Author : Manoj Joshi

Originally Published दैनिक भास्कर Published on Aug 30, 2024 Commentaries 4 Days ago

यूएई, सऊदी अरब और अमेरिका जैसे पाकिस्तान के शुभचिंतकों को इस्लामाबाद को अपने तौर-तरीकों में सुधार लाने के प्रयासों में शामिल करना जरूरी है.

पाकिस्तान को अपने हाल पर छोड़ने से बढ़ सकती है क्षेत्रीय अस्थिरता

बांग्लादेश में निर्मित स्थितियों के कारण उससे हमारे संबंधों के भविष्य को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है. ऐसे में यह पूछने का सही समय है कि पाकिस्तान के साथ हमारे हमेशा से ही खराब संबंधों की स्थिति क्या है?

बांग्लादेश में वह हुआ, जिसके हम अतीत में भी अभ्यस्त रहे हैं यानी नेतृत्व परिवर्तन के साथ नीतिगत बदलाव. लेकिन पाकिस्तान-सिंड्रोम अलग है. पाकिस्तान का नेता- चाहे वह इमरान खान हो, नवाज या शहबाज शरीफ- कोई ऐसा सर्वशक्तिशाली व्यक्ति नहीं होता, जो किसी नीति को आरंभ करने या उस पर प्रतिक्रिया करने में सक्षम हो. पाकिस्तान में फौज ही राज्यसत्ता के सभी महत्वपूर्ण निर्णयों की कमान सम्भालती है, खासतौर पर जब सवाल भारत का हो.

भारत के लिए इस्लामाबाद के साथ रिश्ते बढ़ाना उतना ही जरूरी है, जितना बांग्लादेश के साथ रिश्तों को स्थिर करना. पर मौजूदा हालात को देखते हुए लगता है कि नई दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच लगभग कुछ भी नहीं हो रहा है.

पाकिस्तान की भू-राजनीति 

जम्मू-कश्मीर में तनाव कायम रखने के लिए पाकिस्तानी एजेंट घुसपैठ करते रहते हैं, लेकिन बात यहीं तक सीमित है. यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में चुनावों की घोषणा से भी वहां कोई खास हलचल नहीं हुई है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत और पाकिस्तान एक साथ मिलकर अच्छे पड़ोसी की तरह रह सकते हैं?

पाकिस्तान का नेता- चाहे वह इमरान खान हो, नवाज या शहबाज शरीफ- कोई ऐसा सर्वशक्तिशाली व्यक्ति नहीं होता, जो किसी नीति को आरंभ करने या उस पर प्रतिक्रिया करने में सक्षम हो.

यह सच है कि आज कश्मीर के मामले में स्थिति पहले से कहीं ज्यादा जटिल है. अनुच्छेद 370 को हटाने के निर्णय को पाकिस्तान ने इस राज्य के भारतीय गणराज्य के साथ एकीकरण की दिशा में एक कदम के रूप में देखा है.

अतीत में भारत और पाकिस्तान कश्मीर सहित दूसरे मसलों को सुलझाने की कोशिश कर चुके हैं. परस्पर-वार्ता के इस इतिहास का एक भुला दिया गया अध्याय वह है, जब अगस्त 1953 में नेहरू ने कराची और नई दिल्ली में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा से चर्चाएं की थीं. इससे दोनों के बीच सहमति निर्मित हुई और वे एक निष्पक्ष जनमत-संग्रह कराने को राजी हुए. लेकिन 1954 में पाकिस्तान के अमेरिका के सैन्य-सहयोगी बनने के निर्णय से इस पर कुठाराघात हो गया.

पाकिस्तान से संपर्क की एक और पहल प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी, जो मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में तब फलीभूत हुई, जब उसने चार-चरणों के एक फॉर्मूले पर व्यापक समझौता किया.

इसके परिणामस्वरूप कश्मीर घाटी और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के बीच की सीमाएं लचीली हो जातीं और पाकिस्तान भारत के साथ नदी जल प्रबंधन और पर्यटन के कुछ पहलुओं में भाग लेता. तब राज्य की मौजूदा विभाजन-रेखाएं तो बनी रहतीं, लेकिन वो एक तरह से अप्रासंगिक हो जातीं.

यह फॉर्मूला सफलता के करीब पहुंच गया था, लेकिन अंततः विफल हो गया. इसके सफलता के करीब पहुंचने का कारण यह था कि पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ वहां की फौज के प्रमुख भी थे. हालांकि 2007 में मुशर्रफ के पैरों तले की धरती खिसक गई, जब उन्हें सेना की कमान छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और इसके एक साल बाद ही उन्हें राष्ट्रपति पद से भी हटना पड़ा.

प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस्लामाबाद से सम्पर्क साधने की कोशिश की थी. वे नवाज शरीफ की पोती के निकाह में शामिल होने के लिए अचानक लाहौर भी पहुंच गए थे. लेकिन पाकिस्तान के डीप स्टेट ने पठानकोट पर हमला करके इसका जवाब दिया और उसके बाद उरी, पुलवामा और बालाकोट जैसी घटनाओं ने तमाम कोशिशों पर पानी फेर दिया. तभी से पाकिस्तान के प्रति भारत की भाषा सख्त बनी हुई है.

हमारे पास विकसित भारत के लिए अपनी योजनाएं हैं और हम हमसे इतनी लम्बी सीमा रेखा साझा करने वाले किसी देश को हमारे प्रति शत्रुतापूर्ण ताकतों द्वारा संचालित नहीं होने दे सकते.

आज पाकिस्तान में आर्थिक संकट जारी है और वहां की राजनीतिक स्थिति में भी स्पष्टता का अभाव है. उसके सबसे लोकप्रिय नेता इमरान खान जेल में हैं और हाल ही में आईएसआई के पूर्व प्रमुख फैज हमीद की गिरफ्तारी के बाद सेना भी उथल-पुथल में दिख रही है.

निष्कर्ष

उधर जम्मू-कश्मीर में डीप स्टेट ने अपने प्रॉक्सी का इस्तेमाल जारी रखा है, जैसा कि हाल ही में वहां हिंसा की घटनाओं में हुई वृद्धि से स्पष्ट है. लेकिन क्या भारत इन मामलों के सुलझने का इंतजार कर सकता है? हमारे पास विकसित भारत के लिए अपनी योजनाएं हैं और हम हमसे इतनी लम्बी सीमा रेखा साझा करने वाले किसी देश को हमारे प्रति शत्रुतापूर्ण ताकतों द्वारा संचालित नहीं होने दे सकते.

यूएई, सऊदी अरब और अमेरिका जैसे पाकिस्तान के शुभचिंतकों को इस्लामाबाद को अपने तौर-तरीकों में सुधार लाने के प्रयासों में शामिल करना जरूरी है. पाकिस्तान को अपने हाल पर छोड़ देने की हमारी मौजूदा नीति विशेष उपयोगी नहीं है.

भारत पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों में कठिन चुनौती का सामना कर रहा है. कुछ बैक-चैनल वार्ताएं जरूर हुई हैं, पर हाल के समय में एकमात्र सकारात्मक गतिविधि नियंत्रण रेखा पर 2021 से संघर्ष-विराम का जारी रहना है.


यह लेख मूल रूप से दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है

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