Author : Vivek Mishra

Expert Speak Raisina Debates
Published on May 31, 2025 Updated 0 Hours ago

ऑपरेशन सिन्दूर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का अवसरवादी हस्तक्षेप भारत और अमेरिका के बीच आपसी संबंधों की दरारों को उजागर करता है. साथ ही ये वाशिंगटन की पाकिस्तान के प्रति नीति में एक चिंताजनक मोड़ को भी ज़ाहिर करता है. 

ऑपरेशन सिन्दूर और भारत-अमेरिका संबंधों पर ट्रंप की परछाई

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पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत की जवाबी कार्रवाई ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ न केवल सैन्य तैयारी और सैन्य प्रतिक्रया में वृद्धि और एक नया आयाम दर्शाता है बल्कि इसके कुछ अनचाहे नतीजे भी ज़ाहिर करता है. इनमें सबसे अहम है राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम का श्रेय लेने की अशोभनीय जल्दबाज़ी. एक तरफ़ तो ये ट्रम्प की समझौता या डील कराने की आतुरता को दर्शाता है तो दूसरी तरफ़ ये रात के अंधेरे में की गई ऐसी कूटनीति को दिखाता है जो समय से पहले ही अपनी जीत का दंभ भर रही है और क्लिंटन काल के बाद से पाकिस्तान के प्रति द्विपक्षीय रिश्तों के समीकरणों में भारत की प्रगति को पीछे धकेलने का जोखिम पैदा कर रही है. भारत-पाकिस्तान संघर्ष के प्रति ट्रंप के इस दखलअंदाज़ी वाले रुख से पैदा हुए कई पहलू वाशिंगटन की बीते वर्षों की नीति में एक बड़े मोड़ का संकेत देते हैं.

जब से सैन्य टकराव खत्म हुए हैं, ट्रम्प लगातार भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध-विराम का श्रेय अपनी कथित भूमिका को दे रहे हैं.

भारत और पाकिस्तान के बारे में एक साथ बोलने की प्रवृत्ति को देखकर लगता है कि दोनों देशों को एक बार फिर से ‘हाइफेन में’ या जोड़ कर देखे जाने लगा है और इससे भारत को असहजता हो रही है. वैसे तो दोनों देशों के बीच तनाव काफ़ी कम हो गया है लेकिन ट्रंप बार-बार पाकिस्तान की तारीफ किए जा रहे हैं जो उनके पिछले कार्यकाल की आलोचना वाले रुख से बेहद अलग है. जब से सैन्य टकराव खत्म हुए हैं, ट्रम्प लगातार भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध-विराम का श्रेय अपनी कथित भूमिका को दे रहे हैं.

ऐसी बातें उनके 2018  के उन बयानों से बिल्कुल विपरीत हैं जिनमें वो खुले तौर पर पाकिस्तान को आतंकवाद का सुरक्षित गढ़ बताते थे. उनका ये बदला हुआ अंदाज़ पिछले दो दशकों से भारत और अमेरिका के बीच सामरिक संबंधों और आपसी भरोसे को मज़बूत करने की कोशिशों से मेल नहीं खाता है. भारत और अमेरिका के बीच संस्थागत संबंधों को परे रख कर देखें तो भी पाएंगे की भारतीय आम-जनभावना, और अमेरिकी सरकार और उसके शासन के प्रति, ऐसी समरसता शायद ही पहले देखी गई हो. ट्रम्प के लिए सकारात्मक भावना, जो उनके दूसरे कार्यकाल के चुनावी प्रचार की शुरुआत से कार्यकाल के पहले 100 दिनों तक बनी रही थी, वो अब फीकी पड़ती जा रही है. ऐसी साझेदारी जो दोनों देशों के लोगों के आपसी संबंधों पर मज़बूती से खड़ी थी, उसपर लोगों की नकारात्मक भावना द्विपक्षीय रिश्तों पर गहरी चोट कर सकती है, और ये सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं है कि खुद ट्रंप इन रिश्तों के बारे में कितना उदासीन हैं. 

ट्रंप का रुख़

भारत के पास तीन रास्ते हैं. पहला, वो ट्रंप के इस बदले सुर को उनकी शेखी मान कर खारिज कर सकता है और इसे तब तक के लिए गैर-ख़तरनाक मान सकता है जब तक पाकिस्तान के प्रति उनका ये नया-नवेला लगाव सिर्फ़ बयानबाज़ी तक ही सीमित रहे. दूसरा, नई दिल्ली, अमेरिका की राजनीतिक मुद्रा और भारत-पाकिस्तान रिश्तों पर वाशिंगटन से उम्मीदों के बीच एक गहरी रेखा खींच सकती है.तीसरा, भारत इसे एक खतरे की घंटी मान सकता है जो शायद पाकिस्तान के प्रति अमेरिका की नीति में स्थाई बदलाव का इशारा कर रही है. इसके साथ ही भारत इस बदलाव से लाए गए वांछित और अवांछित नतीजों की तैयारी कर सकता है. ट्रम्प के संदर्भ में ये तीनों ही परिदृश्य संभव दिखते हैं. 

