Author : Shoba Suri

Expert Speak Health Express
Published on Nov 05, 2025 Updated 3 Days ago

भारत में योजनाएँ तो हैं, पर पोषण अब भी अधूरा है. बच्चों की मुस्कानें भूख और बीमारी के साए में खो जाती हैं. अब वक्त है कि हर योजना, हर गाँव, एक साथ कदम बढ़ाए, “एक गाँव, एक योजना” की राह पर.

कुपोषण की जंग: योजनाएँ बहुत, तालमेल कम

भारत में पोषण की कहानी थोड़ी उलझी हुई है. एक तरफ़ हमारे पास राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) और प्रधानमंत्री पोषण योजना जैसी कई बड़ी योजनाएँ हैं लेकिन दूसरी तरफ़ कुपोषण अब भी डटा हुआ है. लाखों बच्चे और माताएँ आज भी भूख और खराब सेहत की जकड़ में हैं. भारत ने कई बार वादा किया है कि वह कुपोषण को मिटाएगा पर ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि अलग-अलग योजनाएँ अपने-अपने रास्ते पर चल रही हैं. इनका तालमेल न होने से नतीजे धीमे पड़ जाते हैं — और यही हमारी सबसे बड़ी चुनौती है.

  • मातृ स्वास्थ्य सेवाओं में भी गिरावट दिखती है जहाँ प्रसवपूर्व देखभाल 94 प्रतिशत महिलाओं तक पहुँचती है लेकिन प्रसव के बाद सिर्फ़ 61% तक सेवा पहुँच पाती है; आदिवासी बच्चों में ठिगनापन 40% से ज़्यादा है.

  • “एक गांव, एक योजना” सिर्फ एक नीति नहीं, बल्कि एक विज़न है—जो भोजन, स्वास्थ्य और देखभाल को एक साथ जोड़कर विकसित भारत 2047 के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता है.

कुपोषण की स्थिति: आंकड़ों की हकीकत

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5, 2019–2021) के अनुसार, भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र के 35.5 प्रतिशत बच्चे ठिगने, 19.3 प्रतिशत दुबले और 32.1 प्रतिशत कम वज़न के हैं. हालाँकि ठिगनेपन की दर 2005–06 के 48 प्रतिशत से घटकर 35.5 प्रतिशत पर आ गई है लेकिन भारत अब भी वैश्विक लक्ष्यों से दूर है. शहरी क्षेत्रों में ठिगनेपन की दर 30.1 प्रतिशत है. सेवाओं की पहुँच में भी कमी है — ICDS 80 प्रतिशत पात्र बच्चों तक पहुँचता है लेकिन सिर्फ 62 प्रतिशत को ही भोजन पूरक मिलता है. मातृ स्वास्थ्य सेवाओं में भी गिरावट दिखती है जहाँ प्रसवपूर्व देखभाल 94 प्रतिशत महिलाओं तक पहुँचती है वहीं प्रसवोत्तर देखभाल केवल 61 प्रतिशत महिलाओं तक सीमित है. अनुसूचित जनजातियों जैसे कमजोर वर्गों में ठिगनेपन की दर 40 प्रतिशत से अधिक है जो गहरी चिंता का विषय है.

मातृ स्वास्थ्य सेवाओं में भी गिरावट दिखती है जहाँ प्रसवपूर्व देखभाल 94 प्रतिशत महिलाओं तक पहुँचती है वहीं प्रसवोत्तर देखभाल केवल 61 प्रतिशत महिलाओं तक सीमित है.

बिखरे प्रयास, सीमित असर

भारत में कुपोषण से निपटने के प्रयास कई मंत्रालयों में विभाजित हैं, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय पोषण ट्रैकर का उपयोग करता है, स्वास्थ्य मंत्रालय HMIS प्रणाली पर निर्भर है जबकि कृषि मंत्रालय के अपने अलग निगरानी तंत्र हैं. इन सबके अपने फायदे हैं लेकिन ये अलग-अलग काम करने के कारण संसाधनों का तालमेल, डेटा साझा करना और एकीकृत समाधान देना मुश्किल हो जाता है. राष्ट्रीय पोषण मिशन (POSHAN अभियान) के इन प्रयासों को एकीकृत करने की कोशिश की है पर जमीनी स्तर पर इसे लागू करना अब भी चुनौती है. इसके साथ ही गरीबी, अस्वच्छता और सीमित आहार विविधता जैसे कारक कुपोषण को और गहराते हैं जो सामुदायिक और समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता को दर्शाते हैं.

कुपोषण से लड़ाई: बहु-क्षेत्रीय दृष्टिकोण की ज़रूरत

पोषण सुधार केवल स्वास्थ्य प्रणाली का काम नहीं है. यह कृषि, जल, स्वच्छता, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा के साथ जुड़ा है. जब भोजन उत्पादन विविध होता है, पानी और स्वच्छता सुनिश्चित होते हैं, स्वास्थ्य सेवाएँ समय पर मिलती है और माताओं को सही परामर्श मिलता है, तब यह सभी मिलकर कुपोषण के चक्र को तोड़ते हैं.

ओडिशा के मॉडल से समझिए 

ओडिशा का “मल्टी-सेक्टरल न्यूट्रिशन एक्शन प्लान” और “स्वाभिमान” जैसी पहलें इस बात का प्रमाण है कि जब महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों (SHGs) को कृषि, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा से जोड़ा जाता है तो पोषण के नतीजे बेहतर आते हैं. ओडिशा की ‘टिकी माऊसी’ पहल ने स्थानीय भाषा और कहानियों के ज़रिए व्यवहार परिवर्तन का अनोखा तरीका अपनाया. इसने नीति और समुदाय के बीच सेतु का काम किया और पोषण अभियान जैसी बड़ी योजनाओं को जमीनी स्तर पर प्रभावी बनाया.

