पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की 20 विधानसभा सीटों पर उप-चुनाव की पूर्व संध्या पर लग रहा था कि सत्ताधारी पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ (पीएमएलएन) नेशनल असेंबली के बाक़ी बचे कार्यकाल को पूरा कर लेगी और अगस्त 2023 तक सत्ता में बनी रहेगी. 17 जुलाई 2022 को इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) पार्टी ने उप-चुनाव में पीएमएलएल को ज़बरदस्त हार का सामना कराया. अचानक पाकिस्तान की राजनीति में इमरान ख़ान के पक्ष में हवा बहने लगी. देश में 12 दलों की गठबंधन सरकार का भविष्य काफ़ी निराशाजनक लगने लगा. पीएमएलएन के नेतृत्व वाले गठबंधन की राजनीतिक श्रद्धांजलि लिखी जाने लगी और राजनीतिक पंडित अक्टूबर के इर्द-गिर्द आम चुनाव की भविष्यवाणी करने लगे.
अचानक पाकिस्तान की राजनीति में इमरान ख़ान के पक्ष में हवा बहने लगी. देश में 12 दलों की गठबंधन सरकार का भविष्य काफ़ी निराशाजनक लगने लगा.
उप-चुनाव के दो हफ़्तों के बाद 2 अगस्त को राजनीति का रुख़ एक बार फिर पीएमएलएन की तरफ़ झुकने लगा. पाकिस्तान के चुनाव आयोग (ईसीपी) ने पीटीआई के वित्तीय लेन-देन को लेकर अपना लंबे समय से रुका फ़ैसला जारी किया. आम बोलचाल की भाषा में जिसे ‘विदेशी फंडिंग’ केस के नाम से जाना जाता है, उस मामले में चुनाव आयोग का आदेश न सिर्फ़ पीटीआई बल्कि इमरान ख़ान को भी कठघरे में खड़ा करता है. एक ही झटके में वित्तीय मामलों में इमरान ख़ान की ईमानदार और साफ होने की ख़ासियत को बड़ा नुक़सान पहुंचा. लेकिन इमरान ख़ान की शोहरत से ज़्यादा चुनाव आयोग का ये आदेश उनके राजनीतिक भविष्य पर असर डालेगा. अगर संपत्ति, खाते और वित्तीय लेन-देन को लेकर ग़लत जानकारी देने के मामले में क़ानून और पहले के उदाहरणों का पूरी तरह पालन किया गया तो इमरान ख़ान अपने विरोधी नवाज़ शरीफ़ की तरह पूरी ज़िंदगी के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य हो सकते हैं.
इमरान पर नकेल कसने के साथ पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में नाटकीय बदलाव आया है. अब उनका रवैया बचाव वाला है और उनके राजनीतिक विरोधी इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर इमरान को हराने की तैयारी में लगे हैं. इमरान ख़ान समय से पहले आम चुनाव कराने के लिए जो दबाव बना रहे थे, वो ख़त्म हो गया है. सत्ताधारी गठबंधन ने इमरान और उनकी पार्टी के ख़िलाफ़ पूरी तरह से क़ानूनी अभियान छेड़ दिया है. अब ये तय लग रहा है कि गठबंधन सरकार अगले साल अगस्त तक सत्ता में रहेगी. अगर किसी वजह से समय से पहले चुनाव होता भी है तो इसका कारण ये नहीं होगा कि इमरान चुनाव चाहते हैं बल्कि ये होगा कि गठबंधन को चुनाव में उतरने का वो सही वक़्त लगेगा.
