Author : Ovigwe Eguegu

Published on Sep 04, 2023 Updated 0 Hours ago

महाशक्तियों की आपसी प्रतिस्पर्धा में नाइजर तेज़ी के साथ एक नया ज्वलंत केंद्र बनता जा रहा है, क्योंकि नाइजर में तख़्तापलट के मद्देनज़र ECOWAS सैन्य कार्रवाई के बारे में विचार कर रहा है.

नाइजर संकट: छद्म युद्ध (Proxy War) की दहलीज़ पर खड़ा पश्चिम अफ्रीका

पूरी दुनिया को कुछ दिनों पहले अफ्रीकी देश नाइजर में सैन्य अधिग्रहण किए जाने का समाचार मिला. जैसी उम्मीद थी, इकोनॉमिक कम्युनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स (ECOWAS) ने इस घटना के बाद नाइजर पर प्रतिबंध लगा दिया और ग्रुप से निलंबित भी कर दिया. ECOWAS ने यह भी कहा है कि अगर राष्ट्रपति मोहम्मद बाज़ूम को ज़ल्द ही उनके पद पर बहाल नहीं किया गया तो सैन्य कार्रवाई की जाएगी. इसी प्रकार से संयुक्त राज्य अमेरिका (US), फ्रांस और यूरोपियन यूनियन (EU) ने भी नाइजर में सैन्य तख़्तापलट की भर्तसना करने में तनिक भी देरी नहीं की. नाइजर में हुए सैन्य तख़्तापलट को ख़िलाफ़ देश के भीतर और बाहर जिस प्रकार की कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिली है, वो अविश्वसनीय है और हाल-फिलहाल में किसी तख़्तापलट के विरुद्ध ऐसी प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली थी. नाइजर ऐसा देश है, जो अमेरिका, फ्रांस और यूरोपियन यूनियन की साहेल क्षेत्र से जुड़ी रणनीतियों के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण है. फ्रांस की और यूरोपीय देशों की परमाणु ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नाइजर से यूरेनियम का निर्यात बेहद अहम है. इसलिए, यह कोई हैरानी वाली बात नहीं थी, जब फ्रांस ने भी नाइजर में “फ्रांसीसी हितों” को हानि पहुंचाने पर जुंटा यानी सैन्य शासन के विरुद्ध कार्रवाई की धमकी दी. ECOWAS के लिए यह कोई पहली बार नहीं है, वो पहले भी इस तरह की धमकी दे चुका है और सैन्य हस्तक्षेप जैसे क़दम उठा चुका है, लेकिन इस बार हालात कुछ बदले-बदले से हैं, क्योंकि बुर्किना फासो और माली ने नाइजर के साथ अपनी एकजुटता को प्रकट करते हुए सैन्य हस्तक्षेप की किसी भी संभावना की निंदा करते हुए एक साझा बयान जारी किया है. इस बयान में साफ तौर पर कहा गया है कि “नाइजर के ख़िलाफ़ जो भी सैन्य हस्तक्षेप होगा, उसे बुर्किना फासो और माली के विरुद्ध युद्ध के ऐलान की तरह समझा जाएगा.” इस असाधारण ऐलान का अर्थ हैं कि नाइजर में तख़्तापलट के विरुद्ध बल का प्रयोग पूरे पश्चिम अफ्रीका को एक पारंपरिक युद्ध में झोंकने का काम करेगा. पूरे इलाक़े के लिए इस युद्ध के न केवल विनाशकारी नतीज़े सामने आएंगे, बल्कि यह महाशक्तियों की होड़ का एक नया केंद्र बिंदु भी बन जाएगा.

नाइजर में हुए सैन्य तख़्तापलट को ख़िलाफ़ देश के भीतर और बाहर जिस प्रकार की कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिली है, वो अविश्वसनीय है और हाल-फिलहाल में किसी तख़्तापलट के विरुद्ध ऐसी प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली थी.

