Author : Parjanya Bhatt

Published on Sep 01, 2018 Updated 0 Hours ago

कश्मीर के “e जिहाद” में तस्वीरों का बड़ा रोल है। जैसे ही तस्वीरें इन्टरनेट पर जारी होती हैं, पूरी कश्मीर की वादी में मिनटों में छा जाती हैं। वैकल्पिक बौद्धिक और सैद्धांतिक पटकथा के अभाव में ये झूठ फैल रहा है और कश्मीरी समाज को बुरी तरह बर्बाद कर रहा है। कई बार सैनिकों की तस्वीरों के पीछे लिखा नज़र आता है, “भारत वापस जाओ,” “बुरहान,” “आजादी।” अफ़सोस कि मुख्यधारा की मीडिया में भी पेलेट गन के पीड़ितों की तस्वीर तो बढ़ा कर दिखाई जाती है, लेकीन घायल सैनिकों की तस्वीरों को ज्यादा तरजीह नहीं दिया जाता।

कश्मीर: आतंकियों की PR रणनीति

कश्मीर में आतंकी संगठन बड़े आक्रामक तरीके से अपने प्रचार प्रसार को बढाने की रणनीति में जुटे हैं। तमाम नए आतंकी रंगरूटों की तस्वीर को सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर डालना आतंकी गुटों सबसे नया चलन है। बुरहान वानी ने जब अपने गैंग की तस्वीर इन्टरनेट पर डाली तो ये साफ़ हो गया कि सोशल मीडिया का कितना ज़बरदस्त असर हो सकता है। उसके करीब २ सालों के बाद १४ जुलाई को हिज़बुल मुजाहिद्दीन ने १४ नए आतंकी लड़कों की तस्वीर सोशल मीडिया पर जारी की। उसके ठीक एक हफ्ते पहले संगठन ने 35 नए आतंकियों की तस्वीर जारी की थी।

बुरहान वानी का गैंग सेना की वर्दी जैसे कपडे पहनता था। ये नया गैंग नीले कपड़ों में है और उनका दाहिना हाथ ऊपर उठा हुआ है, पहली ऊँगली आसमान की तरफ है। ये ओसामा बिन लादेन का अंदाज़ है, वो इसी तरह अपने अनुयायिओं से संपर्क करता था और इस्लामिक स्टेट अपनी विचारधारा को फैलाने के लिए इसी अंदाज़ का इस्तमाल करती है। पिछले कुछ महीनो में नई भरती किये गए लड़कों की तस्वीर में दो बातें एक समान थीं। सभी की तस्वीरों के नीचे उनका नाम लिखा था, उनके बारे में अहम् जानकारियां थीं और इनमें ज़्यादातर लड़कों के हाथों में कुरान थी। ये तस्वीरें उनकी राजनीतिक और सामाजिक भावना को बयान करती हैं। इनके हथियार इनके आत्मविश्वास और इनकी ताक़त की निशानी है। तर्जनी ऊँगली जो आसमान की तरफ इशारा कर रही है वो ये दिखा रही है कि उनके उद्देश्य और एकता में उन्हें दिव्य शक्ति का साथ है। और उनका बेनकाब चेहरा निडरता और एक तरह से एक कामयाबी का इशारा करते हैं।

सभी की तस्वीरों के नीचे उनका नाम लिखा था, उनके बारे में अहम् जानकारियां थीं। और बेनकाब चेहरे निडरता और एक तरह से एक कामयाबी का इशारा करते हैं।

