तकनीक नौकरियां खत्म नहीं करती, उसका स्वरूप बदलती है। दूसरे तेजी से बढती अर्थव्यवस्था में डिमांड लगातार बढती रहती है और इसकी वजह से इंसान के जितने काम मशीन ने छीने हैं उसकी भरपाई भी हो जाती है। नयी तकनीक की वजह से नए बदलाव और बढती हुई मांग नए उद्योग और नयी नौकरियां पैदा करता है।
मिसाल के तौर पर बैंक में पैसे का लेन देन करने वाले रोकडिया को देखिये। ATM के आने से और उसके बाद हर गली कूचे में एटीएम के फैल जाने से बैंक रोकडिया की अहमियत बिलकुल ख़त्म हो गई। लेकिन रिपोर्ट ये भी बताती है की ऐसा नहीं कि बैंक का हर वो व्यक्ति जो लेन देन के काम से जुड़ा था वो बेरोजगार हो गया हो। टेक्नोलॉजी ने काम का मिज़ाज बदल दिया। इसलिए बैंक में काम करने वाले रोकडिया अब ग्राहक के साथ सम्बन्ध मैनेज करने वाले मैनेजर बन गए। उनके सिर्फ रूटीन काम अब मशीन करने लगी है।
आख़िरकार ये व्यापार का अर्थशास्त्र ही तय करता है कि कोई भी उद्द्यमी किस तरह श्रम और धन का आवंटन करता है।
उद्योग में रोबोट सबसे ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक और ऑटो इंडस्ट्री में इस्तेमाल होता है। कुल इस्तेमाल होने वाले रोबोट का ३९ प्रतिशत। लेकिन ये मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोज़गार का सिर्फ १३.४ फीसदी है। कपडा, चमड़े का उद्योग और पेय उद्योग में सिर्फ १.४ फीसदी रोबोट इस्तेमाल हो रहे हैं फिर भी ये रोज़गार का ३१.४ फीसदी हिस्सा है। एशिया के विकासशील देशों में १२ ऐसी अर्थव्यवस्था हैं जो इस क्षेत्र में ९० फीसदी रोज़गार देती हैं, इस में से औसतन ४० फीसदी नौकरियां और निर्माण क्षेत्र में होने वाले काम ज़्यादातर साधारण काम हैं जो कि हाथ से किया जाने वाला काम है या फिर ऐसा काम जिसमें इंसान की ज़रुरत क्यूंकि इस काम में चीज़ों को महसूस करना होता है जो मशीनें नहीं कर सकती। इनमें से ज़्यादातर नौकरियां ख़त्म नहीं होने वाली लेकिन कुछ का पुनर्गठन किया जा सकता है, और बाकियों को स्वचालित करना तकनिकी और आर्थिक तौर पर मुनाफे का सौदा नहीं है।
संक्षेप में एलिसबेत्ता जेंटिल, राणा हसन और समीर खातिवाडा ने अपनी रिपोर्ट में ४ मुख्य बिंदु रखे हैं। पहला एशिया के विकासशील देशों ने पिछले २५ सालों में ३० मिलियन नौकरिया पैदा की हैं। दूसरा ये गरीबी दर कम करने, मजदूरों की मजदूरी बढाने और उत्पादकता बढ़ने से मुमकिन हो पाया है। तीसरा रोज़गार की चुनौती अभी ख़त्म नहीं हुई है। ३० सालों में इस क्षेत्र में हर साल ११ मिलियन लेबर और जुडती जायेगी। और भविष्य की तकनीक जो यहाँ पहुँच चुकी है जैसे रोबोट, 3D प्रिंटिंग, इन्टरनेट ये नई नौकरियां और नए मौके और नए उद्योग खड़ा करेंगे, ये कामगारों कि मेहनत को भी कम करेंगे और हुनर बढ़ने का मौक़ा देंगे उद्द्यामियों और कारोबारियों के लिए आखिरकार नौकरियों का मतलब होता है उत्पादकता