रूस, फ्रांस और चर्चित तख़्तापलटों की श्रृंखला

नाइजर में राष्ट्रपति मोहम्मद बाज़ूम को ज़बरन सत्ता से बेदख़ल कर सैन्य तख़्तापलट की घटना वर्ष 2020 के बाद से पश्चिम अफ्रीका में ऐसे छठी सफल घटना थी. नाइजर में सत्ता पर कब्ज़े के बाद वहां के प्रेसिडेंशियल गार्ड के हेड जनरल अब्दौराहमान तियानी को देश का प्रमुख घोषित किया गया. ऊपर से देखा जाए, तो यह तख़्तापलट असंतुष्ट अधिकारियों द्वारा सत्ता हथियाने की महात्वाकांक्षा को दिखाता है, साथ ही अफ्रीका में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को पटरी से उतारने वाला प्रतीत होता है. माली, बुर्किना फासो और गिनी की तरह, नाइजर में जुंटा ने अपनी कार्रवाई के लिए जिन वजहों का हवाला दिया है, उनमें लंबे वक़्त से चली आ रही असुरक्षा, डंवाडोल आर्थिक स्थिति और कुशासन जैसे कारण शामिल थे. हालांकि, ये कारण निराधार भी नहीं हैं. गिनी को छोड़कर, शायद बाक़ी देशों में नागरिकों के बीच नव-उपनिवेश के विरोध की एक मज़बूत भावना दिखाई देती है.

नाइजर दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से एक है, साथ ही माली और बुर्किना फासो की ही तरह मानव विकास सूचकांक (Human Development Index) में लगातार सबसे नीचे बना हुआ है. जहां एक ओर इन देशों के नागरिक अपनी आर्थिक दिक़्क़तों के लिए नव-उपनिवेशवादी आर्थिक नीतियों एवं आर्थिक संरचना को ज़िम्मेदार मानते हैं, वहीं कई विशेषज्ञ आतंकवाद, मानव तस्करी और दूसरी सुरक्षा संबंधी परेशानियों जैसी चुनौतियों के लिए इस क्षेत्र में लंबे समय से चले आ रहे पिछड़ेपन और धीमे विकास को ज़िम्मेदार बताते हैं. विश्व बैंक के मुताबिक़ नाइजर विस्थापितों की समस्या से जूझ रहा है और इसे नाइजीरिया व माली से आने वाले विस्थापित नागरिकों की घुसपैठ का सामना करना पड़ा है. आंकड़ों पर नज़र डालें तो वर्ष 2022 तक नाइजर में कुल मिलाकर लगभग 3,50,000 विस्थापित लोगों के साथ क़रीब-क़रीब 2,95,000 शरणार्थी थे. वर्ष 2021 के अध्ययनों के मुताबिक़ नाइजर की 41.8 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या अत्यंत ग़रीबी में गुजर-बसर कर रही है. वर्ष 2021 में नाइजर की GDP में 1.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई थी, जबकि अनुमानों में बताया गया था कि नए आर्थिक कार्यक्रमों के चलते अगले वर्ष प्रति व्यक्ति GDP में 15 प्रतिशत की वृद्धि होने की उम्मीद है. इतना ही नहीं, सिंचाई कार्यक्रमों एवं अच्छी बारिश के मौसम ने कृषि उत्पादन में 27 प्रतिशत की बढ़ोतरी की. ज़ाहिर है कि अकेले कृषि का ही नाइजर की GDP में 40 प्रतिशत योगदान है, इसके मद्देनज़र यह एक बड़ी उपलब्धि है.

जहां एक ओर इन देशों के नागरिक अपनी आर्थिक दिक़्क़तों के लिए नव-उपनिवेशवादी आर्थिक नीतियों एवं आर्थिक संरचना को ज़िम्मेदार मानते हैं, वहीं कई विशेषज्ञ आतंकवाद, मानव तस्करी और दूसरी सुरक्षा संबंधी परेशानियों जैसी चुनौतियों के लिए इस क्षेत्र में लंबे समय से चले आ रहे पिछड़ेपन और धीमे विकास को ज़िम्मेदार बताते हैं.

इस पूरे क्षेत्र में पिछले दशक में सुरक्षा के लिए जो भी कोशिशें की गई हैं, कहीं न कहीं उनकी अगुवाई फ्रांस द्वारा की गई है. पेरिस ने G5-साहेल फोर्स की स्थापना के अतिरिक्त, ऑपरेशन बरखाने के अंतर्गत इस इलाक़े में 5,000 से अधिक सैनिकों को तैनात किया. इसके साथ ही यूनाइटेड नेशन्स के MINUSMA पीस कीपिंग मिशन, अर्थात मल्टीडाइमेंशनल इंटीग्रेटेड स्टैबलाइज़ेशन मिशन इन माली के तहत 15,000 सैनिकों की तैनाती की गई थी, जबकि यूरोपियन यूनियन द्वारा ऑपरेशन ताकुबा (Operation Takuba) के अंतर्गत स्पेशल फोर्सेज को तैनात किया गया था. लेकिन इन विभिन्न सुरक्षा कार्यक्रमों के तहत इस क्षेत्र में शांति स्थापना की जगह आतंकवाद और हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई. सितंबर 2022 में जब इब्राहिम त्राओरे ने बुर्किना फासो में सत्ता पर कब्ज़ा किया था, तब देश का 40 प्रतिशत इलाक़ा जिहादियों के नियंत्रण में आ चुका था. इसकी वजह से क्षेत्र में सुरक्षा मुहैया करने वाले के तौर पर फ्रांस और उसके दूसरे यूरोपीय सहयोगियों की विश्वसनीयता को झटका लगा था.

