Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 19, 2025 Updated 0 Hours ago

अगर आसियान को बदलती भू-राजनीतिक परिस्थितियों में भारत जैसी रणनीतिक साझेदारियों का फायदा उठाना है तो उसे अपनी एकता और केंद्रीयता को मज़बूत बनाए रखना होगा.

अमेरिका और चीन में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के बीच ASEAN की भूमिका?

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ये लेख रायसीना एडिट 2025 श्रृंखला का हिस्सा है.


अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री के तौर पर ऐसे लोगों की नियुक्ति की है, जो चीन के विरोधी रहे हैं. चीन को लेकर उनका रुख़ पहले से हमलावर रहा है. विदेश और रक्षा मंत्री के पद पर इनकी नियुक्ति से इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि भविष्य में अमेरिकी की नीति ना सिर्फ भारत-प्रशांत क्षेत्र में तनाव को बढ़ाएगी बल्कि आसियान को भी दरकिनार कर देगी. ऐसे में आसियान को उस तरह अचानक हैरान नहीं होना चाहिए, जैसे यूरोप चौंका था. यूरोप को अमेरिका के रवैये में इतने बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं थी. अब आसियान को अपनी एकता, केंद्रीयता और क्षमता को मज़बूत करना चाहिए. बदलती परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए एक समान हितों और समान विचारधारा वाले भारत जैसे देशों की रणनीतिक साझेदारों का फायदा उठाना चाहिए.

ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में पहले की नीतियों को दोगुना ताक़त से लागू करने की तैयारी कर रहे हैं. उनका रुख़ लेन-देन वाला होगा और अमेरिकी हितों को पूरा करने के लिए वो पुराने समझौतों में संशोधन कर सकते हैं.


ट्रंप के 'अमेरिका फर्स्ट' सिद्धांत की वजह से पुराने और पारंपरिक गठबंधनों में बड़े बदलाव की उम्मीद जताई जा रही है. ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका की नीति बहुपक्षवाद की नहीं बल्कि एकतरफावाद यानी सबसे पहले स्वहित की होगी. ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में पहले की नीतियों को दोगुना ताक़त से लागू करने की तैयारी कर रहे हैं. उनका रुख़ लेन-देन वाला होगा और अमेरिकी हितों को पूरा करने के लिए वो पुराने समझौतों में संशोधन कर सकते हैं.

पश्चिमी गोलार्ध में, अमेरिकी सरकार ने यूरोप और ग्रीनलैंड पर अपना प्रभाव मजबूत करने की कोशिश की. यहा तक कि इसके लिए उसने दबाव डालने की धमकी भी दी. हालांकि, यूरोपीय देशों में 'शांति' के प्रति अमेरिका के इस दृष्टिकोण को रूस के लिए फायदेमंद और यूक्रेन के लिए घाटे के सौदे के रूप में देखा गया. उधर मध्य पूर्व में, जॉर्डन और मिस्र पर भी दबाव डाला जा रहा है. इन देशों से कहा गया कि या तो वो ट्रंप की विवादास्पद गाजा पुनर्निर्माण योजना के तहत फिलिस्तीनी शरणार्थियों को स्वीकार करें या फिर अमेरिकी सहायता में कटौती का सामना करने के लिए तैयार रहें.

अब चर्चा इस बात पर है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अमेरिकी नीति को क्या नया रूप दिया जा सकता है. इस बात को लेकर आंतरिक स्तर पर बहस हो रही है कि क्या ये अमेरिका की नई रणनीतिक प्राथमिकता होनी चाहिए. बाइडेन प्रशासन का ये मानना था कि यूक्रेन युद्ध में रूस को जीत हासिल करने से रोकना ज़रूरी है, क्योंकि ये ताइवान पर चीन के संभावित हमले को रोकने के लिए महत्वपूर्ण था. अब अमेरिका का मौजूदा ट्रंप प्रशासन यूक्रेन युद्ध के लिए रूस की निंदा करने को ज़रूरी नहीं समझता, लेकिन चीन के ख़िलाफ उसका रुख़ सख़्त हो गया है.

चीन के प्रति ट्रंप के दृष्टिकोण को समझने की कुंजी उनके 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' (MAGA) सिद्धांत में छुपी है. ये सिद्धांत चीन को अमेरिका के प्राथमिक वैचारिक, भू-राजनीतिक और आर्थिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश करता है. अपने पहले कार्यकाल के दौरान ट्रंप ने व्यापार युद्ध, चाइना इनिशिएटिव और हुआवेई जैसी तकनीकी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी पर प्रतिबंध लगा दिया था. इसके अलावा कोविड-19 से निपटने के चीन के तरीके की भी ट्रंप ने कड़ी आलोचना की थी. इससे अमेरिका और चीन के बीच तनावपूर्ण संबंधों के एक नए युग की शुरुआत हुई थी.

