Published on Aug 11, 2021 Updated 0 Hours ago
दक्षिण एशिया में 'विश्वास निर्माण' और 'रूढ़िवादिता को तोड़ने' की प्रक्रियाएँ

पश्चिमी अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में देखें तो विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं यानी सीबीएम का विकास सबसे पहले विरोधी देशों के बीच संबंधों की कटुता को कम करने के साधन के रूप में हुआ था.जबकि दक्षिण एशियाई देश भी आपसी तनाव को कम करने के उपकरण के रूप में सीबीएम को अपना चुके हैं. हालांकि इसके प्रभाव पर बहुत कम शोध उपलब्ध है. ये लेख भारत-पाकिस्तान एवं भारत-चीन के बीच विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं के प्रभाव और उस क्षेत्र में प्रतिमानों के प्रसार में योगदान का मूल्यांकन करता है. इसमें सीमा विवादों और परमाणु तनावों से जुड़ी विश्वास निर्माण प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं और इनका मूल्यांकन दो आधारों पर किया गया है: मानक अनुपालन और मानकों का कार्यान्वयन. ये उन सभी कारकों की पहचान करता है, जो दक्षिण एशिया में अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के प्रसार पर विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं के प्रभाव को निर्धारित करते हैं: मानकों के उल्लंघन की सीमा, विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं का उद्देश्य एवं क्षेत्र, समय और बाहरी भू राजनीतिक कारक.


एट्रिब्यूशन:अमन नायर और अरिंद्रजीत बसु, कॉन्फिडेंसबिल्डिंग मेज़र्स एंड नॉर्म डिफ्यूज़न इन साउथ एशिया,” ओआरएफ अंक नंबर 471, जुलाई 2021, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.


प्रस्तावना

संघर्षरत देश संघर्ष समाधान के लिए विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं यानी एसबीएम का प्रयोग एक साधन के रूप में करते हैं,जिसमें दोनों देशों द्वारा ऐसे विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं,जो एक दूसरे के विरुद्ध खतरों की संभावनाओं के अंत की पुष्टि करते हैं.[1] पश्चिमी विद्वान तर्क देते हैं कि विश्वास निर्माण प्रक्रियाएं राज्यों की जवाबदेही तय करने के लिए मानकों के प्रसार को अनुकूल बनाती हैं.[2] पश्चिमी देशों से हटकर देखें(जहां संस्थाओं,अभिकर्ताओं और सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं का चरित्र पश्चिमी देशों से भिन्न है) तो एसबीएम की सफ़लता विवादित रही है.[3] ये लेख समकालीन इतिहास में विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं (खासकर भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान)और दक्षिण एशिया में उसके मानक प्रसार पर पड़ने वाले प्रभावों की सफ़लताओं का मूल्यांकन करता है.

ये लेख समकालीन इतिहास में विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं (खासकर भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान)और दक्षिण एशिया में उसके मानक प्रसार पर पड़ने वाले प्रभावों की सफ़लताओं का मूल्यांकन करता है.

भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन के बीच जारी तनाव की स्थिति को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में एसबीएम के महत्त्व का मूल्यांकन आवश्यक है. हालांकि, चुनौती ये है कि सीबीएम के प्रभाव का सही-सही गणितीय मूल्यांकन कठिन है. यहां तीन सीमाएं हैं: बाहरी कारकों के प्रभाव से सीबीएम के प्रभावों को अलग करना; विश्वसनीय प्रतितथ्यात्मक स्थिति का निर्माण करना; और विरोधी देशों के बीच ‘स्थिरता’ को परिभाषित करना. ये लेख शांति-निर्माण के उन पहलुओं पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं करता है, जिसकी गणितीय माप नहीं की जा सकती है, बल्कि ये द्विपक्षीय संबंधों में अंतरराष्ट्रीय मानदंड प्रसार के दो मुख्य पहलुओं पर सीबीएम के प्रभाव पर केंद्रित होगा. जैसा कि डायटेलहॉफ और ज़ीमर्मन द्वारा व्यक्त किया गया है, ये पहलू हैं:[4]

अनुपालन: मानकों के अनुरूप व्यवहार स्तर पर

कार्यान्वयन: नीति पत्रों, मसविदों, अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों के मानकों, घरेलू, क्षेत्रीय, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के निर्माण और घरेलू कानूनों में मानक समावेश का स्तर

[भविष्य में विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं के जरिए भी मानकों को लागू किया जा सकता है.]

ये लेख दो सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करेगा:

क्या दक्षिण एशियाई देशों में लागू किए गए एसबीएम ने इन क्षेत्रों में मानकों के क्रियान्वयन को प्रभावित किया है; और क्या व्यवहार में सीबीएम का इन देशों के बीच मानक अनुपालन पर कोई असर है?

इस लेख में जिन मानकों पर चर्चा की जायेगी वे पर्याप्त नहीं हैं. उसके अलावा केवल मानक अनुपालन और उसके क्रियान्वयन से किसी क्षेत्र में द्विपक्षीय संबंधों में स्थिरता नहीं आ जाती है, लेकिन इन सवालों को लेकर लेख में कोई चर्चा नहीं की गई है. इसलिए सीबीएम और स्वाभाविक रूप से जटिल भूराजनीतिक संबंधों में कारण-कार्य संबंध की पहचान कर पाना बेहद मुश्किल है. इसलिए ये लेख उन कारकों पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, जिसे आसानी से समझा और परखा जा सकता है.

विश्वास निर्माण प्रक्रियाएं और मानक: एक संक्षिप्त परिचय

सीएबएम की परिभाषा:

विश्वास निर्माण के उपाय (सीबीएम)(सीबीएम)एकपक्षीय,द्विपक्षीय,या बहुपक्षीय व्यवहारों और कार्यों का एक समूह है, जिस पर दुश्मन देश आपसी सहमति के साथ इसे अपने क्षेत्रों में लागू करते हैं, जिसका लक्ष्य विश्वास निर्माण, एक दूसरे के साथ बढ़ते संघर्षों को रोकना और साझा सहयोग के जरिए शांति स्थापित करना है.[5] अंतरराष्ट्रीय संधियों, पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय कानूनों और बाध्यकारी एकपक्षीय घोषणाओं के उलट सीबीएम के प्रभावधान बाध्यकारी नहीं होते,और राज्य इसे अपनाने या न अपनाने के लिए स्वतंत्र होते हैं.[6] आमतौर पर सरकारों द्वारा सीबीएम को लेकर जताई गई किसी भी किसी किस्म की प्रतिबद्धता का पालन करने का उन पर कोई दबाव नहीं होता है, और उसका अनुपालन न किए जाने पर किसी किस्म के दंडात्मक उपायों का प्रावधान नहीं है. हालांकि कुछ मामलों में सीबीएम कानूनी रूप से बाध्यकारी हो सकता है.[7]

सीबीएम का श्रेणीकरण: सामरिक चिंताएं, उद्देश्य और क्षेत्र

सीबीएम को तीन आधारों पर श्रेणीबद्ध किया जा सकता है: उनसे जुड़े मुद्दों के आधार पर, उनके लक्ष्यों के आधार पर, और वे जिस क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं, उनके आधार पर.