इमरान ख़ान बनाम पाकिस्तान सेना
अपने अभ्यास के मुताबिक़ इमरान ने अपना पूरा ज़ोर लगा लिया. विपक्ष से मिली हार, जिसकी वजह से उन्हें सत्ता से हटना पड़ा, को इमरान पचा नहीं पाए. इसके बाद इमरान टकराव के रास्ते पर उतर गए और सत्ता में बदलाव के पीछे ‘साज़िश’ की बात कहने लगे, ये जताने लगे कि वो अमेरिका और उसके स्थानीय सहयोगियों के द्वारा रचे गए भयावह षडयंत्र के शिकार हैं. इमरान सेना के ख़िलाफ़ कई तरह की बातें करने लगे. उन्होंने अपना साथ नहीं देने की वजह से सेना पर भी साज़िश का आरोप लगाया. राजनीतिक मुक़ाबले में सेना के ‘तटस्थ’ बने रहने के फ़ैसले पर एतराज़ जताते हुए इमरान ने कहा कि सिर्फ़ जानवर तटस्थ होते हैं. इसके बाद उन्होंने बयानबाज़ी तेज़ करते हुए सेना के आला अधिकारियों पर मीर जाफ़र और मीर सादिक़ के जैसी भूमिका निभाने का आरोप लगाया. मीर जाफर और मीर सादिक़ ऐसी शख्सियत हैं जिनसे भारतीय उप-महाद्वीप के मुसलमान नफ़रत करते हैं. सेना और नई सरकार के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर एक बड़ा अभियान भी शुरू किया गया. लेकिन इस तरह की उकसाने वाली कार्रवाई के बावजूद सेना ने जान-बूझकर ख़ामोशी बनाए रखी और कोई जवाब नहीं दिया.
अब ये तय लग रहा है कि गठबंधन सरकार अगले साल अगस्त तक सत्ता में रहेगी. अगर किसी वजह से समय से पहले चुनाव होता भी है तो इसका कारण ये नहीं होगा कि इमरान चुनाव चाहते हैं बल्कि ये होगा कि गठबंधन को चुनाव में उतरने का वो सही वक़्त लगेगा.
सेना की चुप्पी ने इमरान की तरफ़ से और हमले करने के लिए उनका हौसला बढ़ाया. अपनी रैलियों में लोगों की भीड़ को देखकर इमरान के जोश में और बढ़ोतरी हुई. लेकिन जिस वजह से इमरान पूरी तरह टूट पड़े. वो थी उप-चुनाव में उनकी असाधारण और ज़बरदस्त जीत. उप-चुनाव के नतीजे को इमरान ने अपने ‘सेना विरोधी’ रुख़, ‘साम्राज्यवाद विरोधी’ बड़बोलेपन और लड़ाकू, यहां तक कि गाली-गलौच वाली राजनीति पर जनता की मुहर और राजनीतिक स्वीकृति के रूप में देखा. इमरान को लगा कि आख़िरकार उन्होंने सेना, जिसने उनके राजनीतिक उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, की ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ दिया है. एक तरफ़ जहां इमरान ने अपनी आग उगलने वाली भाषा को और तेज़ कर दिया वहीं सेना ने गहरी चुप्पी साध ली और उसकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया. इससे सेना के भीतर बंटवारे की अफ़वाहों को बल मिला. सेना के बड़े अधिकारियों के बीच इमरान का समर्थन करने वालों और इमरान को पाकिस्तान की सुरक्षा एवं स्थायित्व के लिए ख़तरा समझने वालों के दो गुट बनने की बात कही जाने लगी.
पीटीआई खुले तौर पर कहने लगी कि उसे न सिर्फ़ सेना के बड़े अधिकारियों का समर्थन हासिल है, बल्कि जो जनरल पीटीआई के ख़िलाफ़ हैं, उनके परिवार वाले भी उसके साथ हैं. इस बीच पीएमएलएन में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने लगी जिन्होंने सेना की तटस्थता पर शक जताया. संदेह जताया जाने लगा कि सेना पीएमएलएन को बलि का बकरा बनाकर उसके साथ ग़लत व्यवहार कर रही है, पीएमएलएन का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए किया जा रहा है और इस प्रक्रिया में उसे लोगों के ग़ुस्से का शिकार बनाया जा रहा है जिससे आख़िरकार इमरान ख़ान की सत्ता में वापसी का रास्ता साफ़ होगा. पीएमएलएन के कुछ बड़े नेता चाहते थे कि पार्टी सेना के विरोध में कठोर रवैया अपनाए और अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन को फिर से हासिल करे.
सेना का जवाबी हमला
दोनों बड़ी पार्टियों की तरफ़ से सेना पर हमले के साथ कुछ समय के लिए लगने लगा कि पाकिस्तान की राजनीति किसी बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रही है. सेना के वर्चस्व को इससे पहले कभी ऐसी चुनौती नहीं मिली थी.
