20 वीं सदी के निर्णायक पलों में से एक 1972 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की बीजिंग यात्रा थी. इसने क्षेत्र की भू-राजनीति में एक अहम बदलाव किया और चीन के उदय का मार्ग प्रशस्त किया. उस अभूतपूर्व अमेरिकी विदेश नीति की पहल के कारण एक नई शब्दावली गढ़ी गई जो ‘निक्सन टू चाइना’ के रूप में मशहूर हुआ था और अब दिन दूर नहीं जब इसके ठीक आधी सदी बाद एक नया जुमला ‘पेलोसी टू ताइवान’ इसकी जगह ले सकता है.
पेलोसी की ताइवान यात्रा ने चीन के दोहरेपन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की रणनीतिक पहुंच की सीमाओं को उजागर कर दिया है. इसने चीन द्वारा राष्ट्रवाद को हथियार बनाने के नुकसान को उजागर किया है.
निक्सन की यात्रा का तब बेहद महत्व था क्योंकि इसने चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के संबंधों में एक नई शुरुआत की नींव डाली थी. तब शंघाई कम्युनिक ने घोषणा की थी कि पीपुल्स रिपब्लिक और अमेरिका के बीच संबंधों का सामान्यीकरण वैश्विक शांति के हित में है और इसका क्षेत्रीय सुरक्षा पर भी भारी असर पड़ेगा लेकिन अब पेलोसी की ताइवान यात्रा ने चीन के दोहरेपन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की रणनीतिक पहुंच की सीमाओं को उजागर कर दिया है. इसने चीन द्वारा राष्ट्रवाद को हथियार बनाने के नुकसान को उजागर किया है.
शुरुआत से ही अमेरिकी सदन की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की यात्रा एक दोस्ताना माहौल के साथ शुरू नहीं हुई थी. पहले, इस बात की पुष्टि नहीं की गई थी कि पेलोसी, जो अमेरिकी राष्ट्रपति पद के रेस में दूसरे स्थान पर हैं, वास्तव में ताइवान का दौरा करेंगी. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का यह बयान कि अमेरिकी सेना ने पेलोसी की यात्रा को मंजूरी नहीं दी है, इससे चीनी नेतृत्व को यह संकेत मिला कि अमेरिकी राजनीतिक अभिजात वर्ग शायद ताइवान के मुद्दे पर एक जैसी राय नहीं रखता है. इस बात ने चीन को पेलोसी की यात्रा का विरोध करने को बढ़ावा दिया.
आमने-सामने आये दो बड़ी ताकत
28 जुलाई को राष्ट्रपति शी जिनपिंग और बाइडेन के बीच फोन कॉल के दौरान, शी जिनपिंग ने चीन को एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में मानने और चीन के साथ संबंध तोड़ने की अमेरिकी विदेश नीति के दृष्टिकोण की जमकर आलोचना की. हालांकि, ताइवान के मुद्दे पर, जिसे चीन अपने ‘मुख्य हित’ के रूप में परिभाषित करता रहा है, शी ने बाइडेन को कड़ी चेतावनी दी और कहा कि “जो लोग आग से खेलते हैं वो ख़ाक में मिल जाएंगे”, जो यह दर्शाता है कि पेलोसी ताइवान की यात्रा कर चीन की ‘लाल रेखा’ को तोड़कर चीन से सैन्य प्रतिक्रिया की ही उम्मीद कर रहीं होंगी. चीन की शीर्ष सत्ता पर बैठे लोगों की बयानबाजी से संकेत लेते हुए, चीन की सरकारी मीडिया ने चीनी सत्ता के साथ सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया और धमकी दी कि पेलोसी के जेट को गोलियों से उड़ाया जा सकता है. यहां तक कि चीनी राजनयिकों ने भी “ख़तरे के ख़िलाफ़ तैयारी” का ज़िक्र तक कर दिया,बिना यह बताए कि आख़िर उनके मन में क्या चल रहा है लेकिन संकेत ऐसे दिए जाने लगे कि जो कुछ भी होगा उसका असर ख़तरनाक होगा.
पेलोसी की यात्रा के बाद चीन की प्रतिक्रिया अपनी आर्थिक ताक़त का लाभ उठाने और “लक्षित सैन्य अभियानों” को शुरू करने की जुगलबंदी जैसी नज़र आई. चीन ने ताइवान से समुद्री भोजन और फलों के आयात को रद्द कर दिया, साथ ही इस सूची में पिछले कुछ वर्षों में क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों के बिगड़ने के बाद से लगभग 1,000 सामानों पर भी प्रतिबंध लगा दिया.