मुद्दा: ये लेख चिंता के इन दो विषयों के संदर्भ में सीबीएम का विश्लेषण करता है: ए)विवादित क्षेत्र पर जारी युद्ध; और बी)परमाणु निरोध.

लक्ष्य: जबकि सभी प्रकार के विश्वास निर्माण उपायों का व्यापक उद्देश्य पारस्परिक शत्रुता को कम करना है, लेकिन प्रत्येक सीबीएम का उस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में एक विशिष्ट उद्देश्य होता है. ये लेख सीबीएम के उद्देश्यों को समूहबद्ध करने के लिए होल्स्ट[8] और मैकिन्टोश[9] द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरण का उपयोग करता है: संचार; बाधा; और पारदर्शिता.

क्षेत्र: सीबीएम क्षेत्रों को सैन्य और असैन्य दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है. असैन्य क्षेत्र को कई अन्य टुकड़ियों में बांटा जा सकता है, जैसे आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय, और राजनीतिक सीबीएम.

फिगर-1: सीबीएम का मानचित्र

स्रोत: लेखक के अपने, होल्स्ट[10] और मैकिन्टोश[11] द्वारा प्रदान किए गए वर्गीकरण पर आधारित

नाभिकीय हथियारों से जुड़े हुए सीबीएम

ये खंड तीन मानकों पर अपना ध्यान केंद्रित करता है जो परमाणु क्षेत्र में प्रासंगिक हैं.[12] ये हैं: अप्रसार (नए परमाणु हथियारों के प्रसार और निर्माण को रोकना); निरस्त्रीकरण (परमाणु बलों का विसैन्यीकरण); और निरोध (परमाणु हथियारों का उपयोग केवल विरोधी राज्यों को हमला करने से हतोत्साहित करने के लिए).

ज़मीनी स्तर पर मानक कार्यान्वयन को दस्तावेजों में बार बार “अप्रसार” शब्द के उल्लेखों के रूप में देखा जा सकता है, ख़ासकर 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच का ऐतिहासिक लाहौर समझौते और उससे जुड़े समझौता ज्ञापन के दस्तावेजों में

चूंकि भारत और पाकिस्तान ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं,[13] और चीन ने उन्हें एक परमाणु शक्ति के तौर पर आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी है, इसलिए वे चीन के साथ कोई सीबीएम संबंध साझा नहीं करते हैं. इसलिए ये खंड केवल भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु हथियारों से जुड़े सीबीएम पर अपना ध्यान के केंद्रित करेगा.

भारत-पाकिस्तान के बीच परमाणु आधारित सीबीएम समझौते और मानक अनुपालन एवं क्रियान्वयन

दोनों देशों के बीच कई बैठकों और सीबीएम समझौतों, विशेष रूप से परमाणु प्रतिष्ठानों की सूचियों का वार्षिक आदान-प्रदान, के बावजूद अधिकारियों ने नोट किया है कि ये चर्चाएं और दोनों देशों द्वारा उठाए गए कदम परिवर्तनकारी होने की बजाय अपने द्विपक्षीय संबंधों को ही प्रतिबिंबित करते हैं.[14] ऊपरी तौर पर ये चर्चाएं उत्पादक प्रतीत होती हैं, लेकिन उनके प्रगतिशील दृष्टिकोण ने मानक अनुपालन और कार्यान्वयन सुनिश्चित करने की दिशा में बेहद कम दूरी तय की है.[15]

परमाणु अप्रसार से जुड़े मानक

इस क्षेत्र में मानकों का कार्यान्वयन और उनका अनुपालन बहुत ही निम्न स्तरीय है. दोनों स्तरों पर ही सीबीएम का सकारात्मक प्रभाव नहीं रहा है. जबकि व्यक्तिगत स्तर पर कुछ उठाए कदम इन आदर्शों के अनुरूप रहे हैं, जैसे कि पाकिस्तान द्वारा परमाणु निर्यात नियंत्रण अधिनियम पारित करना,[16] और वासेनार अरेंजमेंट में भारत की सदस्यता[17], लेकिन बड़े पैमाने पर देखें तो दोनों ही देशों मानक अनुपालन में पीछे रहे हैं. बावजूद इसके कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों ने परमाणु प्रतिष्ठानों (1988 का परमाणु गैर-आक्रामकता समझौता) के खिलाफ़ हमला न करने की अपनी संकल्पना से जुड़े सीबीएम, जो 1988 के समझौते की प्रस्तावना में उल्लेखित है, के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया है,[18] वे ऐसे सीबीएम पर सहमत नहीं हो सके हैं, जो परमाणु अप्रसार से जुड़े मानकों को लागू कर सके. आखिरकार 1998 में भारत और पाकिस्तान दोनों देशों ने परमाणु परीक्षण किया और परमाणु अप्रसार का सीधा-सीधा उल्लंघन किया.

ज़मीनी स्तर पर मानक कार्यान्वयन को दस्तावेजों में बार बार “अप्रसार” शब्द के उल्लेखों के रूप में देखा जा सकता है, ख़ासकर 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच का ऐतिहासिक लाहौर समझौते और उससे जुड़े समझौता ज्ञापन के दस्तावेजों में.[19] हालांकि, परमाणु अप्रसार के उल्लेख के बाद पूर्ण निरस्त्रीकरण की बात कही जाती है क्योंकि इसके बिना एक संतुलित और न्यायपूर्ण परमाणु व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती.[20] इसलिए, सीबीएम का मानक कार्यान्वयन पर बहुत कम प्रभाव पड़ा है, क्योंकि दोनों देशों ने इस आधार पर परमाणु अप्रसार संधि और अप्रसार के मानदंडों का विरोध किया है, कि जब पूरी दुनिया में पूर्ण निरस्त्रीकरण का लक्ष्य हासिल नहीं किया जाता तब तक परमाणु अप्रसार के मानकों का अनुपालन संभव नहीं है.[21],[22]

