यूएन-हैबिटेट यानी बेहतर शहरी भविष्य के लिए संयुक्त राष्ट्र के विशिष्ट कार्यक्रम के नए शहरी एजेंडे में विकसति हो रहे स्मार्ट शहरों में समावेशी स्वास्थ्य सुविधाओं पर विशेष बल दिया गया है. यूएन-हैबिटेट के इस नए एजेंडे में मैटर्नल मॉर्टिलिटी रेट यानी मातृ मृत्यु दर (MMR) को कम करने पर ख़ास ध्यान दाय गया है. ज़ाहिर है कि एमएमआर प्रति 1,00,000 प्रसव के दौरान होने वाली महिलाओं की मृत्यु की संख्या है. एमएमआर से जहां एक तरफ यह पता चलता है कि किसी देश में कितना महिला सशक्तिकरण हुआ है, वहीं यह दर सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के मुताबिक़ होने वाले शहरों के विकास के लिए भी बेहद अहम सूचक है. गौतरलब है कि एसडीजी 3, 5, 10 और 11 में ख़ास तौर पर बेहतर स्वास्थ्य, लैंगिक समानता, गैरबराबरी और भेदभाव को समाप्त करने एवं समावेशी शहरों के विकास पर ज़ोर दिया गया है. इतना ही नहीं, एसडीजी 3.1 का लक्ष्य वर्ष 2030 तक एमएमआर को 70 से नीचे लाना है.
अध्ययनों के मुताबिक़ उच्च आय वाले देशों में ग्लोबल साउथ के देशों की तुलना में एमएमआर कम है. वर्ष 2020 के आंकड़ों के अनुसार जर्मनी में प्रसव के दौरान मरने वाली महिलाओं की संख्या 34, ऑस्ट्रेलिया में 9 और स्वीडन में 5 थी, वहीं भारत की बात की जाए, तो प्रसव या गर्भावस्था के दौरान मरने वाली महिलाओं की संख्या 23,753 थी. वर्ष 2000-2020 में एमएमआर में 73 प्रतिशत की कमी के बावज़ूद, भारत की 103 MMR बेहद चिंताजनक है, ख़ास तौर पर देश के शहरी इलाक़ों में रहने वाले वंचित समूहों के लिहाज़ से यह दर बेहद पेरशानी पैदा करने वाली है.
शहरों में रहने वाली आबादी के बीच भी व्यापक स्तर पर भेदभाव जैसे हालात होते हैं, जिनकी वजह से तमाम परेशानियां पैदा होती हैं. शहरों में रहने वाली ग़रीब आबादी, ख़ास तौर पर ऐसी आबादी जो झुग्गी बस्तियों में निवास करती है, उन्हें विपरीत हालातों में जीवन-यापन करना पड़ता है.
शहरी क्षेत्रों में जीवन-यापन के लिए बेहतर परिस्थितियां होती हैं और ऐसे में शहरों में एमएमआर कम होने की पूरी संभावनाएं हैं. लेकिन शहरों में रहने वाली आबादी के बीच भी व्यापक स्तर पर भेदभाव जैसे हालात होते हैं, जिनकी वजह से तमाम परेशानियां पैदा होती हैं. शहरों में रहने वाली ग़रीब आबादी, ख़ास तौर पर ऐसी आबादी जो झुग्गी बस्तियों में निवास करती है, उन्हें विपरीत हालातों में जीवन-यापन करना पड़ता है. इन बस्तियों में बड़ी तादाद में लोग रहते हैं, उन्हें रहने के लिए अच्छे मकान नहीं मिल पाते हैं, साथ ही उनकी आय बहुत कम होती है. उदाहरण के तौर पर केन्या में राष्ट्रीय मातृ मत्यु दर का औसत 362 है, जबकि राजधानी नैरोबी की अस्थाई बस्तियों में रहने वाले ग़रीबों में एमएमआर 706 है. कुछ इसी तरह के हालात ग्लोबल साउथ के देशों में हैं. कहने का मतलब है कि इन देशों में ग़रीब आबादी आमतौर पर बुनियादी आवश्यकताओं से जूझती रहती है और स्वास्थ्य व सुरक्षा जैसी ज़रूरतें दरकिनार हो जाती हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि MMR को कम करने में शहरों को किन चुनौतियों से जूझना पड़ता है? मातृ मृत्यु दर की समस्या से निपटने में मौज़ूदा शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर किस प्रकार मददगार साबित हो सकते हैं? इसके अलावा, भारत के शहर एमएमआर को कम करने के लिए नीतियों को प्रभावी तरीक़े से किस प्रकार लागू कर सकते हैं?
