अमेरिका और तालिबान के बीच जारी बातचीत में एक दिलचस्प मोड़ आ गया है। ‘एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ में हाल ही में छपे एक लेख में इस बात का जिक्र किया गया है कि संयुक्त अरब अमीरात में वार्ता के दौरान यह प्रस्ताव रखा गया कि अफगानिस्तान में कुछ सैन्य ठिकाने बरकरार रखने और पश्चिम के खिलाफ हमलों के लिए अफगान धरती का इस्तेमाल नहीं होने देने की गारंटी की एवज में अफगानिस्तान को अमेरिका से पर्याप्त वित्तीय सहायता मिलेगी। लेख में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि इसके बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी द्वारा किए गए विदेशी दौरों का उद्देश्य स्पष्ट तौर पर इस घटनाक्रम के बारे में चीन, रूस और ईरान को भरोसे में लेना और उनकी चिंताएं कम करना था।
बीते दौर पर गौर करें, तो तालिबान और अमेरिका के बीच सुलह कोई हैरानी की बात नहीं है। आखिरकार 1980 के दशक के आखिर में सोवियत संघ के खिलाफ अपने संघर्ष के दौरान दोनों पुराने सहयोगी रहे हैं।
इतना ही नहीं, जैसा कि अहमद रशीद ने अपनी पुस्तक द तालिबान : द पॉवर ऑफ मिलिटेंट इस्लाम इन अफगानिस्तान एंड बियॉन्ड में लिखा है कि मध्य एशिया, पाकिस्तान और तो और अमेरिका में आर्थिक अवसरों का पता लगाने के लिए तालिबान और उसके सदस्य अमेरिका के साथ व्यवहारिक संबंध साझा करते हैं।
अफगानिस्तान में दशकों से जारी हिंसा को समाप्त करने के नजरिए देखा जाए, तो प्रत्येक पक्ष ने अपनी0-अपनी स्थिति को देखते हुए जो नियम और शर्तें तय की हैं, वे इतनी न्यायसंगत दिखाई देती हैं, कि जिनमें उनमें से प्रत्येक अपनी कामयाबी का दावा कर सकता है। अमेरिका के लिए अफगानिस्तान में सैन्य अड्डे बरकार रखना उसको तालिबान तथा अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में पनपने वाले आतंकवादी गुटों पर नजर रखने में समर्थ बनाएगा। इसके अलावा, इन अड्डों से अमेरिका इस क्षेत्र में अपने सामरिक लक्ष्यों को पाने की कोशिश जारी रख सकेगा। इन अड्डों से अमेरिका को उभरती परमाणु शक्ति ईरान पर नजर रखने में मदद मिलेगी। जहां तक रूस और चीन का सवाल है, यह प्रस्तावित समझौता — हालांकि भूराजनीतिक मजबूरियों में उलझा हुआ है, इस तथ्य के बावजूद कि इससे अमेरिका को उनके पिछवाड़े के आंगन में लम्बे अर्से तक अपने पैर जमाए रखने में मदद मिलेगी — इसे अफगानिस्तान में कट्टरपंथ पर अंकुश लगाने के तौर पर देखा जा रहा है। यदि कट्टरपंथ को अफगानिस्तान के भीतर ही नियंत्रित करके नहीं रखा गया और वह आस पास के क्षेत्र में फैल गया, तो इससे रूस और चीन दोनों के लिए नई तरह की जटिलताओं और चुनौतियों का सूत्रपात हो जाएगा। इसके अलावा, क्षेत्र में रूस और चीन के आर्थिक हित हैं और ऐसे में इस क्षेत्र में उनके मौजूदा हितों के लिए खतरे को देखते हुए अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य ठिकानों के बने रहने के बारे में रूस और चीन दोनों के द्वारा सकारात्मक रुख अपनाए जाने की संभावना है।
तालिबान के लिए, यदि अमेरिका के साथ यह प्रस्तावित समझौता हो जाता है, तो अफगानिस्तान से अमेरिकियों की आंशिक वापसी की व्याख्या वे अपनी जीत के तौर पर करने में समर्थ होंगे। प्रस्तावित समझौता न सिर्फ उन्हें घरेलू स्तर पर बल्कि वैश्विक स्तर पर भी वैधता दिलाएगा, जिसका उन्हें लम्बे अर्से से इंतजार है। 1996 में, जब तालिबान ने अपनी सरकार बनाई थी, तो बहुत कम देशों ने राजनयिक मान्यता प्रदान की थी। प्रस्तावित समझौता तालिबान को अफगानिस्तान के भीतर धीरे-धीरे अपने राजनीतिक कदमों का विस्तार करने में भी समर्थ बनाएगा।
हालांकि मौजूदा समझौते से कुछ अर्से के लिए राजनीतिक स्थिरता कायम होगी और हिंसा में कमी आएगी, लेकिन प्रस्तावित समझौते के टिकाऊपन के बारे में सोचने में कोई मदद नहीं कर सकता।