परमाणु निरस्त्रीकरण के मानदंड

निरस्त्रीकरण के संदर्भ मानक अनुपालन विफल रहा है. साल 1999 के लाहौर घोषणापत्र के अनुसार निरस्त्रीकरण को लेकर अपनी प्रतिबद्धता के बावजूद, भारत और पाकिस्तान दोनों ने अपने परमाणु हथियारों और बैलिस्टिक मिसाईलों के जखीरों में काफी वृद्धि की है.[23]

मानक क्रियान्वयन को लेकर लाहौर समझौते और उसके ज्ञापन में सीबीएम को लेकर भारत और पाकिस्तान के मानक कार्यान्वयन पर,लाहौर घोषणा और उसके ज्ञापन में सीबीएम के निर्धारण के बाद से भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की नीतियों में लगातार परमाणु निरस्त्रीकरण के मुद्दे ने अपनी जगह बनाई है. जबकि इन सीबीएम समझौतों ने मानक कार्यान्वयन को रेखांकित किया है,यह ध्यान रखने योग्य है कि सीबीएम की शुरुआत से पहले से ही परमाणु निरस्त्रीकरण के मुद्दे पर दक्षिण एशिया में मानक कार्यान्वयन का स्तर काफी ऊंचा रहा है,जहां भारतीय प्रधानमंत्रियों के भाषणों और संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के प्रस्तावों के माध्यम से इसे लागू किया जाता रहा है.[24] इसलिए,जबकि सीबीएम को मानक कार्यान्वयन में सुधार के रूप में श्रेय दिया जा सकता है,लेकिन इसे मानक कार्यान्वयन के मूलभूत चालक के रूप में नहीं देखा जा सकता है.

परमाणु निरोध और नो फर्स्ट यूज़ से जुड़े मानदंड

परमाणु निरोध के मानदंड के स्तर पर देखें तो अन्य दो मानदंडों की तुलना में इस स्तर पर मानक कार्यान्वयन और अनुपालन का स्तर ऊंचा रहा है. उसके अलावा, सीबीएम ने अनुपालन और कार्यान्वयन दोनों को प्रभावित किया है.अनुपालन को लेकर बात करें तो दोनों देशों के बीच परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमलों को प्रतिबंधित करने वाले समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद, किसी भी देश ने परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमले का कोई प्रयास नहीं किया गया है. अगर कार्यान्वयन स्तर पर देखें तो आधिकारिक दस्तावेजों में और दोनों तरफ के अधिकारियों द्वारा बार बार परमाणु निरोध का मुद्दा उठाया गया है. हालांकि इसके अलावा ये भी देखना चाहिए कि परमाणु हथियारों का मुद्दा विशिष्ट है और सीबीएम की बजाय परमाणु हमले के संभावित नुकसानों का आकलन परमाणु निरोध से जुड़े मानकों के क्रियान्वयन को प्रेरित करता है.

विवादित क्षेत्र से जुड़े सीबीएम

विवादित क्षेत्र से संबंधित प्राथमिक मानदंड क्षेत्रीय अखंडता का मानदंड है:[25] कि राज्यों को दूसरे राज्य की क्षेत्रीय सीमाओं का सम्मान करना चाहिए और उसके खिलाफ बल का प्रयोग नहीं करना चाहिए. यह सिद्धांत संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(4) में निहित है,[26] और संयुक्त राष्ट्र महासभा[27] की कई घोषणाओं द्वारा बहुपक्षीय स्तर पर लगातार इसकी पुष्टि की गई है.

परमाणु आधारित सीबीएम पर पिछले खंड के विपरीत, इस खंड में केवल एक मानदंड,क्षेत्रीय अखंडता पर चर्चा की जायेगी. यह भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान दोनों संदर्भों में मानक अनुपालन और कार्यान्वयन पर सीबीएम के प्रभावों का मूल्यांकन करेगा.

भारत एवं चीन के बीच क्षेत्र आधारित सीबीएम और उससे जुड़े मानकों का अनुपालन और क्रियान्वयन

भारत की स्वतंत्रता के बाद से ही चीन के साथ उसके संबंध एक लंबी और अचिन्हित सीमा, जो पूरी दुनिया में सबसे लंबी विवादित सीमा रेखा है, के साथ काफी जटिल रहे हैं.[28] दोनों के बीच सीमा रेखा की लंबाई को लेकर विवाद रहा है, भारत का कहना है कि इसकी लंबाई 3488 किमी है, जबकि चीन के अनुसार सीमा रेखा की लंबाई केवल 2000 किमी है.[29] सीमा विवाद को लेकर 1962 में दोनों देशों के बीच युद्ध हुआ, जो एक महीने तक चला और भारत की तरफ से 8000 जानें शहीद हुईं और चीन के 2000 सैनिक मारे गए,[30] उसके बाद दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में दस साल का लंबा अंतराल पैदा हो गया. 1976 में, तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और चीन ने एक दूसरे देश में अपने राजदूत भेजे; तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने फरवरी 1979 में चीन का दौरा किया;[31] और कुछ ही समय बाद, दोनों पक्षों ने सीमा वार्ता शुरू की, जिसकी आठ दौर की वार्ता 1981 से लेकर 1988 के बीच संपन्न हुई.[32]

1988 में एक बहुत बड़ी सफलता हासिल हुई, जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने समकक्ष डेंग ज़ियाओपिंग के साथ एक शिखर सम्मेलन किया-[33] जो 1960 के बाद दोनों देशों के नेताओं के बीच हुई ऐसी पहली बैठक थी.इस शिखर सम्मेलन ने दोनों देशों के बीच कई समझौतों और सीबीएम को जन्म दिया,जिसने कुछ हद तक मानक अनुपालन और कार्यान्वयन को प्रभावित किया. जबकि सीबीएम सहित दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों ने उनके बीच गंभीर संघर्ष को रोकने में मदद की है,लेकिन एक सीमा समझौते की कमी ने चीन-भारत संबंधों को “एक अंतहीन दुष्चक्र” में फंसा दिया है.[34] दीर्घकालीन शांति और स्थिरता के लिए सीमा का स्थायी समाधान महत्वपूर्ण है.[35]

1993 और 2005 के बीच दोनों देशों के बीच हुए तीन प्रमुख समझौतों के तहत दोनों देशों में क्षेत्रीय अखंडता के मानदंड को लागू किया गया है. इन समझौतों में कई सीबीएम के माध्यम से इस मानदंड को लागू करने के प्रावधान भी शामिल हैं जिनका हाल ही में सीमा पर टकराव के बावजूद बड़े पैमाने पर अनुपालन किया गया है. 

