अफ्रीकी संघ (एयू) की स्थापना 2002 में अफ्रीकी एकता संगठन (ओएयू) के परवर्ती के तौर पर हुई थी. इसकी स्थापना का मकसद अफ्रीकी देशों के बीच एकता सुनिश्चित करना था. अफ्रीकी संघ की स्थापना के पहले न्यू इकोनॉमिक पार्टरनरशिप फ़ॉर अफ्रीकन डेवलपमेंट (एनईपीएडी) पर सहमति बनी थी. दोनों में एक ऐसे अफ्रीका की परिकल्पना सामने रखी गई जो खुद ही अपनी तक़दीर का मालिक हो. एयू और एनईपीएडी साम्राज्यवाद-विरोधी और रंगभेद के ख़िलाफ़ ओएयू की शैलियों से आगे के विचारों पर आधारित हैं. एयू ने ये दर्शाया है कि 21वीं सदी का अफ्रीका अपनी समस्याओं से ख़ुद निपट सकता है और विश्व व्यवस्था में अपने लिए और अधिक समानता वाला स्थान हासिल करने का प्रयास कर सकता है.
एयू 50 से भी अधिक देशों का संगठन है. पिछले वर्षों में ये संगठन दुनिया के दूसरे साझीदार देशों के साथ और अधिक खुलेपन के साथ जुड़ता चला गया है. अफ्रीकी देशों के साथ एकजुटता दिखाने के उद्देश्य से ओएयू के सम्मेलनों में भारत के प्रधानमंत्री का संदेश भेजा जाता था. जबकि एयू के सम्मेलनों में कई अवसरों पर एयू से जुड़े भारतीय प्रतिनिधि शिरकत करते रहे हैं. 2011 में आयोजित सम्मेलन में भारत के विदेश राज्यमंत्री को मंत्रिस्तरीय वार्ताओं को संबंधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था. इस तरह के सम्मेलनों में ग़ैर-अफ्रीकी देशों द्वारा बड़ी मात्रा में हिस्सेदारी होती रही है. ग़ैर-अफ्रीकी देश इस तरह के सम्मेलनों को एक ही समय और एक ही स्थान पर अफ्रीका के लगभग तमाम नेताओं से मिलने के अवसर के रूप में देखते रहे हैं. भारत के लिए भी ये सम्मेलन अफ्रीकी देशों के विदेश मंत्रियों की एक बड़ी फ़ौज के साथ बातचीत का मौका बनता रहा है ख़ासतौर से उन देशों के साथ जहां भारत का कोई कूटनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है. एयू के इन्हीं सम्मेलनों में काफ़ी हद तक हमारी अफ्रीका नीति पर परिचर्चाएं, विस्तृत खुलासे और आदान-प्रदान होते रहे हैं.
.अगर नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका एयू को इस कन्सेन्सस से आगे बढ़ने के लिए रज़ामंद कर लेते तो संयुक्त राष्ट्र में ठोस सुधारों के लिए जी6 का उदय हो सकता था. कॉफ़ी क्लब के देश मिस्र, ज़ाम्बिया और ज़िम्बॉब्वे ने कन्सेंसस में किसी भी तरह का संशोधन नहीं होना दिया. ऐसे में भारत को एयू सम्मेलनों के कूटनीतिक फ़ायदे नज़र आए.