ओडिशा की ‘टिकी माऊसी’ पहल ने स्थानीय भाषा और कहानियों के ज़रिए व्यवहार परिवर्तन का अनोखा तरीका अपनाया. इसने नीति और समुदाय के बीच सेतु का काम किया और पोषण अभियान जैसी बड़ी योजनाओं को जमीनी स्तर पर प्रभावी बनाया.

सामुदायिक पोषण हब्स और नंद घर

इस दिशा में आगे बढ़ते हुए, अब सामुदायिक एकीकरण पर आधारित “कम्युनिटी न्यूट्रिशन हब्स” की अवधारणा सामने आई है, गाँव स्तर पर ऐसे केंद्र जो स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा सेवाओं को एक साथ लाते हैं. ऐसे ही एक सफल मॉडल के रूप में ‘नंद घर’ उभरा है. आधुनिक आंगनवाड़ी केंद्र जो पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास को एक साथ जोड़ते हैं. वर्तमान में देशभर में 9,000 नंद घर संचालित हैं जो 3.6 लाख बच्चों और 2.7 लाख महिलाओं तक पहुँचे हैं. ये न केवल स्वास्थ्य और पोषण सेवाओं को सशक्त करते हैं बल्कि महिलाओं को आजीविका और उद्यमिता प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर भी बनाते हैं. यह एक सशक्त पब्लिक–प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मॉडल के रूप में सामने आया है जो पोषण अभियान और ICDS जैसी सरकारी योजनाओं को पूरक बनाता है.

कॉरपोरेट साझेदारी से सामाजिक प्रभाव: ‘प्रभात’ की मिसाल

हिंदुस्तान यूनिलीवर की ‘प्रभात’ पहल दिखाती है कि जब कॉरपोरेट और समुदाय मिलकर काम करते हैं तो स्थायी परिवर्तन संभव होता है. प्रभात ने पोषण जागरूकता, सुरक्षित पानी और आजीविका को जोड़ते हुए 21 राज्यों में 80 लाख से अधिक लोगों तक प्रभाव डाला है. यह एक आदर्श उदाहरण है कि कैसे व्यवसाय सामाजिक विकास के साथ साझा मूल्य बना सकते हैं.

महिला नेतृत्व और स्थानीय समाधान

झारखंड की महिला-नेतृत्व वाली ‘फूड, न्यूट्रिशन, हेल्थ और WASH’ पहल ने 263 ब्लॉकों में विस्तार पाकर स्वयं सहायता समूहों को पोषण, स्वच्छ पानी और स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ा है. टाटा ट्रस्ट्स की इंडिया न्यूट्रिशन इनिशिएटिव (TINI) ने इस अभियान को संसाधन, प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता देकर सशक्त बनाया है. इन समूहों ने स्थानीय स्तर पर पोषण शिक्षा, फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों की पहुँच और स्वच्छता व्यवहार में सुधार लाने में अहम भूमिका निभाई है.

एक गांव, एक योजना: एकजुट विकास की दिशा

समाधान योजनाओं की संख्या में नहीं बल्कि उनके एकीकरण में है. यही सोच “एक गांव, एक योजना” की अवधारणा में झलकती है. यह विचार ग्राम पंचायत विकास योजना से जुड़ा है जिसमें गाँव अपने संसाधनों और ज़रूरतों के आधार पर विकास योजनाएँ तैयार करते हैं. यह प्रक्रिया नीचे से ऊपर की ओर होती है, जिसमें स्थानीय भागीदारी को प्राथमिकता दी जाती है.

यदि सरकार और समाज मिलकर नंद घर जैसे ढाँचों का उपयोग करें, ई-ग्रामस्वराज जैसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स से डेटा जोड़ें और स्थानीय शासन संस्थाओं को सशक्त बनाएं, तो संसाधनों का अधिकतम उपयोग करते हुए एकीकृत परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं.

यह न केवल भारत के सतत विकास लक्ष्यों 2030 (SDGs) को सशक्त करती है बल्कि विकसित भारत 2047 के विज़न से भी मेल खाती है. इस मॉडल में क्लाइमेट-रेज़िलिएंट कृषि और नवीकरणीय ऊर्जा को शामिल किया जा रहा है ताकि खाद्य सुरक्षा दीर्घकालिक रूप से सुनिश्चित हो. ई-ग्रामस्वराज पोर्टल जैसी डिजिटल प्रणालियाँ पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ा रही हैं. गुजरात के पंसेरी गांव और महाराष्ट्र के हिवरे बाज़ार की सफलता यह साबित करती है कि जब योजनाएँ एक दिशा में जुड़ती हैं तो गाँव आत्मनिर्भर और समृद्ध बन सकते हैं.

क्या है स्थायी समाधान

भारत में योजनाओं की कमी नहीं है, लेकिन उनके बिखरे हुए क्रियान्वयन से असर घट जाता है. यदि सरकार और समाज मिलकर नंद घर जैसे ढाँचों का उपयोग करें, ई-ग्रामस्वराज जैसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स से डेटा जोड़ें और स्थानीय शासन संस्थाओं को सशक्त बनाएं, तो संसाधनों का अधिकतम उपयोग करते हुए एकीकृत परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं.

“एक गांव, एक योजना” सिर्फ एक नीति नहीं, बल्कि एक विज़न है—जो भोजन, स्वास्थ्य और देखभाल को एक साथ जोड़कर भारत को मानव पूंजी, लचीलापन और विकसित भारत 2047 के लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है.


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