Pakistan आज एक अहम मोड़ पर खड़ा है. चाहे कोई इमरान ख़ान को पसंद करे या उनकी खिल्ली उड़ाए, मगर हक़ीक़त ये है कि उन्होंने पाकिस्तान के तमाम सियासी समीकरण उलट-पलट कर रख दिए हैं. ऐसा पहले कभी देखने को नहीं मिला था. इतिहास में पहली बार किसी राजनेता ने न केवल पाकिस्तानी राज्यसत्ता की ताक़त बल्कि Pakistan army तक को चुनौती दे डाली है. पहली दफ़ा पाकिस्तान की ताक़तवर फ़ौज में एक क़िस्म की घबराहट दिखाई दे रही है. इमरान ख़ान की ओर से पेश की गई चुनौती का उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा है. वो खुलकर फ़ौजी आकाओं को चुनौती दे रहे हैं, उन्हें भला-बुरा कह रहे हैं, गद्दारों से उनकी तुलना कर रहे हैं और ख़ुद को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए उनपर शैतानी साज़िशें रचने का इल्ज़ाम लगा रहे हैं. इतना ही नहीं, इमरान ने social media पर अपनी troll army को फ़ौज की छवि धूमिल करने में काम में भी लगा रखा है. इमरान ख़ान के चौतरफ़ा हमलों ने फ़ौज को पूरी तरह से हक्काबक्का कर दिया है और उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा. पाकिस्तानी फ़ौज के धमकाने और दबाव डालने वाले पुराने तौर-तरीक़े बेअसर हो गए हैं. Imran Khan लगातार भीड़ इकट्ठी कर रहे हैं. लोग भारी तादाद में उनकी रैलियों में पहुंचकर फ़ौजी इंतज़ामिया को धता बता रहे हैं. अपनी खोई आबरू और ज़मीन हासिल करने की फ़ौज की कोशिशें के साथ-साथ इमरान पर नकेल कसने या उनके समर्थकों को उनका साथ छोड़ने के लिए समझा पाने की तमाम क़वायदें बुरी तरह से नाकाम साबित हुई हैं. ISI प्रमुख की अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ़्रेंस इन्हीं नाकामयाब कोशिशों की एक मिसाल है. इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस ने शायद इमरान के कुछ विरोधियों को ख़ुश किया हो या उनका साथ देने को लेकर दुविधा में फंसे कुछ लोगों के मन में डर भर दिया हो, लेकिन इमरान के चाहनेवालों का जोश ठंडा करने या उनसे उनकी ज़िद छुड़वाने में ये क़वायद सिरे से नाकाम रही है.
पहली दफ़ा पाकिस्तान की ताक़तवर फ़ौज में एक क़िस्म की घबराहट दिखाई दे रही है. इमरान ख़ान की ओर से पेश की गई चुनौती का उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा है. वो खुलकर फ़ौजी आकाओं को चुनौती दे रहे हैं, उन्हें भला-बुरा कह रहे हैं, गद्दारों से उनकी तुलना कर रहे हैं और ख़ुद को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए उनपर शैतानी साज़िशें रचने का इल्ज़ाम लगा रहे हैं.
इस बीच बीते गुरुवार की शाम पाकिस्तान के वज़ीराबाद में आज़ादी मार्च के दौरान इमरान ख़ान पर जानलेवा हमला हो गया. गोली उनके पैर में लगी और घायल हालत में इमरान ख़ान को लाहौर के अस्पताल में भर्ती कराया गया. ख़ान पर हुए हमले के विरोध में पाकिस्तान के छोटे-बड़े शहरों में हिंसक प्रदर्शन का दौर जारी है. शुक्रवार की शाम अस्पताल से ही टीवी संबोधन के ज़रिए प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर इमरान ख़ान ने प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ पर गंभीर इल्ज़ाम लगाए. उन्होंने शहबाज़ शरीफ़ पर 900 लोगों को मरवाने का संगीन इल्ज़ाम लगाते हुए कहा कि शरीफ़ ने ही मजहबी कार्ड के ज़रिए उनकी हत्या की साज़िश रची थी. इमरान ने आरोप लगाया है कि उन्हें पैसों के दम पर सत्ता से बेदख़ल किया गया था. उन्होंने दावा किया कि ख़ुद पर गोलियां चलने के एक दिन पहले ही उन्हें पता चल चुका था कि उनपर हमला होने वाला है. इस बीच पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री परवेज़ इलाही ने कहा है कि इस हमले के पीछे की सोच क्या है और हमलावर को पैसे कहां से दिए गए, इसकी जानकारी जुटाने के लिए पूरी तफ़्तीश की जाएगी.