भारत का कूटनीतिक फ़ायदे
2005 में आयोजित एयू के दो असाधाराण सम्मेलनों के दौरान भारत को अपनी बात रखने का मौका मिला. इनमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार पर परिचर्चा की गई थी. इसमें एज़ुलविनी कन्सेन्सस में संशोधन की बात की गई. नाइजीरिया ने इस बात का प्रस्ताव रखा था जबकि दक्षिण अफ्रीका ने इसपर दबे-छिपे तौर पर हिस्सा लिया था. एज़ुलविनी कन्सेन्सस के ज़रिए एक समावेशी सुरक्षा परिषद के मुद्दे पर अफ्रीका के कई देश एक साथ आए हैं. अगर नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका एयू को इस कन्सेन्सस से आगे बढ़ने के लिए रज़ामंद कर लेते तो संयुक्त राष्ट्र में ठोस सुधारों के लिए जी6 का उदय हो सकता था. कॉफ़ी क्लब के देश मिस्र, ज़ाम्बिया और ज़िम्बॉब्वे ने कन्सेंसस में किसी भी तरह का संशोधन नहीं होना दिया. ऐसे में भारत को एयू सम्मेलनों के कूटनीतिक फ़ायदे नज़र आए. बाद के सम्मेलनों में भारत ने 10 सदस्यों वाली समिति से बातचीत शुरू की. इस तरह के मंच में अफ्रीकी नेताओं और मंत्रियों के साथ होने वाली बातचीत न्यूयॉर्क में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के आयोजनों में होने वाली मुलाक़ातों के मुक़ाबले भारत के लिए ज़्यादा आसान रहे हैं.
शुरुआती वर्षों में भारत ने एयू के सहयोग से दो कार्यक्रम शुरू किए. 2009 में 47 देशों में पैन अफ्रीकन ई नेटवर्क प्रोजेक्ट (पीएएनईपी) को अमल में लाया गया और ये अगले एक दशक तक कामयाबी से चला. इस दूरदर्शी परियोजना का विचार पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने 2004 में सामने रखा था. अफ्रीकी संघ आयोग (एयूसी) और भारत की एक समिति ने इसकी संरचना और अमल से जुड़ी प्रक्रिया को पूरा किया था. पीएएनईपी ने अफ्रीका में शिक्षा और औषधि के क्षेत्र में क्षमता निर्माण में सहयोग किया था. इसके साथ ही एयूसी के भीतर निर्णय लेने की क्षमता के निर्माण की दिशा में भी इसने अपना योगदान दिया था. हालांकि ये काम कतई आसान नहीं था. इसे पूरा करने में कई तरह के विलंबों और झंझावातों का सामना करना पड़ा. ये एयू और उसके किसी भागीदार देश के साथ शुरू किया जाने वाला पहला प्रोजेक्ट था और इस वजह से इसका काफ़ी महत्व था. पीएएनईपी उस वक़्त तक शांति और सुरक्षा के क्षेत्र से इतर एयू द्वारा शुरू किया गया सबसे बड़ा प्रोजेक्ट था.
2006 के बांजुल शिखर सम्मेलन में एयू ने दुनिया की उभरती हुई शक्तियों के साथ अपनी साझेदारी को और आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया. इस सिलसिले में भारत, लैटिन अमेरिका और दक्षिण कोरिया के साथ संबंधों पर और ध्यान देने की बात कही गई. ये प्रयास जापान, यूरोपीय संघ, फ्रांस, चीन और अरब लीग के साथ अफ्रीका की मौजूदा साझीदारियों को और पक्का करने के इरादे से सामने लाया गया. एक नए साझीदार के तौर पर भारत पहली पसंद बना. इन प्रयासों के नतीजे के तौर पर भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन का फ़ैसला सामने आया. इतना ही नहीं दिसंबर 2006 में एयूसी की अध्यक्षा अल्फ़ा कोनारे का भारत दौरा भी इन्हीं कोशिशों का नतीजा था. कोनारे भारत की प्रगति, लोकतांत्रिक बहुलतावाद और खुलेपन से ख़ासी प्रभावित हुईं. अफ्रीका के साथ सहयोग के भारत के कामयाब उपायों का भी उनपर बेहद सकारात्मक असर हुआ. इन तमाम कोशिशों में पीएएनईपी ने बड़ी भूमिका निभाई थी. इस सम्मेलन का विचार तभी साकार हो सका जब कोनारे ने बांजुल फॉर्मूले के तहत अफ्रीका के 15 देशों की भागीदारी का प्रस्ताव रखा.
