पाकिस्तान में चल रहा हालिया राजनीतिक संकट 1947 में उसके अस्तित्व में उसके आने के बाद से सबसे गंभीर चुनौती है. वास्तव में, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि मौजूदा संकट 1971 के पूर्वी पाकिस्तान संकट से भी अधिक गंभीर और खतरनाक है, जिसने अंततः देश को विभाजित कर दिया और भारत के पश्चिमी मोर्चे पर एक खंडित पाकिस्तान छोड़ दिया. वर्तमान राजनीतिक गतिरोध को इसलिए भी विनाशकारी बन गया है क्योंकि सत्ता के गलियारों के भीतर एक गृहयुद्ध में छिड़ गया है. 1971 में, गृह युद्ध का एक धड़ा पाकिस्तानी शासन प्रतिष्ठान के भीतर लड़ाई लड़ रहा था, और दूसरा धड़ा प्रांत और सरकार द्वारा शोषित, उत्पीड़ित, असंतुष्ट और भेदभाव का शिकार था. पूर्वी पाकिस्तान समस्या के शुरुआत से लेकर अंत तक, नागरिक-सैन्य प्रतिष्ठान बने रहे, जिसने पाकिस्तान को पराजय की चोटों से उबरने में मदद की. लेकिन वर्तमान में, स्वयं प्रतिष्ठान आपसी युद्ध के लिए आमने-सामने खड़े हैं.
बेशक सत्ता का सबसे धारदार हिस्सा सेना है, जो सबसे प्रभावशाली है. लेकिन यह वह व्यवस्था नहीं है, जिसे सत्ता की कुलीन धारणा के रूप में व्यक्त किया जाता है, जो पाकिस्तानी राज्य को चलाती और नियंत्रित करती है.
सत्ता की कुलीन धारणाएं हुई ध्वस्त
अक्सर "व्यवस्था" शब्द का इस्तेमाल बहाने से पाकिस्तानी सेना को इंगित करने के लिए किया जाता है. लेकिन यह कुछ हद तक सत्ता का सरलीकृत व्याख्या करता है. बेशक सत्ता का सबसे धारदार हिस्सा सेना है, जो सबसे प्रभावशाली है. लेकिन यह वह व्यवस्था नहीं है, जिसे सत्ता की कुलीन धारणा के रूप में व्यक्त किया जाता है, जो पाकिस्तानी राज्य को चलाती और नियंत्रित करती है. "पाकिस्तान का विचार" कहलाने वाली यह धारणा समाज और राजव्यवस्था के प्रभावशाली धड़ों, जिसमें व्यापारी, ज़मींदार वर्ग और व्यावसायिक वर्ग (बैंककर्मी, वकील, डॉक्टर आदि), जज, नौकरशाह, राजनेता और कुछ धार्मिक नेता शामिल हैं, और सेना के गठजोड़ से बनी है. इसे और सामान्य रूप में देखें, तो सत्तासीन वर्ग ही समूची व्यवस्था है, जो हमेशा सत्तासीन दल या गठबंधन से साम्यता नहीं रखती.
इस अभिजात्य धारणा, जिसने देश को जोड़कर रखा था, टूट कर बिखर गई है. राज्य के संस्थान एक दूसरे के खिलाफ़ काम कर रहे हैं. राज्य के स्तंभ एक दूसरे के विरोध में खड़े हैं. अभिजात्य वर्ग अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति बदले की भावना से ग्रस्त हैं. ऊपरी तौर पर, पाकिस्तान का मौजूदा राजनीतिक संघर्ष सत्ता हासिल करने की ऐसी लड़ाई मालूम पड़ती है, जिसमें हर किसी ने सीमाएं पार कर दी हैं. लेकिन वास्तविकता में, यह अभिजात्य वर्ग के बीच आपसी युद्ध जैसा ही है, जहां अंत में सिर्फ़ एक विजेता बचता है. यहां जीत सर्वशक्तिमान बना देगी, और हार का मतलब राजनीतिक मौत या उससे भी ज्यादा बुरा हो सकता है.