इमरान के इस दुस्साहस का राज़ क्या है?
देश में जल्द आम चुनाव कराए जाने की मांग के साथ इमरान ख़ान इस्लामाबाद की ओर लॉन्ग मार्च पर निकले हैं. इमरान को चुनावों में बड़ी जीत का भरोसा है, ऐसे में पाकिस्तान का सियासी रंगमंच ज़बरदस्त टकराव की ओर बढ़ रहा है. फ़ौजी हुक़्मरानों के ग़ुस्से से पूरी तरह से वाक़िफ़ होने के बावजूद इमरान ख़ान ने अपने क़दम पीछे खींचने की बजाए उनसे टकराव मोल लेने का फ़ैसला किया. उन्होंने इशारों ही इशारों में जता दिया कि मुल्क में इंक़लाब आने ही वाला है और अब बस ये देखना बाक़ी है कि ये इंक़लाब, बैलेट बॉक्स से आएगा या ख़ूनख़राबे से. इमरान के समर्थक खुलेआम हिंसा की धमकियां दे रहे हैं. साफ़-तौर से पाकिस्तान में कुछ ऐसा हो रहा है जिसे कोई समझ नहीं पा रहा. आख़िरकार इमरान जिस तरह की गुस्ताख़ियां कर रहे हैं उसकी मिसाल पाकिस्तानी इतिहास में कहीं नहीं मिलती. 1960 के दशक के आख़िर में अयूब ख़ान के ख़िलाफ़ ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की बग़ावत की बुनियाद, संदर्भ और हालात बिलकुल ही जुदा थे.
पाकिस्तान और बाहर के कई विश्लेषकों का ख़्याल है कि इमरान को पाकिस्तान की अंदरुनी व्यवस्था के किसी बेहद ताक़तवर हिस्से का समर्थन हासिल है. ऐसी मदद के बिना ऐसी गुस्ताख़ी के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. अतीत में इससे कहीं छोटी गुस्ताख़ियों पर बड़ी से बड़ी हस्तियों को फ़ौज आसानी से ख़ामोश और बेदख़ल कर दिया करती थी.
पाकिस्तान और बाहर के कई विश्लेषकों का ख़्याल है कि इमरान को पाकिस्तान की अंदरुनी व्यवस्था के किसी बेहद ताक़तवर हिस्से का समर्थन हासिल है. ऐसी मदद के बिना ऐसी गुस्ताख़ी के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. अतीत में इससे कहीं छोटी गुस्ताख़ियों पर बड़ी से बड़ी हस्तियों को फ़ौज आसानी से ख़ामोश और बेदख़ल कर दिया करती थी. इनमें प्रधानमंत्रियों और कैबिनेट मंत्रियों समेत कई जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार शामिल हैं. वही फ़ौज इमरान के आगे बुज़दिल नज़र आ रही है. मौजूदा सेना प्रमुख और ISI के मुखिया समेत तमाम आला जनरल, साफ़ तौर से इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ खड़े नज़र आ रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि इन सबसे ज़्यादा ताक़तवर आख़िर कौन हो सकता है? दरअसल इमरान को अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की बीमारी है. वो ख़ुद की तुलना इस्लामिक दुनिया की नामचीन हस्तियों से करते हैं और अपने संघर्ष को उनके संघर्षों जैसे बताते हैं. इमरान को पूरा भरोसा है कि उन्हें अवाम का ज़बरदस्त समर्थन हासिल है और इसकी बदौलत वो फ़ौजी हुक़्मरानों से भी दो-दो हाथ कर सकते हैं. वैसे ये भी मुमकिन है कि इमरान को लग रहा हो कि उनके पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है और अगर उन्होंने फ़ौज से सीधे भिड़कर जीत हासिल नहीं की तो वो ख़ुद इतिहास बन जाएंगे. दूसरे शब्दों में वो फ़ौज के ख़िलाफ़ पूरी तरह से मैदान में उतर आए हैं. अगर वो विजयी होते हैं तो हुकूमत संभालेंगे (शायद उम्रभर के लिए), और इमरान ख़ान को लगता है कि उनके हारने की तो कोई संभावना ही नहीं है.