मातृ मत्यु दर: शहरों में सामने आने वाली चुनौतियां
शहरों में अस्थाई बस्तियों या झुग्गियों में रहने वाले लोगों के बीच मातृ मत्यु दर अधिक होने के पीछे कई वजहें हैं. उदाहरण स्वरूप शहरी इलाक़ों में अस्पतालों की सुविधा होती है, लेकिन आमतौर पर स्वास्थ्य सुविधाएं सभी शहरी निवासियों के लिए समान रूप से सुलभ नहीं होती हैं, यानी झुग्गियों में रहने वालों को ये सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं. स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी सुविधाओं तक पहुंच नहीं होने से शहरों में रहने वाले वंचित समूहों की स्थिति लगातार ख़राब होती जाती है. इसके अतिरिक्त, गर्भवती महिलाओं की सेहत कहीं न कहीं इस बात पर बहुत अधिक निर्भर करती है कि वो किन परिस्थितियों में एवं किस जगह पर रहती हैं और उनकी स्वास्थ्य देखभाल किस तरह होती है. पश्चिमी भारत के शहरों में अस्थाई बस्तियों में रहने वाली महिलाओं को ऐसे विपरीत हालातों से ही जूझना पड़ता है, जहां 49 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं को सुझाई गई ज़रूरी स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं भी नहीं मिल पाती हैं. इन शहरी बसावटों में रहने वाली गर्भवती महिलाओं को अक्सर घर में ही बच्चे को जन्म देने के लिए मज़बूर होना पड़ता है, क्योंकि वे न तो अकेले अस्पताल जा सकती हैं और अगर अस्पताल चली भी जाएं तो स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा उनका अच्छे से इलाज नहीं किया जाता है.
शहरों में रहने वाली ग़रीब महिलाओं के कामकाज का समय निर्धारित नहीं होता है, उनका समुचित सामाजिक-आर्थिक समावेशन नहीं होता है, साथ ही उनका रहन-सहन भी बेतरतीब होता है. इन वजहों से ऐसी महिलाओं तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने में तमाम बाधाएं आती हैं.
देखा जाए तो गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल के पीछे सामाजिक पूर्वाग्रह भी ज़िम्मेदार होते हैं. कहने का मतलब है कि अगर महिलाओं का सशक्तिकरण होता है और उन्हें अपनी स्वास्थ्य देखभाल के बारे में खुद निर्णय लेने का अधिकार मिलता है, तो इससे गर्भावस्था के दौरान सेहत की उचित देखभाल को लेकर सकारात्मक बदलाव देखने को मिलता है. इसके अलावा, झुग्गी बस्तियों में लैंगिक असमानता यानी महिलाओं को दोयम दर्ज़े का समझा जाना भी उनकी स्वास्थ्य देखभाल में एक बड़ी बाधा है. इसकी वजह से जहां एक ओर गर्भवती महिलाओं को बेहद ख़राब स्वास्थ्य देखभाल मिलती है, वहीं जो भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं मौज़ूद हैं, उनका लाभ उठाने में भी महिलाएं संकोच करती हैं. महिलाओं के आत्मनिर्भर नहीं होने की वजह से इसकी प्रबल संभावना होती है कि गर्भावस्था के दौरान उन्हें पौष्टिक खान-पान नहीं मिल पाए और इससे उनमें आयोडीन व कैल्शियम की कमी हो जाती है. ज़ाहिर है कि ग्लोबल साउथ के देशों में महिलाओं में इन पोषक तत्वों की कमी आम बात है. उदाहरण के तौर पर अमृतसर शहर की अस्थाई बस्तियों में रहने वाली 57 प्रतिशत महिलाएं गर्भावस्था के दौरान ज़रूरत के मुताबिक़ आयरन-फोलिक एसिड की गोलियां नहीं खाती हैं.