सत्ता के खेल में न्यायालय भी शामिल
पाकिस्तान जिस राजनीतिक महायुद्ध की ओर बढ़ रहा है, वहां सरकार और पाकिस्तानी सेना के खिलाफ़ इमरान खान के नेतृत्व वाले विपक्ष खड़ा है. जबकि इमरान खान के साथ सड़क की ताक़त है और उसके जन-समर्थकों ने पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों के खिलाफ़ अपने शक्ति का प्रदर्शन किया है, उन्हें पाकिस्तान के मुख्य न्यायधीश, उमर अता बंदियाल के नेतृत्व में उच्चतम न्यायालय के एक धड़े का समर्थन भी हासिल है. इस्लामाबाद और लाहौर हाईकोर्ट भी एक के बाद एक इमरान खान और उनके समर्थकों के पक्ष में फ़ैसले देते जा रहे हैं. सामान्यतः न्यायपालिका पाकिस्तानी सेना के निर्देशानुसार काम करती रही है. लेकिन इस बार, न्यायपालिका के भीतर बंटवारे की जड़ें गहरा गई हैं, एक तरफ़ कुछ लोग बेधड़क इमरान की तरफ़ से पैरवी कर रहे हैं, उनके हिसाब से न्यायपालिका की बेंच का चुनाव कर रहे हैं और उन्हें राहत दे रहे हैं और दूसरी तरफ़ जो लोग मुद्दों के बारे में अधिक कानूनी और संवैधानिक दृष्टिकोण रखते हैं, उन्हें दरकिनार किया जा रहा है.
परंपरागत तौर पर, पंजाबी उच्च वर्ग ने हमेशा ही सेना का समर्थन किया है. इस वर्ग के एक बड़े और प्रभावशाली हिस्से ने अपना पाला बदल लिया है और वह अब इमरान खान के समर्थन में खड़ा है.
यह स्थिति एक ऐसे बिंदु तक पहुंच गई है, जहां बेंच को देखकर ही यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि फ़ैसला किसके पक्ष में होगा. लेकिन ऐसी ऑडियो क्लिपों के बाहर आने से विरोध की लहर भी उठने लगी है जहां जज पहले से ही इमरान के पक्ष में झुके हुए हैं, इसलिए जजों से स्वयं मामले से हट जाने के लिए मांगे की जा रही हैं, और मुख्य न्यायाधीश को चुनौती देने वाले फैसले और न्यायपालिका के भीतर उनके नेतृत्व पर प्रश्न उठने लगे हैं. संविधान के अनुसार 90 दिनों के भीतर पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा विधानसभाओं के लिए चुनाव कराने की अनिवार्यता के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना भी की जा रही है.
एक छद्म युद्ध
सैन्य प्रमुख जनरल असीम मुनीर और इमरान के बीच छद्म युद्ध की स्थिति ने भी मामले को जटिल बना दिया है. इस छद्म युद्ध में, प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ़ के नेतृत्व में नागरिक सरकार जनरल मुनीर के पक्ष में खड़ी है, वहीं न्यायपालिका इमरान खान के पक्ष में जंग छेड़े हुए है. एक संस्था के रूप में, सेना खुले तौर पर अपनी भूमिका निभाने में संकोच कर रही है और विपक्ष और न्यायपालिका के खिलाफ़ लड़ाई में वह सरकार पर निर्भर है, और उसका समर्थन कर रही है. लेकिन सरकार अपने पक्ष में राजनीतिक माहौल और धारणाएं तैयार करने में पूरी तरह अक्षम दिखाई दे रही है. यह ठीक है कि सरकार अर्थव्यवस्था को संभालने में बुरी तरह असफ़ल रही है, इस कारण भी वह और ज्यादा अक्षम साबित हो रही है. इस परिणाम यह है कि सरकार और न्यायपालिका के बीच छिड़े छद्म युद्ध में, न्यायपालिका जीतती हुई दिखाई दे रही है.
सेना एक बिंदु से आगे मौजूदा गठबंधन से समर्थन की उम्मीद भी नहीं कर सकती है. इमरान खान के विरुद्ध खड़े राजनीतिज्ञ सेना की तरफ़ से कार्यकर्ता बनकर उनका सामना कर रहे हैं.