ध्रुवीकरण की सियासी चाल
इमरान मान रहे हैं कि इस वक़्त हालात पूरी तरह से उनके अनुकूल हैं. चतुराई से आज़ादी मार्च की योजना बनाकर और अपने ऊपर हुए ताज़ा हमले के बाद उन्होंने अपने सियासी प्रतिद्वंदियों को कठघरे में खड़ा कर दिया है. उनके विरोधी इस वक़्त इमरान द्वारा खड़े किए गए सियासी बखेड़े को शांत करने की जद्दोजहद में लगे हैं. दरअसल पाकिस्तानी समाज में फ़िलहाल अमेरिका के ख़िलाफ़ विरोध की भावना उबाल मार रही है. इमरान इन जज़्बातों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं. उन्होंने इल्ज़ाम लगाया है कि अमेरिकियों द्वारा हुकूमत बदलने की कार्रवाई के तहत उन्हें सत्ता से बेदख़ल किया गया है. फ़ौजी हुक़्मरानों को निशाना बनाकर उन्होंने मुल्क में हमेशा से मौजूद सत्ता-विरोधी भावनाओं का भरपूर लाभ उठाया है. हालांकि इस सिलसिले में सबसे अहम बात ये है कि उन्होंने पाकिस्तानी समाज और सियासी दुनिया को दो खेमों में बांट दिया है. ये गोलबंदी इमरान समर्थक बनाम इमरान विरोधी खेमे के बीच है.
सेना को पाकिस्तान में अरब स्प्रिंग जैसे आंदोलन छिड़ जाने का डर सताने लगा है. फ़ौज के भीतर की दरारों के चलते आला हुक़्मरान अपने इमरान प्रोजेक्ट को अचानक बंद करने से हिचक रहे हैं. फ़ौज द्वारा खड़ी की गई ये क़वायद बुरी तरह से रास्ता भटक गई है. शायद फ़ौजी आकाओं से ये भांपने में ग़लती हो गई कि इमरान अपने पूर्वर्तियों की तरह बर्ताव नहीं करेंगे.
