कमी एवं क्षमता की अनुपलब्धता की वजह से नगरपालिकाओं द्वारा नगरपालिका में रोज़गार की क्षीण संभावना होने के बावजूद, मुख्य नगरपालिका सेवा रूपी इंफ्रास्ट्रक्चर (जैसे जल, सिवरेज, ठोस अपशिष्ट, यातायात और परिवहन) के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागेदरी आश्चर्यजनक रूप से काफी कम है. उदाहरण के लिए, देश के भीतर दशकों से, जल आपूर्ति के निजीकरण के प्रयास में काफी धीमी प्रगति देखी गई है. पुणे, गोवा जैसे शहरों में, स्थानीय राजनैतिक विरोध, गारंटी की कमी, और कमज़ोर आंतरिक वित्त-व्यवस्था की वजह से, पीपीपी मॉडल के अंतर्गत प्रयास किए गए कई जल परियोजनाओं को बीच अधर में ही छोड़ दिया गया है. नगरपालिका के बुनियादी ढांचों के अन्य प्रमुख क्षेत्र, भी बिल्कुल उसी तरह की कहानी बयां करते हैं. ULB के स्तर के कई पीपीपी छोटे और प्रमुख नगरपालिका सेवाओं से बाहर होते हैं, ये तब हो रहा है जबकि हमारे यहां मेट्रोपोलिटन शहरों और दूसरे यूएसबी की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है.
प्राइवेट पार्टिसिपेशन या निजी भागीदारी को उच्चतम स्तर तक ले जाने के लिए ये ज़रूरी है कि इस तरह के अनुबंध लंबी अवधि तक के लिए किये जायें, जिनमें बड़ा निजी निवेश और व्यापक निजी जवाबदेही और ज़िम्मेदारियों का होना आवश्यक है. इसके साथ ही, उन्हें पब्लिक सिस्टम से प्राइवेट तक बेहतर राजस्व प्रवाह और शुल्क की अदायगी के लिए और भी ज्य़ादा अधिकारों के हस्तांतरण के साथ आने की आवश्यकता है, जो पहले की तुलना में और अधिक शक्तिशाली है, ताकि निजी ऑपरेटर, द्वारा किए गए निवेश की वसूली की जा सके और अधिक मुनाफ़ा कमाया जा सके. नगरपालिका प्रशासन इन दोनों ही के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है. वे सत्ता और नियंत्रण को त्यागने के लिये बिल्कुल भी सहज नहीं है. वे इस बात को लेकर भी असहज हैं कि कई दशकों से उनके द्वारा प्रोत्साहित किए गए रॉक बॉटम या निम्नतम दरों की कीमत के माहौल में बढ़ाए जाने वाले कीमतों की वजह से उन्हें जनता के गुस्से का खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा. संयुक्त रूप से इन सभी कारणों के कारण ही नगरपालिका ढांचों के लिए पीपीपी मॉडल को एक मज़बूत विकल्प बनने से रोक रखा है.
पुन: नगरपालिकाकरण
वहीं दूसरी तरफ, किसी हद तक पीपीपी विरोधी स्थितियों ने भी अपनी ज़मीन तैयार कर ली है. वे देश एवं शहरें जो कि निजीकरण के प्रथम पायदान पर थे, निजी क्षेत्र की वकालत करने लगे हैं. वे ऐसा निजीकरण की लागत में भारी वृद्धि को नियंत्रित करने और सुनिश्चित गुणवत्ता एवं दक्षता प्रदान कर पाने में निजी क्षेत्र की अक्षमता को दूर करने के लिये निजी क्षेत्र को इन-हाउस सेवा वितरण, जिसे कि “पुन:नगरपालिकाकरण” के नाम से परिभाषित करके कर रहे हैं और उसके पक्ष में बोल रहे हैं. आम जनता की पारंपरिक दुर्बलता की आड़ में यूएलबी काफी तेज़ी से कॉरपोरेटाइज़ेशन की ओर बढ़ रही है, ताकि – सार्वजनिक निगम भी व्यवसायिक बन सके.
उदाहरण के लिए, 2010 में, पेरिस ने जल सेवाओं के निजीकरण को रद्द कर दिया और पुनःसार्वजनिक स्वामित्व की ओर यह सोचते हुए मुड़ गए कि सार्वजनिक स्वामित्व के अंतर्गत जल और भी सस्ते दर पर उपलब्ध रह सकेगी. आम जनता द्वारा चलाए गए विरोध अभियानों के उपरांत बर्लिन एवं जर्मनी के हैम्बर्ग जैसे शहरों ने सत्ता के निजीकरण के विचार को ठंडे बस्ते में डाल दिया. पुन:नगरपालिकाकरण मात्र यूरोप तक ही सीमित नहीं थी. इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, जर्मनी, नॉर्वे, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, चिली, और कनाडा जैसे देशों ने 1600 शहरों वाले कुल 45 देशों में सार्वजनिक सेवाओं के कुल 835 मामले दर्ज किए है. एक तरफ जहां जल, परिवहन, अपशिष्ट प्रबंधन, आवास और बिजली आदि - चंद नगरपालिका क्षेत्रों में चिन्हित किए गए है, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और प्रबंधन क्षेत्रों में भी उसी तरह का पुन:नगरपालिकाकरण किया गया है.
उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में, पिछले 40 वर्षों में वैसी कई स्वास्थ्यसेवा प्रणालियों का निजीकरण किया गया था, जो निजी क्षेत्र के लचीलेपन एवं रोगी-केंद्रित नज़रिए से और शक्ति की मांग कर रहे थे. हालांकि, एक सर्वेक्षण में ये पाया गया है कि निजीकरण ने लागत के साथ-साथ लाभ में भी काफी बढ़ोत्तरी की है. इसके अलावा, निजीकृत स्वास्थ्य सेवा सुविधाकेंद्र भी दिए जाने वाले स्वास्थ्य सुविधाओं में अतिरिक्त लाभ प्रदान करने योग्य रोगियों को प्राथमिकता देकर, दिये जाने वाली सुविधाओं को और अधिक निर्धारित करके, रोगियों को समय-पूर्व स्वास्थ्य केंद्रों से छुट्टी देकर और कर्मचारियों की छंटनी करके, मरीज़ों का चुनिंदा सेवा करते हैं. इन सभी कारणों ने मरीजों के सामूहिक स्वास्थ्य पर काफी बुरा असर डाला है जो व्यापक स्तर पर मरीज़ों के दयनीय स्वास्थ्य हालातों के लिये ज़िम्मेदार है.
मुख्य या मूलभूत नगरपालिका सेवाओं को भारत में सार्वभौमिकता एवं सामर्थ्य के परिप्रेक्ष्य में काफी व्यापक पैमाने पर देखा जाता है. इसलिए, सभी पीपीपी प्रयासों को इस नज़रिए से देखा जाना चाहिए कि उनका निर्धन वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा.
भारत में, प्रमुख रूप से नगरपालिका के बुनियादी ढांचों अथवा अवसंरचना में खुद को स्थापित कर पाने के लिए पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट मॉडल) अब तक संघर्षरत है. इसमें सबसे बड़ी अड़चन यह है कि एक तरफ जहां निजीकरण से गुणवत्ता एवं दक्षता लायी जा सकती है, वहीं इक्विटी या न्यायसंगत इस्सेदारी के मुद्दे को संभाल पाने में वो अभी भी अक्षम है. मुख्य या मूलभूत नगरपालिका सेवाओं को भारत में सार्वभौमिकता एवं सामर्थ्य के परिप्रेक्ष्य में काफी व्यापक पैमाने पर देखा जाता है. इसलिए, सभी पीपीपी प्रयासों को इस नज़रिए से देखा जाना चाहिए कि उनका निर्धन वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा. यहाँ पर भी, रणनीति, अव्यावहारिक परियोजनाओं को सही तरीके से व्यावहारिक परियोजनाओं के साथ जोड़कर, व्यवहारिक बनाया जा सकता है. भारत सरकार की व्यवहार्यता अंतर निधि योजना, इसके काफी काम आ सकती है. सामाजिक क्षेत्र के परियोजनाएं जैसे कि जल, अपशिष्ट जल, ठोस अपशिष्ट, और स्वास्थ्य एवं शिक्षा परियोजनाओं में उच्च वित्तीय सहायता (परियोजना की कुल लागत का 60 प्रतिशत) अब उपलब्ध है. इन क्षेत्रों में पीपीपी की पूरी शृंखला संभव है. हालांकि, इन क्षेत्रों में ज्य़ादातर यूएलबी की क्षमताओं में कमी है. किसी विशिष्ट नगरपालिका सेवाओं के लिए एक आदर्श संविदात्मक दस्तावेज़ तैयार करना और छोटे-छोटे यूएलबी के प्रबंधन के लिए एक राज्य-स्तरीय संगठन बनाना काफी अच्छा विचार हो सकता है.
एक तरफ जहां पश्चिमी शहरों ने ‘ री-म्यूनिसिपिलाइज़ेश या पुन:नगरपालिकाकरण’ का मार्ग अपना लिया है, वो विकल्प भारतीय यूएलबी को हासिल नहीं है. ऐसा कमज़ोर इन-हाउस तकनीकी क्षमता एवं वित्त व्यवस्था की वजह से है. मौजूदा समय भी इनके पक्ष में नहीं है, क्योंकि लगातार बढ़ती आबादी एक विशाल बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर का बोझ डालती है, जिसे पूरा कर पाने में वे पूरी तरह से अक्षम है. ये स्थिति गरीब प्रवासियों के निरंतर आने की स्थिति में और भी बदतर हो जाती है, जो कि शहरी अर्थव्यवस्था को अपनी महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान करते हैं लेकिन एक मर्यादित और गुणवत्ता-परक जीवन जीने के लिए उन्हे नगरपालिका द्वारा दी गई बुनियादी सेवाएं, किफ़ायती कीमत पर उपलब्ध करायी जानी चाहिए. इसलिए, राज्य एवं केन्द्र सरकार के स्तर पर ऐसी व्यवस्था अथवा कदम तय किए जाने चाहिए जो कि मध्यस्था करके नगरपालिका को संभालने और उन्हें गाइड करने के लिए तैयार हों. यह प्रबंधकीय, वित्तपोषण, एवं गरीबों को दी जाने वाली सहायता का संयोजन होना चाहिए. ऐसी किसी भी सहायता और समर्थन के बग़ैर, पीपीपी अपने मुख्य बुनियादी ढांचों में इस कठिन उद्देश्य को हासिल कर पाने में सक्षम नज़र नहीं आता है.
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