भारत के लिहाज से समूचे अफ्रीका के साथ रिश्ते बरकरार रखने वाला अवसर बना रहना बेहद ज़रूरी है. आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, सौर ऊर्जा, वैश्वीकरण, बहुपक्षवाद, डब्ल्यूटीओ, ब्लू इकोनॉमी जैसे मुद्दों पर एयू में चर्चा होनी चाहिए. ऐसी परिचर्चाओं के लिए यहां एडीबी, एनईपीएडी और यूएनईसीए जैसी व्यवस्थाएं मौजूद हैं.
इन पहलों की वजह से भारत और एयू की साझेदारी पहले से ज़्यादा ठोस और जीवंत हो सकी है. आगे चलकर 2008 में पहला भारत-अफ्रीका मंच शिखर सम्मेलन (आईएएफएस) आयोजित किया गया था. सम्मेलन का समन्वय एयूसी ने किया था. बांजुल फ़ॉर्मूला के तहत भी यही मॉडल बरकरार रहा और 2011 में आदिस अबाबा में दूसरा शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया. भारत के साथ गठजोड़ की यही व्यवस्था एयू के लिए तुर्की, दक्षिण कोरिया, यूके और आगे चलकर रूस के साथ इसी तरह के गठजोड़ों का आधार बना. जापान और चीन के साथ भागीदारी की मौजूदा व्यवस्थाओं के तहत भी ख़ुद को शामिल करने के लिए एयू ने भारत के साथ अपनाई गई पद्धति का ही इस्तेमाल किया.
आईएएफएस की प्रक्रिया ने अफ्रीका के साथ तीन स्तरों पर अद्वितीय भागीदारी की नींव रखी. पहला एयू के स्तर पर, दूसरा क्षेत्रीय आर्थिक समुदायों के स्तर पर और तीसरा पारंपरिक द्विपक्षीय स्तर पर. आईएएफएस ने ऐसे कई देशों के साथ संबंधों के विस्तार का मौका दिया जिनके साथ अतीत में काफ़ी कम वार्ताएं हो पाती थीं. आईएएफएस के ज़रिए सभी इलाक़ों पर असर डालने वाली परियोजनाओं का बड़ी तादाद में प्रस्ताव सामने आया और आगे चलकर भारत विकास के सफ़र में मज़बूत भागीदार बन पाया. शिखर सम्मेलनों के ज़रिए क्रेडिट लाइन का विस्तार संभव हो पाया. इतना ही नहीं अफ्रीका के ऐसे कई देश जिनतक आमतौर पर भारत का ध्यान भी नहीं जाता था, उन देशों तक भारतीय कारोबार का प्रवेश और विस्तार संभव हो सका. भारत ने एयू, अफ्रीकी अर्थव्यवस्था से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के आयोग (यूएनईसीए) और अफ्रीकी विकास बैंक की तिकड़ी के साथ अपने संबंध स्थापित किए. क्षेत्रीय आर्थिक समितियों (आरईसी) के साथ भी बैठकों का दौर शुरू हुआ.
हालांकि, एयूएस योजनाओं को अमल में लाने वाले एक मज़बूत भागीदार के तौर पर उससे की गई उम्मीदों पर पूरी तरह से खरा नहीं उतर सका. समूचे अफ्रीका में परियोजनाओं के वितरण के उसके फ़ैसले ज़मीनी हक़ीक़त पर आधारित न होकर राजनीतिक बुनियाद पर किए गए थे. वो कई देशों में उत्साह जगाने और प्रेरित करने में नाकामयाब रहा और आरईसीएस से उसकी प्रतिबद्धताओं पर अमल कराने में भी विफल रहा. पीएएनईपी और आईएएफएस परियोजनाओं पर अमल केवल उन्हीं मामलों में सफल हो सका जिनमें द्विपक्षीय प्रतिक्रियाएं मज़बूत रहीं. इन्हीं वजहों से एक विकास भागीदार के रूप में एयू जल्दी ही प्राथमिकता सूची से नीचे उतर गया. इसने ख़ुद भी ये समझा कि ‘एयू के जटिल ढांचे और सीमित प्रबंधकीय क्षमताओं की वजह से कार्य के ग़ैर-कुशल तरीके पैदा हो रहे हैं, फ़ैसले लेने की क्षमता कुंद पड़ रही है और उत्तरदायित्व का अभाव देखा जा रहा है’
क्यों भारतीय नीतियों के हिसाब से एयू की महत्ता घटती चली गई?