शहरों में रहने वाली ग़रीब महिलाओं के कामकाज का समय निर्धारित नहीं होता है, उनका समुचित सामाजिक-आर्थिक समावेशन नहीं होता है, साथ ही उनका रहन-सहन भी बेतरतीब होता है. इन वजहों से ऐसी महिलाओं तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने में तमाम बाधाएं आती हैं. इसके चलते शहरी झुग्गियों में रहने वाली गर्भवती महिलाओं को अक्सर स्वास्थ्य देखभाल और इलाज के लिए झोलाझाप डॉक्टरों और अकुशल स्वास्थ्य कर्मियों पर निर्भर होना पड़ता है. हालांकि, ऐसा नहीं है कि शहरों के अस्थाई इलाक़ों में रहने वाले सभी लोगों को एक जैसे हालातों का सामना करना पड़ता है. उनका मूल स्थान, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति भिन्न हो सकती है, साथ ही यह भी हो सकता है कि कोई बहुत लंबे समय से इन बस्तियों में रह रहा हो. यानी अगर इन बस्तियों में रहने वाले सभी निवासियों के लिए एक ही तरह का नीतिगत नज़रिया अपनाया जाए, तो वो मुनासिब नहीं है. कहने का मतलब है कि लैंगिक आंकड़ों को तो छोड़ दीजिए, अक्सर इन बस्तियों में रहने वाले निवासियों के बारे में सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं होते हैं और इस वजह से इनको लेकर कोई ठोस नीति बनाना बेहद मुश्किल हो जाता है.
एमएमआर सुधार के लिए मौज़ूदा तौर-तरीक़े
वैश्विक स्तर पर गर्भवती महिलाओं की सेहत में सुधार के तमाम तरीक़ों को अपनाया जाता हैं. इन तरीक़ों और नज़रियों का मूल्यांकन करते हुए इस दिशा में विभिन्न हितधारकों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कई तरह की टूलकिट्स विकसित की गई हैं, यानी इस बारे में जानकारी देने के लिए और उससे जुड़े कदम उठाने के लिए विस्तृत सुझावों का दस्तावेज़ तैयार किया गया है. उदाहरण के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा इस मुद्दे पर तैयार की गई टूलकिट में नीति निर्माताओं, स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने वाले लोगों और गैर-सरकारी संगठनों के लिए तमाम सुझाव दिए गए हैं. WHO के सुझावों में गर्भवती महिलाओं को समुचित स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा उपलब्ध कराने के दौरान आने वाली दिक़्क़तों का समाधान करने के लिए वर्कशीट, बुनियादी स्तर पर पैदा होने वाली बाधाओं से जुड़े आंकड़े जुटाना और इससे संबंधित कार्यक्रमों को लागू करने से जुड़ी नीतियां शामिल हैं. मॉरीशस में इसी प्रकार की जो टूलकिट विकसित की गई है, जिसका उद्देश्य महिलाओं को प्रसव से पहले की देखभाल और बच्चे के विकास के बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध कराना है. इसी प्रकार से भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा इस मुद्दे पर जो दिशा-निर्देश बनाए गए हैं, उनमें स्वास्थ्य कर्मियों को गर्भवती महिलाओं से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराना शामिल है. यानी उन्हें बताया जाता है कि गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल किस प्रकार की जाना चाहिए.
वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों द्वारा एमएमआर कम करने के लिए जिन रणनीतियों को अपनाया जा रहा है, अगर इन्हें भारत में भी लागू किया जाता है, तो देश के शहरी इलाक़ों में गर्भवती महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं देने के लिए न केवल पुख्त़ा नीतियां बनाई जा सकती हैं, बल्कि वैश्विक अनुभवों से सीख लेकर उन्हें सफलतापूर्वक लागू भी किया जा सकता है.