अगर मई की शुरुआत में भारत और पाकिस्तान के बीच तेजी से बढ़ते संघर्ष में तुरंत युद्धविराम सुनिश्चित करना ही ट्रंप का इकलौता उद्देश्य था, तो पाकिस्तान के प्रति नरम रुख उजागर करती हुई उनकी बयानबाजियों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है. लेकिन ये भी संभव है कि सौदों के प्रति झुकाव की वजह से ट्रम्प ऐसा कर रहे हैं और वो इस्लामाबाद के साथ एक लेन-देन पर आधारित समझौता करना चाह रहे हैं जो स्वार्थ पर आधारित है और जिसकी कोई नैतिक बाधा नहीं है. पाकिस्तान में हाल ही में स्थापित किए गए क्रिप्टो काउंसिल और ट्रंप परिवार के बीच नए उभरते संबंध ऐसी अटकलों को और हवा दे रहे हैं. अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में संभावित खनिज भंडार के सौदों का आर्थिक प्रलोभन भी डोनाल्ड ट्रंप को दीर्घकाल में पाकिस्तान की ओर खींच भी सकता है. लेकिन ऐसे क्षेत्र में लौटना अत्यंत अनुचित होगा जिसे छोड़ने में अमेरिका को कई साल तक जूझना पड़ा था. इस इलाक़े में आर्थिक लाभ की संभावनाओं के बावजूद भी पाकिस्तान के अशांत पश्चिमी क्षेत्र और अफगानिस्तान तथा ईरान के साथ सीमाओं पर उसकी सुलगती समस्याएं एक कड़ी चेतावनी का काम कर सकती हैं.

भले ही पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की कूटनीतिक दिशा में बदलाव के पीछे ट्रंप कोई छुपा हुआ भू-आर्थिक उद्देश्य देख रहे हों,  लेकिन भारत ने साफ़ कर दिया है कि वो पाकिस्तान के साथ किसी भी प्रकार की 'हाइफ़नेशन' या झूठी समानता स्थापित करने की कोशिशों को स्वीकार नहीं करेगा.

भले ही पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की कूटनीतिक दिशा में बदलाव के पीछे ट्रंप कोई छुपा हुआ भू-आर्थिक उद्देश्य देख रहे हों,  लेकिन भारत ने साफ़ कर दिया है कि वो पाकिस्तान के साथ किसी भी प्रकार की 'हाइफ़नेशन' या झूठी समानता स्थापित करने की कोशिशों को स्वीकार नहीं करेगा. इसी तरह भारत ने ट्रम्प के उन दावों को भी खारिज कर दिया कि उन्होंने किसी तरह के व्यापारिक दबाव की मदद से भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष खत्म करवाया. साथ ही उनके इस कथन को भी मानने से इंकार किया कि ये संघर्ष परमाणु टकराव की ओर अग्रसर था. जैसे-जैसे बाहरी परिस्थितियां साफ़ हो रही हैं, ज़रूरी है कि भारत भी अपने पक्ष को मज़बूत करने के लिए कदम उठाए. इस दिशा में भारत द्वारा 30 से अधिक देशों में संसदीय प्रतिनिधि मंडलों को भेजना एक कुशल कूटनीतिक पहल है. ऐसे सात संसदीय प्रतिनिधिमंडल विदेशी दौरे पर गए हैं जिनका मकसद है पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को पालने की भूमिका को साफ़ करना और ऑपरेशन सिन्दूर की जटिलताओं को समझाना.

भारत पाकिस्तान से कहीं बड़ा और अधिक सक्षम देश है और इसका प्रमाण पाकिस्तान में की गई सटीक कार्रवाई से भी मिलता है. ज़रूरी है कि भारत इस ऑपरेशन से जुड़ी अपनी व्याख्या को विश्व के मंचों पर सक्रिय रूप से प्रस्तुत करे. क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो जैसे पहले भी पाकिस्तान करता आया है, वो एक बार फिर खुद को कथित तौर पर पीड़ित बताएगा और अंतरराष्ट्रीय दबाव से बचने की कोशिश करेगा. आज की वास्तविकतावादी वैश्विक व्यवस्था में संयम दिखाना अच्छी बात होगी ऐसा ज़रूरी नहीं है. पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश को देखते हुए रणनीतिक संयम के इस सिद्धांत को दोबारा से आंकना चाहिए और ऑपरेशन सिन्दूर ने आतंकवाद के प्रति 'शून्य सहिष्णुता' की रेखा खींच कर ऐसा ही किया है.