पश्चिमी अफ्रीका के इस क्षेत्र में देखा जाए तो अक्सर संयुक्त राष्ट्र एवं फ्रांस की अगुवाई वाले सिक्योरिटी प्रोग्राम नाक़ाम रहे हैं, इसकी वजह यह है कि वहां का मुख्यधारा का मीडिया इन कार्यक्रमों को ज़्यादा तवज्जो नहीं देता है, साथ ही इस इलाक़े में रूस के बढ़ते दबदबे का गुणगान करता है. हालांकि, इस बात के भी पुख़्ता प्रमाण हैं कि रूस द्वारा वहां पश्चिम-विरोधी भावनाओं का लाभ उठाया जा रहा है. उल्लेखनीय है कि वहां इस तरह का माहौल इसलिए है, क्योंकि वहां शासन व्यवस्था खस्ताहाल है, विदेशी दख़लंदाज़ी बहुत अधिक है और तरक़्क़ी से जुड़ी विभिन्न चुनौतियां बरक़रार हैं. माली में तख़्तापलट के पश्चात माली एवं फ्रांस के मध्य सैन्य संबंध भी बेहद ख़राब स्थिति में पहुंच गए हैं. माली ने पिछले साल अप्रैल में नौ साल तक चलने वाले ऑपरेशन बरखाने को समाप्त करते हुए फ्रांसीसी सैनिकों को देश से निष्कासित कर दिया था. इतना ही नहीं, जनवरी 2023 में बुर्किना फासो ने फ्रांस के साथ 2018 के सैन्य समझौते को ख़त्म करने का ऐलान किया और देश में ऑपरेशन संचालित करने में संलग्न फ्रांस की सेनाओं को देश छोड़ने की मांग की. इन दोनों ही मामलों में फ्रांसीसी सेनाओं के निष्कासन का स्थानीय नागरिकों द्वारा न केवल जश्न मनाया गया, बल्कि इस दौरान नागरिकों ने अपने देश के झंडे के साथ ही रूस के झंडे भी लहराए.

माली एवं बुर्किना फासो जैसे देशों में सेना द्वारा तख़्तापलट किए जाने के बाद से नाइजर इस इलाक़े में फ्रांस, अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के प्रमुख सहयोगियों में से एक बन गया. ऐसा होने पर माली और बर्किना फासो में तैनात फ्रांसीसी और यूरोपीय संघ के सैनिकों को वहां से हटाकर नाइजर में तैनात कर दिया गया. ज़ाहिर है कि नाइजर में एक फ्रांसीसी सैन्य अड्डा और कम से कम दो अमेरिकी एयरबेस मौज़ूद हैं, जो इसे क्षेत्र में फ्रांस, AFRICOM और यूरोपियन यूनियन को अपनी गतिविधियां संचालित करने के लिए विशिष्ट जगह बनाते हैं. नाइजर में फ्रांस और अमेरिका के इन सुरक्षा इंतज़ामों को तख़्तापलट करने वाला सैन्य प्रशासन तितर-बितर करने वाला है. इतना ही नहीं जुंटा ने फ्रांस के साथ वर्ष 1977 यौर 2020 में हस्ताक्षर किए गए सैन्य सहयोग के दो समझौतों को रद्द कर दिया है. देखा जाए तो फ्रांस और यूरोप के लिए पश्चिम अफ्रीका में सुरक्षा के अलावा, नाइजर का दूसरे मामलों में बेहद महत्व है. नाइजर में यूरेनियम का अकूत भंडार है और यहां के यूरेनियम अयस्क का 50 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा फ्रांस के न्यूक्लियर एनर्जी सिस्टम की आपूर्ति के लिए जाता है, जबकि यूरोपीय संघ में जो भी यूरेनियम इंपोर्ट किया जाता है, उसका 24 प्रतिशत हिस्सा नाइजर से ही आता है. ऐसे में इसमें कोई संदेह नहीं है कि फ्रांस की ओर से नाइजर से सैन्य प्रशासन को हटाने की धमकी देने के साथ ही, पेरिस और उसके पश्चिमी सहयोगी निश्चित तौर पर उसके ख़िलाफ़ कड़ी कार्र्वाई करेंगे एवं सत्ता से बेदख़ल किए गए राष्ट्रपति मोहम्मद बाज़ूम को बहाल करने के लिए किसी भी हद तक जाएंगे. ऐसा इसलिए किया जाएगा, ताकि नाइजर में मौज़ूद यूरोप के लिए महत्वपूर्ण ऊर्जा संसाधनों तक फ्रांस एवं यूरोपियन यूनियन की सुरक्षित पहुंच सुनिश्चित हो सके.

