Published on Aug 22, 2019 Updated 0 Hours ago

जैसे-जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था का शहरीकरण हो रहा है, शहरों के बीच आवाजाही के साधन अहम होते जा रहे हैं. क्या हाइपरलूप इस समस्या का समाधान हो सकती है?

मुंबई-पुणे हाइपरलूप: कुछ वादे और बहुत सी आशंकाएं

अगर आप कभी भी शाम के वक़्त जाम में फंसे हैं, तो आपको अंदाज़ा होगा कि शहर की भीड़-भरी सड़कों पर लंबे समय तक फंसना कितना थका देने वाला होता है. इसका बुरा असर आपकी सेहत पर ही नहीं, देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, अकेले भारत के चार सबसे बड़े महानगरों में ही परिवहन की सुगमता न होने की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को सालाना 22 अरब डॉलर का नुक़सान होता है. कामकाजी लोगों का समय बर्बाद होता है, सामान की डिलिवरी में ज़्यादा समय लगता है. लंबी दूरियों के सफ़र से बचने के लिए लोगों को ज़्यादा किराया और मज़दूरी देनी पड़ती है. कामगारों और नौकरी देने वालों की अपेक्षाओं का बहुत भारी फ़र्क़ शहरी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है. जैसी की संभावना है कि — भारत के शहरों में रहने वाली आबादी वर्ष 2050 तक बढ़ कर 40 करोड़ 40 लाख हो जाएगी. आज भारत की अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में शहरी इलाक़ों का दो तिहाई योगदान है. ऐसे में शहरी यातायात की सुगमता सुनिश्चित करना किसी भी नीतिगत एजेंडे का अहम हिस्सा होना ज़रूरी है.

भारतीय रेल रोज़ाना क़रीब दो करोड़ 30 लाख यात्रियों और 30 लाख टन माल की ढुलाई करती है. ये आवागमन दो शहरों के बीच और पूरे देश में होता है. ऐसे में भारत की रेल व्यवस्था शहरों के बीच आवागमन की चुनौती का सामना करने में अहम रोल निभाती है. भारतीय रेल व्यवस्था की ओवरहॉलिंग, देश भर में ‘वन नेशन वन कार्ड’ योजना की शुरुआत और अहमदाबाद से मुंबई के बीच देश की पहली बुलेट ट्रेन रेलवे लाइन का निर्माण, इस दिशा में उठाए गए महत्वपूर्ण क़दम हैं. लेकिन, अब इन परंपरागत उपायों से आगे की बात हो रही है. क्योंकि अब राज्य सरकारें नई पीढ़ी की यातायात व्यवस्था को आज़माने की सोच रही हैं, जिसका नाम है — हाइपरलूप.

इस वक़्त मुंबई और पुणे के बीच रोज़ाना क़रीब ढाई घंटे के सफ़र के लिए एक लाख 30 हज़ार से ज़्यादा गाड़ियां आवाजाही करती हैं. इस दूरी को हाइपरलूप की मदद से केवल 25 मिनट में पूरा किया जा सकेगा.

हाइपरलूप का डिज़ाइन ऐसा है कि हर घंटे ये हज़ारों लोगों को उनकी मंज़िल पर पहुंचा सकती है. ये विद्युत-चुंबकीय रास्ते पर चलने वाले वाहन होते हैं, जो कम हवा के दबाव वाली ट्यूब के भीतर संचालित की जाती हैं. हवा से घर्षण न होने की वजह से हाइपरलूप 760 किलोमीटर प्रति घंटे तक की रफ़्तार पकड़ सकती है. ये देश की सबसे तेज़ रफ़्तार ट्रेन गतिमान एक्सप्रेस से कई गुना ज़्यादा है. जबकि, गतिमान एक्सप्रेस औसतन 100 मील प्रति घंटे की ही रफ़्तार से चलती है. कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने हाइपरलूप सेवाएं शुरू करने का शुरुआती अध्ययन कराया है. वहीं, महाराष्ट्र तो वर्जिन हाइपरलूप वन के नाम से दिसंबर 2019 तक एक 15 किलोमीटर का हाइपरलूप टेस्ट ट्रैक बनाने को राज़ी हो गई है. इसके अलावा महाराष्ट्र सरकार ने मुंबई से पुणे के बीच हाइपरलूप के 150 किलोमीटर के कॉरीडोर को वर्ष 2024 तक बनाने के लिए टेंडर भी जारी कर दिए हैं.