1993 और 2005 के बीच दोनों देशों के बीच हुए तीन प्रमुख समझौतों के तहत दोनों देशों में क्षेत्रीय अखंडता के मानदंड को लागू किया गया है.[36] इन समझौतों में कई सीबीएम के माध्यम से इस मानदंड को लागू करने के प्रावधान भी शामिल हैं जिनका हाल ही में सीमा पर टकराव के बावजूद बड़े पैमाने पर अनुपालन किया गया है. 1993 में सीमा पर शांति और स्थिरता समझौते[37] की शुरुआत के बाद से अब तक दोनों देशों के बीच कई समझौते किए गए हैं जो संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के आदर्शों और सीमा पर शांति बनाए रखने से जुड़े हैं, भले ही सीमा निर्धारण का मुद्दा अभी तक सुलझाया नहीं जा सका है. भारत और चीन के बीच इस बात को लेकर सहमति बनाई जा चुकी है कि वे दोनों बल प्रयोग के जरिए सीमा विवाद को सुलझाने का प्रयास नहीं करेंगे. विश्वास-निर्माण उपायों को लेकर 1996 में हुए एक समझौते ने इन सिद्धांतों को फिर से लागू किया और बाधा और पारदर्शिता आधारित कई विश्वास आधारित उपायों की रूपरेखा तैयार की.[38] इस समझौते में “आपसी सुरक्षा और बराबरी” के आदर्शों के तहत सैन्य हथियारों के जखीरे में कटौती, एलएसी के आस पास बड़े पैमाने पर सैन्य अभ्यास आयोजित करने पर पाबंदी, और एलएसी के दो किलोमीटर के भीतर गोलाबारी समेत सभी खतरनाक सैन्य गतिविधियों पर प्रतिबंध शामिल है. 1996 के समझौते पर निर्मित 2005 के प्रोटोकॉल ने पिछले समझौतों को लागू करने के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं को निर्धारित किया.[39]

कुछ साल बाद, 2013 में, देपसांग विवाद के बाद सीमा रक्षा सहयोग समझौते (बीडीसीए) पर हस्ताक्षर किया गया और दोनों देशों ने बल-प्रयोग न करने की अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया और ‘पारस्परिक समानता और सुरक्षा’ के सिद्धांत को स्वीकार किया.[40] 1976 में राजनयिक संबंधों की बहाली के बाद से सीबीएम और मानक कार्यान्वयन के बीच एक संबंध देखा जा सकता है. संचार आधारित सीबीएम के परिणामस्वरूप ऐसे समझौते हुए हैं, जिसे आज तक दोनों देश अपने द्विपक्षीय संबंधों में स्वीकार करते हैं. इसके अलावा, उन्होंने दोनों देशों के बीच क्षेत्रीय अखंडता को लागू करने के लिए उपाय तैयार किए हैं. उदाहरण के लिए 1988 में स्थापित संयुक्त कार्य समूह ने 1993 और 1996 में हुए भारत-चीन समझौतों की आधारशिला रखी, दोनों में ही क्षेत्रीय अखंडता के सिद्धांत और उसके संरक्षण हेतु प्रवर्तन तंत्रों के निर्माण जैसे मुद्दे सम्मिलित थे.[41]

1988 से ही, मानक अनुपालन पर सीबीएम का सकारात्मक प्रभाव रहा है. 1976 में दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों की बहाली के बाद से 2020 में गलवान घाटी के संघर्ष तक, दोनों देशों ने बड़े पैमाने पर एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के मानदंडों का अनुपालन किया है. हालांकि अनिर्धारित सीमा पर कई बार सेनाओं का आमना-सामना हुआ है, लेकिन इसके कारण आमतौर पर खूनी संघर्ष की स्थिति पैदा नहीं हुई है (जून 2020 में गलवान घाटी में हुई घटना एक अपवाद है)[42], और इसे मानक संचालन प्रक्रियाओं के माध्यम से हल किया गया है, जिसमें संचार और बाधा आधारित सीबीएम शामिल हैं.[43]

1988 से लेकर 2003 तक हुई जेडब्ल्यूजी की बैठकों में, ये समझौता हुआ कि सीमा पर शांति और स्थिरता किसी एक ढांचे पर निर्भर नहीं करता, जो एलएसी की एक स्पष्ट सीमा को निर्धारित करता हो.[44] 2005 और 2013 के समझौतों में संचार और बाधा आधारित सीबीएम शामिल हैं जो आमने-सामने की लड़ाई में किसी तरह के जान माल के नुकसान को रोकते हैं.

इसके अलावा, दोनों देशों ने निम्न स्तर के क्षेत्रीय विवादों को युद्ध में परिवर्तित होने से रोकने के लिए बाधा या प्रतिबंध आधारित सीबीएम के महत्त्व को रेखांकित किया है.[45] उदाहरण के लिए गलवान घाटी के संघर्ष के बाद विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 1996 में भारत और चीन के बीच हुए सीबीएम समझौते एक तहत भारतीय सैनिकों से मानकों के अनुपालन के लिए जोर दिया[46], जिसमें निहित था: “दोनों में से कोई भी पक्ष वास्तविक सीमा रेखा के दो किलोमीटर के भीतर बंदूकों या बारूदों का प्रयोग नहीं करेगा.”[47]

कश्मीर-विवाद को अब तक सुलझाया नहीं जा सका है और ऐसे कई मौके और हैं जहां मानकों का उल्लंघन किया गया है, भाषण दिए गए हैं, नीतियां बनाई गई हैं, एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता का अपमान किया गया है और एक दूसरे पर ऐसा करने का आरोप मढ़ा गया है.

गलवान घाटी में हुए संघर्षों के बाद सीमा पर तनाव की स्थिति के बावजूद, दोनों देशों ने राजनयिक और सैन्य वार्ता दोनों के जरिए संचार आधारित सीबीएम समझौते को बरकरार रखा है; और उसके बाद से कोई और हताहत नहीं हुआ है. सीमा पर जिन क्षेत्रों में अब तक झड़प जारी है, वहां से सैन्य टुकड़ियों को हटाने के लिए उच्च अधिकारियों के बीच 11 चरणों की वार्ता हो चुकी हैं.[48]

जैसा कि मनोज जोशी का कहना है कि सीमा को लेकर बीजिंग की नीतियां आंतरिक राजनीति से प्रभावित हैं.[49] ज़मीनी स्तर पर चीनी कार्रवाईयां अनियमित रही हैं, अक्सर अपनी पुरानी गतिविधियों के विपरीत रही हैं.[50] इसलिए, चीन को उसकी व्यापक राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से दूर नहीं किया जा सकता और राजनयिक तरीके से सीमा विवाद को स्थायी रूप से हल नहीं किया जा सकता.[51] बल्कि, ऐसे नए सीबीएम समझौतों की जरूरत है जो एलएसी के आस पास बदलते हालातों को पहचान कर मानकों के अनुपालन और उनके क्रियान्वयन को सुनिश्चित कर सके.[52]

