लंबे वक़्त तक ये समझा जाता रहा है कि विदेश नीति के मुद्दे काफ़ी हद तक लोगों की राय से दूर होते हैं. हाल के समय में विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अलग-अलग पहलुओं को लेकर लोगों की राय के बारे में रिसर्च में तेज़ी आई है. विदेश नीति के मुद्दों को लेकर लोगों की बढ़ी हुई जागरुकता और घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बीच मेलजोल की ज़्यादा सराहना ने इस तरह की रिसर्च की ज़रूरत को और बढ़ाया है. गुंजायमान लोकतंत्र के कारण भारतीय नागरिकों की राजनीतिक चेतना में नियमित और स्थायी बढ़ोतरी और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण किरदार के तौर पर भारत की लगातार बढ़ती भूमिका विदेश नीति में भारत के लोगों की राय की प्रकृति के बारे में व्यापक छानबीन की ज़रूरत बताती है. इस संदर्भ में हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट ‘ओआरएफ विदेश नीति सर्वे 2021: युवा भारत और विश्व’ एक महत्वपूर्ण योगदान है, ख़ास तौर पर उस वक़्त जब कोविड-19 महामारी ने अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की असुरक्षा और अस्थिरता को बहुत ज़्यादा बिगाड़ दिया है.
ये सर्वे भारत की विदेश नीति के बारे में स्पष्ट रूप से भारत के शहरी युवाओं (18-35 वर्ष) की राय पर ध्यान केंद्रित करता है क्योंकि वो “भारत के भविष्य को लेकर सबसे महत्वपूर्ण भागीदार” हैं. मौजूदा महामारी की वजह से साजो-सामान की चुनौतियों के बावजूद इस सर्वे में 14 शहरों के 2,037 भारतीयों की राय को शामिल किया गया. इस सर्वे के नतीजे विदेश नीति के मुद्दों पर शहरी युवाओं की सोच को लेकर 3 महत्वपूर्ण रुझान ज़ाहिर करते हैं- विश्व के साथ भारत की कूटनीतिक भागीदारी को लेकर ज़्यादा जागरुकता और आशावाद, भारत की विदेश नीति की आशंकाओं और चुनौतियों को लेकर बदलती सोच और विदेश नीति के फ़ैसलों में व्यावहारिक दृष्टिकोण को प्राथमिकता.
ये सर्वे भारत की विदेश नीति के बारे में स्पष्ट रूप से भारत के शहरी युवाओं (18-35 वर्ष) की राय पर ध्यान केंद्रित करता है क्योंकि वो “भारत के भविष्य को लेकर सबसे महत्वपूर्ण भागीदार” हैं. मौजूदा महामारी की वजह से साजो-सामान की चुनौतियों के बावजूद इस सर्वे में 14 शहरों के 2,037 भारतीयों की राय को शामिल किया गया.
लोगों में ज़्यादा जागरुकता और आशावाद
अध्ययन से पता चला है कि भारत की विदेश नीति के बड़े मुद्दों को लेकर भारतीय युवाओं में जागरुकता का स्तर अच्छा है. ये रुझान विदेश नीति के मुद्दों को लेकर आम नागरिकों की काफ़ी हद तक सीमित पहुंच की पुरानी धारणा से विदाई का संकेत देता है. सर्वे बताता है कि युवा न सिर्फ़ मौजूदा सरकार की विदेश नीति से जुड़े फ़ैसलों के बारे में जागरुक हैं बल्कि उन नीतियों का समर्थन भी करते हैं. मोदी सरकार की विदेश नीति से जुड़े बड़े फ़ैसलों जैसे चीन के ऐप पर प्रतिबंध, क्वॉड की मज़बूती, बालाकोट एयर स्ट्राइक और अवैध रूप से दूसरे देश के लोगों के आने पर नियंत्रण को सर्वे में शामिल युवाओं ने सकारात्मक रूप से देखा. सर्वे में सिर्फ़ आरसीईपी (रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) से भारत के अलग होने को सबसे कम प्राथमिकता वाले फ़ैसले के तौर पर स्पष्ट रूप से देखा गया. पड़ोस के देशों (पाकिस्तान को छोड़ कर) के बारे में भारतीय युवाओं का आशावादी दृष्टिकोण, कुछ मुद्दों पर आधारित क्षेत्रीय भिन्नता के बावजूद, व्यापक क्षेत्रीय बातचीत के लिए भरोसा दिलाने वाला है.