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका और चीन के बीच तनाव और ज़्यादा बढ़ने की आशंका है. ट्रंप ने एलान किया है कि वो 'निष्पक्ष और पारस्परिक योजना' यानी 'फेयर एंड रेसिप्रोकल प्लान' के तहत आयात पर उच्च शुल्क लगाएंगे. चीन के विरोधी देशों के साथ ट्रंप अपना गठबंधन मज़बूत करना चाहते हैं. इससे भी दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ेगा. इसके जवाब में चीन की तरफ से भी एक और व्यापार युद्ध के अलावा दूसरी जवाबी कार्रवाई करने की संभावना है. चीन कोयले और लिक्विफाइड नेचुरल गैस (LNG) पर 15 प्रतिशत, कच्चे तेल, कृषि मशीनरी और बड़ी गाड़ियों पर 10 प्रतिशत शुल्क लगा सकता है. इतना ही नहीं अमेरिका के प्रमुख उद्योगों के लिए महत्वपूर्ण 25 दुर्लभ पृथ्वी धातुओं के निर्यात पर भी चीन का नियंत्रण है. इसके अलावा चीन ने गूगल के ख़िलाफ एक अविश्वास जांच शुरू की है. दो अमेरिकी कंपनियों को चीन ने अपनी अविश्वसनीय संस्थाओं की सूची में रखा है. ये सारी बातें इन दोनों देशों के बीच गहराते आर्थिक टकराव का संकेत दे रही हैं.



आसियान: विकल्पों की भरमार

अमेरिकी राष्ट्रपति पद पर ट्रंप की वापसी से आसियान के सामने चुनौतियां और अवसर दोनों ही पेश कर रही हैं. ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियां दक्षिण-पूर्व एशिया के व्यापार और निवेश प्रवाह को बाधित कर सकती हैं, क्योंकि वो अमेरिका पर बहुत ज़्यादा निर्भर हैं. 2024 में अमेरिका-आसियान व्यापार 476.8 अरब डॉलर का था, जिसमें व्यापार घाटा 227.7 अरब डॉलर था.

अतीत में, विशेष रूप से वियतनाम में, निवेश के अवसरों को दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर मोड़ दिया गया था. आज अमेरिकी शुल्क के प्रति वियतनाम सबसे अधिक संवेदनशील है क्योंकि ये अमेरिकी बाजार पर निर्भर है. अमेरिका को निर्यात वियतनाम के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 30 प्रतिशत या 142.4 अरब डॉलर है. अमेरिका के व्यापारिक भागीदारों में चीन, यूरोपीय संघ और मैक्सिको के वियतनाम ही चौथा ऐसा देश है, जो अमेरिका से कारोबार करने में इतना ज़्यादा मुनाफा कमाता है.

इसके अलावा, अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के बीच, आसियान के सामने सस्ते चीनी सामानों की सुनामी में डूबने का ज़ोखिम है. ये ख़तरा आसियान को क्षेत्रीय एकीकरण को मज़बूत करने और अमेरिका से अलग नई वैकल्पिक साझेदारी की तलाश करने और अपनी आर्थिक रणनीतियों को फिर से तैयार करने पर मज़बूर कर सकता है.

चीन के प्रति ट्रंप का टकराव वाला दृष्टिकोण क्षेत्रीय तनाव को बढ़ा सकता है. हालांकि अमेरिका का इस आक्रामक रणनीति का पहला फायदा फिलीपींस को हो सकता है. दक्षिण चीन सागर में चीन की ग्रे ज़ोन गतिविधियों का मुकाबला करने के लिए फिलीपींस को एक मज़बूत और भरोसेमंद साथी चाहिए. अमेरिका एक प्रमुख सुरक्षा सहयोगी के रूप में फिलीपींस की इस कमी को पूरा कर सकता है.

दक्षिण चीन सागर में चीन की ग्रे ज़ोन गतिविधियों का मुकाबला करने के लिए फिलीपींस को एक मज़बूत और भरोसेमंद साथी चाहिए. अमेरिका एक प्रमुख सुरक्षा सहयोगी के रूप में फिलीपींस की इस कमी को पूरा कर सकता है.

आसियान क्षेत्र में जितने भी संयुक्त सैन्य अभ्यास होते हैं, उसमें सबसे ज़्यादा मदद और उपकरण अमेरिका ही मुहैया कराता है. क्षमता और विश्वास निर्माण के तरीकों में ही नहीं बल्कि प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में भी अमेरिका इस इस क्षेत्र में चीन से बहुत आगे निकल चुका है. फिलीपींस की नौसेना की बहुपक्षीय और द्विपक्षीय समुद्री सहयोग गतिविधियों की वजह से चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा अवैध और दबाव डालने वाले कार्रवाइयों में कमी देखी गई है.

