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अब चुनावों से कहीं अधिक ख़र्च राजनीति में किए जाते हैं. उम्मीदवार साल भर खुद को ख़बरों में रखने, लामबंदी करने और डिजिटल दुनिया में अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिए भारी ख़र्च करते हैं.
Image Source: Getty
राजनीति पर होने वाले ख़र्च को समझने के लिए विश्व स्तर पर एक प्रयास किया गया है, जिसके एक अंग के रूप में ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) ने भारत पर केंद्रित केस स्टडी की है. वेस्टमिंस्टर फाउंडेशन फॉर डेमोक्रेसी (WFD) की सहायता से किए गए इस अध्ययन में यह जानने की कोशिश की गई कि राजनीति के लिए धन कैसे जुटाया जाता है और इस तरह की व्यवस्था का चुनाव-चक्र व प्रतिनिधि लोकतंत्र की गुणवत्ता पर कितना प्रभाव पड़ता है. इसमें यह भी जानने का प्रयास किया गया है कि क्या दोनों के बीच आपस में कोई संबंध है.
इस अध्ययन की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक पद के लिए चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों द्वारा किए जाने वाले ख़र्च की प्रकृति पर ख़ासा ध्यान दिया गया है, न कि पार्टी द्वारा किए जाने वाले ख़र्च पर. इसके अलावा, अध्ययन का दायरा चुनावों तक ही नहीं था, बल्कि इससे कहीं आगे व्यापक ख़र्च तक था, यानी जब कोई उम्मीदवार राजनीति में प्रवेश करता है, अपने लिए एक निर्वाचन क्षेत्र का चयन करता है, वहां अपना प्रभाव बढ़ाता है, और पार्टी की तरफ़ से चुनाव का टिकट पाने (या पार्टी प्राइमरी में सफल होने) तक जितना ख़र्च करता है, उन सभी को इस अध्ययन में शामिल किया गया है. इसमें चुनावी जीत के बाद के ख़र्चों, विशेष रूप से निर्वाचन क्षेत्र के भीतर किए जाने वाले ख़र्च को भी समझने की कोशिश की गई है. ख़र्चों में क्षेत्रीय भिन्नताओं और वंचित वर्गों जैसे महिलाओं, नौजवानों, दलितों, आदिवासियों व अन्य हाशिये के समूहों पर बढ़ते राजनीतिक ख़र्चों के असमान प्रभाव का भी आकलन किया गया है. अध्ययन का दायरा संसद के निचले सदन लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए होने वाले चुनावों से जुड़े ख़र्च के तौर-तरीकों को समझने तक सीमित था.
वेस्टमिंस्टर फाउंडेशन फॉर डेमोक्रेसी (WFD) की सहायता से किए गए इस अध्ययन में यह जानने की कोशिश की गई कि राजनीति के लिए धन कैसे जुटाया जाता है और इस तरह की व्यवस्था का चुनाव-चक्र व प्रतिनिधि लोकतंत्र की गुणवत्ता पर कितना प्रभाव पड़ता है.
इन जानकारियों को जुटाने के लिए अच्छा-ख़ासा फील्डवर्क किया गया और विभिन्न हितधारकों, जैसे- चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों, पार्टी पदाधिकारियों, चुनाव अधिकारियों, शिक्षाविदों, थिंक टैंकों, धन-बल की राजनीति पर नज़र रखने वाले पत्रकारों और अन्य लोगों के साथ समूह में चर्चाएं की गईं और उनके साक्षात्कार लिए गए. ये सभी काम भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और मध्य हिस्सों में किए गए. इस शोध में लिखित सामग्रियों से भी जानकारियां जुटाई गईं, जिनमें प्रकाशित व शैक्षणिक लेख, पुस्तकें, अख़बारों में प्रकाशित ऑप-एड लेख, उम्मीदवारों व पार्टियों द्वारा पेश चुनाव ख़र्च संबंधी रिपोर्ट और भारत में पार्टी के कामकाज, राजनीतिक भागीदारी और चुनाव प्रचार अभियान पर होने वाले ख़र्च पर किए जा रहे शोध अध्ययन शामिल हैं.
नियमित राजनीतिक गतिविधियों पर बढ़ रहा ख़र्च- भले ही यह धारणा है कि चुनाव में बहुत पैसे ख़र्च किए जाते हैं, लेकिन अध्ययन में पाया गया है कि निर्वाचन क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि जिस दल से वे जुड़े हैं, उससे उनको टिकट मिल जाए, उम्मीदवार चुनाव से ज्यादा नहीं, तो कम से कम उसके बराबर ख़र्च ज़रूर करते हैं. एक महत्वाकांक्षी राजनेता को अपने संभावित निर्वाचन क्षेत्र में कई तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना पड़ता है, जो चुनाव से महीनों पहले, यहां तक कि सालों पहले शुरू हो जाते हैं. विवाह समारोहों, अंतिम संस्कारों और धार्मिक व सामुदायिक आयोजनों में शामिल होने के लिए उसे अच्छे-ख़ासे पैसे ख़र्च करने पड़ सकते हैं. इसके अलावा, पार्टी कैडर का राजनीतिक नेटवर्क बनाए रखने, संकट में मतदाताओं की मदद करने और निर्वाचन क्षेत्र में साल भर पार्टी की गतिविधियों में आर्थिक मदद करने के लिए भी उसे संसाधन जुटाने पड़ते हैं. ये राजनीतिक जीवन के लिए ज़रूरी और संसाधनों को लेकर स्वाभाविक अपेक्षाएं होती हैं. संक्षेप में कहें, तो निर्वाचन क्षेत्र में अपनी मौजूदगी और प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए किसी महत्वाकांक्षी उम्मीदवार को बड़े पैमाने पर पैसे ख़र्च करने की ज़रूरत पड़ती है.