पंजाब के उच्च वर्ग का समर्थन खोता हुआ
सेना के लिए सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि कहीं संगठन के भीतर आंतरिक विरोध (या उसका डर) का ख़तरा न पैदा हो जाए लेकिन उसे इस बात का भी डर है कि उसने पाकिस्तानी उच्च वर्ग, ख़ासकर पंजाब के प्रभावशाली तबकों के बीच अपना जनाधार खो दिया है. परंपरागत तौर पर, पंजाबी उच्च वर्ग ने हमेशा ही सेना का समर्थन किया है. इस वर्ग के एक बड़े और प्रभावशाली हिस्से ने अपना पाला बदल लिया है और वह अब इमरान खान के समर्थन में खड़ा है. इनमें सैन्य परिवार, उनके विस्तारित सामाजिक नेटवर्क, सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी, और पंजाबी अभिजात्य वर्ग के अन्य धड़े शामिल हैं, जिनमें न्यायाधीश और उनके परिवार, शीर्ष वकील, पत्रकार, यूट्यूबर्स, सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर, गायक, क्रिकेटर, अभिनेता आदि शामिल हैं. पिछले 75 सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ था, यहां तक कि भारत से युद्ध में मिली हार के दौरान भी नहीं कि पंजाब के अभिजात्य वर्ग ने पाकिस्तानी सेना को इतना कोसा हो लेकिन वर्तमान में आलम यह है कि जब से सेना ने इमरान खान को पद से हटाया है तभी से वह इतनी गालियां सुन रही है. जिस "पांचवी पीढ़ी" की ट्रोल सेना को पाकिस्तानी सेना ने सूचना को लेकर भारत के खिलाफ़ एक "छद्म युद्ध" छेड़ने के लिए तैयार किया था, वही सेना अब सैन्य नेतृत्व के ख़िलाफ़ खड़ी हो गई है. साइबर क्षेत्र में लगातार सेना पर ज़हरीले गोले बारूद दागे जा रहे है, जिसने उसे किसी बिना सिर वाले मुर्गे की तरह छटपटाने को मज़बूर कर दिया है.
सेना के प्रति डर गायब हो गया है
सेना का डर और आतंक ख़त्म होता हुआ दिखाई पड़ रहा है. यह सेना के लिए एकदम नई परिस्थिति है, जो उसके लिए अनजानी और अजनबी सी है क्योंकि उसे तो अपने इशारे पर ही सब कुछ अपने पक्ष में कर लेने की आदत रही है. अचानक से उसने खुद को ऐसे समुद्र पाया है, जहां उसे ये नहीं पता कि किस ओर नाव खेनी है और ख़तरे पर कैसे वार करना है. अपनी ताक़त का इस्तेमाल करना असंभव न सही लेकिन कठिन ज़रूर है. क्योंकि उसके निशाने पर कोई बलूच, सिंधी या पश्तून नहीं खड़ा है जो असहाय और बेनाम है और उसकी कोई आवाज़ नहीं है. इस बार उसके विरोध में पंजाबी खड़े हैं, और वो भी जनसाधारण वर्ग नहीं बल्कि पंजाबी समाज का ताक़तवर, तमाम ऊंचे संपर्क रखने वाला, ऊंची आवाज़ वाला, सामाजिक पटल पर अपने नाम के साथ दिखने वाला तबका उसके विरोध में खड़ा है.
जब भी सेना ने इमरान की साइबर ट्रोल सेनाओं पर लगाम लगाने की कोशिश की है, न्यायपालिका ने हस्तक्षेप किया है और उन्हें राहत दी है. न्यायपालिका में बंदियाल के नेतृत्व वाला धड़ा सेना द्वारा स्थिरता लाने के प्रयासों के खिलाफ़ बाधा बनकर खड़ा है. एक तरह से यह सेना द्वारा न्यायपालिका के खिलाफ वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई बनती जा रही है जो न सिर्फ सरकार के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर रही है बल्कि सेना के नियंत्रण तंत्र को भी कमजोर कर रही है. सरकार अब न्यायपालिका पर लगाम लगाने के लिए कानून बनाने पर विचार कर रही है. लेकिन ऐसा कहना ऐसा करने की तुलना में आसान है क्योंकि न्यायपालिका ऐसे किसी कानून को न सिर्फ़ ख़ारिज कर देगी बल्कि राष्ट्रपति भी ऐसे जितना हो सके उतने वक्त तक इस कानून को बनने से रोकेंगे.