अपने दूसरे कार्यकाल में राष्ट्रपति ट्रंप साफ़ तौर पर बदले हुए नज़र आ रहे है और ऐसा लगता है कि वो हर मुद्दे को सिर्फ़ लेन-देन की दृष्टि से ही देख रहे हैं. पाकिस्तान के साथ व्यापार बढ़ाने की उनकी रुचि एक जल्दबाज़ी में लिया गया फैसला लगता है और ये बिना सोच-समझ किया गया नीतिगत बदलाव प्रतीत होता है. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप और उनके प्रशासन को ये नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि पाकिस्तान भारत के लिए किस तरह का ख़तरा है, और पाकिस्तान के अंदर किस तरह अस्थिरता की स्थिति बनी हुई है. अमेरिका द्वारा इन वास्तविकताओं को हल्के में लेना उचित नहीं होगा. अमेरिका के राजनीतिक हलकों में एक हिस्सा ये भी मानता है कि पाकिस्तान को एक सुचारु लोकतंत्र की तरफ़ ले जाया जा सकता है. लेकिन भारत की सैन्य कार्रवाई के बाद पाकिस्तान ने इसका विपरीत किया है. खासकर आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल के पद पर प्रमोशन देकर उसकी सत्ता और प्रभाव को और ज्यादा मजबूत किया है. 

निष्कर्ष

संभव है कि पाकिस्तान को लेकर भारत और अमेरिका के बीच भविष्य में एक बढ़ता हुआ मतभेद उभर आए. ये भारत और अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी को नुकसान पहुंचा सकता है. आज नई दिल्ली में लगभग आम सहमति बन गई है कि पाकिस्तान को आतंकवाद फैलाने की आदत से मुक्त कर उसे एक तर्कसंगत और लोकतांत्रिक साझेदार की तरह मुख्यधारा में लाना अब संभव नहीं है. लेकिन अमेरिका में अभी भी पाकिस्तान को लेकर एक किस्म का राजनीतिक भ्रम कायम है. आज के राजनीतिक परिदृश्य में ट्रंप मानते हैं कि पाकिस्तान आर्थिक रूप से थोड़ा उपयोगी हो सकता है. अमेरिका के खास मिशनों के लिए विशेष दूत रिचर्ड ग्रेनेल ने सार्वजनिक रूप से इमरान ख़ान की रिहाई का समर्थन किया है और इसे लोकतांत्रिक सुधार की दिशा में एक कदम बताया है. इसी दौरान साउथ कैरोलिना से कांग्रेस सदस्य जो विल्सन ने पाकिस्तान डेमोक्रेसी एक्ट नामक एक बिल पेश किया है जिसमें अमेरिकी नीति के अंदर पाकिस्तान में लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने की बात की गई है. इस बिल में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, नागरिक शासन, अदालत की आज़ादी, कानून का राज, मानवाधिकार की रक्षा और सभी के लिए न्यायिक प्रक्रिया के पालन की बात की गई है. इसी बिल में जनरल आसिम मुनीर के खिलाफ़ प्रतिबंध लगाने की बात भी कही गई है. भारत को ये सब एक दिवास्वप्न जैसा लग सकता है. 

ट्रंप प्रशासन का चुनावी रिपोर्ट कार्ड को देखें तो पाएंगे कि ये उनके शुरु में किए गए संघर्षों के शीघ्र और समयबद्ध समाधान के वादों से बिल्कुल अलग है. चाहे युक्रेन हो या गाज़ा, वो कोई भी डील कराने में सफल नहीं हो पाए हैं.

ट्रंप प्रशासन का चुनावी रिपोर्ट कार्ड को देखें तो पाएंगे कि ये उनके शुरु में किए गए संघर्षों के शीघ्र और समयबद्ध समाधान के वादों से बिल्कुल अलग है. चाहे युक्रेन हो या गाज़ा, वो कोई भी डील कराने में सफल नहीं हो पाए हैं. साथ ही चीन के साथ कोई आर्थिक समझौता एक भू-राजनीतिक शक्ति-प्रदर्शन में बदलता जा रहा है और इंडो-पैसिफिक नीति अब भी अस्पष्ट बनी हुई है. आप इसके लिए ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की इस नीति को भी जिम्मेदार समझ सकते हैं जिसमें कहा जाता है कि 'अगर आपके पास हथौड़ा है, तो हर समस्या कील जैसी ही दिखेगी'  लेकिन हर समस्या का हल सिर्फ समझौते में देखना सही नही हैं और ये प्रवृत्ति भी विफल होती नज़र आ रही है. ऐसे हालात में भारत के साथ संबंधों में तनाव आखिरी चीज होनी चाहिए जिसकी अमेरिका कामना करे. 


विवेक मिश्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्ट्डीज़ प्रोग्राम में डिप्टी डायरेक्टर हैं. 

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