ज़ाहिर है कि गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी जिन पहलों को अलग-अलग देशों में सफलतापूर्वक लागू किया गया है, अगर उनका गहनता से विश्लेषण किया जाए, तो मातृ मृत्यु दर कम करने को लेकर अहम जानकारी मिल सकती है. बांग्लादेश की मनोशी (MANOSHI) परियोजना गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार में बेहद कारगर है. इसके तहत सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा घर-घर जाकर गर्भवती महिलाओं की प्रसवपूर्व जांच की जाती है. इसी प्रकार से मालदीव ने प्रसव के दौरान महिलाओं की मौत से जुड़े आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण करके ख़ास नीतियां बनाई हैं और लागू किया है. इन नीतियों से मालदीव में 1990-2015 के दौरान एमएमआर में 90 प्रतिशत की कमी दर्ज़ की गई. नीदरलैंड के रॉटरडैम शहर में बच्चे के जन्म के बाद महिलाओं की देखभाल की रणनीति को लागू किया गया, जिसके तहत ऐसी महिलाओं को लंबे समय तक स्वास्थ्य सुविधाओं से लैस आवास प्रदान किए गए. इस प्रकार से वहां ग़रीबी की वजह से महिलाओं और नवजात शिशुओं की स्वास्थ्य देखभाल में आने वाली अड़चनों को दूर किया गया. हालांकि, बहुत अधिक जनसंख्या की वजह से भारत में ऐसी नीतियों को लागू करना बेहद मुश्किल है. अगर भारत में गैर-चिकित्सा जोख़िमों यानी जीवन-यापन में आने वाली बाधाओं और रहन-सहन की दिक़्क़तों को दूर किया जाए, तो शहरी इलाकों में एमएमआर कम की जा सकती है.
कई देशों को एमएमआर कम करने से जुड़ी नीतियों की नाक़ामी का भी सामना करना पड़ा है. जैसे कि युगांडा ने वर्ष 2000-2015 के बीच मातृ मृत्यु दर को 75 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य तया किया था. इसके लिए युगांडा में अलग-अलग 14 नीतियों को लागू किया था, लेकिन नीतियां बनाने में झोल के कारण और उन्हें लागू करने में कोई मेलजोल नहीं होने के चलते लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया और एमएमआर में सिर्फ़ 30 प्रतिशत की ही कमी हो पाई. कंपाला ने इसके लिए महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार से जुड़े विभिन्न सेक्टरों को लक्षित नीतियों को लागू करने के दृष्टिकोण को अपनाया. इसके तहत जहां ज़रूरतमंदों को चिकित्सा देखभाल के लिए दूसरे अस्पतालों में रेफर करने की सुविधा में सुधार किया गया, मरीज़ों के लिए अधिक संख्या में एम्बुलेंस ख़रीदी गईं, वहीं गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य आवश्यकताओं को तवज्जो दी गई. भारत की बात करें, तो यहां शहरों में स्थित बड़े अस्पतालों पर मरीज़ों का भारी दबाव है. इसकी वजह है कि ग्रामीण इलाक़ों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं होने की वजह से गांवों में रहने वाले लोग बड़ी तादाद में शहरों का रुख़ करते हैं, क्यों कि उन्हें शहरी अस्पतालों में बेहतर चिकित्सा सुविधाएं मिलती हैं. अगर भारत में भी गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल को लेकर युगांडा द्वारा अपनाई गई नीतियों को अमल में लाया जाता है, तो देश में बड़े अस्पताल पर दबाव कम हो सकता है. वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों द्वारा एमएमआर कम करने के लिए जिन रणनीतियों को अपनाया जा रहा है, अगर इन्हें भारत में भी लागू किया जाता है, तो देश के शहरी इलाक़ों में गर्भवती महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं देने के लिए न केवल पुख्त़ा नीतियां बनाई जा सकती हैं, बल्कि वैश्विक अनुभवों से सीख लेकर उन्हें सफलतापूर्वक लागू भी किया जा सकता है.
भारत में गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने वाली पहलें
जननी सुरक्षा योजना, जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम और प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान जैसी नीतियों की वजह से भारत ने एमएमआर कम करने की दिशा में अहम उपलब्धि हासिल की है. सरकार की इन योजनाएं के अंतर्गत अस्पतालों में प्रसव के समय और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को वित्तीय मदद दी जाती है. मुंबई की झुग्गी बस्तियों में निवास करने वाली गर्भवती महिलाओं का ही उदाहरण लें, तो वहां 94 प्रतिशत महिलाएं प्रसव से पहले अस्पतालों में जांच के लिए जाती हैं, साथ ही 84 प्रतिशत महिलाएं अस्पतालों में ही बच्चों को जन्म देती हैं. वहीं आंकड़ों के मुताबिक़ कोलकाता की अस्थाई शहरी बस्तियों में रहने वाली 99 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं ने अस्पातालों में बच्चों को जन्म दिया है.