हालांकि इस सबसे इंडोनेशिया, मलेशिया और ब्रुनेई जैसे देशों के लिए मुश्किल पैदा हो सकती है. ये देश दक्षिण चीन सागर में संकट प्रबंधन के लिए एक शांत रुख़ अपनाते हैं. ट्रंप की ज़्यादा आक्रामक इंडो-पैसिफिक रणनीति के तहत इन देशों को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने और दरकिनार होने से बचने के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है.

अमेरिकी रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ को आसियान के बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन विदेश मंत्री मार्क रुबियो ने QUAD (क्वाड्रिलेट्रल सिक्योरिटी इनिशिएटिव) के बाद फिलीपींस, वियतनाम और इंडोनेशिया के साथ बातचीत को प्राथमिकता देने का फैसला किया है. मार्क रुबियो का ये फैसला बताता है कि आसियान अभी भी अमेरिका के लिए रणनीतिक महत्व रखता है. हालांकि, अभी ये देखना बाकी है कि क्या ये एक गहरी और निरंतरता वाली अमेरिकी भागीदारी में तब्दील होता है या इसे लेकर अमेरिका का रुख़ सिर्फ़ लेन-देन वाला ही रहेगा.

 

ASEAN को क्या करना चाहिए?

आसियान को भू-राजनीतिक परिवर्तनों के प्रभावों को कम करने के लिए सक्रिय उपाय अपनाने चाहिए. सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि आसियान देशों को अपनी एकजुटता बढ़ानी चाहिए. इस क्षेत्र में चीन की ताक़त बढ़ रही है. ऐसे में अगर ट्रंप प्रशासन के तहत अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष के हालात बनते हैं तो आसियान देश भी ना चाहते हुए इसमें फंस जाएंगे.

आसियान क्षेत्र में इन दोनों महाशक्तियों के दबदबे में आया ये बदलाव ISEAS के सर्वे, "दक्षिण-पूर्व एशिया की स्थिति 2024" में सामने आया. इसके मुताबिक  सर्वेक्षण में शामिल 50.5 प्रतिशत दक्षिण-पूर्व एशियाई लोगों ने अमेरिका के बजाय चीन का पक्ष लिया, जबकि पिछले साल ये 38.9 प्रतिशत ही था. इसका मतलब चीन के प्रभाव में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इसके अलावा, चीन को आसियान में सबसे रणनीतिक रूप से मौलिक भागीदार माना जाता है, जिसे 11 में से 8.98 का औसत स्कोर प्राप्त हुआ है. हालांकि, ये अमेरिका के औसत स्कोर 8.79 से थोड़ा ही आगे है. इन हालातों में अपना हित साधने के लिए आसियान को आपसी सामंजस्य को मज़बूत करने के लिए क्षेत्रीय एकीकरण और कनेक्टिविटी पर ज़्यादा ज़ोर देना चाहिए.

आसियान को चीन-अमेरिका संघर्ष के संदर्भ में अपनी केंद्रीय भूमिका को मज़बूत करना चाहिए. हालांकि कुछ लोग आसियान की केंद्रीय भूमिका की प्रभावशीलता पर सवाल उठाते हैं, लेकिन बाहरी शक्तियों के साथ तनाव और विवादों को हल करने के लिए आसियान अब भी एक महत्वपूर्ण तंत्र बना हुआ है.

दूसरा, आसियान को चीन-अमेरिका संघर्ष के संदर्भ में अपनी केंद्रीय भूमिका को मज़बूत करना चाहिए. हालांकि कुछ लोग आसियान की केंद्रीय भूमिका की प्रभावशीलता पर सवाल उठाते हैं, लेकिन बाहरी शक्तियों के साथ तनाव और विवादों को हल करने के लिए आसियान अब भी एक महत्वपूर्ण तंत्र बना हुआ है. ये संगठन आसियान की केंद्रीयता ढांचे का इस्तेमाल टकराव में शामिल पक्षों को स्थापित अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कर सकता है.

इसके अलावा आसियान को समान विचारधारा वाले देशों के साथ अपने सहयोग को सक्रिय रूप से मज़बूत करना चाहिए. इससे क्षेत्रीय स्थिरता और शांति को बढ़ावा मिलेगा. आसियान इसके लिए जो कोशिशें करेगा, उसमें साझा हितों वाले देश के रूप में भारत एक महत्वपूर्ण पड़ोसी देश के रूप में उभर रहा है.