इसके अलावा उन्होंने पाकिस्तानी समाज को भी दो फाड़ कर दिया है. ये दरार इतने गंभीर हैं कि इसका पाकिस्तानी फ़ौज पर भी असर पड़ने लगा है. इमरान ने खुले तौर पर कहा है कि भले ही फ़ौज के जनरल उनकी मुख़ालफ़त कर रहे हैं लेकिन उन्हीं जनरलों के परिवार उनका समर्थन कर रहे हैं. उनका दावा है कि सशस्त्र बलों में मंझौले और निचले दर्जे के ज़्यादातर अफ़सर उनकी हिमायत कर रहे हैं. ऐसा पहली दफ़ा है जब कई भूतपूर्व सैनिक (रिटायर्ड जनरलों और दूसरे रैंकों के अफ़सरों समेत) अपने पुराने कुनबे के ख़िलाफ़ जाकर इमरान के समर्थन में खड़े हो गए हैं. ये भी एक अभूतपूर्व घटनाक्रम है. इमरान को ना सिर्फ़ ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह से बल्कि दूसरे सभी प्रांतों से समर्थन मिल रहा है. यहां तक कि हमेशा से पाकिस्तानी फ़ौज की ख़िदमत में लगे पंजाब के मुख्यमंत्री परवेज़ इलाही भी इमरान का पक्ष ले रहे हैं. भले ही वो बाद में पाला बदल लें लेकिन इस वक़्त वो इमरान का ही समर्थन कर रहे हैं. इमरान के साथ इस तरह के सियासी जुड़ाव के चलते गुजरात के मशहूर चौधरी घराने में भी बंटवारा हो गया है. पाकिस्तानी फ़ौज की जी-हुज़ूरी करने वाली न्यायपालिका भी न सिर्फ़ इमरान के प्रति नरम रुख़ रखे हुए है बल्कि उनकी ख़्वाहिशें भी पूरी कर रही है. न्यायपालिका ने इमरान को तक़रीबन हरेक मसले पर रियायतें और छूट दे रखी है.
सामाजिक आधार
इमरान जानते हैं कि ISI प्रमुख की प्रेस कॉन्फ़्रेंस इस बात का साफ़ संकेत है कि फ़ौज के आला हुक़्मरान उनकी मांगें (नखरों की तो छोड़ ही दीजिए) मानने के मूड में कतई नहीं हैं. हालांकि इमरान को इसकी फ़िक्र भी नहीं है. उन्हें यक़ीन है कि फ़ौज उनको मिल रही लोकप्रियता और समर्थन से डरी हुई है और वो उनके ख़िलाफ़ हक़ीक़त में कुछ भी नहीं कर सकती. दरअसल इमरान और उनके समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा पंजाब प्रांत से ताल्लुक़ रखता है. इससे फ़ौज के हाथ बंध जाते हैं. एक और बात, इमरान के समर्थकों में ना सिर्फ़ ज़मीन से जुड़े ग़रीब लोग बल्कि पंजाबी समाज के रसूख़दार, रईस, प्रभावशाली और ताक़तवर तबक़े भी शामिल हैं. पाकिस्तानी फ़ौज के लिए बलूचों का क़त्लेआम, बंगालियों का नरसंहार या सिंधियों को लहूलुहान करना और पश्तूनों को मौत के घाट उतारना एक अलग बात है लेकिन पंजाब में ऐसी हरकतें दोहराना बिलकुल जुदा बात होगी. इमरान के समर्थकों में फ़ौजी अफ़सरों और सैनिकों के रिश्तेदार शामिल हैं. साथ ही उनके समर्थकों में जजों, वक़ीलों, पेशेवरों, कारोबारियों और ज़मीन जायदाद से संपन्न लोगों के नाते-रिश्तेदार यानी समाज के हर तबक़े से जुड़े लोग शामिल हैं. इन लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ अपनाना कतई आसान नहीं होगा. ये समाज का अधिकारसंपन्न तबक़ा है, जो सामने दिखाई देता है, जिसकी आवाज़ बुलंद है और जो हर मसले पर मुखर है. इतना ही नहीं, इसमें ऐसे सनकी लोगों का समूह शामिल है जिनके लिए किसी भी तरह के तर्क और दलील कोई मायने नहीं रखते. ये लोग एक अलग ही दुनिया में जी रहे हैं और इमरान के प्रति उनका समर्थन दीवानगी की हद तक क़ायम है.