इस वक़्त मुंबई और पुणे के बीच रोज़ाना क़रीब ढाई घंटे के सफ़र के लिए एक लाख 30 हज़ार से ज़्यादा गाड़ियां आवाजाही करती हैं. इस दूरी को हाइपरलूप की मदद से केवल 25 मिनट में पूरा किया जा सकेगा. मुंबई-पुणे के बीच हाइपरलूप की संभावना तलाशने के लिए जो सर्वे हुआ, उसके मुताबिक़, इस हाइपरलूप कॉरीडोर से क़रीब 3 लाख करोड़ रुपए का सामाजिक-आर्थिक लाभ होगा. बनने के बाद के 30 वर्षों में हाइपरलूप की मदद से हादसे कम होंगे और इस सफ़र की आवाजाही का ख़र्च भी कम होगा. फिर, हाइपरलूप की मदद से मुंबई और पुणे के बाज़ार भी एक बड़े आर्थिक बाज़ार के तौर पर मज़बूत होंगे.

देश की आर्थिक राजधानी मुंबई और पूरब का ऑक्सफ़ोर्ड कहे जाने वाले पुणे के बीच की दूरी केवल 25 मिनट में तय कराने की सूरत में हाइपरलूप देश के सबसे सघन यातायात कॉरीडोर का कायाकल्प करने की संभावना है. मुंबई पहले से ही विस्तार और भीड़ की चुनौती से लगातार जूझ रहा है. ऐसे में कई लोग और कंपनियां मुंबई या पुणे में रहने में से एक विकल्प चुन कर दोनों शहरों के बीच आसान आवाजाही के इस माध्यम का फ़ायदा उठा सकेंगे. इसके अलावा दोनों शहरों के बीच हाइपरलूप की मदद से नवी मुंबई को भी फ़ायदा होगा.

मुंबई-पुणे हाइपरलूप का आख़िरी प्रस्ताव जल्द ही महाराष्ट्र इनफ्रास्ट्रक्चर डेवेलपमेंड इनेबलिंग अथॉरिटी कमेटी को सौंपा जाएगा, जो इस बारे में आख़िरी फ़ैसला लेगी. ये फ़ैसला होने से पहले हाइपरलूप की योजना से जुड़ी तमाम चुनौतियों और कठिनाइयों के बारे में विस्तार से चर्चा होनी ज़रूरी है. इस लेख में आगे हम मुंबई-पुणे के बीच प्रस्तावित हाइपरलूप से जुड़ी चिंताओं को तीन प्रमुख हिस्सों में बांट कर देखेंगे.

वित्त

मुंबई में 15 किलोमीटर के वर्जिन हाइपरलूप वन के टेस्ट प्रोजेक्ट का ख़र्च क़रीब 3 हज़ार करोड़ रुपए आएगा. जिसे वीएचओ उठाएगा. लेकिन, अभी ये नहीं पता है कि मुंबई और पुणे के बीच 150 किलोमीटर लंबे हाइपरलूप ट्रैक की लागत का बोझ कौन उठाएगा? महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री कार्यालय के एक अधिकारी कौस्तुभ धवसे का अनुमान है कि प्रति किलोमीटर हाइपरलूप ट्रैक का ख़र्च क़रीब 100 से 170 करोड़ रुपए आएगा. इसका मतलब है कि 150 किलोमीटर लंबे मुंबई-पुणे हाइपरलूप ट्रैक का अनुमानित ख़र्च 15,500 करोड़ से लेकर 25,000 करोड़ रुपए के बीच होगा.