आशंका वाली सोच में बदलाव
ये सर्वे संकेत देता है कि जवाब देने वाले ज़्यादातर युवाओं ने वैश्विक महामारी को भारत के लिए विदेश नीति की सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर पहचान की है. इससे पता चलता है कि कोविड-19 की राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियां भारत के युवाओं की आशंका वाली सोच में दबदबा रखती है. साथ ही आतंकवाद पर ज़ोर राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर युवाओं की बढ़ती चिंता की वजह बताता है. सर्जिकल स्ट्राइक और अवैध तरीक़े से लोगों के भारत में आने पर नियंत्रण के लिए क़दम की तारीफ़ के ज़रिए मज़बूत दृष्टिकोण की ओर युवाओं की तरजीह को समझा जा सकता है. सुरक्षा को परंपरागत ख़तरे के अलावा साइबर सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर युवा आबादी की बढ़ती चिंता बताती है कि इन ग़ैर-परंपरागत लेकिन तेज़ी से बढ़ती महत्वपूर्ण चुनौतियों से भारत ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के साथ मुक़ाबला कर सकता है. महत्वपूर्ण बात ये है कि आर्थिक और सैन्य ताक़त के तौर पर तेज़ी से बढ़ते चीन को लेकर युवाओं की बढ़ती चिंता के कारण चीन से सीमा विवाद को पाकिस्तान से बड़ी चुनौती के तौर पर देखा जा रहा है. कोविड-19 को लेकर चीन के दृष्टिकोण और पूर्वी लद्दाख में भारत के साथ हाल के विवाद ने लगता है चीन को लेकर भारतीय युवाओं के अविश्वास को काफ़ी बढ़ा दिया है. 2015 में चीन को लेकर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों की सोच (तीन चुनिंदा राज्यों में हुए सर्वे) पर ओआरएफ के अध्ययन के दौरान कम चिंता दिखी थी.
ये सर्वे संकेत देता है कि जवाब देने वाले ज़्यादातर युवाओं ने वैश्विक महामारी को भारत के लिए विदेश नीति की सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर पहचान की है. इससे पता चलता है कि कोविड-19 की राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियां भारत के युवाओं की आशंका वाली सोच में दबदबा रखती है.
व्यावहारिक दृष्टिकोण
अध्ययन से पता चलता है कि युवा इस बात को लेकर उत्सुक हैं कि भारत अपनी विदेश नीति की महत्वाकांक्षा को व्यावहारिक तरीक़े से आगे बढ़ाए न कि अतीत के परंपरागत दृष्टिकोण से चिपका रहे. सर्वे में शामिल युवाओं ने अमेरिका के साथ संबंधों को नई ऊंचाई देने को लेकर काफ़ी उत्साह दिखाया. ये हाल के दशकों में अमेरिका के साथ भारत के मज़बूत सामरिक संबंधों के मुताबिक़ है. युवाओं ने सर्वे में ये संकेत भी दिया है कि अमेरिका-चीन संघर्ष में बढ़ोतरी की स्थिति में वो साफ़ तौर पर भारत के द्वारा अमेरिका का पक्ष लेने को प्राथमिकता देंगे. ये राय चीन से बढ़ते ख़तरे के कारण भारत के हितों को देखते हुए है. इस तरह की व्यावहारिक सोच ऐतिहासिक रूप से महाशक्तियों की दुश्मनी के दौरान काफ़ी हद तक गुटनिरपेक्ष बने रहने के परंपरागत रुख़ से हटकर है. सर्वे में शामिल युवाओं के एक बड़े हिस्से को भारत के गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बारे में जानकारी ही नहीं थी. रूस के साथ भारत के मज़बूत ऐतिहासिक संबधों के बावजूद अमेरिका के लिए युवाओं की ज़्यादा प्राथमिकता से भारत-अमेरिका रिश्तों के विकसित होने की तरफ़ आशावादी संकेत मिलता है.
