विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ पूरी दुनिया में हर महीने करीब 1.8 अरब महिलाओं को माहवारी होती है, इनमें से ज़्यादातर विकासशील देशों की कम से कम 50 करोड़ महिलाओं को माहवारी के बारे में ना तो कोई अधिक जानकारी है और ना ही उन्हें इस स्थिति को सुरक्षित और सम्मानजनक तरीके से संभालने के बारे में ज़्यादा कुछ पता है. उदाहरण के लिए, नाइजीरिया में 25 प्रतिशत महिलाओं को मेन्सट्रुअल हाइजीन मैनेजमेंट यानी माहवारी स्वच्छता प्रबंधन (MHM) के लिए ज़रूरी निजता या एकांत की कमी है. बांग्लादेश में केवल 6 प्रतिशत स्कूलों में ही माहवारी स्वच्छता प्रबंधन की शिक्षा दी जाती है. माहवारी की समझ और इसके लिए ज़रूरी साफ़-सफ़ाई को लेकर जागरूकता की कमी के साथ ही माहवारी के समय आवश्यक सैनिटरी नैपकिन जैसी चीज़ों तक पहुंच नहीं होना भी इसकी एक बड़ी वजह है. उदाहरण के लिए यूनेस्को और पी एंड जी (2021) के एक अध्ययन के अनुसार भारत में माहवारी वाली 40 करोड़ महिलाओं में 20 प्रतिशत से भी कम महिलाएं सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं, जबकि इन महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या (65 प्रतिशत) लिपिस्टिक जैसे सौंदर्य उत्पादों का उपयोग कर रही है. इसी अध्ययन में यह भी सामने आया है कि 71 प्रतिशत किशोरी बालिकाओं को तब तक माहवारी के बारे में कुछ भी पता नहीं होता है, जब तक उनका पहला पीरियड नहीं आता. यह उनके स्वास्थ्य, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को प्रभावित करता है.
माहवारी की समझ और इसके लिए ज़रूरी साफ़-सफ़ाई को लेकर जागरूकता की कमी के साथ ही माहवारी के समय आवश्यक सैनिटरी नैपकिन जैसी चीज़ों तक पहुंच नहीं होना भी इसकी एक बड़ी वजह है.
माहवारी स्वास्थ्य और स्वच्छता तक महिलाओं और बालिकाओं की पहुंच लैंगिक-संवेदनशील जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य (WASH) सेवाओं का एक अंग है. इसके अलावा, सतत् विकास लक्ष्य यानी एसडीजी 6.2 माहवारी स्वास्थ्य और स्वच्छता के अधिकार को मानता है. इसका स्पष्ट उद्देश्य, “वर्ष 2030 तक सभी के लिए पर्याप्त और एक समान स्वच्छता एवं स्वास्थ्य उपलब्धता सुनिश्चित करना और खुले में शौच को समाप्त करना है, साथ ही महिलाओं व बालिकाओं और कमज़ोर लोगों की ज़रूरतों पर विशेष ध्यान देना है.” यह उल्लेखनीय है कि सुरक्षित और सम्मानजनक माहवारी की आवश्यकता को समझे बगैर दुनिया एसडीजी 6 के अंतर्गत स्वच्छता और स्वास्थ्य के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकती है.
शिक्षा और रोज़गार से लेकर स्वास्थ्य और पर्यावरण तक हर विषय में लैंगिक समानता के मद्देनज़र यह संकट बेहद डरावना है. माहवारी को लेकर किशोरियों और महिलाओं को अपमान, उत्पीड़न एवं सामाजिक बहिष्कार तक का सामना करना पड़ता है. इन सबकी वजह से महिलाएं कहीं आ-जा नहीं सकती हैं, उनकी पसंद-नापसंद प्रभावित होती है, यहां तक कि समुदाय के बीच उठना-बैठना दूभर हो जाता है और लड़कियों की स्कूलों में उपस्थिति भी कम हो जाती है. अक्सर यह देखने में आता है कि भेदभाव वाली सामाजिक प्रथाएं, सांस्कृतिक रूढ़ियां, ग़रीबी और शौचालय एवं सैनिटरी उत्पादों जैसी जरूरी सुविधाओं की कमी सभी महिलाओं तक माहवारी स्वास्थ्य और स्वच्छता की पहुंच में सबसे बड़ा रोड़ा बनती हैं.
इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में 2 जनवरी, 2021 को एक अनूठे समुदाय आधारित माहवारी स्वच्छता कार्यक्रम ‘पावना’ की शुरुआत की गई. ज़िले के महिला एवं बाल विकास विभाग के एक अध्ययन के अनुसार, पावना कार्यक्रम शुरू होने से पहले ज़िले की 40 प्रतिशत महिलाएं (माहवारी वाली 1,60,000 महिलाओं में से) सैनिटरी पैड का इस्तेमाल कर रही थीं, जबकि पावना कार्यक्रम शुरू होने के पश्चात मार्च, 2022 तक ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़कर 75 प्रतिशत हो गई. इसमें भी बड़ी उपलब्धि यह रही कि ज़िले के 774 गांवों में से 530 गावों में 100 प्रतिशत महिलाएं सैनिटरी पैड इस्तेमाल करने लगीं.
पावना कार्यक्रम शुरू होने से पहले ज़िले की 40 प्रतिशत महिलाएं सैनिटरी पैड का इस्तेमाल कर रही थीं, जबकि पावना कार्यक्रम शुरू होने के पश्चात मार्च, 2022 तक ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़कर 75 प्रतिशत हो गई. इसमें भी बड़ी उपलब्धि यह रही कि ज़िले के 774 गांवों में से 530 गावों में 100 प्रतिशत महिलाएं सैनिटरी पैड इस्तेमाल करने लगीं.
इस पहल में व्यवहार और उपयोग के तरीके में बदलाव लाने के लिए तीन सिद्धांतों यानी पहुंच, जागरूकता और स्वीकृति के आधार पर स्थानीय रणनीतियों के ज़रिए सभी तक माहवारी स्वच्छता की पहुंच सुनिश्चित करने की परिकल्पना की गई है. इसके लिए अलग-अलग स्रोतों से मिलने वाले संसाधनों को ज़रूरत के अनुसार क्रमबद्ध करने के लिए कई सरकारी योजनाओं को एक साथ लाया गया और उनका आपस में तालमेल सुनिश्चित किया गया.
सभी समुदायों में समस्याओं का सामना करने के लिए कुछ न कुछ संसाधन हमेशा से होते है, बस उन्हें एक साथ लाने और आगे बढ़ाने की आवश्यकता होती है. पावना जैसी पहल समाज की महिलाओं को बदलाव का माध्यम बनने के लिए प्रोत्साहित करती है. ये महिलाएं स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) की सदस्य हैं, जो पहुंच, जागरूकता और स्वीकृति सुनिश्चित करने के लिए इस पहल की रीढ़ हैं. स्थानीय समुदाय से जुड़ी इन महिलाओं को स्वच्छता सखी के रूप में जाना जाता है. इसके अलावा, स्कूली शिक्षिकाएं, आशा और आंगनवाड़ी वर्कर भी इस पहल में सक्रिय भागीदार हैं.
पहुंच
इसकी सफ़लता के पीछे हर एक हितधारक तक पहुंच और पूरे तंत्र को बनाने एवं उपयोग करने में सामुदायिक भागीदारी का महत्तवपूर्ण योगदान है. जहां तक पावना कार्यक्रम की बात है तो इसके तहत सैनिटरी पैड की निर्बाध व किफ़ायती आपूर्ति के लिए दो स्थानीय स्वयं सहायता समूहों (SHGs) को उत्पादन शुरू करने के लिए प्रेरित किया गया. इसके लिए उन समूहों से जुड़े लोगों ने प्रशिक्षण और उद्यमिता विकास कार्यक्रमों में भी हिस्सा लिया. एसएचजी-बैंक ऋण कड़ी और रूर्बन मिशन जैसी अन्य योजनाओं के माध्यम से मशीन ख़रीदने और प्रशिक्षण के लिए राशि का इंतज़ाम किया गया.
जहां तक पावना कार्यक्रम की बात है तो इसके तहत सैनिटरी पैड की निर्बाध व किफ़ायती आपूर्ति के लिए दो स्थानीय स्वयं सहायता समूहों (SHGs) को उत्पादन शुरू करने के लिए प्रेरित किया गया. इसके लिए उन समूहों से जुड़े लोगों ने प्रशिक्षण और उद्यमिता विकास कार्यक्रमों में भी हिस्सा लिया.