फ़ौज की नीद उड़ाने वाला सबब
साफ़ तौर से सेना को कुछ समझ नहीं आ रहा है. इस भस्मासुर का निर्माण ख़ुद सेना ने ही किया था और अब उसी की रातों की नींद उड़ी हुई है. सेना को डर है कि इमरान के ख़िलाफ़ क़दम उठाने से ये संकट और गहरा सकता है और हालात क़ाबू से बाहर जा सकते हैं. सेना को पाकिस्तान में अरब स्प्रिंग जैसे आंदोलन छिड़ जाने का डर सताने लगा है. फ़ौज के भीतर की दरारों के चलते आला हुक़्मरान अपने इमरान प्रोजेक्ट को अचानक बंद करने से हिचक रहे हैं. फ़ौज द्वारा खड़ी की गई ये क़वायद बुरी तरह से रास्ता भटक गई है. शायद फ़ौजी आकाओं से ये भांपने में ग़लती हो गई कि इमरान अपने पूर्वर्तियों की तरह बर्ताव नहीं करेंगे. फ़ौज को लगता था कि इमरान सत्ता गंवाने के बाद कुछ वक़्त तक पर्दे के पीछे चले जाने को रज़ामंद हो जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हालांकि फ़ौज इमरान को अपनी शर्तों पर सत्ता में वापसी की इजाज़त नहीं दे सकती. इमरान ने सेना के राजनीतिकरण और उसमें आपसी फूट डालने की ऐसा गुनाह किया है जिसकी माफ़ी नहीं दी जा सकती. इमरान ने दुनिया के तमाम अहम और अगुवा देशों जैसे- सऊदी अरब, चीन और अमेरिका, के साथ पाकिस्तान के रिश्तों में बिगाड़ ला दिया. पाकिस्तान इस वक़्त ऐसे आर्थिक संकट से घिरा है जिससे उसके वजूद पर ख़तरा पैदा हो गया है. इससे उबरने में उसे इन तमाम मुल्कों से मदद की दरकार है. अगर इमरान वापस आ जाते हैं तो पिछली सारी चीज़े अव्यवस्थित रूप से वापस आ जाएंगी, जिसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती. एक प्रशासक के रूप में इमरान का रिकॉर्ड कमज़ोर रहा है. इसके साथ ही उन्होंने पाकिस्तान की राज्य व्यवस्था और समाज में ज़हर घोलने का काम किया है. लिहाज़ा ये साफ़ है कि पाकिस्तानी फ़ौज निकट भविष्य में इमरान को बर्दाश्त करने को कतई तैयार नहीं है.
गठबंधन का गुणा-भाग
इमरान ख़ान की हुकूमत हटने के बाद सत्ता संभालने वाली नागरिक सरकार के चलते सेना के तमाम मंसूब और पेचीदा हो गए. शहबाज़ शरीफ़ की सरकार भी इमरान ख़ान को किसी तरह की रियायत (ना तो फ़ौज के नए मुखिया के चयन में और ना ही जल्द चुनाव बुलाने के मामले में) देने के तैयार नहीं है. सरकार के लिए ऐसा करना ख़ुदकुशी करने जैसा होगा. इमरान ने हाल ही में हुए तमाम उपचुनाव जीत लिए हैं, इनमें पंजाब की वो सीटें भी शामिल हैं जिनको पाकिस्तान मुस्लिम लीग- नवाज़ (PMLN) का मज़बूत गढ़ माना जाता था. इमरान के समर्थकों ने इसी प्रांत को अपना अड्डा बना रखा है. जल्द चुनाव होने की सूरत में इमरान ख़ान निश्चित रूप से बड़ी जीत हासिल कर लेंगे. देश में बिगड़ते आर्थिक हालात का फ़ायदा लाज़िमी तौर पर इमरान ख़ान को ही मिलेगा. दिवालिया होने के हालात टालने के लिए PMLN की अगुवाई वाली सरकार द्वारा उठाए गए सख़्त क़दमों से उसकी सियासी जमापूंजी का नुक़सान हुआ है. अपनी खोई ज़मीन हासिल करने के लिए सत्तारूढ़ गठबंधन आख़िरी दिन (अगस्त 2023 के आख़िर तक) तक सत्ता पर क़ाबिज़ रहना चाहेगा. इस तरह सत्तारूढ़ सियासी दल अगले साल अक्टूबर/नवंबर में ही चुनाव कराने को रज़ामंद होंगे. गठबंधन के साथियों को डर है कि अगर इमरान सत्ता में वापसी कर लेते हैं तो वो सियासी व्यवस्था में उथलपुथल मचा देंगे. उनका इस्लामिक और फ़ासीवादी नज़रिया, पाकिस्तान को एकदलीय राज्यसत्ता में बदल डालेगा. वो मौजूदा संसदीय प्रणाली को ख़त्म कर राष्ट्रपति प्रणाली लागू कर देंगे जिससे उन्हें निरंकुश होकर सत्ता चलाने का मौक़ा मिल जाएगा. एक डर ये भी है कि वो सेना प्रमुख के पद पर तैनात किसी भी शख़्स को पद से हटाकर अपने किसी गुर्गे को उस पद पर बहाल कर देंगे. इस तरह पाकिस्तान की फ़ौज, पंजाब पुलिस की एक आला टुकड़ी में बदल जाएगी, जो हर वक़्त उनकी जी-हुज़ूरी किया करेगी.
