नरेंद्र मोदी के तीसरी बार सत्ता में आने की वजह से ये बिल्कुल अनुकूल मौक़ा है, जब पिछले दस सालों के दौरान बदलाव के लिए तैयार की गई बुनियाद के ऊपर राष्ट्रीय सुरक्षा का नया ढांचा खड़ा किया जाए और उसे अगले स्तर तक पहुंचाया जाए; और ऐसा करते हुए भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को पूरी तरह से ‘बदल दिया जाए’.
कुल मिलाकर, इस बदलाव को उन दो बड़ी चुनौतियों का सामना करना होगा, जो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा की राह में खड़ी हैं. पहली, तो निश्चित रूप से चीन की सेना की बढ़ती आक्रामकता के ख़िलाफ़ ढाल तैयार करना है. वहीं दूसरी चुनौती, युद्ध के मिज़ाज में आए विशाल बदलावों से निपटने के लिए सामरिक, परिचालन संबंधित और रणनीतिक बदलाव लाने की है, जो हाल ही में रिटायर हुए अमेरिका के चेयरमैन ऑफ ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ जनरल मार्क मिले द्वारा व्यक्त विचार के मुताबिक़, ‘दर्ज इतिहास का सबसे बड़ा बदलाव’ है. ये दोनों ही चुनौतियां बहुत विशाल हैं- चीन की चुनौती अपनी व्यापकता के लिहाज़ से और युद्ध के बदलते मिज़ाज के मुताबिक़ ढालने की चुनौती अपनी ‘ज़बरदस्त जटिलता’ के कारण है.
जब पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर उथल पुथल मची हुई थी, तब भारत की रक्षा का इकोसिस्टम बहुत लंबे वक़्त तक जस का तस ठहरा हुआ था. हाल के वर्षों में हमने इन बदलावों के मुताबिक़ प्रतिक्रिया देनी शुरू की है.
जब पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर उथल पुथल मची हुई थी, तब भारत की रक्षा का इकोसिस्टम बहुत लंबे वक़्त तक जस का तस ठहरा हुआ था. हाल के वर्षों में हमने इन बदलावों के मुताबिक़ प्रतिक्रिया देनी शुरू की है. भविष्य का मंत्र यही होना चाहिए कि सामरिक सैन्य भविष्य को परिभाषित करने के लिए बदलाव का पहले से अंदाज़ा लगाकर उसकी अगुवाई करना.
इसके एक संभावित रोडमैप के तहत तीन प्रमुख क्षेत्रों में बदलाव किया जाना चाहिए. ज़मीनी युद्ध की कमियों को दूर करना, हमारी सामरिक ढाल को ताक़तवर बनाना और शक्ति के प्रदर्शन के लिए क्षमताओं का निर्माण करना. पहली ज़रूरत तो केवल ताक़त में इज़ाफ़ा करने की है; पर, असल चुनौती तो बाद की दो ज़रूरतों से निपटने की है. ये दोनों ही लंबे वक़्त से हमारी कमज़ोरी रही हैं और इन पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देने की ज़रूरत है. हमारे सामरिक दृष्टिकोण के साथ साथ संसाधन, संरचना और सांस्कृतिक संबंधों को नई दिशा देनी ज़रूरी है. इससे ये सुनिश्चित किया जा सकेगा कि हमारी विदेश नीति और आर्थिक प्रगति का तालमेल हमारी इस सामरिक छलांग के साथ मिलाया जा सके.
भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक ढाल के लिए पांच बिंदुओं वाली कार्ययोजना
इस संदर्भ में हमारे सामूहिक विचार विमर्श के लिए पांच बिंदुओं वाली एक कार्य योजना इस प्रकार है:
पहला और सबसे अहम बिंदु तो हमारी हवाई रक्षा कवच (AD) पर दोबारा नज़र डालने का है. 14 अप्रैल 2024 की रात को जब ईरान ने इज़राइल पर मिसाइलों और ड्रोन से हमला किया था, तो इज़राइल की सुरक्षा एक व्यापक और आपस में जुड़ी हुई व्यवस्था ने की थी, जो हमलावर का पता लगाकर, उसको निशाने पर लेकर तबाह करने के लिए सटीक तालमेल के साथ काम कर रही थी. इनमें अमेरिका की मिसाइल डिफेंस एजेंसी के सेंसर; आयरन डोम; एरो 2, एरो 3 और डेविड स्लिंगशॉट मिसाइल सिस्टम; समुद्र पर आधारित एजीस सिस्टम; और अमेरिका और ब्रिटेन के लड़ाकू विमानों के अलावा अंतरिक्ष में तैनात खुफिया पड़ताल और निगरानी की व्यवस्था शामिल थी. इन सबको ईरान की तरफ़ से दाग़े गए 330 प्रोजेक्टाइल्स का पता लगाकर उन्हें नष्ट करने के लिए इस्तेमाल किया गया था. चीन की रॉकेट फोर्स और स्ट्रैटेजिक फोर्स आपसी तालमेल से कहीं ज़्यादा परिष्कृत और आधुनिक एवं घातक तकीक और दूर तक सटीक निशाना लगा सकने वाली क्षमता वाली हैं, जो सैन्य ठिकानों, सीमावर्ती क़स्बों और भातर के भीतरी शहरों को कहीं ज़्यादा आसानी और सही तरीक़े से निशाना बना सकती है. ऐसे में हमारी हवाई रक्षा प्रणाली की व्यापक समीक्षा और ऐसे हमलों से निपटने की तैयारी करनी एक फ़ौरी ज़रूरत है.
दूसरा, हवाई रक्षा पंक्ति को सुधारने के साथ साथ हमें ड्रोन और मिसाइल के एक एकीकृत बल का निर्माण करने पर भी विचार करना चाहिए, ताकि हवाई ढाल के साथ साथ एक पलटवार कर सकने वाली ताक़त भी विकसित की जा सके. ऐसा कोई बल राजनीतिक रूप से कहीं ज़्यादा उपयोगी होगा और जवाब देने की ज़रूरत पड़ने पर भारत अपनी तरफ़ से भी दांव चल सकेगा. ऐसे किसी बल से लड़ाकू विमान के पायलट की क्षति होने का जोख़िम भी नहीं होगा. युद्ध शुरू होने की सूरत में अगर बात ज़्यादा बढ़ती है और गंभीर जंग छिड़ जाती है, तो ये कहीं कम जोख़िम वाली एक ऐसी ताक़त होगी, जिसकी मार दुश्मन के लिए घातक होगी. तुलनात्मक रूप से इसकी लागत भी कम होगी. हाल के यूक्रेन युद्ध के दौरान हमने देखा है कि ऐसे किसी बल को ज़्यादा प्रभावी तरीक़े से इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके लिए हमारे मिसाइलों के बेड़े की तैनाती की परिकल्पना में एक धारदार परिवर्तन करने की ज़रूरत होगी. एक ही तरफ़ से वार कर सकने वाले कम लागत के ड्रोन के साथ साथ अगर बैलिस्टिक, क्रूज़ और संभावित हाइपर सोनिक मिसाइलों को एक साथ दुश्मन पर दाग़ा जाएगा, तो लक्ष्य पर एक साथ धड़ाधड़ हमले किए जा सकेंगे, और इससे दुश्मन के एयर डिफेंस सिस्टम को भी पूरी तरह संभलकर ऐसे हमले रोकने का मौक़ा नहीं मिल सकेगा और हम ज़रूरत के मुताबिक़दुश्मन के इलाक़े में दूर तक आघात कर सकेंगे.
हाल के यूक्रेन युद्ध के दौरान हमने देखा है कि ऐसे किसी बल को ज़्यादा प्रभावी तरीक़े से इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके लिए हमारे मिसाइलों के बेड़े की तैनाती की परिकल्पना में एक धारदार परिवर्तन करने की ज़रूरत होगी.