मार्शल कानून का रास्ता
ऐसे में स्थिति तेज़ी से एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है जहां कुछ तो करना ही पड़ेगा. यह कहना कठिन है कि ये स्थिति अक्टूबर तक बनी रहेगी जब आम चुनाव होने हैं. लेकिन यह किसी को पता नहीं है कि जब ये बांध टूटेगा तो क्या होगा. अतीत में, सेना ने सत्ता का नियंत्रण अपने हाथों में लिया है और व्यवस्था को फिर से पहले जैसा किया है. लेकिन अब इस रास्ते को आसानी से नहीं अपनाया जा सकता. अब सेना बंटी हुई है. अब इसके पास पंजाबी उच्च वर्ग का समर्थन भी नहीं है. बेशक, अतिवादी आलोचकों का तर्क है कि अगर सेना वास्तव में ऐसा कोई कदम उठा ले, तो पंजाबी उच्च वर्ग तुरंत पाला बदल लेगा और नए तानाशाह का समर्थन करेगा. लेकिन उन्होंने तो ये कल्पना ही नहीं की थी कि इमरान खान न सिर्फ़ खुद को बचा पाने में सक्षम सिद्ध होंगे बल्कि पाकिस्तानी सत्ता और राजनीतिक तंत्र को बुरी तरह हिलाने की ताक़त से भी लैस होंगे. सड़क पर हो रहे शक्ति प्रदर्शन के इतर, सेना को न्यायपालिका के शत्रुतापूर्ण रवैए का भी सामना करना है. यह बात एकदम से तय है कि वर्तमान में पदासीन कुछ जजों को सेवानिवृत्त किया जाएगा और नए लोग पदभार ग्रहण करेंगे. अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं को भी देखना महत्त्वपूर्ण होगा. कुछ समय के लिए कुछ प्रतिबंध लागू कर दिए जाएंगे.
सामान्यतः, इससे किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा लेकिन यह कोई सामान्य दौर नहीं है. पाकिस्तान विदेशी राहत पैकेजों के लिए बेहद अधीर और उतावला है, जिन पर रोक लगाई जा सकती हैं और उसकी अर्थव्यवस्था दीवालियेपन की स्थिति में टूटकर बिखर सकती है. सेना को देश की अर्थव्यवस्था को वापिस पटरी पर लाना होगा. इसका अर्थ ये हुआ कि उसके लिए उसे कई संरचनात्मक सुधार लागू करने होंगे, जिससे सेना की लोकप्रियता में और गिरावट आएगी. इसके अतिरिक्त, इस आवश्यक और अपरिहार्य सुधारों के बोझ तले दबी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अशांत है, वहीं दूसरी ओर सेना को आतंक के एक नए दौर का सामना करना पड़ेगा. जिहादी संगठन तहरीक-ए-तालिबान (TTP) कई मायनों में सत्ता प्रतिष्ठान और उसके धड़ों के बीच छिड़े गृह युद्ध का ही मूर्त रूप है. इनमें से कई जिहादी एक समय तक पाकिस्तानी व्यवस्था के ही समर्थक रहे हैं, जो कुछ हद तक उस ट्रोल सेना जैसे हैं जिन्हें पांचवीं पीढ़ी के युद्ध के लिए तैयार किया गया था. लेकिन इन "पवित्र युद्ध के सेनानियों" ने व्यवस्था के खिलाफ़ मोर्चा खोल दिया है.
सेना एक बिंदु से आगे मौजूदा गठबंधन से समर्थन की उम्मीद भी नहीं कर सकती है. इमरान खान के विरुद्ध खड़े राजनीतिज्ञ सेना की तरफ़ से कार्यकर्ता बनकर उनका सामना कर रहे हैं. लेकिन देर-सबेर उन्हें लोकतांत्रिक ढोंग का पालन करना होगा और वे सेना के खिलाफ हो जाएंगे. संक्षेप में, मार्शल कानून से परिस्थितियां नियंत्रित होने की बजाय और ज्यादा बिगाड़ सकती है.