गठबंधन के साथियों को डर है कि अगर इमरान सत्ता में वापसी कर लेते हैं तो वो सियासी व्यवस्था में उथलपुथल मचा देंगे. उनका इस्लामिक और फ़ासीवादी नज़रिया, पाकिस्तान को एकदलीय राज्यसत्ता में बदल डालेगा. वो मौजूदा संसदीय प्रणाली को ख़त्म कर राष्ट्रपति प्रणाली लागू कर देंगे जिससे उन्हें निरंकुश होकर सत्ता चलाने का मौक़ा मिल जाएगा.
अब आगे क्या?
इस तरह पाकिस्तान में जंग की सीमारेखाएं तय हो चुकी हैं. इसमें कोई भी पक्ष पीछे नहीं हट सकता क्योंकि पीछे हटने का मतलब सियासी मौत या उससे भी बदतर होगा. अब सवाल ये है कि यहां से आगे होगा क्या? पैरों में गोलियां लगने के बाद इमरान अपने आज़ादी मार्च के साथ कैसे इस्लामाबाद पहुंचेंगे, उसमें वो कितनी भीड़ जुटा पाएंगे. अगर महज़ 10-20 हज़ार लोग जुटते हैं, हिंसा नहीं होती है और भीड़ शहर से दूर अपने लिए तय की गई जगह पर बैठती है तो इमरान के क़दम की हवा निकल जाएगी. तब यही आसार होंगे कि उनके समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा उनसे छिटक जाएगा. हुकूमत उनपर और उनके मातहतों के ख़िलाफ़ सख़्त मुहिम चला देगी. इस तरह इमरान की हालत अपने चंद पूर्ववर्तियों जैसी हो जाएगी. ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान में प्रधानमंत्रियों का पीएम हाउस से आदियाला जेल जाना एक आम बात है.
लेकिन अगर इमरान ख़ान अच्छी-ख़ासी (50 हज़ार से एक लाख तक) भीड़ जुटाने में कामयाब हो जाते हैं तो ये पूरा खेल आगे भी जारी रहने के आसार रहेंगे. इन हालातों में कई बातें हो सकती हैं:
पहला, अगर इमरान, सरकार और फ़ौज को अपने इशारों पर नचाने के लिए पर्याप्त दबाव बना लेते हैं तो जल्द चुनाव कराने की उनकी मुराद पूरी हो जाएगी. इस फ़ैसले के नतीजे पाकिस्तान को भुगतने होंगे. पाकिस्तानी फ़ौज के लिए ये पलटन मैदान का इतिहास दोहराने जैसा होगा. ग़ौरतलब है कि ढाका के इसी स्टेडियम में 1971 में पाकिस्तान ने भारत के सामने आत्मसमर्पण किया था.
