विदेश नीति ऐसा क्षेत्र है, जहां देशों की सर्वश्रेष्ठ योजनाएं भी दूसरे खिलाड़ियों की योजनाओं के आधार पर बार-बार बदली जाती हैं, बार-बार बनाई और बिगाड़ी जाती हैं. ये देश चाहे जितना भी सोच लें कि उन्होंने सब कुछ तय कर लिया है, दोस्त और दुश्मन राष्ट्र उनकी पुरानी मान्यताओं को चुनौती देते हुए उन्हें चौंका ही देते हैं. नतीजा यह कि विदेश नीति अक्सर वह नहीं रहती, जो कोई देश अपने लिए तय करता है. इसका आखिरी रूप इस पर निर्भर करता है कि दूसरे देश उस देश के साथ क्या करते हैं. नीति-निर्माता भले महसूस करें कि वे ड्राइविंग सीट पर बैठे हैं, सच यही है कि उनकी नीति बाहरी फैक्टर्स से निर्धारित होती है.
नीति-निर्माता भले महसूस करें कि वे ड्राइविंग सीट पर बैठे हैं, सच यही है कि उनकी नीति बाहरी फैक्टर्स से निर्धारित होती है.
शीतयुद्ध का साथी
यही देखिए कि भारतीय रणनीतिकारों की बिरादरी रूस को लेकर अक्सर भावुक रहती है. इसकी ठोस वजहें भी हैं.
- जब पश्चिम ने भारत को छोड़ रखा था, तब सोवियत संघ मजबूती से उसका हाथ थामे रहा. दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्ते समय की कसौटी पर खरे उतरे.
- यहां तक कि सोवियत संघ के टूटने और शीत युद्ध का दौर खत्म होने के बाद भी भारतीय नेता रूस के साथ मजबूत रिश्ता बनाए रखने की पूरी कोशिश करते रहे. नरसिंह राव से लेकर नरेंद्र मोदी तक सबने यह पक्का किया कि दोनों देश द्विपक्षीय हितों से जुड़े क्षेत्रों में काम करते रहें.
- लेकिन भारत की लाख कोशिशों के बावजूद दोनों देशों के बीच रिश्ते ढलान पर ही रहे. आर्थिक ठहराव को झटकने में उसकी असमर्थता, साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा, चीन के साथ बढ़ती करीबी और यूक्रेन पर हमला- इन सबसे रूस की रणनीतिक कमजोरी उजागर होती रही. इससे भारत के साथ उसके मजबूत रिश्तों की संभावना कम होती गई.
दूसरी तरफ भारत और अमेरिका के रिश्तों में इसका बिल्कुल उलटा होता दिख रहा है.
- भारत के नीति-निर्माता अक्सर अमेरिका खिलाफ डटकर खड़े होने की बात करते रहे हैं. इसे भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का बैरोमीटर माना जाता है. वास्तविक हो या काल्पनिक, अमेरिकी दबाव का मुकाबला करना प्रतिष्ठा का प्रमाणपत्र माना जाता है.
- लेकिन बर्लिन की दीवार के गिरने के बाद से ही अमेरिका से भारत की करीबी बढ़ती गई है. इसके बावजूद भारत के नेता अमेरिका से करीबी दिखाने से बचते रहे हैं. मनमोहन सिंह को अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर पार्टी का पूरा समर्थन हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे की धमकी देनी पड़ी थी.
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में एलान किया कि जहां तक भारत-अमेरिका रिश्ते की बात है तो ‘इतिहास में देखी जाने वाली हिचक’ अब समाप्त हो चुकी है. वाकई अमेरिका के साथ मजबूत साझेदारी बनाने में वह सफल रहे. लेकिन इसके बावजूद अमेरिका से सामरिक गठबंधन की बात सोची भी नहीं जा सकती. अमेरिका से औपचारिक गठबंधन को भारत में राजनीतिक समर्थन नहीं मिलता.
बेशक भारत में बहुत से लोग अमेरिका से दूरी बनाए रखने के पक्ष में हैं, लेकिन वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर बदलते शक्ति संतुलन ने ऐसे हालात पैदा कर दिए, जिनकी भारत अनदेखी नहीं कर सकता था. चीन की बढ़ती ताकत और उसकी आक्रामकता ने भारत और अमेरिका के बीच मजबूत साझेदारी को अनिवार्य बना दिया. क्वॉड्रिलैटरल सिक्यॉरिटी डायलॉग (क्वॉड) का फिर से उभरना और उसका तेजी से आगे बढ़ना इस बात का सबूत है कि कैसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन में आ रहे बदलाव से निपटने वाली नई संरचनाएं और औजार तैयार करना क्षेत्रीय शक्तियों के लिए अनिवार्य हो गया है.
भारत के नैटो से जुड़ने को लेकर उठी बहस को भी इसी संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है.
हाल ही में अमेरिकी सीनेट के इंडिया कॉकस के सह-अध्यक्ष मार्क वॉर्नर और जॉन कोर्नी ने घोषणा की कि वे भारत को ‘नैटो प्लस फाइव’ का डिफेंस स्टेटस देने के लिए विधेयक पेश करने वाले हैं.
यह घोषणा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और अमेरिका के बीच सामरिक प्रतिद्वंद्विता से जुड़ी हाउस सिलेक्ट कमिटी की इस सिफारिश के बाद सामने आई कि भारत को ‘नैटो प्लस फाइव’ में शामिल किए जाने से वैश्विक सुरक्षा को मजबूती मिलेगी और चीनी आक्रामकता का मुकाबला करने में भी आसानी होगी.
खैर, इस बारे में भारत ने तत्परता दिखाते हुए स्पष्ट किया कि ‘नैटो का ढांचा भारत के लिए ठीक नहीं है.’
जिस तरह से अमेरिका भारत जैसे एक पार्टनर के साथ सहयोग की जरूरत स्वीकार रहा है, उसी तरह से भारत को भी समझना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संरचनात्मक वास्तविकता बाकी सारी चीजों पर भारी पड़ती है.
इसमें दो राय नहीं कि फिलहाल भारत के नैटो से जुड़ने की बात करना मायने नहीं रखता. अभी यही माना जाता है कि भारत सैन्य गठबंधन नहीं करता और शायद कभी ऐसा कोई गठबंधन नहीं करेगा. लेकिन जिस तरह से अमेरिका भारत जैसे एक पार्टनर के साथ सहयोग की जरूरत स्वीकार रहा है, उसी तरह से भारत को भी समझना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संरचनात्मक वास्तविकता बाकी सारी चीजों पर भारी पड़ती है. अगर चीन, भारत के प्रति अपना आक्रामक रवैया जारी रखता है तो उसे भी इसे देखते हुए मुनासिब ऑप्शन चुनना होगा. वैचारिक कठोरता अतीत में भारत के लिए फायदेमंद साबित नहीं हुई है और यह भविष्य में भी खास मददगार होगी, ऐसा नहीं लगता.
मोदी की हालिया अमेरिका यात्रा अपने आप में इस बात का सबूत है कि भारतीय रणनीतिकारों की बिरादरी के लाख चाहने के बावजूद भारत-अमेरिका साझेदारी बढ़ती रही और आज की तारीख में यह सबसे ज्यादा फायदेमंद है. अगर मौजूदा ट्रेंड बना रहा तो अतीत के कई और पूर्वाग्रह ध्वस्त होते दिखेंगे. नैटो से जुड़ाव को लेकर दिखने वाली हिचक भी इनमें से एक हो सकती है.
यह लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है
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