बढ़ाना। रिपोर्ट के मुताबिक ये नतीजे ४ औद्योगिक क्रांति से आये हैं। पहली औद्योगिक क्रांति १७६० से १९०० के दौरान चली, १४० साल। ये मशीन के इस्तेमाल और स्टीम से चलने वाली मशीन की वजह से मुमकिन हुई। दूसरी औद्योगिक क्रांति १९०० से १९७० के दौरान आई जिसमें बिजली क इस्तेमाल शुरू हुआ। तीसरी औद्योगिक क्रांति जो ७० के दशक से अब तक चल रही है,और अपने चौथे दशक में है जिसमें सुचना तकनीक की बाढ़ आयी और ज़्यादातर चीज़ें स्वचालित हो गईं जिस से उदपाद बढ़ने का माहौल बना। अब चौथे औद्योगिक क्रांति में वर्चुअल और भौतिक उत्पाद व्यवस्था स्मार्ट एप्लीकेशन कि मदद से एक हो रही है। इस क्रांति के ६ मुख्य औज़ार हैं, कृत्रिम बुद्धिमानी , क्वांटम कंप्यूटर, जैव प्रौद्योगिकी, ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी, 3D प्रिंटिंग और नए युग की रोबोटिक्स। सवाल ये है कि ये चौथी औद्योगिक क्रांति कितने सालों तक चलेगी इस से पहले कि पांचवी क्रांति उसकी जगह ले।
हर एक औद्योगिक क्रांति ने उत्पादकता बढाई है। यहाँ भारत में कई और विकासशील देशों कि तरह चारों औद्योगिक क्रांति एक साथ एक ही समय पर चल रही है। इन सभी में उत्पादकता बढ़ने की क्षमता है।
कृषि को भी मशीनीकरण और बिजली से लाभ होगा, उद्योग को बिजली और सूचना प्रौद्योगिकी से, और आधुनिक उद्योग को सूचना प्रौद्योगिकी और रोबोटिक्स से लाभ होगा। इस से कृषि क्षेत्र में रोज़गार बढेगा, नौकरियों में मुनाफा ज्यादा होगा। अगर कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ेगी और इसका ठीक फायदा उठाया जाए तो रोज़गार क्षेत्र में काफी फायदा हो सकता है क्यूंकि भारत में खेतों में सबसे ज्यादा श्रमिक काम करते हैं। सरकार कि जो मंशा है कि किसानो की आमदनी को दुगना किया जाए उस लक्ष्य को हासिल करने में इस से फायदा हो सकता है।
बड़ा सवाल है कि राजनीती कैसे इस मानवीय आर्थिक समस्या को संबोधित करती है। दुनिया भर में नेताओं के लिए रोज़गार एक ऐसा शब्द है जो व्यक्ति की उम्मीद और देश कि आकांक्षा के बीच आर्थिक तनाव को बांधता है। रोज़गार ख़त्म होने कि हर एक घटना के पीछे ऐसे आंकड़े भी हैं जो कुछ और कहानी कहते हैं। आने वाले समय में भी ये सियासत के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।
ये लोकतंत्र और तानाशाही को बराबर से प्रभावित करेगी। सभी देशों के लिए आने वाली सदी कि पहली चौथाई में सबसे बड़ी चुनौती ये होगी कि इस शक्ति को किस तरह सही उपयोग किया जाए, इसका प्रबंधन कैसे हो और इस से अधिकतम आर्थिक विकास कैसे हासिल किया जाए और सबसे बड़ी बात कि समाज के सभी वर्ग को इकठ्ठा रखा जाए यानी सामाजिक टूट से बचाया जाए।