स्वयं सहायता समूह के उत्पादों को बाज़ार तक पहुंचाने में वितरण चैनल की प्रमुख भूमिका है. इसके लिए पंचायतों को उत्पादों की मांग के एक केंद्र के रूप में रखते हुए, उन्हीं के साथ मिलकर एक आपूर्ति श्रृंखला बनाई गई है. पांच ग्राम पंचायतों के लिए एक स्वयं सहायता समूह (वितरक) को चिन्हित किया गया, जो दूसरे स्वयं सहायता समूह (निर्माता) से सैनिटरी पैड ख़रीदता है. शुरुआत में ज़िला प्रशासन ने स्वयं सहायता समूहों के कार्य को गति देने के लिए 50 हज़ार रुपये के रिवॉल्विंग फंड से उनकी सहायता की. अब ये एसएचजी सीधे तौर पर पंचायत स्तर से और स्थानीय किराना स्टोरों एवं साप्ताहिक हाट बाज़ारों से पैदा होने वाली मांग के मुताबिक़ सैनिटरी पैड ख़रीदते और बेचते हैं.
जागरूकता
यह योजना सैनिटरी पैड के मुफ़्त वितरण के बजाय जागरूकता और इसकी स्वीकृति पर अधिक ज़ोर देने की कोशिश करती है. स्थानीय लोग चूंकि सबसे अच्छे सलाहकार होते हैं, इसलिए इसमें पूरे समाज के दृष्टिकोण को शामिल किया गया है. स्वच्छता सखियां स्थानीय लोक गीतों, नारों, रेडियो संदेशों और नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से माहवारी स्वच्छता को बढ़ावा देती हैं. “पावना, बदल रही है मन की भावना” और “पावना नारी शक्ति का आईना” जैसे नारे वहां के गांवों और स्कूलों में लोकप्रिय हो गए हैं. शिक्षा और पंचायती राज विभाग ने भी रक्त दान शिविरों, निबंध लेखन एवं ड्राइंग प्रतियोगिताओं के माध्यम से और अंतर्राष्ट्रीय माहवारी स्वच्छता दिवस मनाकर इस कार्यक्रम को सफल बनाने में अपना सक्रिय योगदान दिया है. माहवारी स्वच्छता को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए फ़िल्मों, वृत्तचित्रों और ज्ञानपरक वीडियो का भी उपयोग किया जाता है. इतना ही नहीं असुरक्षित माहवारी के कारण तमाम तरह की बीमारियों का शिकार हुई महिलाओं को भी अक्सर अपने अनुभव साझा करने के लिए इन अभियानों में लाया जाता है.
माहवारी स्वच्छता को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए फ़िल्मों, वृत्तचित्रों और ज्ञानपरक वीडियो का भी उपयोग किया जाता है.
माहवारी स्वच्छता प्रबंधन को लेकर महिलाओं की झिझक कम करने के लिए वरिष्ठ सरकारी अधिकारी और जन प्रतिनिधि भी जागरूकता अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं. सक्रिय कार्यकर्ताओं के एक वाट्सएप ग्रुप के साथ ही, नियमित बैठकों एवं अभियानों से संबंधित और सैनिटरी पैड के वितरण से जुड़े रोज़ाना के अपडेट अन्य हितधारकों को इससे जोड़े रखते हैं.
स्वीकार्यता
इस योजना ने केवल सैनिटरी पैड बेचने के अलावा और भी बहुत कुछ हासिल किया है. माहवारी से जुड़ी तमाम रूढ़ियों से लड़ने के लिए रायगढ़ ज़िला प्रशासन ने इस विषय से जुड़े तमाम मिथकों और भ्रांतियों को तोड़कर एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत की है. उदाहरण के लिए, ज़िले के धरमजयगढ़ ब्लॉक में दूरदराज के इलाके के एक समुदाय का मानना था कि सैनिटरी पैड का उपयोग करने से बांझपन हो जाएगा. हालांकि, गांव के सरपंच, स्थानीय प्रतिनिधियों, अधिकारियों और ग्रामीणों के लगातार प्रयासों के साथ-साथ बड़े-बुजुर्गों से आमने-सामने की बातचीत करने का परिणाम यह हुआ कि गांव में सैनिटरी पैड की स्वीकृति मिल गई. इसी तरह, स्कूल के शिक्षकों ने लड़कियों को जागरूक किया उन्हें इससे जुड़ी हर जानकारी दी. जिसने स्कूली लड़कियों को अपने इलाकों में माहवारी को लेकर रूढ़िवादी सोच बदलने का माध्यम बना दिया.
