Author : Ramanath Jha

Expert Speak Terra Nova
Published on Jun 09, 2025 Updated 3 Days ago

लगातार बढ़ते कचरे की तादाद और कम होते समाधान. भारत की एमएसडब्ल्यू प्रक्रिया खराब योजना, कमज़ोर वित्त और कम स्थानीय भागीदारी के कारण नष्ट हो रही है.

MSW प्रबंधन: शहर के स्तर की खामियां जिसने संकट को जन्म दिया!

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ये लेख ‘विश्व पर्यावरण दिवस 2025:सर्कुलर शहरों में वेस्ट मैनेजमेंट’ सीरीज़ का हिस्सा है.


प्लास्टिक कचरों से पैदा होने वाले प्रदूषण से बढ़ते खतरे को ध्यान में रखते हुए, विश्व पर्यावरण दिवस के ज़रिये एक संयुक्त वैश्विक पहल की मांग का आह्वाहन किया गया है. एक तरफ जहां समस्त देश, प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने के लिये, एक अन्तराष्ट्रीय संधि की दिशा में कार्य कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, भारत के सामने, उससे भी बड़ी एक तात्कालिक व बुनियादी समस्या मुंह उठाए खड़ी है: काफी तेज़ी से अनियंत्रीत होती जा रही म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट या एमएसडब्लू. ऐसा नहीं है कि शहरी या अर्बन सर्कुलर इकॉनमी के सिद्धांत अज्ञात है, या ये कि कचरा प्रबंधन की तकनीक और टेक्नोलॉजी अनुपलब्ध है. ये सारे संसाधन आसानी से उपलब्ध हैं एवं अनुकल स्थानीय वातावरण में बिना किसी दिक्कत के लागू किया जा सकता है. फिर भी, इस बात से इनकार करना काफी मुश्किल है कि एमएसडब्ल्यू का प्रबंधन, देश के काफी सारे शहरों में बेतरह से लड़खड़ा रही है. सालाना उत्पन्न होने वाले कुल 65 मिलियन अपशिष्ठ या कचरों में से मात्र तीन चौथाई कचरे ही एकत्रित किये जाते हैं, और उनमें से मात्र 30 प्रतिशत से भी कम का प्रसंस्करण या उपचार संभव हो पता है. बाकी बचे कचरे सीधे डंपयार्ड में चले जाते है.    

ये हालात तब और भी चुनौतीपूर्ण हो जाते हैं जब कई तरह नई पेचीदगियां इससे जुड़ती चली जाती हैं जो इसे और भी जटिल बना देता है. सबसे पहले, भारत में तेज़ी से हो रहे शहरीकरण की वजह से, ये संख्या जो साल 2001 में 5,161 थी वो बढ़ते-बढ़ते साल 2011 तक 7,936 पहुंच गई और अनुमान के तौर पर अब करीब 12000 तक पहुंच चुकी है. शहरी जनसंख्या के भी वर्ष 2011 के 377 मिलियन की संख्या से बढ़कर, साल 2023 तक आते-आते 519.5 मिलियन तक होने के अलावा, 2035 तक 675 मिलियन हो जाने की संभावना रखी गई है. शहरी घनत्व में भी निरंतर वृद्धि दर्ज हो रही है, जिसका मतलब है कि पहले की तुलना में, अब प्रति वर्ग किलोमीटर और अधिक लोग रह रहे है – जिसके परिणामस्वरूप अब प्रतिवर्ग किलोमीटर पहले से काफी अधिक कचरा उत्पन्न हो रहा है.    

इस बात से इनकार करना काफी मुश्किल है कि एमएसडब्ल्यू का प्रबंधन, देश के काफी सारे शहरों में बेतरह से लड़खड़ा रही है. सालाना उत्पन्न होने वाले कुल 65 मिलियन अपशिष्ठ या कचरों में से मात्र तीन चौथाई कचरे ही एकत्रित किये जाते हैं, और उनमें से मात्र 30 प्रतिशत से भी कम का प्रसंस्करण या उपचार संभव हो पता है.