सार्वजनिक परिवहन की किसी भी प्रणाली की लागत केवल टिकट से नहीं वसूली जा सकती. इसके बाद, हमें ये भी देखना होगा कि महाराष्ट्र सरकार इस प्रोजेक्ट को सब्सिडी देने के लिए रक़म कहां से जुटाएगी.

हाइपरलूप वन के पूर्व वरिष्ठ उपाध्यक्ष निक अर्ले ने एक इंटरव्यू में ये राज़ खोला था कि ऐसे प्रोजेक्ट के लिए सरकार को सब्सिडी देनी होगी. क्योंकि सार्वजनिक परिवहन की किसी भी प्रणाली की लागत केवल टिकट से नहीं वसूली जा सकती. इसके बाद, हमें ये भी देखना होगा कि महाराष्ट्र सरकार इस प्रोजेक्ट को सब्सिडी देने के लिए रक़म कहां से जुटाएगी. क्या ये अपने बजट में कटौती करेगी या फिर क़र्ज़ लेगी?

महाराष्ट्र सरकार ने इससे पहले बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़े जिन प्रोजेक्ट का ख़र्च उठाया है, उनकी पड़ताल करेंगे, तो ऐसा लगता है कि सरकार के लिए क़र्ज़ का विकल्प बेहतर होगा. फिलहाल, महाराष्ट्र सरकार का प्रति व्यक्ति औसत क़र्ज़ का बोझ काफ़ी कम है. ऐसे में सरकार क़र्ज़ की मदद से इस प्रोजेक्ट को सब्सिडी दे सकती है. लेकिन, ऐसे किसी भी तरह के लोन के लिए उसकी शर्तों को गंभीरता से देखना-समझना होगा. ताकि, सरकारी ख़ज़ाने की हालत पतली न हो.

अभी अहमदाबाद से मुंबई के बीच बुलेट ट्रेन के जिस प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है, उसके क़र्ज़ पर ब्याज़ की दर 0.1 प्रतिशत है, जिसे 50-60 वर्षों में चुकाया जाना है. इस लोन का 15 वर्ष का लॉक-इन पीरियड भी है. ऐसे में एक बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि क्या ये क़र्ज़ का आदर्श उदाहरण है? इसका जवाब है शायद नहीं, क्योंकि जब हम भारतीय रुपए और जापानी येन के बीच के लेन-देन के रेट को देखते हैं, तो ऐसा लगता है कि आख़िर में भारत को बुलेट ट्रेन के प्रोजेक्ट के लिए 88 हज़ार करोड़ के क़र्ज़ के बदले 3 लाख करोड़ रुपए चुकाने होंगे, अगर रुपए में गिरावट आती रही तो. इसलिए ज़रूरी ये है कि किसी भी क़र्ज़ की असल लागत आख़िर कितनी होगी, इसका पहले ही ठीक-ठीक हिसाब लगा लेना ज़रूरी है. सिर्फ़ ऊपरी तौर पर शर्तों को देखने भर से काम नहीं चलेगा.

लोन का मामला तो अलग है. लेकिन, मुंबई-पुणे हाइपरलूप की किसी भी अनुमानित लागत को लेकर सतर्कता बरतने की ज़रूरत है. इससे पहले इतना लंबा हाइपरलूप प्रोजेक्ट नहीं बनाया गया है. अमरीका के लॉस एंजेलेस से सैन फ्रांसिस्को के बीच टेस्ला के एलन मस्क ने हाइपरलूप का प्रस्ताव दिया था. जिसकी अनुमानित लागत 75 करोड़ रुपए प्रति मील थी. लेकिन, 2016 के आख़िर में वीएचओ के अंदरूनी दस्तावेज़ों के मुताबिक़, इस प्रोजेक्ट में प्रति किलोमीटर की असल लागत, अनुमानित लागत से कई गुना ज़्यादा यानी क़रीब 800 करोड़ रुपए प्रति मील बैठ रही थी. और, हमें ध्यान रखना होगा कि अमेरिका के मुक़ाबले भारत में ज़मीन की क़ीमत हो या मज़दूरी या फिर इंजीनियरिंग की लागत, सब कुछ काफ़ी सस्ता है. फिर भी, जो अनुमान लगाया जा रहा है, मुंबई-पुणे हाइपरलूप की लागत उससे कहीं ज़्यादा हो सकती है. ऐसे में ये बात पहले ही साफ़ हो जानी चाहिए कि अगर असल लागत, अनुमानित लागत से ज़्यादा होती है, तो फिर इसका बोझ हाइपरलूप बनाने वाली निजी कंपनी उठाएगी या फिर सरकार?