दूसरा, हुकूमत और फ़ौज झुकने से मना कर दे और हिंसा भड़क जाए. उस सूरत में क़ानून-व्यवस्था बरक़रार रखने और भीड़ पर क़ाबू पाने के लिए हुक़्मरान गोलियां चलाने पर मजबूर हो जाएंगे. अगर ऐसा होता है तो ये सबसे ख़राब हालात (हालांकि अभी ऐसा होने के आसार दिखाई नहीं देते) होंगे. उस सूरत में मुसीबतों का सैलाब आ जाएगा और चारों तरफ़ अफ़रातफ़री का माहौल रहेगा. पाकिस्तान में अरब स्प्रिंग जैसी तस्वीरें दिखेंगी- ख़ूनख़राबा, विद्रोह, बग़ावत. संक्षेप में कहें तो वहां गृह युद्ध के हालात बन जाएंगे और परिस्थितियां विस्फोटक हो सकती हैं.
पांचवां तख़्तापलट?
वैकल्पिक तौर पर ऐसा भी हो सकता है कि सेना प्रत्यक्ष रूप से दख़ल देने को मजबूर हो जाए और देश की कमान अपने हाथों में थाम ले. ऐसा हुआ तो ये मुल्क में पांचवां तख़्तापलट होगा. यहां दिक़्क़त ये है कि अतीत में ऐसे घटनाक्रम अवाम के बीच लोकप्रिय क़दम थे लेकिन अब कोई तख़्तापलट हुआ तो वो बेहद अलोकप्रिय क़वायद होगी. सेना को मायूसी में डूबी आबादी से संतोष करना होगा. इसके अलावा धराशायी होती अर्थव्यवस्था को उबारने और पटरी पर लाने के लिए बेहद मुश्किल आर्थिक उपाय भी करने होंगे. इससे फ़ौज की अलोकप्रियता में और इज़ाफ़ा ही होगा. बदतर बात ये है कि अतीत में हुए तख़्तापलटों (जब फ़ौज की कमांड श्रृंखला स्पष्ट होती थी और सेना प्रमुख, बॉस हुआ करते थे) के उलट इस बार हालात जुदा हो सकते हैं.
जनरल बाजवा 29 नवंबर को रिटायर होने वाले हैं. वो पहले से ही काफ़ी अलोकप्रिय हो चुके हैं. कई सीनियर जनरल उनके साथ महज़ इसलिए चिपके हुए हैं क्योंकि इन लोगों को बाजवा की रिटायरमेंट के बाद जायज़ तौर पर उनका स्थान लेने की उम्मीद है. अगर तख़्तापलट की किसी कोशिश का मतलब ये होता है कि जनरल बाजवा अपनी रिटायरमेंट टाल देंगे तो फिर तख़्तापलट की ऐसी किसी कोशिश के सामने गंभीर बाधाएं खड़ी हो सकती हैं.
दरअसल, जिस बात की संभावना ज़्यादा है वो ये कि जनरल बाजवा अपने पद से रिटायर हो जाएंगे और उनका कोई उत्तराधिकारी सेना की कमान संभालेगा. हालांकि इस बार ऐसी संभावना बन सकती है कि किसी एक जनरल की बजाए पूरी फ़ौज (या जुंटा) देश की कमान संभाले. अगर ऐसा होता है तो इस बात के आसार बढ़ जाएंगे कि फ़ौज के आला जनरल हर मसले पर खींचतान में लग जाएं. इसकी बजाए एक इकलौता तानाशाह या तालमेल बिठाकर काम करने वाला जुंटा भी हो तो भी पाकिस्तान की समस्याओं के यहां से और विकराल होने के ही आसार हैं. मौजूदा संकट एक ऐसे वक़्त पर उभर कर सामने आया है जब देश की अर्थव्यवस्था दिवालिएपन और धराशायी होने की कगार पर है, आतंकवाद एक बार फिर अपना सिर उठा रहा है और मुल्क में सैलाब की वजह से भारी तबाही का आलम है, (हालांकि ऐसा लगता है कि पाकिस्तान सैलाब के बारे में भूल चुका है और पुनर्वास से जुड़ी रकम हासिल करने के लिए वो पश्चिम की नादान दुनिया को सैलाब की याद दिलाता रहता है). ये तमाम समस्याएं पाकिस्तान में थोड़ी बहुत स्थिरता लाने के रास्ते को भी पेचीदगियों से भर देती हैं. आसान लब्ज़ों में कहें तो निकट भविष्य में पाकिस्तान के लगातार अस्थिरता भरे दौर में ही बने रहने के पूरे आसार हैं.