गर्भवती महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित तमाम नीतियां तो बनी हुई हैं, लेकिन उन्हें व्यापक स्तर पर लागू करने में तमाम दिक़्क़तें हैं. चंडीगढ़ जैसे शहरों में गर्भवती महिलाओं की अस्पतालों में डिलीवरी में बढ़ोतरी के बावज़ूद वहां एमएमआर 100 से 120 बनी हुई है. इसी प्रकार से जयपुर, जोधपुर, अजमेर और कोटा जैसे शहरों में अस्थाई बसावटों में रहने वाली ग़रीब महिलाओं द्वारा अस्पतालों में प्रसव के आंकड़े बहुत कम हैं. इन शहरों में सिर्फ़ 51 प्रतिशत शहरी ग़रीब महिलाओं ने ही अस्पतालों में डिलीवरी का विकल्प चुना है. इसके पीछे अस्पतालों में प्रसव के लिए महिलाओं की संख्या अधिक होना और प्रसव के लिए लंबा इंतज़ार करने के अलावा अस्पतालों की बहुत अधिक दूरी है. इतना ही नहीं, गर्भवती महिलाओं से संबंधित सरकारी नीतियों के बारे में जानकारी नहीं होना भी एक बड़ी समस्या है और इस वजह से महिलाओं को प्रसव में बेवजह अधिक ख़र्च करना पड़ता है. सरकारी अस्पतालों में गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के इलाज़ और चिकित्सीय देखभाल के समुचित इंतज़ाम नहीं होने के चलते भी महिलाएं वहां प्रसव के लिए कम जाती हैं.
वंचित वर्गों को समाज की मुख्यधारा में लाकर, स्वास्थ्य शिक्षा को प्रोत्साहन देकर और समाज में व्याप्त भेदभाव एवं असमानताओं को पहचानने के लिए शोधकर्ताओं और गैर सरकारी संगठनों (NGOs) के साथ सहयोग को बढ़ावा देकर भारत एमएमआर और कम कर सकता है. उदाहरण के तौर पर आशा वर्कर यानी मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (ASHA) बांग्लादेश में अमल में लाए जा रहे MANOSHI कार्यक्रम से सीख ले सकती हैं. यानी गर्भवती महिलाओं को ज़रूरत पड़ने पर अस्पतालों में रेफर करने का तंत्र विकसित कर सकती हैं, साथ ही उनकी मदद के लिए हेल्प डेस्क की सुविधा प्रदान कर सकती हैं. इसके अलावा, अगर महिलाओं को दी जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं से उन्हें फायदा हो रहा है या नहीं इसके लिए अगर एक फीडबैक प्रणाली बनाई जाती है और उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं की गुणवत्ता की नियमित जांच की जाती है, तो इससे सरकारी कार्यक्रमों की निगरानी और उसके प्रभावों का पता लगाना आसान हो सकता है. इसके अलावा, गर्भवती महिलाओं से जुड़े कार्यक्रमों को ज़मीनी स्तर पर बेहतर तरीक़े से लागू करने के लिए प्रशासन एवं अस्पताल से संबंधित कर्मियों को इन विषयों के महत्व के बारे में बताना भी बेहद ज़रूरी है.