कश्मीर के “e जिहाद” में इन तस्वीरों का बड़ा रोल है। ये भरोसा जगाती हैं, लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। जैसे ही ये तस्वीरें इन्टरनेट पर जारी होती हैं, पूरी कश्मीर की वादी में मिनटों में छा जाती हैं। ये चलन बुरहान वानी का शुरू किया हुआ है। बुरहान वानी ने आतंकी संगठन में भरती होने की तस्वीरों को इन्टरनेट पर डाल कर उनका जो महिमामंडन किया, उन्हें जो सम्मान दिया वो एक नया ट्रेंड शुरू कर गया है, वो आतंक के साथ एक सम्मान जोड़ गया है और सोशल मीडिया के ज़रिये होने वाले प्रचार प्रसार में एक नई क्रांति ले आया है। इसने कश्मीरियों के दुख और उनकी समस्या को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया है और नौजवान कश्मीरियों को बंदूक उठाने में एक झूठी शान का सपना दिखाया है। कश्मीर की बातचीत में अब ये अहम् हिस्सा बन गया है। इसलिए इन तस्वीरों के ज़रिये दिए जा रहे सन्देश को समझना ज़रूरी है।

ये रणनीति अब एक चलन बनती जा रही है जो कि समाज की संस्कृति का हिस्सा बनती जा रही है। सच्चाई को छुपा कर, मारे गए आतंवादियों को नायक बना कर पेश किया जा रहा है, उनकी बहादुरी की कहानिया फैलाई जा रही हैं, नए आतंकी रंगरूटों को भी हीरो कि तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका असर सड़कों पर कश्मीरी जनता के बर्ताव में नज़र आ रहा है। सड़कों पर गुस्सा, दीवारों पर तस्वीर जिसमें मारे गए आतंकियों की तारीफें लिखी जा रही हैं, मारे गए आतंकियों के जनाज़े जिनमें हजारों की तादाद में लोग शामिल हो रहे हैं और भीड़ जो मानव ढाल की तरह काम कर रही है। इस कारण बहुत कम गुंजाईश बचती है कि सच्चाई सामने आये या फिर इस कहानी का दूसरा पहलु सामने आये। सोशल मीडिया कश्मीर के सांस्कृतिक बदलाव का नया अध्याय लिख रहा है। इस का जवाब कैसे देना है ये कश्मीरी समाज पर भी उतना ही निर्भर करता है जितना नई दिल्ली और श्रीनगर की पोलिटिकल नेतृत्व पर।

हिज़बुल मुजाहिद्दीन कि तस्वीरों की ये रणनीति और इसके अलावा संपर्क के दुसरे तरीके का समाज पर असर दो स्तर पर हो रहा है। सबसे पहले इसका भावनात्मक असर यानी तस्वीरों और दीवारों पर बने चित्रों और सन्देश का लोगों की भावना पर सीधा असर। मिसाल के तौर पर बुरहान वानी की क्रिकेट खेलती तस्वीर, अपने हथियार को लहराते हुए तस्वीर या फिर उसके जनाज़े की तस्वीर लोगों पर सीधा असर डालती हैं।

और दुसरे स्तर पर ये देखना चाहिए कि ये तस्वीरें किस तरह से नए मिथक बना रही हैं। वो ये मिथक फैला रही है कि आजादी बंदूक की नोक से हासिल की जा सकती है और इस राह पर चलते हुए मारे गए लोगों के लिए सीधे जन्नत और 72 हूरों का रास्ता खुलता है। ये झूठे सपने सिर्फ आम कश्मीरियों और भारतीय सेना के जवानों का खून बहाने में कारगर हुए हैं और कश्मीर में आतंक के नए नायक, पोस्टर बॉय पैदा किये हैं।

ये तस्वीरें कभी वापस नहीं लौटने वाली वो राह जो इन आतंकियों ने चुनी है, उसके बारे में भी एक सन्देश देती हैं। दुसरे शब्दों में तस्वीरों की ये रणनीति एक झूठ खड़ा कर रही है, ये आतंकियों और आतंकियों के हाथों मारे जाने वाले लोगों की मौत को समाज के सामने महान बना कर पेश कर रही है।