2015 का आईएएफएस III बांजुल फ़ॉर्मूले से आगे निकल गया और इसके लिए अफ्रीका के सभी देशों को आमंत्रित किया गया. इसमें द्विपक्षीय जुड़ाव की दिशा में और ज़्यादा समग्र तरीके से आगे बढ़ने की कोशिश की गई. आरईसी और एयूसी को कम अहमियत दी गई. इसकी एक वजह एयूसी की अंदरुनी समस्याएं भी थीं. इसके पदाधिकारियों के चुनाव को लेकर विवाद खड़ा हो गया था जिससे इसका उत्तरदायी तंत्र कमज़ोर पड़ गया था. एयू अपने सम्मेलनों में अपने भागीदारों के शिष्टमंडलों की उपस्थिति के बोझ तले दब सा गया था. कागेम समिति द्वारा सुझाए गए संशोधित नियमों के तहत 2016 में ये तय हुआ कि एयू के शिखर सम्मेलनों में भागीदार देशों को आमंत्रित नहीं किया जाएगा. इसी वजह से भारतीय दल ने इसमें शिरकत करना छोड़ दिया. 2018 से 2021 के बीच भारत ने अफ्रीका में अपने 18 नए मिशनों की शुरुआत की. अफ्रीकी देशों में भारत की ओर से मंत्रिस्तरीय दौरों में भारी बढ़ोतरी हुई. ऐसे में भारतीय नीतियों के हिसाब से एयू की महत्ता घटती चली गई.
भारत के लिहाज से समूचे अफ्रीका के साथ रिश्ते बरकरार रखने वाला अवसर बना रहना बेहद ज़रूरी है. आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, सौर ऊर्जा, वैश्वीकरण, बहुपक्षवाद, डब्ल्यूटीओ, ब्लू इकोनॉमी जैसे मुद्दों पर एयू में चर्चा होनी चाहिए. ऐसी परिचर्चाओं के लिए यहां एडीबी, एनईपीएडी और यूएनईसीए जैसी व्यवस्थाएं मौजूद हैं. समग्र अफ्रीका कृषि विकास कार्यक्रम (सीएएडीपी), प्रोग्राम इंफ़्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फ़ॉर अफ्रीका (पीआईडीए), दवाओं के लिए द अफ्रीकन मेडीसिन एजेंसी (एएमए) और बुनियादी ढांचों की चुनिंदा परियोजनाओं के लिए पांच उच्च शक्ति प्राप्त संगठनों के लिए नियमित रूप से भागीदारों का होना ज़रूरी है. कोविड-19 से निपटने के लिए एयू सीडीसी के साथ बातचीत ज़रूरी है. भारत और एयू के बीच ट्रैक 1.5 के स्तर पर सालाना बातचीत होना बेहद उपयोगी साबित हो सकता है. इसमें सरकारों के प्रतिनिधियों के अलावा, शिक्षा जगत के लोग, कारोबारी नेता और दोनों पक्षों के हितों से जुड़े कार्यकारी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को शामिल करना होगा. ऐसे प्रयासों से चुनिंदा क्षेत्रों के विकास का रास्ता खुलेगा और मौजूदा कार्यों में भागीदारों को शामिल होने का न्योता दिया जा सकेगा. एयू की अध्यक्षता करने वाले देशों के राष्ट्रपतियों को हर साल भारत आने का न्योता दिए जाने की परंपरा शुरू की जा सकती है. इतना ही नहीं एयूसी के अध्यक्ष के साथ वार्ताओं को फिर से बहाल किया जा सकता है. इस तरह की वार्ताओं की महत्ता स्थापित करने के लिए इन्हें एयू के सालाना शिखर सम्मेलनों से इतर अलग से आयोजित किया जा सकता है.