भले ही मामूली दर से हो – लेकिन जिस तरह से प्रतिव्यक्ति कचरा पैदा करने के दर में – वृद्धि की प्रवृत्ति  देखी जा रही है, उसमें भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था का भी बड़ा योगदान दिखाई देता है. इसका परिणाम ये होगा कि, ठोस अपशिष्ठ यानी (एमएसडब्ल्यू) का उत्पादन आगामी  2031 तक 165 मिलियन एवम 2050 तक 436 मिलियन तक पहुंच जाने की संभावना है. 

ऑनलाइन शॉपिंग का नुकसान

म्यूनिसिपल या नगरपालिका स्तर के कचरों का रूप भी काफी तेज़ी से बदल रहा है, जिसकी वजह टियर-1 से लेकर टियर-4 तक के शहरों में ऑनलाइन शॉपिंग का बढ़ता चलन है.  हालांकि, इससे पैकिजींग वेस्ट अथवा कचरों में काफी वृद्धि हो रही है, जिसे स्थानीय शहरी निकाय (यूएलबी) को निपटाना पड़ता है. ग्राहक सेवाओं की तीव्र गति एवं अल्ट्रा-फास्ट डिलीवरी’ की बढ़ती मांग की वजह से एकल डिलीवरी पैकेजों की प्रवृत्ति में काफी इज़ाफा देखा गया है, जिस वजह से इकट्ठी या कॉनसॉलिडेटेड डिलीवरी बाधित हो रही है. एक-एक प्रोडक्ट या सामान को अलग-अलग पैक किये जाने की वजह से, जहां इन पैकेजों की संख्या ज्य़ादा होती है, वहीं वह शहरों में होने वाले कचरा उत्पादन पर अतिरिक्त बोझ डालता है. इसके अलावा, ई – कॉमर्स पैकेजिंग में प्लास्टिक, पेपर, बबल रैप, एयर पैकेट्स, टेप, और कार्डबोर्ड कार्टुन्स आदि का इस्तेमाल शामिल है. जहां ये सामग्रियां रिसाइक्लिंग योग्य होती है, वहीं इनकी पैकेजिंग में इस्तेमाल किये जाने वाले विषैले रसायन को अगर सही ढंग से हैंडल नहीं किया जाता है तो, वह इंसानों के स्वास्थ्य के लिये काफी खतरनाक साबित हो सकता है. ये स्पष्ट है कि हमने पहले जिन नई गतिविधियों का ज़िक्र किया, उनके परिप्रेक्ष्य में एमएसडब्ल्यू को बाधित करने वाली चुनौतियों में किसी प्रकार का सुधार नहीं हुआ है.      

तमाम बढ़ते जटिलताओं के बावजूद, एमएसडब्ल्यू पर अब-तक राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सका है. 1990 के बाद से लगातार इसमें बदलाव/सुधार लाने के लिये काफी गम्भीरतापूर्वक प्रयास किये जा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट में दायर किये गए एक रिट याचिका और उसके आधार पर जनवरी 1998 में पारित आदेश के नतीजे के रूप में, राष्ट्रीय स्तर पर एमएसडब्लू नियमों का निर्माण हुआ. शहरी ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (एमएसडब्लू) की स्थिति का मूल्यांकन करने एवं इसके सुधार के लिए, एक समिति का गठन किया गया, जिसका काम उपयुक्त अनुशंसाएं पेश करना था जो आगे चलकर  (एमएसडब्ल्यू नियामक, 2000) की अधिसूचना जारी करवाने का काम कर गया की गई, जिसे  देश की समस्त नगरपालिकाओं में लागू करने के लिए ज़रूरी किया गया. समय के साथ, और भी अलग-अलग तरह के कचरों की श्रेणियां सामने आई, जिनके लिए अनुकूल समाधान भी तय किये गए. फिलहाल 2025 में, हमारे देश में ऐसे कई कानून आ चुके हैं, जिनकी मदद से सॉलिड वेस्ट, हानिकारक कचरा, बायो-मेडिकल वेस्ट, प्लास्टिक कचरा, ई-कचरा, बैटरियां और विध्वंस कचरा को विनियमित किया जा सके. 