इसके अलावा हाइपरलूप प्रोजेक्ट को जनता की रोज़मर्रा की ज़रूरत के लिहाज़ से सस्ता ही रखना होगा. अगर ये बहुत महंगा प्रोजेक्ट होगा, तो लोग इसका प्रयोग नहीं करेंगे. नतीजा ये होगा कि हाइपरलूप बनने के बावजूद मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे पर जाम की स्थिति बनी ही रहेगी. इससे तो हाइपरलूप बनाने का मक़सद ही नहीं पूरा होगा. इसीलिए, महाराष्ट्र सरकार को टेंडर के हर प्रस्ताव को ध्यान से परखना होगा. साथ ही इससे जुड़े वित्तीय विकल्पों को खुला रखना होगा. सरकार को ये सुनिश्चित करना होगा कि निवेश की लागत बहुत ज़्यादा न बढ़ जाए, वरना इसका बोझ सरकारी ख़ज़ाने पर पड़ेगा.

ज़मीन अधिग्रहण

बुनियादी ढांचे के विकास के बड़े स्तर के बहुत से प्रोजेक्ट अक्सर ज़मीन अधिग्रहण से जुड़े विवादों के शिकार हो जाते हैं. मुंबई-पुणे हाइपरलूप इसका अपवाद नहीं होगा, ये तय है. ज़मीन अधिग्रहण की लागत सीमित रखने के लिए हाइपरलूप के एक हिस्से को ज़मीन से ऊपर खंबों पर बनाना होगा. जिससे ट्रैक बिछाने के लिए बड़े पैमाने पर ज़मीन अधिग्रहण की ज़रूरत नहीं होगी. इसके बावजूद, जब इस प्रोजेक्ट के लिए ज़मीन अधिग्रहण पर किसानों की राय मांगी गई, तो, एक महीने के भीतर ही 109 प्रतिवाद दाख़िल किए गए थे, जो आम नागरिकों के सुझाव भी थे और बहुतों का ऐतराज़ भी इसका हिस्सा था.

जब भी ज़मीन अधिग्रहण को लेकर विवाद होता है, तो लोगों के ऐतराज़ को दूर करने और बातचीत करने में काफ़ी वक़्त ज़ाया होता है. मुंबई से अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन के प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ स्थानीय किसानों का विरोध प्रदर्शन इसकी मिसाल है. ऐसे में राज्य सरकार को किसानों को उनकी अधिग्रहीत ज़मीनों के बदले में ज़्यादा पैसे देने को तैयार रहना चाहिए और इस काम में उसे केंद्र सरकार से भी मदद मांगनी चाहिए. ताकि 2013 के ज़मीन अधिग्रहण से जुड़े मुआवज़े और पारदर्शिता के अधिकार क़ानून का पालन हो सके. ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है ताकि मुंबई-पुणे हाइपरलूप प्रोजेक्ट अपनी तय समयसीमा यानी वर्ष 2024 तक पूरा हो सके.

सुरक्षा

हाइपरलूप की मुसाफ़िरों के साथ टेस्ट ड्राइविंग के दौरान अधिकतम स्पीड 300 मील प्रति घंटे दर्ज की गई थी. ये हाइपरलूप के अधिकतम 760 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से काफ़ी कम है. इसलिए, इस प्रोजेक्ट की सुरक्षा से जुड़े सवालों पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है. नासा की एक रिपोर्ट में ऐसी चिंताओं को ज़ाहिर किया गया था. जैसे कि, अगर हाइपरलूप को अधिकतम हवा के दबाव के स्तर को बनाए रख कर चलाया जाए, तो क्या इसकी ट्यूब इतनी मज़बूत होगी कि वो आस-पास की हवा के दबाव को झेल सके और टूटे या फटे नहीं. सवाल उठता है कि इतने तेज़ दबाव में हाइपरलूप के मुसाफ़िर तो सुरक्षित रहेंगे, या नहीं?