जहां तक पाकिस्तान की तरफ़ से ख़तरे की बात है, तो ऐसे किसी हथियार की उपयोगिता हमारी मौजूदा व्यवस्था से कहीं ज़्यादा अधिक है, जिसके तहत तोपखाने और टैंक के अलावा पायलट द्वारा लड़ाकू विमान से हमला करने की रूप-रेखा है. चीन के मुक़ाबले की बात करें, तो उसकी पश्चिमी थिएटर कमान की संपत्तियों को निशाना बनाने, चीन की मुख्य भूमि और समृद्ध पूरी तट पर हमला कर सकने की क्षमता, भारत के लिए एक ताक़तवर ढाल का काम करेगी.
तीसरा, आज दुनिया की सभी बड़ी सेनाओं के लिए आधुनिक दौर की टूलकिट में अब डेटा भी एक हथियार है. इस क्षेत्र में हमलों का दायरा बढ़ता जा रहा है. ग़लती की आशंकाएं कम होती जा रही हैं और फ़ैसले लेने के चक्र छोटे से छोटे होते जा रहे हैं. हमें डेटा, एल्गोरिद्म और कंप्यूटेशन के त्रिकोण में काफ़ी निवेश करने की आवश्यकता है. इसके साथ ही साथ हमें अपने अभियानों के तुलनात्मक रूप से ज़्यादा असर हासिल करने के लिए डेटा का बख़ूबी प्रबंधन करना, उसको हथियार की तरह इस्तेमाल करना और डेटा को सुरक्षित बनाना होगा. सैन्य बलों को चाहिए कि वो अपनी कंप्युटिंग की ताक़त को और बढ़ाएं अपने डेटा का विस्तार करें और ख़ास रक्षा क्षेत्र के लार्ज लैंग्वेज मॉडलों (LLM) को प्रशिक्षित करें, ताकि भारतीय सेना को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) से लैस लड़ाकू बल बनाया जा सके. चीन के साथ हमारे ताक़त के अंतर को पाटने के लिहाज़ से भी ये हमारे लिए एक गोपनीय ताक़त बन सकता है.
चौथा, कुछ क्रांतिकारी सुधारों के साथ ही रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता (AID) की शानदार ढंग से शुरुआत हुई है. हमें एक तिहरी रणनीति के तहत इसे और आगे बढ़ाना चाहिए- प्रमुख सांस्कृतिक बदलाव लाना; ख़ास सामरिक तकनीकों जैसे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, स्वायतत्तता, जैव प्रोद्यौगिकी और अंतरिक्ष के मामले में क्षमता का निर्माण करना; और ज़बरदस्त युद्ध की स्थिति में हमें अपने हथियारों के भंडारों में भी तकनीक के लिहाज़ से इज़ाफ़ा करना होगा. हमें इस तथ्य को ठीक से समझना होगा कि रक्षा के क्षेत्र में पूंजी और मानवीय पूंजी का निवेश इतना दूरगामी और विशाल होता है कि बिल्कुल स्पष्ट और स्थायी मांग का संकेत और सरकार, की तरफ़ से वित्तीय प्रतिबद्धता मिले बग़ैर इसमें निवेश नहीं हो पाता और निजी कारोबारी कंपनियां प्रगति नहीं कर पाती हैं.
हमें रक्षा क्षेत्र में काम कर रही प्रतिभाशाली छोटी कंपनियों (MSMEs), स्टार्ट अप और निजी कंपनियों की पहचान करके उन्हें प्रगति करने में न घरेलू रक्षा क्षेत्र की ज़रूरतें पूरी करने में सिर्फ़ मदद करनी होगी, बल्कि उन्हें रक्षा उपकरणों के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय होड़ का मुक़ाबला करने के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा.