अगले कुछ दिन और हफ़्ते ही पाकिस्तान का मुस्तक़बिल तय कर देंगे. हालांकि एक बात तय है- आगे चाहे जो हो, इमरान ख़ान ने पाकिस्तान को इस कदर हिला और झिंझोड़ दिया है जैसा पहले कभी देखने को नहीं मिला था. सबसे अहम बात ये है कि पाकिस्तानी फ़ौज के ख़िलाफ़ उनके ताबड़तोड़ हमलों ने पाकिस्तानी सेना की ताक़त और इज़्ज़त को भारी नुक़सान पहुंचाया है.
शायद अगले कुछ दिन और हफ़्ते ही पाकिस्तान का मुस्तक़बिल तय कर देंगे. हालांकि एक बात तय है- आगे चाहे जो हो, इमरान ख़ान ने पाकिस्तान को इस कदर हिला और झिंझोड़ दिया है जैसा पहले कभी देखने को नहीं मिला था. सबसे अहम बात ये है कि पाकिस्तानी फ़ौज के ख़िलाफ़ उनके ताबड़तोड़ हमलों ने पाकिस्तानी सेना की ताक़त और इज़्ज़त को भारी नुक़सान पहुंचाया है. इस तरह दूसरों के लिए भी पाकिस्तानी फ़ौज को चुनौती देने और उससे टकराव मोल लेने के रास्ते खुल गए हैं. पाकिस्तान की सियासत में फ़ौज अब भी वापसी कर सकती है और अपना खोया इक़बाल काफ़ी हद तक बहाल कर सकती है. हालांकि ये क़वायद आसान नहीं होगी क्योंकि पाकिस्तान में सेना के प्रति डर के भाव में काफ़ी गिरावट आ गई है. सेना के तरकश की कमज़ोरियां अब खुलकर सामने आ गई हैं. आने वाले वक़्त में इसमें और इज़ाफ़ा ही होने वाला है.
भारत के लिए मिले-जुले हालात
भारत के लिए पाकिस्तान के उभरते हालात मिले-जुले प्रभाव वाले हैं. एक अस्थिर पाकिस्तान भारत के लिए शुभ है. राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक संकट और नागरिक-सेना तनावों के चलते पाकिस्तान अपने भीतर ही उलझा रहेगा और उसके पास भारत की ओर कोई दुस्साहसी क़दम उठाने के लिए काफ़ी कम मौक़े बचे रहेंगे. बहरहाल अस्थिरता के साथ दिक़्क़त ये है कि बेमियादी वक़्त तक इस पर क़ाबू रख पाना निहायत मुश्किल है. अगर अस्थिरता भरे हालात विस्फोटक बन जाते हैं तो भारत पर इसके होने वाले असर के बारे में न तो कल्पना की जा सकती है और ना ही उन हालातों को संभाला जा सकता है. अगर ऐसे क़यामत भरे हालात हक़ीक़त की ज़मीन पर न भी उतरें तो भी, एक ऐसे पाकिस्तान में जहां फ़ौज नियंत्रण वाली स्थिति में ना हो, उससे निपटने में हिंदुस्तान को बेहद मुश्किल पेश आने वाली है क्योंकि उस सूरत में वहां कोई भरोसेमंद वार्ताकार मौजूद ही नहीं रहेगा.
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