माहवारी से जुड़ी तमाम रूढ़ियों से लड़ने के लिए रायगढ़ ज़िला प्रशासन ने इस विषय से जुड़े तमाम मिथकों और भ्रांतियों को तोड़कर एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत की है. उदाहरण के लिए, ज़िले के धरमजयगढ़ ब्लॉक में दूरदराज के इलाके के एक समुदाय का मानना था कि सैनिटरी पैड का उपयोग करने से बांझपन हो जाएगा.
निष्कर्ष
माहवारी स्वच्छता का विषय काफ़ी लंबे समय से नीति निर्माताओं के दिमाग में रहा है. केंद्र सरकार की एमएचएम योजना वर्ष 2014 में पहली बार देशभर में शुरू की गई थी, जो स्वच्छ भारत अभियान के साथ तेज़ी से आगे बढ़ी. इसके अलावा, कॉरपोरेट्स ने भी इस मुद्दे को लेकर जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उदाहरण के लिए, व्हिस्पर के #KeepGirsInSchool अभियान ने इसके प्रति नज़रिया बदलने पर काफ़ी प्रमुखता से ध्यान केंद्रित किया. इसी तरह, यूनिसेफ के #RedDotChallenge ने सुनिश्चित किया कि लड़कियां अपने पीरियड्स को गरिमा के साथ संभालें. स्कूली शिक्षा कार्यक्रमों के माध्यम से, कई गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करके और फिल्मी सितारों समेत अन्य प्रसिद्ध हस्तियों के संदेशों के ज़रिए इन अभियानों ने इस मुद्दे को संबोधित करने की भरकस कोशिश की है.
जहां तक पावना की बात है तो इसमें स्थानीय लोग अपने गांव के लिए काम कर रहे हैं. ज़ाहिर है कि समुदाय के भीतर के लोग अपनी ज़रूरतों को किसी और की तुलना में ज़्यादा समझते हैं. इसलिए उनकी भागीदारी से समस्या का आसान और सरल समाधान मिला, जिसका कि पहले के वितरण नेटवर्क और अभियानों में अभाव था.
यह अभियान तब शुरू हुआ, जब कोविड-19 महामारी की वजह से पूरा स्वास्थ्य तंत्र तमाम दिक्कतों से जूझ रहा था. उस समय आपूर्ति श्रृंखला बाधित थी और देश के ग्रामीण और दूरदराज़ के हिस्सों में सैनिटरी पैड की उपलब्धता कम हो गई थी. दुकानें बंद होने और ऑनलाइन डिलीवरी सिस्टम चरमराने की वजह से उस दौरान माहवारी स्वच्छता काफ़ी हद तक प्रभावित हुई थी.
आगे की ओर देखें तो, पावना योजना में सामुदायिक भागीदारी की जो विशेष बात है, वो भविष्य के कॉर्पोरेट अभियानों और इसी तरह की दूसरी पहलों के लिए एक बड़ी सीख है. पावना का उद्देश्य जहां पहुंच और स्वीकृति पर ध्यान केंद्रित करना है, वहीं माहवारी को लेकर समाज में जो वर्जनाएं हैं, उन्हें तोड़ना भी है.
आगे की ओर देखें तो, पावना योजना में सामुदायिक भागीदारी की जो विशेष बात है, वो भविष्य के कॉर्पोरेट अभियानों और इसी तरह की दूसरी पहलों के लिए एक बड़ी सीख है. पावना का उद्देश्य जहां पहुंच और स्वीकृति पर ध्यान केंद्रित करना है, वहीं माहवारी को लेकर समाज में जो वर्जनाएं हैं, उन्हें तोड़ना भी है. इसके अलावा, इस पहल के कई सकारात्मक परिणाम भी हैं, जैसे कि इससे स्कूल छोड़ने की दर, कुपोषण, मां बनने की उम्र और महिलाओं के प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य में और सुधार होने की उम्मीद है. ऐसे में यह कहना उचित है कि स्वास्थ्य पर अधिक से अधिक ध्यान देने के साथ ही माहवारी से जुड़ी साफ़-सफ़ाई और स्वच्छता को स्वस्थ जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बनाने के लिए नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने और इसके लिए संसाधनों को विकसित करने का समय अब आ गया है.
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