भारत-पाकिस्तान के बीच क्षेत्रीय सीबीएम समझौते और मानक अनुपालन एवं क्रियान्वयन

भारत-पाकिस्तान सीमा संबंध 1947 से ही विभाजन से पैदा हुई जटिल समस्याओं के कारण अस्थिर और संघर्ष-ग्रस्त रहे हैं. भारत-पाकिस्तान के बीच प्रमुख संघर्षों में पहला कश्मीर युद्ध, सितंबर 1965 का युद्ध, 1971 का युद्ध और 1999 का कारगिल संघर्ष शामिल हैं. वास्तव में दोनों देशों के संबंध “विभाजन की मानसिकता” से प्रभावित रहे हैं.[53] राजनीतिक रूप से दोनों देशों युद्ध के कारणों, उनके परिणामों और कश्मीर मुद्दों को लेकर विरोधाभासी तथ्यों को लेकर चलते रहे हैं.[54] राज्य प्रायोजित आतंकवाद के जरिए पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा है, जो भारत-पाकिस्तान संबंधों की तल्खी का एक बहुत बड़ा कारण है, जिसे लेकर पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन का कहना है कि “ये पाकिस्तान की भारत के बराबर खड़े होने की महत्त्वाकांक्षा है, जहां वो हमारे देश को आतंकवाद के सहारे चोट पहुंचाने की कोशिश कर रहा है क्योंकि सैन्य बल के आधार पर वो हमसे कमजोर है.”[55] इन दीर्घकालीन समस्याओं के चलते सीबीएम के कई चरणों के बावजूद भारत-पाकिस्तान का संबंध “वार्ता-अवरोध-वार्ता” के दुष्चक्र में फंसा हुआ है.[56] इसलिए, सीबीएम समझौते दोनों के बीच संबंधों की जटिलताओं को सुलझाने में अप्रभावकारी रहे हैं, हालांकि क्षेत्र विशेष में मानकों के अनुपालन और क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने में उनकी विशेष भूमिका है.

संघर्ष के दौरान एवं उसके बाद दोनों देशों के बीच मानकों का क्रियान्वयन समझौतों के तहत हुआ है. ताशकंद घोषणा(1965),[57] शिमला समझौता (1972)[58] और लाहौर घोषणा (1999)[59] में क्षेत्रीय अखंडता से जुड़े कई मानकों का उल्लेख किया गया है. ये सभी समझौते संयुक्त राष्ट्र चार्टर, विवादों के शांतिपूर्ण समाधान और एक दूसरे के आंतरिक मामलों में गैर-हस्तक्षेप को स्वीकृति प्रदान करते हैं. खासतौर पर शिमला समझौते में मानकों को लेकर स्पष्ट बात कही गई है.[60]

हालांकि, ये देखना जरूरी है कि ताशकंद और शिमला समझौतों पर हस्ताक्षर युद्ध के तुरंत बाद की परिस्थितियों में किए गए थे और लाहौर घोषणा कारगिल युद्ध (1999) को रोक पाने में असफल रही, जो उसके तुरंत बाद स्थगित हो गई. इसके अलावा कश्मीर-विवाद को अब तक सुलझाया नहीं जा सका है और ऐसे कई मौके और हैं जहां मानकों का उल्लंघन किया गया है, भाषण दिए गए हैं, नीतियां बनाई गई हैं, एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता का अपमान किया गया है और एक दूसरे पर ऐसा करने का आरोप मढ़ा गया है.[61] इसलिए सीबीएम और मानकों के क्रियान्वयन में बहुत ही कमज़ोर संबंध है. इसका कारण ये है कि हमारे पास दोनों देशों में मानकों के अनुपालन के साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं और इन मानकों की घोषणा करने वाले समझौते पहले से मौजूद सीबीएम प्रक्रियाओं के विस्तार के रूप में नहीं बल्कि युद्ध के बाद की परिस्थितियों में अस्तित्व में आए थे.

हालांकि मानकों के अनुपालन और सीबीएम के बीच मजबूत संबंध हैं. 2003 के युद्ध विराम समझौते, जो कि एक बाधा आधारित सीबीएम समझौता था, के बाद सीमा पार हिंसा की घटनाओं में तेजी से गिरावट आई; और ऐसी स्थिति एक दशक तक लगातार बनी रही.[62] उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर देखें तो कारगिल युद्ध के बाद 2001, 2002 और 2003 में युद्ध विराम उल्लंघनों की घटनाएं अधिकतम थीं.[63] हालांकि 2003 के युद्ध विराम समझौते के बाद 2004 और 2006 के बीच सीमा पर हिंसा की घटनाएं कम होकर प्रति वर्ष दस घटनाओं के भीतर आ गईं. 2008 में युद्ध विराम उल्लंघनों की घटनाएं फिर से बढ़ने लगीं, जहां उस साल आधिकारिक रूप से ऐसी 86 घटनाओं को दर्ज किया गया था. 2012 में ऐसी 114 घटनाएं हुईं.

गठन संघर्ष को आगे बढ़ने से रोकने के लिए किया गया था सीमा पर शांति की स्थिति में आपसी सहयोग की राजनीतिक लागत दोनों पक्षों के लिए बेहद कम होती है. सैन्य स्तर पर चली रही मौजूदा वार्ता आगे के सीबीएम समझौतों को लागू के लिए महत्त्वपूर्ण है. 