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा, भारतीय शहरों को कूड़ा- मुक्त बनाने के प्रयास के तौर पर विगत 1 अक्तूबर, 2021 को लॉन्च किये गया स्वच्छ भारत मिशन, इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है. हालांकि, ये देखा गया है कि भारतीय राज्य एवं शहरें, इस मिशन के लक्ष्यों को प्रभावशाली तरीके से हासिल करने एवं उन्हें लागू करने में वो अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन कर पाने में असमर्थ रहे हैं. कचरों का संग्रह अब भी शत प्रतिशत, पूर्ण रूप से नहीं हो पा रहा है, स्रोत पर कचरा अलग करने का भी दर काफी कम है, तकनीकी नवाचार को अपनाने की प्रक्रिया काफी धीमी है, और इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी अत्याधिक सीमित है.   

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा, भारतीय शहरों को कूड़ा- मुक्त बनाने के प्रयास के तौर पर विगत 1 अक्तूबर, 2021 को लॉन्च किये गया स्वच्छ भारत मिशन, इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है.

ये सभी कमियां, न केवल एमएसडब्ल्यू प्रबंधन की असफलता को उजागर करती है, बल्कि वो शहरी योजना/ नियोजन, एवं नगरपालिका के वित्त आदि के मूल तत्व जो कि इस समग्रता से बाहर है – उस जैसे गहरे संरचनात्मक कमियों की ओर भी इशारा करते हैं. इसके परिणामस्वरूप, सभी नगरपालिका स्तरीय पहल के सफल होने की उम्मीद की जाती है, और ऐसा उसके पास एक सहायक शहरी प्रणाली के होने की वजह से नहीं, बल्कि इसके न होने के बावजूद भी की जाती है. यह लेख, उन्हीं चुनौतियों में से कुछ के बारे में यहां विमर्श कर रहा है.  

सबसे पहले तो, देश के भीतर की ज्य़ादातर शहरी योजना प्रक्रिया में, एमएसडब्ल्यू को स्थानिक सुविधा न के बराबर मिली हुई है, सिवाये एक चिन्हित भूमि के टुकड़े को छोड़कर जिसे केंद्रीय डंपिंग के लिये फिक्स किया गया है. साल 2016 में तैयार, भारत सरकार की, एमएसडब्ल्यू प्रबंधन मैन्यूअल में, क्षेत्रीय एमएसडब्ल्यू परियोजनाओं के लिए उपयुक्त भूमि आवंटन तय करने को कहा गया है. ये शहरों के भीतर के विकेंद्रित एमएसडब्ल्यू प्रक्रिया को भी संबोधित करता है. आदेश में कहा गया है - “शहरों के मास्टर प्लान और टाउन प्लानिंग या स्थानिक नियोजन मैप को भी एमएसडब्ल्यूएम सुविधाओं के लिये भूमि आदि की पहचान एवं उनका समुचित आरक्षण करना चाहिए.” फिर भी, ज्य़ादातर राज्य सरकारें और यूएलबी आदि इन जारी किये गये आदेशों को क्षेत्रीय एवं शहरी नियोजन प्रक्रियाओं में शामिल करने के प्रति लापरवाह हैं, जबकि एमएसडब्ल्यू के संचालन लिये भूमि एक मूलभूत आवश्यकता है.   

तय जगह का न होना...

शहरों के लिए इन ठोस कचरों के मूलभूत स्थान संबंधी पहलुओं से निपट पाना काफी मुश्किल हो रहा है. एमएसडब्ल्यू के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए मूल रूप से कोई जगह तय नहीं किये जाने की वजह से, खुली जगहों पर विकेंद्रित सुविधा देने की कोशिश को उन जगहों के आस-पास रहने वाले निवासियों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है, जो अपने घरों के पीछे ऐसी किसी भी तरह की सेवा स्थापित करने के पक्ष में नहीं है. इसी प्रकार से, तेज़ी से विस्तृत होते इन शहरों में, कुछ भी उपयुक्त उपलब्ध नहीं होने की वजह से, बड़े क्षेत्रीय साइट को दूर-दराज़ के इलाकों में जाना पड़ सकता है. हालांकि, ये भी तय है कि शहरी प्रशासन को, इन इलाकों में भी गांववालों के विरोध के लिये तैयार रहना पड़ेगा जो अपने यहां ऐसे किसी भी प्रकार के परियोजनाओं के खिलाफ हैं, से - जिससे ये स्पष्ट होता है कि वे नगर-निगमों को अपने भोगौलिक सीमाओं के भीतर ही इन तमाम समस्याओं का प्रबंधन करने की वकालत कर रहे हैं. दिल्ली, मुंबई, पिंपरी चिंचवड एवं बेंगलुरू जैसे अधिकांश शहरों को अपने क्षेत्र के ग्रामीणों से लगभग एक जैसे ही गुस्से का सामना करना पड़ा है. ज्य़ादातर स्थिति में शहरों के अफसर बिल्कुल ही हताश नज़र आते हैं क्योंकि उन्हें पता ही नहीं होता है कि ऐसी स्थिति से निपटा कैसे जाये, और वहीं दूसरी ओर राज्य सरकारें इस बात से डरी होती हैं कि कहीं वे अपने मतदाताओं को नाराज़ न कर दें.     