ECOWAS द्वारा दख़ल को लेकर विचार

नाइजीरिया की राजधानी अबूजा में ECOWAS के अधिकारियों द्वारा भावी योजनाओं के बारे में चर्चा की गई थी. पूरे मामले की मध्यस्थता करने की कोशिशों के अंतर्गत इन अधिकारियों का एक डेलीगेशन 3 अगस्त को नियामी पहुंचा. हालांकि, सच्चाई यह है कि इस प्रतिनिधिमंडल ने अपनी योजना के मुताबिक़ न तो नियामी में रात गुजारी और न ही उसने तख़्तापलट करने वाले सैन्य नेता अब्दौराहमाने तियानी या फिर सत्ता से बेदख़ल किए गए मोहम्मद बाज़ूम से भेंट की. इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि नाइजर में वार्ता योजना के अनुसार अंज़ाम तक नहीं पहुंच पाई. 3 अगस्त को ही सेनेगल ने इस बात की पुष्टि की अगर ECOWAS द्वारा नाइजर में कोई सैन्य हस्तक्षेप किया जाता है, तो उसके सैनिक उस अभियान का हिस्सा होंगे. नाइजर के सैन्य शासन की तरफ से कहा गया है कि “नाइजर के विरुद्ध किसी भी आक्रमण या फिर हमले की कोशिश के जवाब में समूह (ECOWAS) के निलंबित मित्र देशों को छोड़कर, बाक़ी सदस्यों में एक के ख़िलाफ़ नाइजर की डिफेंस एवं सिक्योरिटी फोर्सेज द्वारा तत्काल कड़ी कार्रवाई की जाएगी और इसके बारे में पहले से सूचित भी नहीं किया जाएगा.”

नाइजर में यूरेनियम का अकूत भंडार है और यहां के यूरेनियम अयस्क का 50 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा फ्रांस के न्यूक्लियर एनर्जी सिस्टम की आपूर्ति के लिए जाता है, जबकि यूरोपीय संघ में जो भी यूरेनियम इंपोर्ट किया जाता है, उसका 24 प्रतिशत हिस्सा नाइजर से ही आता है

इस क्षेत्र में वर्तमान में जो भी हालात हैं, उनके मद्देनज़र ECOWAS सैन्य हस्तक्षेप एक सबसे बदतर कार्रवाई हो सकती है. हालांकि, ECOWAS सैन्य संगठन में नाइजीरिया अपनी तरफ से सबसे ज़्यादा सैनिकों का योगदान दे सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि नाइजीरिया अलग-अलग देशों को सम्मलित करते हुए युद्ध संचालित करने की स्थिति में नहीं है. इसके अतिरिक्त, युद्ध के हालात में न सिर्फ़ व्यापक पैमाने पर लोगों का विस्थापन होगा, बल्कि बड़ी संख्या में लोग मारे जाएंगे और लोगों को अपने देशों को छोड़ना पड़ेगा. साहेल क्षेत्र पहले से ही कमज़ोर आर्थिक स्थिति, पिछड़ापन और बिगड़ते मानवीय हालातों, जैसी तमाम आंतरिक चुनौतियों से जूझ रहा है, ऐसे में दुर्बल एवं ग़रीब देशों के बीच युद्ध शुरू करना ख़ुदकुशी करने के बराबर है.