2016 से इस रुझान में बदलाव देखा गया है, जहां दोनों देशों की सेनाओं और उग्रवादी समूहों के बीच सीमा पार गोलाबारी और सशस्त्र टकरावों में काफी बढ़ोतरी हुई है.[64] पिछले तीन वर्षों में संघर्ष विराम उल्लंघनों की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिसमें क्रमशः 2018, 2019 और 2020 में 2140, 3479 और 5133 संघर्ष विराम उल्लंघन के मामले दर्ज किए गए हैं.[65] सीमा पार तनाव की स्थिति को दूर करने के लिए फरवरी 2021 में, दोनों पक्षों द्वारा एक संयुक्त बयान जारी किया गया जिसमें 2003 के बाद मानक अनुपालन के बढ़ते उदाहरणों के बीच “दोनों देशों की सीमाओं के साथ-साथ पारस्परिक रूप से लाभदायक और स्थायी शांति अर्जित करने के हित में” 2003 के युद्धविराम समझौते को नवीनीकृत करने की आवश्यकता को दोहराया गया.[66] बाधा आधारित सीबीएम समझौते के जरिए 2003 के युद्ध विराम को फिर से लागू करने के बाद मानकों के अनुपालन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है, जिसे लेकर थल सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवाने का मानना है कि इस बयान ने क्षेत्र में शांति की बहाली और हिंसा में कमी में अपना योगदान दिया.[67]

संचार आधारित सीबीएम समझौतों ने बाधा आधारित सीबीएम समझौतों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

मीडिया की नज़रों से दूर बैक चैनल डिप्लोमैसी राजनीतिक शोर शराबे को कम करने में उपयोगी सिद्ध हो सकती है और डीजीएमओ द्वारा 2021 की घोषणा जैसे ठोस कदम उठाए जा सकते हैं. ट्रैक-II कूटनीति नीमराना वार्ता, चौफ्राया वार्ता, पगवाश की पहल पर भारत-पाकिस्तान वार्ता जैसी ट्रैक-2 कूटनीतिक पहलों की पिछले दो दशकों में कई बार पुनरावृत्ति हो चुकी है और इन्होंने संचार आधारित सीबीएम के रूप में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.[68] हालांकि इन वार्ता सम्मेलनों और मानक अनुपालन एवं क्रियान्वयन के बीच संबंधों को रेखांकित करना कठिन है. प्रो. हैप्पीमन जैकब (जो ट्रैक-2 पहलों से जुड़े एक प्रतिभागी हैं) का कहना है कि इन संवादों का लक्ष्य मानकों के अनुपालन या कार्यान्वयन को तुरंत प्रभावित करने की बजाय अलग अलग समुदायों के बीच आपसी समझ के वातावरण को बढ़ावा देना है.[69]

प्रमुख नतीजे जो सामने आये 

सीबीएम, दक्षिण एशिया में मानक अनुपालन और किर्यान्वयन की सुविधा कैसे प्रदान (अगर वे करते हैं) करते हैं, इस बात के विश्लेषण से उभरने वाले बिन्दुओं की चर्चा निम्नलिखित पैराग्राफ़ की गई है.

1) सीबीएम, निचले स्तर के मानदंडों के गैर-अनुपालन (जैसे युद्धविराम का उल्लंघन) की तीव्रता को रोकने में अप्रभावी रहे हैं, लेकिन उन्हें बड़े संघर्ष में बदलने से रोका है. प्रादेशिक सीबीएम, गैर-अनुपालन के छोटे पैमाने के कृत्यों को पूरी तरह से रोकने में असमर्थ रहे हैं. मसलन, संघर्ष विराम का उल्लंघन और भारत व पाकिस्तान के बीच सीमा पर घुसपैठ – पिछले आधे दशक में घुसपैठ और हताहतों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ.[70] भारत-चीन के मामले में वे ज़्यादा सफल कहे जा सकते हैं, चूंकि लगभग 35 वर्षों तक सीमा पर कोई हताहत नहीं हुआ है. ऐसा तब हुआ है, जब दोनों देशों के बीच नियमित रूप से आमना-सामना होता रहा है और हालात को झंडे दिखाने जैसे स्थापित संचार सीबीएम और बताई गई सीमा के भीतर हथियारों का उपयोग न करने जैसी बाध्यता वाले सीबीएम के ज़रिए नियंत्रित किया गया है.[71]

सीबीएम ने निचले स्तर के गैर-अनुपालन के मामलों को संघर्ष में बदलने से रोका है. सबसे हालिया उदाहरण साल 2020 के बीच का है, जब गलवान घाटी में संघर्ष के बाद सैन्य-स्तरीय वार्ता के कई दौर चले.[72] नतीजतन, दोनों पक्ष पूरी तरह से पीछे तो नहीं हटे, लेकिन एलएसी पर इसके बाद किसी भी तरह की हिंसा भड़कने से ज़रूर बचा लिया गया. सरकारी अधिकारियों के बयानों ने स्पष्ट तौर पर, साल 1996 में हुए समझौते को सैनिकों द्वारा संघर्ष शुरू न करने की वजह बताते हुए बाध्यता वाले सीबीएम की ओर इशारा किया; भले ही उसी समझौते में शामिल अन्य सीबीएम का उल्लंघन किया गया हो.[73]

परमाणु मोर्चे की बात करें, तो परमाणु प्रतिष्ठानों और ठिकानों पर हमले के निषेध को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच साल 1988 में हुए समझौते के मामले में मानदंडों का अनुपालन हुआ है, क्योंकि इसके बाद दोनों देशों के बीच हुए संघर्ष के बावजूद, समझौते के बाद किसी भी राज्य द्वारा एक-दूसरे के परमाणु ठिकानों पर हमले का कोई प्रयास नहीं किया गया है. इस समझौते पर हस्ताक्षर होने से पहले, अटकलें लगाई जा रही थीं कि भारत, पाकिस्तान के परमाणु ठिकाने काहूता पर हमला करने की योजना बना रहा था.[74] वैसे तो दोनों देशों के इस व्यवहार का श्रेय (यानी दोनों देशों के बीच पूर्ण पैमाने पर सहमति), दोनों देशों के पास मौजूद परमाणु हथियारों की अत्यधिक विनाशकारी क्षमता को भी दिया जा सकता है, लेकिन सीबीएम ने भी एक कूटनीतिक टूल[75] के रूप में अपना काम किया है, जिसके माध्यम से गैर-परमाणु क्षेत्र के भी संघर्ष, प्रभावी ढंग से हल किए जा सकते हैं.

2)मानदंडों के क्रिर्यान्वयन और मानक अनुपालन पर, बाध्यता व कुछ चुनिंदा संचार सीबीएम का, पारदर्शिता सीबीएम और गैर-सैन्य सीबीएम की तुलना में ज़्यादा प्रभाव पड़ा है. बाध्यता वाले सीबीएम में आमतौर पर एक ‘रेड-लाइन’ होती है, जिसे दोनों देश दोतरफ़ा उल्लंघन के रूप में भंग नहीं करना चाहते हैं,[76] क्योंकि इस दशा में दूसरा पक्ष अत्यधिक नुकसान पहुंचा सकता है. विवादित सीमाओं के आसपास सैन्य गतिविधियों को सीमित करने या परमाणु हथियारों के उपयोग को सीमित करने वाले सीबीएम अनिवार्य रूप से बाध्य करने वाले समझौते होते हैं (राज्यों के लिए ऐसी कार्रवाई नहीं करने के लिए) और काफ़ी आसानी से दोनों देशों के बीच के द्विपक्षीय संबंधों के व्यापक राजनीतिक संदर्भों से अलग कर दिए जाते हैं.[77] इसलिए, उनका पालन किया जाता है और उन्होंने मानक अनुपालन और कार्यान्वयन पर पारदर्शिता या संचार सीबीएम की तुलना में कहीं ज़्यादा असर डाला है.