तालिबान कितने अर्से तक अफगानिस्तान में अमेरिकी अड्डों का बरकरार रहना बर्दाश्त कर सकते हैं? इसके अलावा, अफगानिस्तान में उभरती राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता के बंटवारे को लेकर भी काफी अस्पष्टता है। क्या तालिबान परिपक्वता दिखाएंगे और अफगानिस्तान के सभी पक्षों के साथ राजनीतिक अधिकार और स्थान साझा करेंगे? यह वह सवाल है, जिस पर वहां से रवाना हो रहे अमेरिकी, क्षेत्रीय देशों और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को विचार करने की जरूरत है।
दूसरी बात यह है कि इस संभावना पर विचार करना पूरी तरह गलत नहीं होगा कि तालिबान अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी सुनिश्चित करने की अपनी हताशा में इन शर्तों को केवल फिलहाल के लिए स्वीकार कर सकता है, लेकिन बाद में इनसे मुकर सकता है। इस बात की भी पूरी संभावना है कि पाकिस्तान, जिसने 1990 के दशक के शुरूआती वर्षों में तालिबान के उदय में सहायता की थी और जो हमेशा उसका समर्थन करता आया है, उसने तालिबान को समझाया हो कि वह केवल सहयोग का दिखावा भर करे और अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या में और कटौती होते ही अपनी बात से पीछे हट जाए। यहां इस बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि इन सबके बीच, पाकिस्तान, अमेरिकी-तालिबान समझौते की संभावना को लेकर काफी उत्साहित दिखाई दे रहा है। पाकिस्तान के लिए क्षेत्र में अमेरिकी सुरक्षा बलों की तादाद में कमी आने से वह अपनी खोयी सामरिक स्थिति दोबारा हासिल करने में समर्थ हो सकेगा।
यहां परेशान करने वाली बात यह है कि अमेरिका की ओर से, तालिबान से ऐसा कोई भरोसा लेने की कोशिशें नहीं की जा रहीं कि वह भारत जैसे क्षेत्रीय देशों की सुरक्षा चिंताओं के प्रति नुकसानदायक गतिविधियों को अंजाम नहीं देगा या उनके लिए सहायता नहीं करेगा। भारत को इस बात की चिंता करने का पूरा हक है कि अमेरिकी वापसी से सुरक्षा की दृष्टि से एक शून्य उत्पन्न हो जाएगा, जिससे पाकिस्तान फिर से अफगानिस्तान के जरिए भारत-विरोधी गतिविधियों में शामिल होने को उत्साहित होगा।
पिछले कुछ महीनों से, पाकिस्तान सरकार ऐसे संकेत दे रही है कि वह भारत के साथ सुलह की इच्छुक है। यदि पाकिस्तान, भारत के साथ अपने संबंध सामान्य बनाने के लिए वास्तव में गंभीर है, तो उसे अफगानिस्तान के बारे में भारत के विचारों पर भी गौर करना चाहिए।
इसकी बजाए, पाकिस्तान अपनी अफगान गणना में भारत की अनदेखी करते हुए खुश रहा है। जैसा कि ओआरएफ में परामर्शदाता और पूर्व रॉ प्रमुख विक्रम सूद की दलील है कि पाकिस्तान महज ”भारत के साथ अपनी पूर्वी सीमा पर शांति रखने का प्रयास कर रहा है” और अपने रणनीतिक मंसूबों को अंजाम देने के लिए कुछ मोहलत ले रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प तालिबान के साथ समझौता करने के लिए पाकिस्तान की सेवाएं चाहते हैं, ऐसे में यह बेहद आवश्यक है कि भारत इस बात पर जोर दे कि पाकिस्तान को अफगानिस्तान के भीतर अस्थिरता पैदा करने की किसी भी गतिविधि को अंजाम देने से रोका जाए। पाकिस्तान को भविष्य में किसी भी तरह की अस्थिरता पैदा करने वाली भूमिका निभाने से रोकने के लिए भारत को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर दबाव बनाना चाहिए कि वह इस मौके पर पाकिस्तान को किसी तरह की सैन्य या वित्तीय मदद देने की प्रतिबद्धता जताते समय संयम से काम लें। इस बात की पूरी संभावना है कि अफगान समस्या के इस महत्वपूर्ण चरण में पाकिस्तान में किए गए किसी भी निवेश का इस्तेमाल अंतत: पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठानों द्वारा तालिबान को प्रोत्साहन देने तथा अफगानिस्तान में अपने राजनीतिक और सैन्य एजेंडे को आगे बढ़ाने में जाएगा।
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