अब जबकि अफ्रीका कॉन्टिनेंटल फ्री ट्रेड एरिया (एफसीएफटीए) का उदय हो रहा है ऐसे में भारत के लिए-महादेशीय, क्षेत्रीय और द्विपक्षीय-हर स्तर पर अफ्रीका के साथ संपर्क स्थापित करना ज़रूरी हो जाता है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि उद्गम के नियमों और मानकों से जुड़े मुद्दों पर भारतीय हितों में कटौती न हो सके.
इन्हीं उद्देश्यों के लिए आरईसी के साथ भी और ठोस तरीके से भागीदारी की जा सकती है. 8 में से कम से कम 5 आरईसी बेहतरीन तरीके से काम कर रहे हैं. 2006 में उनके साथ वार्ताओं की जो कोशिश की गई थी, उन्हें एक बार फिर जीवंत करने की ज़रूरत है. 2008 से 2014 के बीच भारत ने आरईसी के साथ तीन बैठकें कीं थीं. इन बैठकों को फिर से बहाल किया जा सकता है. जिन देशों में इन आरईसी के मुख्यालय हैं वहां तैनात भारतीय राजदूतों से औपचारिक तौर पर समय-समय पर ऐसी बैठकें आयोजित करने को कहा जाना चाहिए. इनमें लिए गए फ़ैसलों पर क्या कार्रवाई हुई इसपर नज़र रखी जानी चाहिए ताकि ये पता चल सके कि इनके एजेंडे और भारतीय हितों को और बेहतर तरीके से कैसे संचालित किया जा सकता है. अब जबकि अफ्रीका कॉन्टिनेंटल फ्री ट्रेड एरिया (एफसीएफटीए) का उदय हो रहा है ऐसे में भारत के लिए-महादेशीय, क्षेत्रीय और द्विपक्षीय-हर स्तर पर अफ्रीका के साथ संपर्क स्थापित करना ज़रूरी हो जाता है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि उद्गम के नियमों और मानकों से जुड़े मुद्दों पर भारतीय हितों में कटौती न हो सके.
अब जबकि आईएएएफएस IV की तैयारियां ज़ोरशोर से चल रही हैं तब एयू के साथ संबंधों की फिर से समीक्षा किए जाने की ज़रूरत है. एयू के साथ मिलकर काम करने में जो शिथिलता आई थी शायद उसकी झलक 2019 में मध्यावधि समीक्षा में भी देखने को मिली. न केवल इसमें देरी हुई बल्कि ऐसा भी लगा कि यहां वार्ताओं का अभाव है. दोनों पक्षों ने सिर्फ़ अपनी-अपनी बात कही, ऐसा लगा कि दोनों में से कोई भी एक-दूसरे की बात सुनने को तैयार नहीं है. मिसाल के तौर पर अगले शिखर सम्मेलन की ही बात ले सकते हैं. इस पर दोनों देशों के बीच रस्साकशी चल ही रही थी कि एयू ने एकतरफ़ा फ़ैसला लेते हुए इस बैठक के मेज़बान के तौर पर मॉरीतानिया के नाम की घोषणा कर दी. हालांकि ऐसे बड़े समारोह की मेज़बानी कर सकने की उसकी क्षमताओं के बारे में अभी किसी को कुछ भी पता नहीं है. दोनों पक्षों के बीच करीब की वार्ता प्रक्रियाओं से इस तरह की गड़बड़ियां दूर हो जाएंगी.
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