बिजली कटौती या फिर किसी आपात स्थिति में क्या हाइपरलूप से बाहर निकलने के पर्याप्त इंतज़ाम होंगे, ताकि मुसाफ़िर बिना किसी परेशानी और निर्वात का सामना किए हुए बाहर आ सकें? हम इस बात की संभावना को मान भी लें कि मुंबई-पुणे हाइपरलूप अपने लिए ज़रूरी बिजली को सौर ऊर्जा पैनल की मदद से ख़ुद ही जुटा लेगी, तो भी आपातकाल की स्थिति में बाहर निकलने के विकल्पों का ध्यान रखना ज़रूरी है, जिससे यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो. क़रीब 150 किलोमीटर लंबे इस ट्रैक पर हर वक़्त हज़ारों मुसाफ़िर होंगे. ऐसे में हाइपरलूप लिंक किसी साज़िश का आसानी से शिकार बन सकती है. जिससे बड़ी तादाद में लोगों की जान भी जा सकती है. ऐसे में सुरक्षा बलों से भी इस प्रोजेक्ट की सुरक्षा के बारे में सलाह-मशविराकिया जाना ज़रूरी है, ताकि किसी आपात स्थिति में मुसाफ़िरों की जान को कोई जोख़िम न हो.

साफ़ है कि हाइपरलूप लिंक तकनीकी चुनौतियों से भरपूर है. केंद्र सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार को पहले ही हाइपरलूप के सुरक्षा से जुड़े मसलों पर निगरानी का केंद्रीय अधिकारी नियुक्त किया गया है. अब अगर भारत हाइपरलूप लिंक प्रोजेक्ट में विश्व की अगुवाई करने का फ़ैसला करता है, तो फिर भारत को ऐसे प्रोजेक्ट की सुरक्षा से जुड़ी ज़िम्मेदारियां भी उठानी होंगी, ताकि इसके लिए ज़रूरी नियम और क़ानून बनाए जा सकें.

भारत में हाइपरलूप का भविष्य

अगर हाइपरलूप पहले से ही विकसित होती, जिसकी सुरक्षा की कोई चिंता नहीं होगी, लागत पहले से मालूम होती और क़र्ज़ के संतोषजनक उपाय उपलब्ध होते, तो मुंबई-पुणे हाइपरलूप लिंक में पैसे लगाने में कोई दिक़्क़त नहीं आएगी. इससे दो शहरोंके बीच आवाजाही की चुनौती भी कम होगी. इसकी वजह से भारत के सबसे जटिल और सघन एक्सप्रेस-वे में सफ़र करना आसान होगा. लेकिन बात ऐसी नहीं है.

किसी भी आविष्कार में अगर एक संभावना छुपी होती है, तो उसके रिटर्न को लेकर इतनी आशंका नहीं होनी चाहिए. हाइपरलूप इसकी एक मिसाल है. भारत को अपनी महत्वाकांक्षाओं की आड़ में दृष्टिहीन होने की ज़रूरत नहीं है. मौजूदा बुनियादी ढांचे का विस्तार, सार्वजनिक परिवहन के मौजूदा व्यवस्थाओं में क्रांतिकारी बदलाव और ट्रैफिक नियमों को लागू करने में सख़्ती, सरकार के लिए एक विकल्प है. जिससे मुंबई और पुणे के बीच आवाजाही की चुनौतियां कम होंगी. ऐसे में महाराष्ट्र सरकार की इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवेलपमेंट, इनेबलिंग अथॉरिटी कमेटी, जब मुंबई-पुणे के बीच हाइपरलूप लिंक के प्रोजेक्ट पर आख़िरी फ़ैसला ले, तो उसे इन सभी बातों का ध्यान तो रखना ही होगा.

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