इसी समय सेना ने जवाबी हमला किया. पीटीआई की तरफ़ से हद पार करने के बाद इमरान ख़ान को ग़लती करने की जो छूट दी गई थी, उसे वापस ले लिया गया. एक के बाद एक तीन घटनाएं सेना के द्वारा इमरान ख़ान को उनकी वास्तविक स्थिति बताने में महत्वपूर्ण थीं. पहली घटना थी बलूचिस्तान में सेना का हेलीकॉप्टर क्रैश, जिसमें क्वेटा के कोर कमांडर समेत छह सैनिकों की मौत हुई थी, होने के बाद पीटीआई से जुड़े ट्रोल्स के द्वारा सेना की ट्रोलिंग. पाकिस्तानी सेना के जनसंपर्क विंग इंटर-सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) ने इस ट्रोलिंग पर बेहद तीखी प्रतिक्रिया दी. यहां तक कि सैन्य बिरादरी के भीतर मौजूद पीटीआई समर्थक भी पीटीआई की सोशल मीडिया टीम के निर्देश पर चलाए गए इस बदनामी वाले अभियान से नाराज़ हो गए. इसके कुछ दिनों के बाद कोर कमांडरों की अदला-बदली की गई. इमरान के पसंदीदा जनरल फ़ैज़ हमीद को पेशावर से बहावलपुर तैनात कर दिया गया. ये राजनीतिक तबादले (माना जाता है कि हमीद सेना के आलाकमान के ख़िलाफ़ जा रहे थे और उन्होंने इमरान ख़ान को समर्थन जारी रखा था) के साथ-साथ इस बात का संकेत भी था कि सेना हमीद के द्वारा ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांत में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के आतंकवादियों को दी जा रही छूट को लेकर चिंतित है. सेना में अदला-बदली होते ही पीटीआई के ट्रोलर्स की सेना ने इसके ख़िलाफ़ एक अभियान शुरू कर दिया. ये सेना को पसंद नहीं आया क्योंकि ये सेना के भीतर राजनीति करने के समान था. साथ ही ये सेना की एकजुटता और उसके निर्देशों की प्रणाली को कमज़ोर कर रहा था.
उप-चुनाव के नतीजे को इमरान ने अपने ‘सेना विरोधी’ रुख़, ‘साम्राज्यवाद विरोधी’ बड़बोलेपन और लड़ाकू, यहां तक कि गाली-गलौच वाली राजनीति पर जनता की मुहर और राजनीतिक स्वीकृति के रूप में देखा.
सेना को नाराज़ करने की आख़िरी कोशिश कुछ दिनों बाद हुई जब इमरान ख़ान के चीफ ऑफ स्टाफ शहबाज़ गिल ने एआरवाई न्यूज़, जो कि खुलेआम पीटीआई के मीडिया प्रोपेगेंडा चैनल के तौर पर काम कर रहा था, पर सेना के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी की. गिल ने सेना मुख्यालय के ख़िलाफ़ विद्रोह और आदेश का उल्लंघन करने के लिए सैनिकों और अधिकारियों को उकसाया. ये इमरान ख़ान और पीटीआई के लिए अल्ताफ़ हुसैन जैसा हाल होने का पल था. इसके फ़ौरन बाद एआरवाई टीवी को ऑफ एयर कर दिया गया. अगले दिन गिल को गिरफ़्तार कर लिया गया और उनसे बदसलूकी की गई. माना जाता है कि गिल ने कबूल किया कि उन्हें इमरान ख़ान ने सेना के नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए निर्देशित किया था. पीटीआई की ट्रोल सेना और एआरवाई के कुछ पत्रकारों, जिन पर आरोप है कि वो इमरान ख़ान के सेना विरोधी विमर्श को तैयार कर रहे थे, के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू की गई. एआरवाई के एक बड़े अधिकारी को गिरफ़्तार कर लिया गया. चैनल के एक प्रमुख एंकर को दुबई भागना पड़ा जबकि दूसरे गिरफ़्तारी के डर से छिप गए. अब ऐसी ख़बरें हैं कि एआरवाई की सुरक्षा मंज़ूरी को वापस ले लिया गया है और चैनल को बंद करने की संभावना है. इस बीच पीटीआई को असलियत का एहसास होने लगा. पार्टी के बड़े नेता इस विवाद से ख़ुद को दूर रखने की कोशिश कर रहे हैं और सेना के प्रति अपने प्यार, लगाव और वफ़ादारी की कसमें खा रहे हैं. यहां तक कि इमरान ख़ान को भी समझ में आ गया है कि वो पूरी तरह बर्बादी के एक रास्ते पर हैं.