जब तक ऑर्डर मिलने की गारंटी नहीं होगी, तब तक निजी कंपनियां कारखाने लगाने, मशीनरी ख़रीदने और प्रोडक्शन लाइनें तैयार करने में निवेश नहीं करेंगी. हमें सबसे कम बोली लगाने वाले के नीलामी हासिल करने (L-1) की कुप्रथा को ख़त्म करना होगा. औसत कामकाजियों को संरक्षित करने वाले कवच को हटाना होगा और प्रतिभा की पहचान करके उसको बढ़ावा देने और अधिकतम उपयोग करने की संस्कृति को अपनाना होगा. यानी ‘रक्षा के राष्ट्रीय चैंपियन’ तैयार करने होंगे. हमें रक्षा क्षेत्र में काम कर रही प्रतिभाशाली छोटी कंपनियों (MSMEs), स्टार्ट अप और निजी कंपनियों की पहचान करके उन्हें प्रगति करने में न घरेलू रक्षा क्षेत्र की ज़रूरतें पूरी करने में सिर्फ़ मदद करनी होगी, बल्कि उन्हें रक्षा उपकरणों के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय होड़ का मुक़ाबला करने के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा. दुनिया भर की बड़ी रक्षा कंपनियां (चीन की NORINCO से लेकर दक्षिण कोरिया की कोरियन एरोस्पेस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड तक) सबको आगे बढ़ने में अपने अपने देशों की सरकारों से काफ़ी सहयोग प्राप्त हुआ है. इसी तरह अरबों डॉलर वाली स्टार्ट अप कंपनियां जैसे कि अमेरिका की ऐंडयूरिल (एडवांस्ड मिलिट्री ऑटोनॉमस सिस्टम्स) और यूरोप स्थित हेलसिंग (रक्षा क्षेत्र की AI कंपनी) को भी सरकारी संरक्षण मिले हैं. भारत को अपने यहां भी रक्षा क्षेत्र की ऐसी बड़ी कंपनियां बनानी होंगी, जो दुनिया में कहीं भी मुक़ाबला कर सकें.
अगर भारत को दुनिया के रक्षा उद्योग की बड़ी ताक़त बनना है, तो रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दूरगामी आाकांक्षाओं को हक़ीक़त में तब्दील करना ही होगा. फिर चाहे बात इससे आमदनी की हो, या फिर भू-सामरिक ताक़त की. अगर दुनिया की 20 सबसे बड़ी रक्षा कंपनियों में से सात चीन की हैं, तो क्या भारत को उसी पायदान को हासिल करने की आकांक्षा नहीं रखनी चाहिए?
पांचवां, हमें शक्ति के प्रदर्शन के लिए भी क्षमताओं के निर्माण पर विचार करना चाहिए. हमें ऐसा इसलिए नहीं करना चाहिए कि दुनिया भर में भारत के सैनिक तैनात हों, बल्कि ऐसी ताक़त बनने का प्रयास करना चाहिए जो ज़रूरत पड़ने या फिर अपने हित साधने के लिए अपनी मुख्य भूमि से दूर से दूर इलाक़ों में भी ज़रूरत पड़ने पर अपनी सेना को तैनात कर सके. दूरगामी खुफिया ताक़त, मलक्का जलसंधि के पार अपनी शक्ति का प्रदर्शन और साइबर और अंतरिक्ष के क्षेत्र में साझा क्षमता को नाटकीय ढंग से बेहतर बनाने जैसे कुछ पहलू हैं, जिन पर बारीक़ी से विचार करने की ज़रूरत है.
भारत को अपनी आकांक्षाओं को पर लगाने और अपने तय उभार का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आज के वक़्त की मांग ये है कि हमारी सेना एक मुस्तैद और फ़ुर्तीले बेड़े वाली हो जो रक्षात्मक खोल के भीतर छुपी न रहे.
भारत को अपनी आकांक्षाओं को पर लगाने और अपने तय उभार का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आज के वक़्त की मांग ये है कि हमारी सेना एक मुस्तैद और फ़ुर्तीले बेड़े वाली हो जो रक्षात्मक खोल के भीतर छुपी न रहे.
शुरुआत करने का समय बिल्कुल अभी है और हमें गुज़रे ज़माने के कुछ बोझों से मुक्ति पाने से इसकी शुरुआत करनी चाहिए.
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