भारत की उपस्थिति

भारत की 'लुक ईस्ट' नीति आसियान के साथ उसके संबंधों को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. लुक ईस्ट नीति को अब 'एक्ट ईस्ट' नीति के तौर पर विकसित किया जा रहा है. वैश्विक भू-राजनीतिक गतिशीलता में तेज़ी से बदलाव हो रहे हैं. इन सबके बीच, भारत और आसियान के बीच बढ़ती साझेदारी इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में स्थिरता और शांति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में है. रणनीतिक रूप से अहम माने जाने वाले क्षेत्र में आसियान की केंद्रीयता को मज़बूत करने में भारत महत्वपूर्ण है. हालांकि, कुछ बड़ी चुनौतिया भारत-आसियान संबंधों को और ज़्यादा मज़बूत करने में बाधा डालती हैं. 

सबसे पहली और सबसे ज़रूरी बात ये है कि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) पर भारत का अलग रुख़ एक बड़ी बाधा है. आसियान को अभी भी उम्मीद है कि भारत RCEP में शामिल होने के अपने रुख़ पर फिर से विचार करेगा.

चीन के बढ़ते क्षेत्रीय प्रभाव के प्रति विभिन्न देशों की अलग-अलग प्रतिक्रियाओं से एक और गंभीर चुनौती पैदा होती है. चीन के ख़िलाफ भारत का टकरावपूर्ण दृष्टिकोण और क्वॉड में शामिल होना आसियान के साथ उसके संबंधों को जटिल बनाता है. कई आसियान देश क्वॉड को संदेह की दृष्टि से देखते हैं. वो क्वॉड को अपनी केंद्रीयता के लिए संभावित ख़तरा और चीन का मुकाबला करने की चाल के रूप में देखते हैं. आसियान खुद को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में होने वाले सत्ता परिवर्तन में उलझने से बचाना चाहता है.

एक बात और, भारत और आसियान ने अभी तक अपनी साझेदारी को और ज़्यादा रणनीतिक स्तर तक नहीं बढ़ाया है. उनका रिश्ता काफी हद तक सतही या आसान शब्दों में कहें तो कामचलाऊ ही है. इनके संबंध अभी उस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं, जिसमें वो इस क्षेत्र के सामने मौजूद चुनौतियों का समाधान करने के लिए आवश्यक गहराई और जुड़ाव महसूस करें.

इसके लिए ज़रूरी ये है कि सबसे पहले भारत-आसियान व्यापार और निवेश संबंधों को सिंगापुर से आगे जाना चाहिए. दूसरा, समुद्री सहयोग भारत और आसियान के बीच सुरक्षा संबंधों की आधारशिला है. सैनिक सहयोग से परे, दोनों पक्ष समुद्री बुनियादी ढांचे को बढ़ाने और शिपिंग लिंक को बेहतर बनाने में काफ़ी रुचि रखते हैं. तीसरा, भारत और आसियान ने द्विपक्षीय और बहुपक्षीय स्तरों पर मिलकर काम किया है. भारत ने चार प्रमुख आसियान देशों: इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर और वियतनाम के साथ ‘रणनीतिक साझेदारी’ स्थापित की है. इसके अलावा भारत ने पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन, आसियान क्षेत्रीय मंच और आसियान रक्षा मंत्रियों की बैठक समेत आसियान नेतृत्व वाले विभिन्न मंचों में सक्रिय भूमिका निभाई है. इससे क्षेत्रीय स्थिरता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता मज़बूत हुई है.

भारत ने चार प्रमुख आसियान देशों: इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर और वियतनाम के साथ ‘रणनीतिक साझेदारी’ स्थापित की है. इसके अलावा भारत ने पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन, आसियान क्षेत्रीय मंच और आसियान रक्षा मंत्रियों की बैठक समेत आसियान नेतृत्व वाले विभिन्न मंचों में सक्रिय भूमिका निभाई है.

निष्कर्ष के तौर पर ये कहा जा सकता है कि कई चुनौतियों के बावजूद भारत-आसियान संबंधों को मजबूत करने की काफ़ी संभावना है. इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन (IORA) और बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी पहल (BIMSTEC) जैसे संगठन इस अहम भूमिका निभा सकते हैं. ये संगठन भारत और आसियान के बीच अंतर-क्षेत्रीय संपर्क और सहयोग को बढ़ाने के लिए प्रभावी मंच के रूप में काम कर सकते हैं. इससे दोनों पक्षों के लिए और ज़्यादा समृद्ध और सुरक्षित भविष्य का रास्ता साफ होगा.


क्यूरी महारानी जकार्ता स्थित थिंक टैंक इंडो-पैसेफिक स्ट्रैटेजिक इंटेलिजेंस में एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर हैं.

वेंडी ए प्राजुली जर्मनी की हंबोल्ट यूनिवर्सिटी में पीएचडी स्टूडेंट हैं.

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