एक और बात यह है कि मातृ मत्यु दर समाज के अलग-अलग वर्गों में भिन्न होती है और इसके पीछे कई कारण होते हैं. उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में श्वेत महिलाओं की तुलना में अश्वेत महिलाओं की गर्भावस्था के बाद मृत्यु की संभावना 3.7 गुना अधिक है. इससे ज़ाहिर होता है कि गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य देखभाल में गंभीर भेदभाव और असमानता व्याप्त है
एक और बात यह है कि मातृ मत्यु दर समाज के अलग-अलग वर्गों में भिन्न होती है और इसके पीछे कई कारण होते हैं. उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में श्वेत महिलाओं की तुलना में अश्वेत महिलाओं की गर्भावस्था के बाद मृत्यु की संभावना 3.7 गुना अधिक है. इससे ज़ाहिर होता है कि गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य देखभाल में गंभीर भेदभाव और असमानता व्याप्त है, जिसे दूर करना ज़रूरी है और इसके लिए स्वास्थ्य कर्मियों को जागरूक करना होगा, ताकि वे महिलाओं की स्वास्थ्य जांच में किसी भी तरह का भेदभाव न करें. इतना ही नहीं, इसके लिए एक मुकम्मल तंत्र भी विकसित करना बेहद आवश्यक है. इसके अलावा, महिलाओं के साथ होने वाले इस भेदभाव का पता लगाने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों और समूहों से जुड़े व्यापक आंकड़े जुटाना भी बेहद आवश्यक है. ज़ाहिर है कि जब ये आंकड़े उपलब्ध होंगे, तो उनका विश्लेषण कर महिलाओं के लिए बनाई गई नीतियों व कार्यक्रमों के प्रभाव का पता लगाया जा सकेगा. मातृ मृत्यु दर को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले कारणों में लैंगिक भेदभाव प्रमुख है. ऐसे में अगर समावेशी स्वास्थ्य देखभाल नीतियां बनाई जाती हैं और एमएमआर कम करने से जुड़े कार्यक्रमों में महिलाओं के साथ पुरुषों को भी शामिल किया जाता है, तो यह लैंगिक असमानता को दूर करने में काफ़ी कारगर सिद्ध हो सकता है.
इसके अतिरिक्त, गर्भवती महिलाओं में अक्सर मानसिक विकार भी देखने को मिलता है. अगर भारत की बात करें, तो गर्भावस्था के दौरान 22 प्रतिशत महिलाएं अवसाद से पीड़ित होती हैं. ऐसे में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति के साथ महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को जोड़ना फायदेमंद साबित हो सकता है, साथ ही माताओं के लिए मैसाचुसेट्स चाइल्ड साइकियाट्री एक्सेस प्रोग्राम जैसी पहलों को अमल में लाना भी इस समस्या का समाधान करने में लाभदायक हो सकता है. हालांकि, इतना ही काफ़ी नहीं होगा, बल्कि इन क़दमों के साथ ही ऐसे नज़रिए को अपनाया जाना भी मददगार होगा, जिसमें शहरी महिलाओं की आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को प्राथमिकता दी जाए.
आख़िर में, ऐसी बस्तियों में जहां संसाधनों की कमी होती है, वहां टेक्नोलॉजी को उपलब्ध कराना बेहद चुनौतीपूर्ण है, ऊपर से महिलाओं में डिजिटल साक्षरता की कमी ने स्थिति को और भी विकट बना दिया है. डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर, आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन और राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन जैसी नीतियों के माध्यम से भारत इस चुनौती का बखूबी सामना कर सकता है और महिलाओं की डिजिटल पहुंच सुनिश्चित कर सकता है. सरकार, अस्पतालों और हेल्थ-टेक कंपनियों के बीच तालमेल के ज़रिए ई-हेल्थ टेक्नोलॉजी की भी सभी तक पहुंच सुनिश्चित की जा सकती है. गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य पर लगातार नज़र रखने, उनमें स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ाने एवं शहरों में मौज़ूद अस्थाई बसावटों में हेल्थकेयर सुविधाओं की गुणवत्ता की निगरानी करने में एसएमएस टेक्नोलॉजी, मोबाइल हेल्थ ऐप्स एवं मोबाइल फोन बेहद लाभदायक व किफायती साबित हो सकते हैं.
कुल मिलाकर भारत अगर इन रणनीतियों को अमल में लाता है, तो इससे न केवल शहरी इलाक़ों में गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित विभिन्न चुनौतियों का मुक़ाबला करने में मदद मिलेगी, बल्कि यह मातृ मृत्यु दर कम करने में भी सहायक होगा. इसके साथ ही इन रणनीतियों को अपनाने से भारत शहरी इलाक़ों में समावेशी महिला स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं विकसित करने में भी क़ामयाबी हासलि कर सकता है.
अनुषा केसरकर गावनकर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
गायत्री मेहरा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च इंटर्न हैं.
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