इमरान का अंत?
जब तक कहानी में एक नया मोड़ नहीं आता है, जिसे पाकिस्तान में कभी भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता है, तब तक के लिए ऐसा लगता है कि इमरान ख़ान की पारी ख़त्म हो गई है. उनके अयोग्य घोषित होने की संभावना बहुत ज़्यादा है. ये बात ज़रूर है कि उनको तुरंत अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा. इस कार्रवाई के लिए ‘क़ानूनी प्रक्रिया’ का पालन किया जाएगा. इसका ये मतलब है कि कुछ महीनों तक इमरान ख़ान को अदालत के चक्कर लगाने होंगे. इमरान के कई समर्थक उनका साथ छोड़ देंगे. पीटीआई को कमज़ोर बनाने के लिए भारी दबाव बनाया जाएगा. लेकिन इस पूरी कहानी का अंत ये है कि सेना फिर से देश को चला रही है. इस बात कि उम्मीद करना कि राजनीति में सेना की भूमिका राजनीतिक दलों के द्वारा हद में रखी जाएगी, वो पूरी तरह ख़त्म हो गई है. सत्ताधारी गठबंधन इस बात से ख़ुश है कि वो फिर से सेना की पसंद बन गया है. वो सेना प्रमुख और सैन्य अधकारियों के लिए कुछ भी करने को तैयार है.
बात ये है कि पाकिस्तान की सेना ने हर एक राजनेता के सिर के ऊपर तलवार लटकाने की अपनी क्षमता को पैना कर लिया है ताकि उन्हें आज्ञाकारी और चापलूस बनाए रखा जा सके. किसी भी राजनेता का करियर ख़त्म करने के लिए उनके पास बहुत सी चीज़ें हैं. सेना को एक असुविधाजनक राजनेता से छुटकारा पाने के लिए अपनी ताक़त का इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं है जब वो ये काम क़ानूनी और न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करके कर सकती है. अगर नवाज़ शरीफ़ को न्यायिक चालाकी के ज़रिए हटाया जा सकता है (उन्हें एक वेतन, जिसे कभी बैंक से निकाला नहीं गया, की घोषणा नहीं करने की वजह से बेईमान करार दिया गया था), तब इमरान ख़ान को ‘विदेशी फंडिंग’ के केस में अयोग्य करार दिया जा सकता है. शहबाज़ शरीफ़ और उनके बेटे के ख़िलाफ़ मनी लॉन्ड्रिंग का एक मामला लंबित है. आसिफ़ अली ज़रदारी के ख़िलाफ़ फर्ज़ी खाते का एक केस है. मरियम नवाज़ पहले से ही सज़ायाफ़्ता हैं, हालांकि उनकी सज़ा को फिलहाल निलंबित रखा गया है. लेकिन सेना की तलवार उनके सिर के ऊपर भी लटक रही है. यहां तक कि बड़ी पार्टियों के मध्यम दर्जे के नेता भी इसी तरह के हालात का सामना कर रहे हैं.
बात ये है कि पाकिस्तान की सेना ने हर एक राजनेता के सिर के ऊपर तलवार लटकाने की अपनी क्षमता को पैना कर लिया है ताकि उन्हें आज्ञाकारी और चापलूस बनाए रखा जा सके.
लेकिन सेना ने जहां ख़ुद को पाकिस्तान की राजनीति में एक बार फिर कामयाबी के शिखर पर स्थापित किया है, वहीं राजनीति स्थायी असंतुलन की स्थिति में बनी हुई है. वो दिन ज़्यादा दूर नहीं है जब इसमें दिक़्क़त आएगी क्योंकि इस खेल में कोई नियम नहीं है. आगे आने वाले दिनों में एक या उससे ज़्यादा किरदार कुछ ऐसा काम करेंगे जो एक और संकट की वजह बनेगा. इस संकट का कारण वित्तीय और आर्थिक नीतियां हो सकती हैं, ये सुरक्षा से जुड़ा संकट हो सकता है या फिर सिर्फ़ कुछ किरदारों के हित. लेकिन फिलहाल के लिए इमरान ख़ान की पारी ख़त्म हो गई है और उनका राजनीतिक करियर गंभीर परेशानी में है क्योंकि उनके ‘चुने जाने’ की उम्मीद बेहद कम दिखती है.
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