दूसरा विकल्प: वापिस पुरानी स्थिति पर लौटना
दूसरा विकल्प ये है कि एक कदम पीछे लेते हुए इस युद्ध को समाप्त किया जाए. इसका मतलब ये होगा कि चुनावों की जल्दी घोषणा की जाए और नई चुनी हुई सरकार पर ये जिम्मेदारी डाल दी जाए कि वह चीज़ों को वापिस पटरी पर लाने का काम करेगी. लेकिन इस विकल्प से जुड़ी अपनी कुछ समस्याएं हैं. अगले कुछ महीने में होने वाले चुनावों में यह लगभग तय है कि इमरान खान फिर से सत्ता में वापिस लौटेंगे, जो न सेना को मंजूर है और न ही वर्तमान सरकार को. इमरान खान न केवल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ़ बदले की भावना से काम करेंगे बल्कि वे सेना के उच्च अधिकारियों को भी निशाने पर लेंगे. पहले ही ऐसे रिपोर्ट सामने आए हैं, जिनमें दावा किया जा रहा है कि वह सत्ता में आते ही सेना और आईएसआई प्रमुख के पदों में फेरबदल का फ़ैसला लेंगे. ऐसा नहीं लगता है कि जनरल असीम मुनीर ऐसी किसी परिस्थिति के पक्ष में खड़े होंगे जहां उनकी गर्दन दांव पर हो. जब तक सेना में विद्रोह नहीं होता है और जनरल असीम मुनीर को हटाने के लिए वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों का एक गुट एकजुट नहीं होता है, तब तक समय से पहले चुनाव की संभावना लगभग न के बराबर है. एक सेवारत सैन्य प्रमुख के खिलाफ एक आंतरिक तख्तापलट सेना की कोशिश सेना के आंतरिक कमान और नियंत्रण प्रणाली के विघटनकारी साबित होगी और उसके बिखराव की नींव रख देगी.
सैन्य प्रमुख की आपत्तियों के अलावा, वर्तमान असैन्य सरकार भी समय से पहले चुनावों का विरोध करेगी. वास्तव में, सरकार चुनावों को अगले साल तक टालने की कोशिशों से भी नहीं चूकेगी. लेकिन यह केवल तभी होगा जब इमरान खान खान के पक्ष में खड़ी लहर थम जाती है और न्यायपालिका उनके नियंत्रण से दूर हो जाती है. समस्या ये है कि न्यायपालिका और इमरान ख़ान को अपने काबू में करना अगर इतना आसान होता, तो यह पिछले साल ही हो गया होता. जब तक सरकार और सेना खून बहाने के तौर-तरीकों पर नहीं उतरते हैं और स्पष्ट रूप से संविधान और कानून के दायरे से आगे बढ़ने वाले कदम नहीं उठाते हैं, तब तक वे उन चुनौतियों से नहीं निपट सकते हैं जो इमरान खान पैदा कर रहे हैं.
वर्तमान में पाकिस्तानी राज्य का अस्तित्व खतरे में है. लेकिन इस समस्या को ख़त्म करने की कोई योजना नहीं दिखाई पड़ रही है. "सत्ता के खेल" में शामिल सभी अभिकर्ता अपनी प्रतिक्रिया के ज़रिए इस समस्या को और बढ़ावा दे रहे हैं और देश को और भी गहरे दलदल में ढकेल रहे हैं.
वर्तमान में पाकिस्तानी राज्य का अस्तित्व खतरे में है. लेकिन इस समस्या को ख़त्म करने की कोई योजना नहीं दिखाई पड़ रही है. "सत्ता के खेल" में शामिल सभी अभिकर्ता अपनी प्रतिक्रिया के ज़रिए इस समस्या को और बढ़ावा दे रहे हैं और देश को और भी गहरे दलदल में ढकेल रहे हैं. पाकिस्तानियों को किसी मसीहा या चमत्कार का इंतज़ार है ताकि राज्य का डूबती जहाज बच जाए.
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