वैकल्पिक बौद्धिक और सैद्धांतिक पटकथा के अभाव में ये झूठ फैल रहा है और कश्मीरी समाज को बुरी तरह बर्बाद कर रहा है। पहले की पीढ़ी अब तक अपनी राजनीतिक मांगों को राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से ही पूरा करवाना चाहती थी, इस दौर में इसका विकल्प बना है हथियार लहराना, तस्वीरों के ज़रिये मौत और आतंक को महान बताना। ये तस्वीर एक छुपा हुआ सन्देश भी देती हैं, वापस नहीं लौटने के रास्ते के बारे में जो इन आतंकियों ने चुना है। दुसरे शब्दों में तस्वीरों की ये रणनीति एक झूठ खड़ा कर रही है, ये आतंकियों और आतंकियों के हाथों मारे जाने वाले लोगों की मौत को समाज के सामने महान बना कर पेश कर रही है

कहानी का दूसरा पहलु भारतीय सेना है, जिन्हें फोटो को छेड़ छाड़ के ज़रिये हमेशा दमन करते हुए दिखाया जाता है। कई बार सैनिकों की तस्वीरों के पीछे लिखा नज़र आता है, “भारत वापस जाओ,” “बुरहान,” “आजादी।” अफ़सोस कि मुख्यधारा की मीडिया में भी पेलेट गन के पीड़ितों की तस्वीर तो बढ़ा कर दिखाई जाती है, लेकीन घायल सैनिकों की तस्वीरों को ज्यादा तरजीह नहीं दिया जाता। अगर गूगल पर घायल भारतीय सैनिकों की तस्वीर ढूँढें तो नतीजा कुछ नहीं मिलेगा, दूसरी तरफ भारतीय सुरक्षा बलों की ज़ुल्म करती सैकड़ों तस्वीरें मिल जायेंगी। उनको बदनाम करती खबरें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अक्सर सुर्खियाँ बनती हैं, और सोशल मीडिया के सुरक्षा बालों को बद्नाम करने के अपने तरीके हैं।

कहानी का दूसरा पहलु भारतीय सेना है, जिनकी तस्वीरों के साथ छेड़ छाड़ कर उन्हें फोटोशोप के ज़रिये हमेशा ज़ुल्म करते हुए दिखाया जाता है।

हालाँकि मानवाधिकारों के उल्लंघन को मीडिया के ज़रिये सामने लाना ज़रूरी है लेकिन साथ ही ज़रूरी है कि मीडिया सुरक्षा बलों की सतर्कता, उनकी कार्यवाई को भी दिखाए। साथ ही ये भी बताया जाना चाहिए कि सुरक्षा बल हमेशा किसी भी छानबीन का स्वागत करती रही है। लेफ्टिनेंट उमर फ़याज़, राइफलमैन औरंगजेब और पुलिस अफसर अयूब पंडित उसी कश्मीरी समाज का हिस्सा हैं, लेकिन उनपर बहुत कम बहस मीडिया में हुई और कोई नारेबाजी भी नहीं हुई। बदकिस्मती से वो इस विचारधारा या पटकथा में फिट नहीं बैठते जो न सिर्फ आतंकी गीतों ने बल्कि नेशनल मीडिया ने तस्वीरों के ज़रिये फैलाई गयी हैं। वो कश्मीरी समाज का सकारात्मक पहलु दिखाते हैं, जिसे जानना समाज के लिए ज़रूरी है। भारत के हित में उठने वाली इन आवाज़ों की सुरक्षा भी ज़रूरी है, क्यूंकि इन्हीं में आगे आने वाले दौर में कश्मीरी युवा और भारत सरकार के बीच संवाद का रुख तय करने की क्षमता है।

भारतीय सुरक्षा बल अपने विश्वास पर अडिग है, स्वयं से पहले सेवा। कश्मीर में युद्ध की रेखा खिंची है बुरहान वानी के भक्तों और लेफ्टिनेंट फ़याज़ जैसे वीरों के बीच। कौन सी कहानी पर विश्वास करें, किस तस्वीर को लोगों तक पहुंचाएं और कौन सा रास्ता चुनें ये कश्मीर को तय करना है।

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