ऐसे में ECOWAS द्वारा अपने कूटनीतिक प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए और नाइजर पर सख़्त पाबंदियां लगाए जाएं, ताकि इस मुद्दे का बेहतर समाधान तलाशा जा सके. ज़ाहिर है कि आने वाले दिनों में नाइजर को वर्तमान वित्तीय सहायता पैकेजों के टर्मिनेशन के अलावा और भी व्यापक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है. इन प्रतिबंधों को फाइनेंशियल इकोसिस्टम, ट्रांसपोर्ट और अन्य महत्वपूर्ण आर्थिक क्षेत्रों को लक्षित करने के लिहाज़ से लागू किया जा सकता है. तथ्यात्मक तौर पर देखा जाए तो ECOWAS देश, नाइजर की तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में हैं. उदाहरण के तौर पर नाइजीरिया द्वारा नाइजर को 70 प्रतिशत बिजली की आपूर्ति की जाती है, इसके साथ ही नाइजीरिया, सेनेगल एवं कोटे-डी-इवोइर से साथ मिलकर नाइजर को 40 प्रतिशत परिशोधित पेट्रोलियम की आपूर्ति करता है. ज़ाहिर है कि प्रतिबंधों के इस दौर में प्रतिबद्धताओं का भी आकलन किया जाएगा. हालांकि, इस सबके बीच नाइजर के नागरिक क्या सोचते हैं, इसको भी ध्यान में रखना बेहद अहम है, उल्लेखनीय है कि नाइजर के कुछ निवासियों ने सैन्य शासन के पक्ष में खुलकर अपना समर्थन जताया है.

साहेल क्षेत्र पहले से ही कमज़ोर आर्थिक स्थिति, पिछड़ापन और बिगड़ते मानवीय हालातों, जैसी तमाम आंतरिक चुनौतियों से जूझ रहा है, ऐसे में दुर्बल एवं ग़रीब देशों के बीच युद्ध शुरू करना ख़ुदकुशी करने के बराबर है.

कुल मिलाकर नाइजर में सैन्य तख़्तापलट की जो कार्रवाई हुई है, वह इस पूरे क्षेत्र में हुई तख़्तापलट की कई अन्य घटनाओं में से एक है. इन परिस्थितियों में क्षेत्रीय सुरक्षा एवं भू-राजनीतिक गतिशीलता को देखत हुए इस मुद्दे पर ध्यान देना बेहद अहम हो जाता है कि ECOWAS की ओर से सैन्य हस्तक्षेप का निर्णय लेना कितना ज़रूरी है. ज़ाहिर है कि व्यापक भू-राजनीतिक मोर्चे पर अलग-अलग महाशक्तियां उभर रही हैं, साथ ही गुटनिरपेक्षता एवं एक समान उद्देश्य को लेकर देशों के बीच एकजुटता जैसे तत्व वर्तमान में पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा तेज़ी के साथ उभर रहे हैं. इतना ही नहीं मौज़ूदा दौर में देशों के बीच पारंपरिक संबंधों को कसौटी पर कसा जा रहा है, उन्हें परखा जा रहा है, संबंधों को तोड़ा जा रहा है या फिर उन्हें नए सिरे से निर्धारित किया जा रहा है. इसके साथ ही तथाकथित महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा पूरे चरम पर है और अफ्रीकी देश अब इन बदलती हुई परिस्थियों में हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं, बल्कि एक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं. ये अलग बात है कि अपनी इस सक्रिय भूमिका के दौरान अफ्रीकी देश ‘स्थापित मर्यादा’ का पालन कर रहे हैं या नहीं.

नाइजर में तख़्तापलट के पश्चात जुंटा देश की सत्ता पर अपनी पकड़ को मज़बूत करने की कोशिश कर रहा है. जुंटा ने नाइजर के पांच पड़ोसी देशों से सटी सीमाओं को फिर से खोलने का ऐलान किया है, देश के पांच क्षेत्रों में नए गवर्नरों की नियुक्ति की है और यह भी कहा है कि देश लोकतंत्र की ओर परिवर्तन के मार्ग पर चल रहा है. हालांकि, सैन्य शासन द्वारा इसके लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है. व्यापर स्तर पर आर्थिक तबाही की संभावना के मद्देनज़र इसे व्यावहारिक नज़रिए से भी देखा जाना चाहिए. नाइजर में जो भी घटनाक्रम हुए हैं, उन्हें देखते हुए इस पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए कि कोई सैन्य संघर्ष न सिर्फ़ कमज़ोर, लाचार, ग़रीब और परेशान लोगों को प्रभावित करेगा, बल्कि पूरे क्षेत्र में अस्थिरिता को बढ़ाने वाला सिद्ध होगा. ज़ाहिर है कि अफ्रीका के लोग किसी भी सूरत में इस तरह के नतीज़े तो कतई नहीं चाहते हैं.


ओविग्वे एगुगु (Ovigwe Eguegu) डेवलपमेंट रीइमैजिंड में पॉलिसी एनालिस्ट हैं. वह बदलती वैश्विक व्यवस्था में भू-राजनीति पर फोकस करते हैं, ख़ास तौर पर अफ्रीका से जुड़े मामलों को लेकर.

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