ये शक्ति आंशिक रूप में अभी भी कार्यशील है। मिसाल के तौर पर जन परिवहन क्षेत्र में काफी हद तक ये लागू हो गई है जैसे की उबर जिसमे कृत्रिम इंटेलिजेंस का प्रयोग हो रहा है और ये सभी देशों जैसे फ्रांस, भारत होन्ग कोंग के नेताओं से एक राजनीतिक मांग के तौर पर उठ रही है। न सिर्फ अमेरिका और जर्मनी कि फैक्ट्रियों में बल्कि भारत के हरियाणा कि फैक्ट्री में भी रोबोट प्रवेश कर चुके हैं और मनुष्य कि जगह ले चुके हैं। जब 3D प्रिंटिंग दूर दराज़ के इलाकों में फैल जाएगा तो अनौपचारिक श्रम के क्षेत्र में छोटे और मध्यम उद्योगों में नयी चुनौतियाँ खड़ी करेगा। यही छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योग सबसे ज्यादा रोज़गार देते हैं। ये तो तय है कि इस से नौकरियां तो ख़त्म होंगी ही साथ ही ये धन कि असमानता बढाता, तो ऐसे में इसे लेकर नीतियां क्या हैं। एक तरीका ये हो सकता है कि अधिक कर लागु करने कि व्यवस्था शुरू हो ताकि सामान वेतन दिया जा सके। लेकिन अगर टैक्स ज्यादा लगाया जाएगा तो कंपनियां इन नीत्यों से बचने के लिए सीमा पार भी कर सकती हैं।
भारत में राजनीतिक व्यवस्था में विविधता है इसलिए यहाँ एक सैद्धांतिक नजरिया अपनाना होगा, जो सत्ता से बंधा न हो। यानी राजनीतिक पार्टियों सत्ता में हों या नहीं उन्हें को ये तय करना होगा कि वो तकनीकी क्रांति के साथ जाने को तैयार हैं या नहीं।
सत्ता में रह कर कुछ और और सत्ता से बाहर कुछ और पोजीशन लेना न तो देश के लिए न पार्टी के लिए फायदेमंद होगा। लेकिन ये एक आदर्श स्थिति है जिसे हासिल करना नामुमकिन है। सत्ता में रह कर पार्टिया कुछ और फैसले लेती हैं और सत्ता से बाहर जा कर उन्ही नीतियों के विरोध में भी नज़र आती है। मिसाल के तौर पर GST यानी Goods and Services Tax पर बीजेपी और कांग्रेस ने अपना रुख सत्ता के मुताबिक बिलकुल उलट दिया।
किसी भी तरह के बदलाव से मजदूर का नुकसान तो होता ही है। अर्थव्यवस्था से जुड़े होने की वजह से इस रोज़गार को सुनिश्चित करने के लिए वो कानून और सियासत की मदद लेते हैं लेकिन कई बार ये हिंसक भी हो जाता है। २०१२ में मानेसर में मारुती कंपनी की फैक्ट्री में एक हत्या कर दी गयी थी। अब तक उनकी नौकरियों की सुरक्षा को लेकर जो कानून हैं वो काफी पुराने हैं। ऐसे में एक राजनीतिक फैसला लिया जाना चाहिए जिसमें किसी भी आने वाले नए नेता को इसके लिए ज़रूरी ट्रेनिंग होनी चाहिए की वो कौशल को किस तरह बढ़ावा दें और साथ ही वो लाखों लोग जो रोज़गार के बाज़ार में प्रवेश करने को खड़े हैं उनकी भी मदद करनी होगी। आने वाले समय में तकनीक के आने से अलग अलग क्षेत्रों में जो नौकरियों में कमी होगी या उनका स्वरुप बदलेगा ऐसे किसी भी स्थिति से निबटने के लिया सियासत और उसके नेताओं को ही नए कौशल सीखने की ज़रुरत है, नयी सूझबूझ चाहिए। इसके पहले कि टूट की स्थिति आ जाये अभी भी समय है,लगभग डेढ़ दशक का, लेकिन सवाल ये है कि क्या हमारे नेताओं में ये इच्छाशक्ति है?
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