हालांकि, पेलोसी की यात्रा के बाद चीन की प्रतिक्रिया अपनी आर्थिक ताक़त का लाभ उठाने और “लक्षित सैन्य अभियानों” को शुरू करने की जुगलबंदी जैसी नज़र आई. चीन ने ताइवान से समुद्री भोजन और फलों के आयात को रद्द कर दिया, साथ ही इस सूची में पिछले कुछ वर्षों में क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों के बिगड़ने के बाद से लगभग 1,000 सामानों पर भी प्रतिबंध लगा दिया. ताइवान के क़रीब समंदर में चीन ने जंगी तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं ; चीन ने ताइवान के हवाई क्षेत्र में मिसाइल हमले और हवाई हमले दोनों को अंजाम दिया है. पेलोसी और उनके परिजन पर बीजिंग ने प्रतिबंध लगा दिया है. एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि दक्षिणी ताइवान, जो राष्ट्रपति त्साई इंग वेन की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के समर्थकों का गढ़ है, वहां के कुछ हिस्सों में कृषक समुदाय को लक्षित कर आर्थिक उपायों को अंजाम दिया जा रहा है. तथ्य यह है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने ताइवान तक आने और जाने के लिए पेलोसी की विमानों से हस्तक्षेप नहीं किया और चीन ने अमेरिकी राजनेता के जाने के बाद ही अपना सैन्य अभ्यास शुरू किया, इससे हो सकता है कि चीन ने अपने राष्ट्रवादी वोटरों को निराश किया हो क्योंकि शी जिनपिंग ने वादा किया था कि वह बलपूर्वक ताइवान को फिर से अपने साथ मिला लेंगे.
1972 में निक्सन और चीनी नेताओं के बीच बातचीत के दौरान अमेरिका ने इस स्थिति की पुष्टि की थी कि चीन द्वारा ताइवान मुद्दे का शांतिपूर्ण समाधान किया जाना चाहिए. हालांकि, 2020 में, चीनी अभिजात वर्ग ने शांतिपूर्ण शब्द को छोड़ दिया और ताइवान को वापस चीन में मिलाने के लिए एक बार फिर लड़ाकू जेट और नौसेना के जहाज ताइवान के क़रीब समंदर में अभ्यास करने लगे.
चीन के राष्ट्रवादी पिछले दशक में अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के टकराव के बीच समानताएं देख सकते हैं. जबकि यूएसएसआर ने साल 1940 में एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया के बाल्टिक गणराज्यों पर कब्ज़ा कर लिया था लेकिन सोवियत संघ में उनके शामिल होने के बावज़ूद पश्चिमी देशों के द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं होने के बाद भी, अमेरिका ने तत्कालीन सोवियत संघ की गिरती साख के बावज़ूद इन विवादित क्षेत्रों के बारे में कोई भी कार्रवाई करने से परहेज़ किया. चीन के वैचारिक साथी में दक्षिण कोरियाई नागरिक जेट को मार गिराने का साहस था, जो 1983 में ग़लती से सोवियत संघ के हवाई क्षेत्र में घुस गया था. पेलोसी की यात्रा के मद्देनज़र अपने राष्ट्रवादी वोटरों के बीच ऐसे हंगामे की आशंका को देखते हुए चीनी विदेश मंत्रालय ने लोगों से आह्वान किया कि वो “तर्कसंगत देशभक्ति” की मिसाल दें और चीन की अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने के लिए बीजिंग की क्षमता में भरोसा रखें.