ज्य़ादातर स्थिति में शहरों के अफसर बिल्कुल ही हताश नज़र आते हैं क्योंकि उन्हें पता ही नहीं होता है कि ऐसी स्थिति से निपटा कैसे जाये, और वहीं दूसरी ओर राज्य सरकारें इस बात से डरी होती हैं कि कहीं वे अपने मतदाताओं को नाराज़ न कर दें.     

दूसरी बात ये है कि, एमएसडब्ल्यू प्रबंधन के अंतर्गत PSP मॉडल के तहत निजी क्षेत्रों की भागेदारी को काफी हद तक स्वीकार किया गया है. इसके बावजूद, इस दिशा में, निजी क्षेत्रों (पीएसपी) की भागेदारी, वित्तीय वजहों, यूएलबी द्वारा मुहैया कराये जाने वाले कचरों की गुणवत्ता, संस्थानिक जटिलताओं की वजह से उच्च जोख़िम एवं शहरी स्तर पर  खंडित जनादेश की वजह से बाधित है. कुछ ही शहर ऐसे हैं जो इस दिशा में आगे बढ़ पाने में सफल हो पाये हैं; बाकी लोगों के पास संसाधनों की भारी कमी रही है. पीसपी तब तक एक दूर का सपना ही बनी रहेगी, जब तक कि इन शहरों की शासन व्यवस्था बेहतर न हो जाये.  

तीसरी बात ये है कि अब तक ये सर्वविदित हो चुका है कि 2013 में अपनाए गए जीएसटी (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) एवं RFCTLARR (राइट टू फेयर कॉमपन्सेशन एंड ट्रांसपेरेंसी इन लैंड ऐक्विज़ीशन, रिसेटलमेंट एंड रिहाबिलिटेशन) ऐक्ट, के प्रभाव की वजह की वजह से भारतीय यूएलबी, वित्तीय तौर पर काफी कमज़ोर हो गये हैं. एक तरफ जहां ज्य़ादातर लघु यूएलबी अपने कर्मचारियों को वेतन का भुगतान करने को जूझ रहे हैं, कई अन्य ऐसे हैं  जो कि रखरखाव कर पाने में  असमर्थ हैं, और शहरी बुनियादी ढांचों की सामान्य आवश्यकताओं के साथ तालमेल बिठा पाने में असमर्थ है. अगर एमएसडब्ल्यू के तहत यूएलबी की समस्त निवेश और संचालन संबंधी आवश्यकताओं पर विचार किया जाए तो, भारत के अधिकांश शहर उनके वित्तीय लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को हासिल कर पाने में असमर्थ साबित होंगे. सच्चाई ये है कि एमएसडब्ल्यू प्रबंधन एक गैरवित्तीय प्रावधान है, जिसे पैसे से वंचित रखा गया है.   

अंत में यही कहा जा सकता है कि MSW -  जो कि सबसे बुनियादी नगरपालिका ज़िम्मेदारियों में से एक है, एक ‘होल-ऑफ-सिटी’ नज़रिये के बगैर कभी सफल नहीं हो सकता है. जिसका मतलब ये हुआ कि, राज्य सरकारों, शहर, क्षेत्र और वार्ड के स्तर पर प्रशासनिक एकरूपता और सहयोग के अलावा नागरिक संगठनों की एक पूरी शृंखला जिसमें निजी सेक्टर, और नागरिकों का मिला-जुला प्रयास शामिल है, उसके बिना इसका चल पाना नामुमकिन है. लेकिन, हमें खेदपूर्वक कहना पड़ रहा है कि सहयोग की ये भावना कहीं भी नज़र नहीं आती है. 


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