3)विश्वास आधारित उपायों के लागू होने की अवधि मानक अनुपालन और क्रियान्वयन पर प्रभाव डालने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. भारत और पाकिस्तान के बीच किए ज्यादातर सीबीएम समझौते अक्सर दोनों के बीच युद्ध के जवाब में तैयार किए गए हैं. इसलिए इन समझौतों (जैसे शिमला या ताशकंद समझौतों) का प्राथमिक लक्ष्य सीमा पर जारी युद्ध को समाप्त करना था, न कि दीर्घकालीन संबंधों को देखते हुए विशिष्ट नियमों या बाधा आधारित सीबीएम समझौतों को लागू करना. जबकि दस्तावेजों में मानकों के प्रति प्रतिबद्धता जताई गई लेकिन एक समझौतों के कारण मानक अनुपालन की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं हुआ क्योंकि उनमें व्यावहारिकता की कमी थी. शिमला और ताशकंद समझौतों में “आगे के तौर-तरीकों पर चर्चा करने के लिए मिलें”[78] या “उपायों पर विचार करने के लिए सहमत हों”[79] जैसे गैर-बाध्यकारी वाक्यों में इस समस्या को सामने रखा गया बजाय इसके कि वे किसी विशिष्ट तंत्र की आधारशिला रखें ताकि दोनों देश भविष्य में सीबीएम समझौतों पर एकमत होकर आगे बढ़ सकें.

अपने स्तर पर भारत और चीन के बीच सीबीएम समझौते दोनों देशों के बीच सकारात्मक कूटनीतिक संबंधों के तहत विकसित हुए हैं, न कि केवल युद्ध की परिस्थितियों का परिणाम हैं. राजीव गांधी और वाजपेई द्वारा क्रमशः 1988 और 2003 में दौरे के बाद सीमा प्रश्न पर भारत-चीन सयुक्त कार्यबल (1988-2003) और सीमा प्रश्न पर विशेष प्रतिनिधि संवाद (2003-वर्तमान तक) की स्थापना की गई लेकिन, जिसका लक्ष्य किसी निवर्तमान संघर्ष का निवारण नहीं बल्कि दोनों देशों के बीच मूलभूत अंतर को रेखांकित करना था.[80] गठन संघर्ष को आगे बढ़ने से रोकने के लिए किया गया था सीमा पर शांति की स्थिति में आपसी सहयोग की राजनीतिक लागत दोनों पक्षों के लिए बेहद कम होती है. सैन्य स्तर पर चली रही मौजूदा वार्ता आगे के सीबीएम समझौतों को लागू के लिए महत्त्वपूर्ण है. इनका. अब, संघर्ष की समाप्ति के बाद ये जरूरी है कि ये वार्ता दोनों देशों के संबंधों की मूलभूत समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित करे ताकि सीमा पार होने वाली मौतों को रोका जा सके.

4)सीबीएम प्रक्रियाएं जिस स्तर तक मानक अनुपालन और मानक कार्यान्वयन को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं, वे बाह्य कारकों से संचालित होते हैं. सीबीएम समझौते अपने आप में अकेले नहीं होते, वे कई बहिर्जात कारकों पर निर्भर करते हैं जो मानक अनुपालन और क्रियान्वयन पर प्रभाव डालते हैं.

सामाजिक, राजनीतिक और सैन्य कारक सीबीएम समझौतों के मानक अनुपालन और क्रियान्वयन पर पड़ने वाले प्रभावों को परिवर्तित कर सकते हैं. चूंकि सीबीएम दो विरोधी राज्यों के बीच विश्वास निर्माण का उपकरण है, उनकी मानक अनुपालन और क्रियान्वयन को प्रभावित करने की क्षमता दोनों देशों की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों से सीमित होती है. ये दोनों मामलों में स्पष्ट है. इन देशों के बीच सीबीएम के मानक अनुपालन और कार्यान्वयन पर प्रभाव को तीन बहिर्जात कारकों द्वारा निर्धारित किया गया है: देशों के बीच साझा इतिहास की प्रकृति, घरेलू राजनीति की स्थिति और गैर-राज्य अभिनेताओं की भूमिका.

5)गैर-सैन्य सीबीएम का कोई तत्काल प्रभाव नहीं होता है, लेकिन लंबे समय में संबंधों के बीच मूलभूत दरार को कम कर सकता है. सैन्य आक्रमण के बढ़े हुए खतरों और सीमा पार तनाव की घटनाओं की स्थिति में जब सैन्य बल आधारित सीबीएम निम्न-स्तरीय संघर्ष को रोकने में विफल रहे हैं, ऐसे में गैर-सैन्य सीबीएम को या तो बंद कर दिया गया है या इसका मानक कार्यान्वयन और अनुपालन पर प्रभाव शून्य हो गया है. ऐसी सम्मिश्रित विफलता का एक उदाहरण पुलवामा आतंकवादी हमले के बाद दो महीने के लिए भारत पाकिस्तान नियंत्रण रेखा में व्यापार का निलंबन है.

सीबीएम प्रक्रियाओं के निर्माण और उनके क्रियान्वयन में आने वाली राजनीतिक चुनौतियों के बावजूद सीबीएम अभी तक राज्यों के लिए प्रशासन, मानक अनुपालन और क्रियान्वयन का एक महत्त्वपूर्ण साधन रहा है, जो क्षेत्रीय स्थिरता और राज्यों के अनुकूल व्यवहार की स्थापना को प्रेरित करता है.

संघर्ष की स्थिति में सांस्कृतिक सीबीएम का भी बेहद न्यून प्रभाव दिखाई पड़ता है. ‘क्रिकेट कूटनीति’ के लाभ उसी अवधि तक सीमित हैं जहां राज्यों के बीच सकारात्मक राजनीतिक संबंध हैं और 2008 में मुंबई में आतंकवादी हमलों के बाद भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय क्रिकेट आयोजनों की समाप्ति खेल और सांस्कृतिक संबंधों की नाजुक प्रकृति को स्पष्ट करती है.[81] कुछ विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं के बाद क्रिकेट कूटनीति की फिर से शुरुआत हुई है.[82] ऐसा ही एक उदाहरण एक भारतीय नागरिक गोपाल दास को दोनों देशों के बीच क्रिकेट मैच के समय पाकिस्तानी जेल से रिहा करना था. हालांकि, सामान्य तौर पर खेल कूटनीति के आलोचक यह बताते रहते हैं कि ये सब अप्रासंगिक है.