युवाओं ने सर्वे में ये संकेत भी दिया है कि अमेरिका-चीन संघर्ष में बढ़ोतरी की स्थिति में वो साफ़ तौर पर भारत के द्वारा अमेरिका का पक्ष लेने को प्राथमिकता देंगे. ये राय चीन से बढ़ते ख़तरे के कारण भारत के हितों को देखते हुए है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता को लेकर भारत की कोशिश के साथ-साथ भारत को आर्थिक रूप से मज़बूत करने को काफ़ी ज़्यादा प्राथमिकता दी गई है. इससे पता चलता है कि युवा आबादी की इच्छा है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में ज़्यादा बड़ी भूमिका अदा करे. कुल मिलाकर वैश्वीकरण- इसके साथ-साथ शैक्षणिक अवसरों को भी- को सकारात्मक तौर पर देखा जाता है लेकिन अर्थव्यवस्था, संस्कृति, जीवन के स्तर और जन आंदोलन पर इसके असर को लेकर युवाओं का संदेह बरकरार है और ज़्यादातर युवाओं ने भारत के लिए आत्मनिर्भर आर्थिक विकास का समर्थन किया है.
अंतर्विरोध और सीमित जानकारी
अध्ययन ने लोगों की राय की जटिल परतों को समझने के साथ इससे जुड़े कुछ अंतर्विरोधों को भी उजागर किया है. वैसे तो दूसरे देशों के साथ भारत की बहुपक्षीय भागीदारी को ज़्यादा प्राथमिकता दी गई है लेकिन संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन को छोड़कर महत्वपूर्ण और नये अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों को लेकर जागरुकता सीमित है. जी-20, ब्रिक्स, एससीओ, सार्क और बिम्सटेक जैसे संगठनों को लेकर युवाओं की जानकारी अपेक्षाकृत कम पाई गई जबकि ये बहुपक्षीय भागीदारी के लिए महत्वपूर्ण मंच हैं.
इसी तरह सर्वे में शामिल युवाओं को पड़ोसियों के साथ (पाकिस्तान को छोड़कर) भारत की भागीदारी को लेकर उम्मीद है लेकिन “पड़ोसियों के साथ भारत की भागीदारी के उतार-चढ़ाव” को लेकर उनकी समझ भी अपर्याप्त पाई गई. इसलिए ये महत्वपूर्ण है कि इस बात की और छानबीन की जाए कि किस हद तक युवा ऐसे मुद्दों के बारे में पर्याप्त समझ के आधार पर जागरुक राय बना रहे हैं. ये जानना भी दिलचस्प होगा कि किस हद तक परंपरागत मीडिया और सोशल मीडिया विदेश नीति को लेकर युवाओं का इस तरह का जनमत बनाते हैं. चूंकि ये सर्वे महामारी के दौरान किया गया, इसलिए कुछ वर्षों के बाद जब कोरोना वायरस का ख़तरा कम हो जाता है तो इसी तरह का सर्वे कराने से ये समझने में मदद मिलेगी कि कोविड-19 की वजह से आई अनिश्चितता ने सर्वे में शामिल लोगों के विचार पर कितना असर डाला. साथ ही दूसरे मुद्दों से संबंधित चिंताओं जैसे भारत के अंतर्राष्ट्रीय सीमा विवादों और वैश्विक विकास के सहयोग की पहल को लेकर युवाओं की सोच का अध्ययन करना भी महत्वपूर्ण होगा.
ये जानना भी दिलचस्प होगा कि किस हद तक परंपरागत मीडिया और सोशल मीडिया विदेश नीति को लेकर युवाओं का इस तरह का जनमत बनाते हैं. चूंकि ये सर्वे महामारी के दौरान किया गया, इसलिए कुछ वर्षों के बाद जब कोरोना वायरस का ख़तरा कम हो जाता है तो इसी तरह का सर्वे कराने से ये समझने में मदद मिलेगी
विदेश नीति पर भारत के जनमत की विकसित प्रकृति के लगातार आकलन की इस तरह की कोशिश बेशक एक लोकतंत्र में विदेश नीति और लोगों की राय के बीच पारस्परिक क्रिया की समझ को बढ़ाएगी.
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