चुनाव प्रचार में बढ़ता ख़र्च- भारत में चुनाव प्रचार के कामों पर ख़र्च हाल के वर्षों में तेज़ी से बढ़ा है. इस अध्ययन के लिए किए गए साक्षात्कारों के अनुसार, लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले प्रमुख दलों के उम्मीदवारों को औसतन 5 से 10 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़ते हैं. हालांकि, ये आंकड़े क्षेत्रवार बदल भी सकते हैं, जो कई कारकों पर निर्भर करते हैं. जैसे- यदि चुनाव किसी ऐसे निर्वाचन क्षेत्र में होता है, जहां राजनीतिक दिग्गज चुनाव मैदान में होते हैं, तो तुलनात्मक रूप से काफ़ी अधिक पैसे ख़र्च होने की संभावना होती है. तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे समृद्ध संसाधनों वाले राज्यों में अधिक ख़र्च देखा गया है, क्योंकि यहां उम्मीदवारों द्वारा ख़र्च की जाने वाली रकम कभी-कभी तेज़ी से बढ़ भी सकती है. वे उम्मीदवार, जिनके पास सीमित वित्तीय संसाधन होते हैं, मतदाताओं तक पहुंचने और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए नए और उभरते सोशल मीडिया चैनलों पर भी काफ़ी निर्भर होते हैं.
ख़र्चों में क्षेत्रीय भिन्नताओं और वंचित वर्गों जैसे महिलाओं, नौजवानों, दलितों, आदिवासियों व अन्य हाशिये के समूहों पर बढ़ते राजनीतिक ख़र्चों के असमान प्रभाव का भी आकलन किया गया है.
सोशल मीडिया पर ख़र्च- डिजिटल प्रचार के उभार ने ख़र्च की नई श्रेणियां बना दी हैं. इसमें ख़र्च बढ़ गया है, क्योंकि डिजिटल मीडिया के उपभोक्ताओं को प्रभावित करने के लिए उम्मीदवारों को तकनीकी विशेषज्ञों को नियुक्त करना पड़ता है, सोशल मीडिया के इन्फ्लुएंसर को खुद से जोड़ना पड़ता है, सोशल मीडिया प्रोफाइल बनाना व उसका प्रबंधन करना पड़ता है और डिजिटल दुनिया में राजनीतिक विज्ञापनों में पैसे झोंकने पड़ते हैं. यह सही है कि सोशल मीडिया पर उम्मीदवारों की उपस्थिति बढ़ रही है, लेकिन इसमें होने वाला ख़र्च पारंपरिक लामबंदी, जैसे कि रैली, समर्थकों की आवाजाही, ईंधन, भोजन और कार्यकर्ताओं को पारिश्रमिक चुकाने में होने वाले ख़र्चों की तुलना में काफ़ी कम होता है.
वोट ख़रीदने की बढ़ती अहमियत- वोट ख़रीदना भारतीय चुनावों की एक ऐसी विशेषता है, जो लगातार बनी हुई है. इसके तहत मतदान से पहले उम्मीदवारों और पार्टियों द्वारा आमतौर पर नकद पैसे बांटे जाते हैं. हालांकि, अध्ययन में यह पाया गया है कि वोट ख़रीदने का दायरा अभूतपूर्व रूप से बढ़ गया है. यहां तक कि वे उम्मीदवार भी, जो प्रलोभन देने के कामों में शुरुआत में ना-नुकुर करते हैं या ऐसा करने में असमर्थ होते हैं, अक्सर विरोधी दलों या उम्मीदवारों के प्रचार अभियान के जवाब में ऐसा करने के लिए मजबूर हो जाते हैं. भले ही, अध्ययन में शामिल लोगों ने इस प्रवृत्ति, यानी वोट ख़रीदने के प्रयासों पर अपनी नाखुशी जाहिर की, लेकिन आम आदमी के लिए इसे ऐसा मौका भी बताया, जिससे उन्हें राजनीतिक तंत्र से कुछ मिलता तो है. यह उन लोगों के लिए फ़ायदेमंद होता है, जिनको नकद मिलते हैं. निष्कर्ष बताते हैं कि केवल गरीबों के बीच नहीं, बल्कि चुनाव प्रक्रिया का हिस्से बनने वाले आम मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के बीच इसे व्यापक तौर पर मान्यता मिली हुई है.
चूंकि चुनाव लड़ने और राजनीति में हिस्सा लेने के कामों पर ख़र्च पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ा है, इसलिए इस अध्ययन में कई ऐसे संरचनात्मक और प्रक्रियात्मक कारकों की पहचान भी की गई है, जो इस तरह के ख़र्च को और बढ़ा रहे हैं. इस अध्ययन में कुछ नीतिगत सिफारिशें भी की गई हैं, ताकि बढ़ते राजनीतिक ख़र्च को कम करने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया कहीं अधिक सुलभ व समावेशी बनाने के लिए ज़रूरी संस्थागत सुधार और सामाजिक बदलाव किए जा सकें.
(निरंजन साहू ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं)
(अंबर कुमार घोष ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं)
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Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...
Read More +Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...
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