चीन का दोहरा रवैया
यह हमें शी जिनपिंग की दोहरी बातचीत और रणनीतिक पहुंच के मुद्दे पर लाता है. जिनपिंग के नेतृत्व में लगातार तरक्की करता चीन हांगकांग के संबंध में ब्रिटेन के लिए अपनी संधि प्रतिबद्धताओं पर वापस अड़ा रहा. महामारी के चरम पर, चीन ने सीमा समझौतों का उल्लंघन करते हुए लद्दाख क्षेत्र में सैनिकों को इकट्ठा किया, जिस पर शी के पूर्ववर्ती शासकों ने हस्ताक्षर किए थे. फिर भी जुलाई में बाइडेन के साथ अपनी बातचीत में शी ने चीन की क्षेत्रीय अखंडता पर जोर दिया और कहा कि अमेरिका को पीपुल्स रिपब्लिक की इस धारणा का पालन करना चाहिए कि ताइवान जलडमरूमध्य के दोनों पक्ष चीन से संबंधित हैं, जिसके बारे में चीन-अमेरिका के संयुक्त संवाद में बताया गया है. 1972 में निक्सन और चीनी नेताओं के बीच बातचीत के दौरान अमेरिका ने इस स्थिति की पुष्टि की थी कि चीन द्वारा ताइवान मुद्दे का शांतिपूर्ण समाधान किया जाना चाहिए. हालांकि, 2020 में, चीनी अभिजात वर्ग ने शांतिपूर्ण शब्द को छोड़ दिया और ताइवान को वापस चीन में मिलाने के लिए एक बार फिर लड़ाकू जेट और नौसेना के जहाज ताइवान के क़रीब समंदर में अभ्यास करने लगे. आसान शब्दों में कहें तो चीन अपने वादे से मुकर सकता है हालांकि, दूसरे पक्ष को अपनी बात सामने रखनी चाहिए.
जिनपिंग के नेतृत्व में तेजी से बढ़ते हुए चीन ने क्षेत्रीय विवादों को सामने रखा है और लोकतांत्रिक राष्ट्रों के व्यवहार को निर्देशित करने का विकल्प चुना है. साल 2021 में चीन ने उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा पर आपत्ति जताई थी. तब शिक्षाविद पेरी लिंक ने चीन के व्यवहार की तुलना एनाकोंडा से की थी, जिसे देखने मात्र से उसके विरोधी के व्यवहार में बदलाव होता है. ‘पेलोसी टू ताइवान’ ने चीन की लाल रेखा को ख़त्म कर दिया है और एनाकोंडा के भय को ख़त्म कर दिया है. ख़ास तौर पर यह चीन के ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक राष्ट्रों की हुंकार है, क्योंकि यह ऐसे समय में आया है जब लोकतांत्रिक देश व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग जैसे निरंकुश शासकों से दबाव महसूस कर रहे हैं. हालांकि, पेलोसी ने अपनी लोकतांत्रिक साख को क़ायम रखने और ताइवान को चीन के ख़िलाफ़ समर्थन देने का वादा कर अपने दौरे को समाप्त कर दिया. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने चीन के दोहरेपन को सामने ला दिया है, जहां चीन एक ओर पीपुल्स रिपब्लिक की क्षेत्रीय अखंडता की बात करता है और दूसरी ओर वह यूक्रेन के ख़िलाफ़ हमला बोलने में पुतिन की सहायता करता है.
ऐसा लगता है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी घरेलू समर्थन जुटाने के लिए राष्ट्रवादी भावना का दोहन कर रही है लेकिन मेनलैंड के राष्ट्रवादियों के बीच बढ़ती नाराज़गी अब इस मुद्दे के किसी भी शांतिपूर्ण समाधान को मुश्किल बना सकती है.
‘पेलोसी टू ताइवान’ चीन के राष्ट्रवाद को हिंसक बनाने पर भी प्रकाश डालता है. दरअसल ऐसा लगता है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी घरेलू समर्थन जुटाने के लिए राष्ट्रवादी भावना का दोहन कर रही है लेकिन मेनलैंड के राष्ट्रवादियों के बीच बढ़ती नाराज़गी अब इस मुद्दे के किसी भी शांतिपूर्ण समाधान को मुश्किल बना सकती है. राष्ट्रवादी वोटरों का यह समूह चीन को ताइवान को ज़बरन अपने में मिलाने से कम की उम्मीद नहीं करता है. फिर भी अहम 20वीं पार्टी कांग्रेस से पहले ऐसा करना शी जिनपिंग के लिए जोख़िमों से भरा है क्योंकि वो एक शानदार तीसरे कार्यकाल की उम्मीद कर रहे हैं, क्योंकि सैन्य मोर्चे पर ऐसा कोई भी झटका सत्ता में आने की उनकी संभावनाओं को कम कर सकता है. इसके अलावा शी जिनपिंग को यह भी याद रखना चाहिए कि 1962 में क्यूबा द्वीप के मुद्दे पर दुस्साह दिखाने का ही नतीजा था कि सोवियत संघ के नेता निकिता ख्रुश्चेव को वहां की जनता ने सत्ता से बाहर कर दिया था.
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