गैर-सैन्य सीबीएम प्रक्रियाएं संघर्ष को मूर्त रूप से रोकने और लंबे या अल्पावधि में मानक अनुपालन या क्रिर्यान्वयन को बढ़ावा देने अक्षम हो सकती हैं.हालांकि,निरंतर खेल संबंध, सांस्कृतिक और शैक्षणिक आदान-प्रदान, और ट्रैक-2 संवाद बनाए रखने से मीडिया और सार्वजनिक बहसों में अस्थिरता में कमी आ सकती है.[83] ‘दुश्मन राज्य’ के नागरिकों को लेकर बेहतर समझ और उनकी प्रशंसा के माध्यम से सैन्य संबंधों में तरलता की स्थिति पैदा की जा सकती है,जिसकी राजनीतिक लागत कम होती है और इसके कारण राजनीतिज्ञ और सैन्य अधिकारी एक दूसरे के साथ साझेदारी के लिए अधिक इच्छुक हो सकते हैं.[84] ये एक ऐसे तंत्र का निर्माण कर सकता है,जो दोनों देशों के बीच संबंधों में मूलभूत दरारों को कम करता है.

निष्कर्ष

पिछले दो दशकों में ऐसी कई परिघटनाएं हुईं हैं जिसने दक्षिण एशियाई देशों के बीच संबंधों को असंतुलित और अस्थिर किया है. ज़मीनी विवाद को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं, नाभिकीय चिंताओं और आजकल सीमा पार से साइबर हमलों के पीछे लंबे समय के ऐतिहासिक तनाव जिम्मेदार हैं, जिसके कारण इन देशों के बीच अविश्वास की स्थिति गंभीर हो गई है. इस क्षेत्र में देशों के राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद जितनी भी विश्वास निर्माण प्रक्रियाओं को लागू किया गया है, उस पर सवाल उठे हैं और उन्हें चुनौती दी गई है.

शीत युद्ध के समय से ही सीबीएम दक्षिण एशिया में सुरक्षा संबंधों के केंद्र में रहा है, ऐसे में ये स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में राज्यों के आपसी व्यवहार से जुड़ी जवाबदेही के मानदंड को स्थापित करने में उनकी कार्यप्रणाली और सफलता कई विशिष्ट कारकों पर निर्भर है जो दक्षिण एशियाई संदर्भ के लिए विशिष्ट हैं. मोटे तौर पर, भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन दोनों संदर्भों में नीति दस्तावेजों और द्विपक्षीय समझौतों के माध्यम से मानदंडों का कार्यान्वयन हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप उनका आंशिक अनुपालन हुआ है.

पश्चिम में सीबीएम प्रक्रियाओं मिले सबक को सीधे सीधे अपना लेने के बजाय, नीति निर्माताओं के लिए ये महत्वपूर्ण है कि वे इस क्षेत्र में काम कर रहे अभिकर्ताओं (सरकारी और गैर-सरकारी दोनों) के बीच भिन्नताओं, उनके लक्ष्यों और संकल्प को समझें. सीबीएम प्रक्रियाओं के निर्माण और उनके क्रियान्वयन में आने वाली राजनीतिक चुनौतियों के बावजूद सीबीएम अभी तक राज्यों के लिए प्रशासन, मानक अनुपालन और क्रियान्वयन का एक महत्त्वपूर्ण साधन रहा है, जो क्षेत्रीय स्थिरता और राज्यों के अनुकूल व्यवहार की स्थापना को प्रेरित करता है.


Endnotes

[1] Zdzislaw Lachowski, “Confidence-Building Measures”, Max Planck Encyclopedia of International Law (2006)

[2] Johan Jørgen Holst, “Confidence‐building Measures a Conceptual Framework,” Survival 25, no. 1 (January 1983): 2–15.

[3] Lachowski, “Confidence-Building Measures”

[4] Nicole Deitelhoff and Lisbeth Zimmermann, “Norms under Challenge: Unpacking the Dynamics of Norm Robustness,” Journal of Global Security Studies 4, no. 1 (January 1, 2019): 2–17.

[5]  This definition has been adapted from the realist, idealist and modern interpretation of CBMs. See: Samina Yasmin and Aabha Dixit, Confidence-Building Measures in South Asia (Henry L. Stimson Center, 1995); Charles C. Flowerree, “CBMs in the U.N Setting,” in Avoiding War In The Nuclear Age: Confidence-Building Measures For Crisis Stability, John Borawski (Routledge, 2019); and James Macintosh, Confidence and Security Building Measures: A Skeptical Look, Working Paper / Peace Research Centre, Australian National University, no. 85 (Canberra: Australian National University, Peace Research Centre, 1990).

[6] Military Confidence Building Measures: How to Make Them Work – UNODA,” United Nations Office for Disarmament Affairs (blog).

[7]  Marie Isabelle Chevrier and Iris Hunger, “Confidence‐building Measures for the BTWC: Performance and Potential,” 2000,  Open Skies-Treaty

[8]  Holst, “Confidence‐building Measures a Conceptual Framework”

[9] James Macintosh (1996). Confidence building in the arms control process : a transformation view. Ottawa: Minister of Foreign Affairs (Canada)

[10]  Holst, “Confidence‐building Measures a Conceptual Framework”

[11] Macintosh, Confidence building in the arms control process : a transformation view.

[12] Lawrence Freedman, “Disarmament and Other Nuclear Norms,” The Washington Quarterly 36, no. 2 (April 1, 2013): 93–108.

[13] Treaty on the Non-Proliferation of Nuclear Weapons (NPT)” (1970).

[14] Tariq Osman Hyder, “Building Nuclear Confidence?,” The Nation, January 3, 2013, sec. Columns. in Toby Dalton, “Beyond Incrementalism: Rethinking Approaches to CBMs and Stability in South Asia” (Stimson Center, January 30, 2013). 

[15]  Dalton, “Beyond Incrementalism: Rethinking Approaches to CBMs and Stability in South Asia”

[16]  “Export Control on Goods, Technologies, Material and Equipment Related to Nuclear and Biological Weapons and Their Delivery Systems Act, 2004,” n.d.

[17] Martand Jha, “India and the Wassenaar Arrangement,” Mint, February 3, 2018, sec. mint-lounge.

[18]  “Agreement between India and Pakistan on the Prohibition of Attack against Nuclear Installations and Facilities” (1988).

[19] Government of India, “Lahore Declaration February, 1999,” Ministry of External Affairs: Government of India.

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